प्यार और अपनत्व को पाकर सहज ही कृतज्ञता और कृतृत्यता की अनुभूति होती है। विगत दिनों की अस्वस्थता के दौरान अपना मन भी परिजनों की संवेदना के अमृत सिंचन से इन्हीं भावों में भीगता रहा है। अब तक हजारों की संख्या में प्राप्त पत्रों और टेलीफोन सन्देशों में आत्मीय परिजनों की व्याकुलता, चिन्ता और तरह-तरह की आशंकाओं की झलक मिलती रही है। इसके समाधान में पहले तो कुछ दिनों तक यही उचित समझा गया कि उनमें से हर एक को व्यक्तिगत पत्र लिखकर शंका का समाधान कर दिया जाय और उनकी संवेदना से अभिभूत अपने मनोभावों को उन्हें बता दिया जाय लेकिन जब पत्रों का अम्बार बढ़ता चला गया तो मिशन की ओर से प्रति मास प्रेमी स्वजनों को भेजी जाने वाली ‘पाती’ अखण्ड ज्योति में अपने उद्गारों को व्यक्त करना एक विवशता बन गयी।
पीड़ा भी प्रभु का वरदान है। पहले इस कथन की यत्किंचित् अनुभूति ही हुई थी। लेकिन विगत डेढ़ मास में इस तत्व की कहीं अधिक सघन और ठोस अनुभूति करने को मिली। पीड़ा के इन क्षणों में चेतना के आवरण प्याज के छिलकों की भाँति एक के बाद एक करके उतरते चले गए जिन्दगी अनुभूतियों का पिटारा है, कड़वे कसैले, मृदु-सुस्वादु सभी तरह की अनुभूतियों से भरे क्षण-हरेक की जिन्दगी में आते हैं। अथवा यों कहें कि जीवन इन मनोरम और डरावनी पगडंडियों से गुजरता है। उसे गुजरने के लिए मजबूर होना पड़ता है। एक ही हमें अभिलाषा रहती है दूसरे से हम कतराना चाहते हैं। एक प्रिय लगता है दूसरा अप्रिय। यह सब आखिर क्यों ?
इन सवालों का जवाब मुझे इन्हीं दिनों मिला। यों पिछले ढाई वर्षों से मुझे पीठ के नीचे दर्द की तकलीफ थी, किन्तु किसी तरह गुरुसत्ता के आशीर्वाद से काम चलता रहा एवं अश्वमेध/मिशन के विस्तार का कार्यक्रम प्रथम पूर्णाहुति तक सरलता पूर्वक सम्पन्न होता रहा। इस बीच शरीर पर अत्यधिक दबाव पड़ने के कारण मार्च-अप्रैल माह में डिस्क प्रोलेप्स तकलीफ बढ़ने के कारण दिल्ली के अपोलो अस्पताल में भरती होना पड़ा इसी दौरान अनेकों की अनेकों तरह की शंकाएं उभर कर आयीं। “जिनके काम में आप दिन-रात व्यस्त रहते हैं। वे समर्थ प्रभु आपको बिना किसी बाहरी सहायता के स्वस्थ क्यों नहीं कर देते ?” आप जैसे नजदीकी एवं अनन्य शिष्य पर यह आकस्मिक आपत्ति क्यों ? इन सवालों के ढेरों बौद्धिक उत्तर मेरे पास थे। अपने व्यापक अध्ययन के दौरान पढ़े गए अनेकानेक घटना प्रसंगों की स्मृति भी मुझे थी जिनका उल्लेख करके शंकाओं का समाधान सम्भव था। पर वह तो मात्र बौद्धिक कुशलता होती। जबकि मेरा हृदय समाधान के उन स्वरों को खोज रहा था, जो सम्बोधि की गहराई में पनपे हों।
तभी 13 अप्रैल को आपरेशन का क्षण आ गया। सवा आठ बजे प्रातः चिकित्सक के एनेस्थीसिया देने के साथ ही मेरा मन अवचेतन में विचरण करने लगा। ऑपरेशन और एनेस्थीसिया के मेरे पूर्व अनुभव भी हैं । लेकिन अबकी बार खासियत यह रही कि चेतना अवचेतना में खोई नहीं, उसने धीरे-धीरे अचेतन की परतें पर कर लीं। अतिचेतन का प्रवेश द्वार खुल गया। गम्भीर शान्ति नीरवता व प्रकाश के साम्राज्य में परम पू0 गुरुदेव एवं वन्दनीया माताजी की वात्सल्य बिखेरती मनोहर छवियाँ मेरे सामने थीं। वाणी और शब्दों से परे भावों का आदान-प्रदान होता रहा। प्रश्न मिट गए, शंकाएँ जाती रहीं। इस गहरी समाधि की सी दशा में वह सब कुछ अनुभव हुआ जिसे हजारों लाखों पुस्तकों से भरे पुस्तकालय में खोज पाना असम्भव था।
मीरा के विषपान एवं ईसा की सूली के रहस्यों का खुलासा हुआ। भक्तों-सन्तों एवं धार्मिक लोगों के कष्ट पूर्ण जीवन का भेद समझ में आया । यह बात पता चली कि चेतना के उन्नत स्तर पर छलाँग लगाने के लिए जीवात्मा किस तरह स्वयं को कष्ट में डालती है। इसके साथ ही शरीर और मन की प्रकृति के बारे में बहुत सारे नये तथ्यों का पता चला जो मेरे जैसे चिकित्सा वैज्ञानिक के लिए भी अलौकिक एवं अनूठे थे। ज्ञान के इस खजाने को हासिल करने के साथ ही बाह्य जगत के प्रति सचेतनता आयी बेहोशी जाती रही। तकरीबन साढ़े पाँच घण्टे की आपरेशन की व उसके बाद की अवधि बहुत ही आश्चर्यकारी अनुभूतियों को अपने में समेटे रही।
जीवन की सामान्य क्रियाएँ तो आपरेशन के तुरन्त बाद ही शुरू हो गयीं थीं। आठ दिन बाद ही दिल्ली के इस अपोलो अस्पताल से शान्ति कुँज की वापसी भी हो गयी। 3 से 6 माह तक बिस्तर पर ही लेटे रह काम करते रहने का चिकित्सकों का निर्देश भी मिल गया। इतने बंधनों के बाद भी मन अपने आराध्य की स्मृति में अभी भी पुलकित एवं प्रफुल्लित है। महात्मा कबीरदास की वाणी कितनी सार्थक है-
गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट। अन्तर हाथ सहाय दै, बाहर मारत चोट॥
हमारी खीज, असन्तुष्टि, शिकायतें सम्भवतः इसीलिए बनी रहती है क्योंकि बाहरी चोटों की ओर तो हमारा ध्यान जाता है लेकिन आन्तरिक सहायता करने वाले उसके करुणा से भरे हाथों की ओर हम नहीं देखते। अपनी दृष्टि चोटों की ओर कम और उनके हाथों के स्नेह भरे स्पर्श की ओर अधिक टिकी रही।
ऐसा लगा कि बुरी से बुरी परिस्थितियाँ भी यदि प्रभु का वरदान समझकर स्वीकारी जा सकें, उनका उचित उपयोग किया जा सके, तो वे ऐसा कुछ दे जाती है, जिसे दे पाना अच्छी से अच्छी परिस्थितियों के बूते की बात नहीं। हाँ ऐसा करने के लिए हमें गुरु सत्ता पर परमात्म सत्ता पर प्रगाढ़ विश्वास करना होगा। विश्वास मन का एक बहकाव मात्र भी नहीं है। विश्वास एक ऐसी वस्तु है, जो हमारे हृदय में रहती है। हृदय से ही ईश्वर का वास है। विश्वास के सहारे ही उसका सान्निध्य सुलभ है। इसी सान्निध्य के कारण घनीभूत पीड़ा तमाम सारी विस्मयकारी अनुभूतियों का वरदान मुझे दे गयीं। यदि पाठक चाहेंगे तो ज्ञान की इस सम्पदा को समय-समय पर आपस में बाँटते रहेंगे। अभी तो इतना ही कहने का मन है-
सुख के माथे सिल पड़े, नाम हृदय से जाय। बलिहारी वा दुःख की, पल-पल नाम रटाय॥
-प्रणव पण्ड्या