कैसे होगा समन्वय, विज्ञान और अध्यात्म का?-परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी

May 1996

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

एम॰ जी0 एम॰ मेडिकल कालेज, इन्दौर (म0प्र0) में प्रबुद्ध वर्ग के समझ मई, 1970 में दिया गया उद्बोधन पाठकों के लिए प्रस्तुत है। यह बौद्धिक सन्देश ही आगे चलकर ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान का मूलभूत आधार बना; - पढ़ें।

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ--

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्।

मित्रो ! विकास क्रम में आज हम कहाँ जा पहुँचे हैं, आइये जरा इस पर विचार करें। विज्ञान के इस युग में आज से पाँच सौ वर्ष पूर्व का व्यक्ति आदि कहीं हो और वह आकर हमारी इस दुनिया को देखे तो कहेगा कि यह कितने अचंभे की दुनिया है, यह भूत-पलीतों की दुनिया है। यदि वह सड़कों पर, रेल पटरियों पर जायेगा तो वहाँ से भाग खड़ा होगा, क्योंकि लोहे की पटरियों पर भागने वाली रेलगाड़ियाँ और आसमान में उड़ने वाले हवाई जहाज पुराने जमाने के लोगों के लिए अचंभे की बातें थीं। दिल्ली से बोलने वाला व्यक्ति इन्दौर में बैठे हुए व्यक्ति से ऐसे बातें करता है जैसे वह सामने ही बैठा हो। आज के इस विज्ञान की प्रगति के क्या कहने ? उसने टेलीविजन से लेकर न जाने क्या-क्या बना लिया है। एक जमाना था जब तीर कमान से लड़ाइयाँ लड़ी जाती थीं और जब आदमी के शरीर में तीर चुभ जाता था तो उसे निकालने के लिए घोड़े की पूँछ से रस्सी बाँध दी जाती थी और घोड़े को भगा दिया जाता , तब कहीं जाकर तीर बड़ी मुश्किल से शरीर में से बाहर निकलता था। व्यक्ति बच गया तो बच गया - मर गया तो मर गया। पुराना जमाना था। आज मेडिकल साइंस ने - सर्जरी की साँस ने न जाने क्या से क्या चमत्कार दिखा दिये शरीर के भीतर की चीजें दिखाने से लेकर निकाल बाहर करने तक के कितने चमत्कार विज्ञान ने कर दिखायें हैं। यह मनुष्य की बुद्धि का चमत्कार है- विज्ञान का चमत्कार है। यह हमारा जमाना वैज्ञानिक चमत्कारों का जमाना है।

पिछली शताब्दियों में मनुष्य ने जो विकास किया उसकी तुलना में आज की दुनिया कुछ मायने में बहुत आगे है। संसार के बारे में कहा जाता है कि इसको बने हुए दस लाख वर्ष हो गये । इन दस लाख वर्षों में ऐसा वक्त कभी नहीं आया जैसा कि आज हमारे और आपके सामने सुख और सुविधाओं से भरा हुआ है। टेक्नालॉजी और बौद्धिक दृष्टि से हमारा युग और समय कितना प्रगतिशील और समृद्धिशाली है, कहा नहीं जा सकता। पिछले दिन प्रगति के दिन तो नहीं थे, अवसाद के दिन थे, लेकिन गिरावट के दिन तो नहीं ही थे। मनुष्य इतना नीचे कभी भी गिरा नहीं था जितना कि वह आज गिरता हुआ चला जा रहा है। शरीर की दृष्टि से इतना खोखला वह कभी नहीं हुआ जितना कि आज हो गया। आज हमारे लिए एक मील चलना भी मुश्किल हो जाता है। सवारी अगर हमारे पास न हो तो हम किस तरीके से चल सकते हैं ? अपनी अटैची और होल- डाल लेकर किस तरीके से स्टेशन से घर तक पहुँच सकते हैं ? यह बहुत मुश्किल है हमारे लिए। हमारे बुजुर्ग कैसे थे ? मैंने अपने नाना जी को आँख से देखा था जब वे चालीस मील तक सफर करते थे और पूर्णमासी के दिन गंगाजी नहाने जाया करते थे। उन्होंने जवानी के दिनों से ही ये कसम खायी थी कि मैं पूर्णमासी के दिन गंगा जी नहाने अवश्य जाया करूंगा। चालीस मील दूर हमारे गाँव से गंगा है। हमारे नाना जी सबेरे सफर करने के लिए निकलते थे और रात में ही गंगाजी जा पहुँचते थे। सबेरे स्नान किया और वहाँ से रवाना होकर चालीस मील दूर शाम को घर आ जाते थे। अस्सी मील का दो दिन का यह सफर आज हमारे लिए मुश्किल है, आज हम नहीं चल सकते। शारीरिक दृष्टि से हम दुर्बल होते हुए चले गये।

दांपत्य जीवन जिसमें कि सुख और सौभाग्य की गरिमाएँ रहती थीं; और संतोष की धाराएँ बहती थीं; जहाँ एक-दूसरे के प्रति निष्ठा और विश्वास का क्या कहना। रामायण में एक प्रसंग आता है जब लव-कुश ने देखा कि हनुमान जी और लक्ष्मण जी अश्वमेध के घोड़े को लिए चले जा रहे हैं तो उन्होंने पूछा आप लोग कौन हैं ? उत्तर मिला मैं लक्ष्मण हूँ और मैं हनुमान हूँ। उन्होंने कहा- आप वही लोग हैं जिन्होंने हमारी माँ को जंगल में वनवास में अकेला और असहाय छोड़ दिया था। लक्ष्मण ने आँखें नीची कर लीं। बच्चों ने कहा अच्छा तो हम अब आपको इसका मजा चखाते हैं। बस लव-कुश ने हनुमान जी को पकड़ लिया और उनकी पूँछ पेड़ से बाँध दी। लक्ष्मण जी को भी पकड़ा और एक रस्सी से पेड़ से बाँध दिया और माँ के पास गये। माँ से कहा-माँ ! तो यही वे आदमी हैं जिन्होंने आपको जंगल में अकेला छोड़ दिया था। माँ ! हम इनको अब मजा चखाते हैं। माँ ने कहा-नहीं बच्चों ! ये तुम्हारे पिता के भाई हैं और तुम्हारे पिता के प्रति मेरी कितनी गहन निष्ठा है, तुम नहीं जानते मुझे वनवास में किस लिए छोड़ा गया ? संसार के इतिहास में दाम्पत्य जीवन के आदर्श उपस्थित करने के लिए। तुम्हारे लिए यह मुनासिब नहीं कि अपने बुजुर्गों का अपमान करो, इनको छोड़ देना चाहिए। राम ने जब मुझे वनवास भेजा था तब भी उनका मन-मेरा जीवन, मेरा स्वरूप और मेरे आदर्श विश्व के सामने एक अभूतपूर्व उदाहरण रखते का था। उन्होंने कष्ट उठाये तो क्या, पर पुराने जमाने के दाम्पत्य जीवन की आज के हमारे दाम्पत्य जीवन के तुलना नहीं हो सकती। आज जिसकी आग में सारा विश्व जल रहा है। यूरोप जल चुका, अमेरिका जल चुका और वही आग धधकती हुई हमारे हिन्दुस्तान की तरफ बढ़ती चली आ रही है। रूप का भूखा मनुष्य, धन का भूखा मनुष्य, सेक्स का भूखा मनुष्य, दाम्पत्य जीवन के महान आदर्शों को भूलता हुआ चला जा रहा है और सारी दुनिया में एक तहलका मचता चला जा रहा है। श्मशान के तरीके से मनुष्य जलता चला जा रहा है। हर वक्त लम्बी चौड़ी प्रेम की चिट्ठी लिखी जाती रहती है और लम्बे चौड़े आश्वासन दिये जाते रहते हैं लेकिन यकीन नहीं होता किसी स्त्री को कि छः महीने बाद हमारे गृहस्थ जीवन का क्या होगा? इसी तरह किसी मर्द को यकीन नहीं होता कि छः महीने बाद हमारे गृहस्थ का क्या होगा ? लम्बे-चौड़े प्रेम-पत्रों को लिखे जाने के बावजूद हर मनुष्य इतना अशान्त होता हुआ चला जा रहा है।

अमेरिका जैसे सम्पन्न देश में जहाँ हमारे बच्चे भाग करके वहाँ न जाने क्या-क्या सीखने जाते हैं। वहाँ की जितनी प्रशंसा की जाय कम। लेकिन वहाँ का दांपत्य जीवन व गृहस्थ जीवन इतना जटिल और घटिया होता चला जा रहा है। आदमी के मस्तिष्क पर टेन्शन ही टेन्शन सवार रहता है। सारी रात वहाँ आदमी को चैन नहीं पड़ता । ट्रेंक्युलाइजर की गोलियाँ खाकर लोग रात गुजारते हैं। ब्लड प्रेशर, हार्ट डिजीज, डायबिटीज न जाने क्या-क्या बीमारियाँ घेरे रहती हैं। खाने की चीजों का ठिकाना नहीं। मेरा एक मित्र है, कहता है- हम पानी नहीं पीते, यहाँ बराबर फलों के जूस की बोतलें आती रहती हैं और सारे दिन हम पानी की जगह पर फलों का जूस पीते रहते हैं। पहले आदमी सूखी रोटी खाकर के सुख चैन की साँस लिया करता था और विश्वास दिलाया करता था कि हम सुखी लोगों में से हैं, पर अब हमारा दाम्पत्य जीवन न जाने कैसा है ? हमारे गृहस्थ जीवन में न जाने कैसी लग गई आग? हमारे बच्चे अभिभावकों के प्रति जैसे निष्ठावान होने चाहिए थे, नहीं हैं। अब श्रवण कुमार की सिर्फ कहानियाँ है। ये चाहें तो आप पढ़ सकते हैं ; चाहें तो आप सुन सकते हैं। आपको श्रवण कुमार देखने का सौभाग्य अपने घर में अब नहीं मिल सकता। आपको रामायण काल की कहानी किताब में पढ़नी चाहिए, पर आपको ये उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि आपके घर में बच्चे राम और सीता जैसे हों। पर पिता का मन संदेह से भरा हुआ पड़ा है कि हमारे पाँच बच्चे हैं लेकिन बड़े होने पर न जाने क्या होगा ? हमारा सामाजिक जीवन, राष्ट्रीय जीवन, हमारा आर्थिक जीवन कितना जटिल और कितना जकड़ा हुआ बनता चला जा रहा है। विज्ञान की प्रगति के बावजूद, धन की प्रगति के बावजूद इनसान के लिए एक अजीब समस्या उत्पन्न होती चली जा रही है। इसे आपको समझना पड़ेगा, इस पर विचार करना पड़ेगा कि ऐसा आखिर क्यों है ?

मित्रो ! आप लोगों के ऊपर, नई पीढ़ी के ऊपर वो जिम्मेदारियाँ आ रही हैं, आयेंगी और आनी चाहिए। आप लोगों को व्यक्तिगत जीवन, राष्ट्रीय जीवन, सामाजिक जीवन और आर्थिक जीवन की कठिनाइयों को हल करना पड़ेगा। आप लोगों में से अधिकाँश को वह रोल अदा करना पड़ेगा जो कि राष्ट्रीय जीवन और व्यक्तिगत जीवन को विकसित करने के लिए किया जाना चाहिए। जिम्मेदारियाँ अपनी जगह पर रहेंगी और इसके लिए श्रम बहुत करना पड़ेगा। आज राष्ट्र के सामने, व्यक्ति के सामने अनेकानेक समस्यायें हैं, जो यह कहती हैं कि हमको हल किया जाय। किस तरीके से हल किया जाय मैं आपको एक छोटा का फार्मूला देकर जाना चाहता हूँ। आप लोगों में से किसी आदमी को खासतौर से विद्यार्थियों को अगले दिनों कुछ जिम्मेदारियों के वजन अपने कंधे पर उठाने पड़ेंगे और आप लोगों को वे काम करने पड़ेंगे जो कि राष्ट्र निर्माताओं को करने पड़े हैं। तब आपको किस आधार पर व्यक्ति का निर्माण, समाज का निर्माण, राष्ट्र का निर्माण और आज की उलझी हुई समस्याओं को हल करने के लिए क्या करना होगा ? इसके लिए एक फार्मूला यह है कि व्यक्ति को अपने अन्तःकरण में प्रवेश करना पड़ेगा। समस्याओं के हल बाहर नहीं, बल्कि भीतर तलाश करने पड़ेंगे। समस्याएँ बाहर से पैदा नहीं होतीं। समस्यायें भीतर की हैं और बाहर दिखायी पड़ती हैं। आदमी अपने भीतर से समस्याएँ पैदा करता है और बाहरी जीवन में वे केवल प्रस्तुत हो जाती हैं। मेरे भीतर एक रूह काम करती है। मेरा एक तार काम करता है। वही काम कर रहा है भाषण वही दे रहा है, पुस्तकें उसी ने लिखी हैं, समाज के नव निर्माण के ख्वाब उसी ने देखे हैं। बाहर जो भी क्रिया-कलाप आप देखते हैं वह बाहर का नहीं है मेरे भीतर के अंतरंग-चेतना के हैं। समस्याओं के बारे में भी यही बात है। बीमारियाँ भी बाहर से दिखाई पड़ती हैं, बुखार बाहर से आया मालूम पड़ता है, खाँसी बाहर से खाँसने में दिखाई पड़ती है पर वस्तुतः वह भीतर से पैदा होती है।

समस्यायें वे उलझनें हैं जिन्होंने हमारे राष्ट्र को, समाज को, व्यक्ति को और सारे विश्व को जकड़ कर रखा है। ये हमारे भीतर से पैदा हुई है। मैं आपसे एक निवेदन करना चाहता हूँ कि जब आपको इनके समाधान ढूँढ़ने पड़े तो सिर्फ आपको बाहर की ओर ही नहीं, भीतर की ओर भी गौर करना चाहिए कि मनुष्य का व्यक्तित्व और समाज का अंतरंग कहीं गड़बड़ तो नहीं हो गया। यदि गड़बड़ हो तो उसे सुधारने की कोशिश करनी चाहिए। समाज की और व्यक्ति की उलझी हुई समस्याओं को हल करने के लिए बाहरी उपचार करना ही काफी नहीं है। इलाज की सामग्री ढूंढ़ी जानी चाहिए, रिसर्च की जानी चाहिए कि दवाइयों के द्वारा बीमारियों से छुटकारा कैसे पाया जाय ? आदमी की सेहत को कैसे अच्छा बनाया जाय ? लेकिन आपको ये भूलना नहीं चाहिए कि अंतरंग जीवन अगर सुव्यवस्थित न हो सका तो हमारे स्वास्थ्य की समस्या नहीं हल हो सकेगी।

सेण्डो का नाम आपने सुना होगा जिसकी की सैण्डोकट बनियान अक्सर पहनी जाती है। अपने जमाने में वह यूरोप का एक ख्यातिप्राप्त पहलवान हुआ है। एक समय था जब पहलवानों में सेण्डो का नाम पहले लिया जाता था। अब तो दूसरे लोग भी हो गये हैं। बचपन में वह बीमार रहा करता था- सर्दी-जुकाम से पीड़ित रहा करता था। अपने पिता के साथ एक दिन वह म्यूजियम देखने गया। वहाँ पहलवानों की तस्वीरें देखकर पूछा-पिताजी क्या मैं भी पहलवान बन सकता हूँ ? पिता ने कहा हाँ ! ये सुनकर जिज्ञासा भरे स्वर में सैण्डो ने कहा - पिताजी बताइये हमको पहलवान बनने, मजबूत बनने के लिए क्या करना चाहिए ? उन्होंने कहा- बेटे मजबूत के सारे आधार, दीर्घ जीवन के सारे आधार मनुष्य के भीतर सन्निहित हैं, पर आदमी इस चीज को भूल गया। आदमी अगर अपनी भूलों को सुधार सके तो बेहतरीन स्वास्थ्य प्राप्त कर सकता है। बेटे ! हमने अपना पेट खराब कर डाला। खुराक से ज्यादा खाकर और वे चीजें खायीं जो हमारे मुनासिब नहीं थीं। इन्द्रियाँ हमारे लिए काम करने को थीं, पर हर इन्द्रिय के भीतर से हमने अपनी शक्ति का इतना हिस्सा खर्च कर डाला जितना कि पैदा नहीं होता था। हमने अपने दिमाग को इस तरीके से चिन्ताओं से, दूसरी चीजों से उलझाये हुए रखा कि हमारे स्वास्थ्य को नियंत्रित करने वाला नर्वस सिस्टम अस्त व्यस्त हो गया। हम इन तीन बुराइयों को अगर दूर कर सकें तो लम्बी जिन्दगी जी सकते हैं और कोई भी आदमी पहलवान बन सकता है। पिताजी ! हमें दवा खाने की जरूरत नहीं है ? उन्होंने कहा- नहीं बेटा दवाएँ तो सिर्फ बीमारियों को ठीक करने के लिए हैं। ये टेम्पोरेरी एनर्जी दे सकती हैं। किसी आदमी को मजबूत व दीर्घजीवी बनाने के लिए दवाएं कारगर सिद्ध नहीं हो सकतीं। अगर दवा कारगर रही होतीं तो जितने भी डाक्टर हैं वे दूसरे लोगों का इलाज करने से पहले अपना इलाज करते और जन सामान्य से बेहतरीन एवं पहलवान दिखायी देते। सैण्डो ने स्वास्थ्य के उन नियमों का जिनको मैं अध्यात्म का अंश कहता हूँ पालन किया और पहलवान बना।

आप इसको संयम कहिए। शब्दों से क्या होता है ? मुझे उसको अध्यात्म कहने दीजिए। जुबान का संयम , इन्द्रियों का संयम, मस्तिष्क की विचारधाराओं का संयम, उठने-बैठने का संयम और अपने आहार-विहार का संयम, अगर आदमी इतना कर सकता हो, तो उसकी सेहत ठीक की जा सकती है। पुराने जमाने में डॉक्टर भी नहीं थे। तब तो कोई-कोई हकीम जड़ी-बूटी, नीम की पत्ती और काली मिर्च बताने वाले ही पाये जाते थे। इन्हीं से बीमारियाँ अच्छी हो जाती थीं। इन सारी वजहों में एक वजह ये है कि आदमी अपने आपको खोखला बनाता हुआ चला जा रहा है। आप नई पीढ़ी के लोगों में से संभव है किसी को राष्ट्र का स्वास्थ्य मंत्री बनना पड़े। तो मैं आपसे एक निवेदन करके जाना चाहता हूँ कि चाहे आप अस्पताल खुलवाना, मेडिकल साइंस पर रिसर्च कराना, पर ये मत भूलना कि आदमी के स्वास्थ्य का मूलभूत आधार संयम ही होता है ? जिसको हमने कई बार आध्यात्मिकता कहा है और पुराने लोग पुकारते थे- संयमशीलता ! संयमशीलता लोगों को सिखायी जानी चाहिए। बेहतरीन स्वास्थ्य और स्वास्थ्य की समस्या का हल निश्चित रूप से इस बात पर टिका हुआ है कि आदमी अपने आहार-विहार, इन्द्रियों और दिमाग के इस्तेमाल, पेट के इस्तेमाल के बारे में, पुनः जाने, इनको ठीक तरीके से काम में लायें। आप लोगों को कभी स्वास्थ्य मंत्री बनना पड़े तो मेरे इस छोटे से नाचीज फार्मूले को याद रखना।

एक अन्य दूसरी बात की ओर भी मैं आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ कि हमारे कहने के अनुसार प्लानिंग की जाय और इसकी एक योजना बनायी जाय और हर आदमी को सिखाया जाय कि आपको गृहस्थ बनने से पहले सौ बार विचार करना चाहिए कि आप बच्चों की जिम्मेदारी उठाने में समर्थ हैं या नहीं। आप अपनी पत्नी को वह स्नेह और प्यार देने में समर्थ हैं, जिसके आधार पर वह नन्हा सा फूल नन्हा सा पौधा, जो आपके अन्दर वह योग्यता है क्या ? इंसान की खुराक अनाज नहीं, रोटी नहीं, दूध नहीं, ये सिर्फ जिस्म की खुराक है। आदमी जिस्म नहीं है। आदमी में शरीर के अलावा भी एक चीज है- जिसको जीवात्मा कहते हैं और रूह कहते हैं और वह जीवात्मा प्रेम की मुहब्बत की प्यासी है। प्रेम और मुहब्बत धर्मपत्नी को नहीं मिल सके तो उसकी प्रतिक्रियाएँ लत होती चली जायेंगी और हमारे घरों में वह निष्ठाएँ पैदा न हो सकेंगी जो कि छोटे-छोटे घरोंदों को छोटे-छोटे किराये के मकानों को ऐसा बेहतरीन बनाती हैं जिस पर स्वर्ग न्यौछावर किया जा सके। दो आदमी का स्नेह एक और एक मिलकर ग्यारह हो सकते हैं। राम और लक्ष्मण मिलकर दो नहीं थे एक और एक ग्यारह थे। जानदार चीजें एक और एक दो नहीं होती, एक और एक मिलकर ग्यारह होती हैं- अगर उनके भीतर निष्ठाएँ हों और एक-दूसरे के प्रति वफादारी हो। हमारे दाम्पत्य जीवन- हमारे गृहस्थ जीवन गरीबी में भी सुख के आधार बन सकते हैं और एक दूसरे से इतना प्रसन्न-संतुष्ट रह सकते हैं इसका कोई ठिकाना नहीं।

यूरोप में एक गरीब दम्पत्ति थे। विवाह का दिन आने वाला था। दोनों एक-दूसरे को उपहार देने के इच्छुक थे, पर साधन कैसे जुटायें ? पति के दिमाग में बहुत दिनों से ख्वाब था कि अपनी स्त्री के सुनहरे रेशम जैसे बालों के लिए सोने की क्लिप लाकर दूँ और पत्नी का मन था कि विवाह के दिन अपने पति की घड़ी के लिए सोने की चेन लाकर दूँ, लेकिन दोनों की जेबें खाली थीं। स्त्री बालों के व्यापारी की दुकान पर गयी और बाल बेचकर घड़ी की चेन खरीद लाई। उधर उसका पति अपनी घड़ी बेचकर क्लिप खरीद लाया। विवाह का दिन आया तो पति ने पत्नी से कहा, “हम आपके लिए सोने की क्लिप लाये हैं पर आपने सिर पर रुमाल क्यों बाँध रखा है ? इसे खोलिए हम आपके बालों में क्लीप लगायेंगे।” पत्नी बोली हम आपके लिए घड़ी की चेन लाये हैं लेकिन आज आपके हाथ पर ये रुमाल कैसे बंधा है ? दोनों ने एक- दूसरे के रुमाल खोले तो देखा कि बाल कटे हुए हैं और कलाई खाली। एक के हाथ में चैन ; दोनों की आँखों में वफादारी और एक-दूसरे के प्रति निष्ठा के आँसू बहने लगे। भाइयों, जिन लोगों में इस तरह की भावनायें- निष्ठायें हैं, वहाँ हम यही कह सकते हैं कि दाम्पत्य जीवन में स्वर्ग आ गया।

एक और अभी थोड़े दिनों पूर्व झाँसी की घटना है। एक आदमी का विवाह हुआ बीबी घर में आयी और तीन महीने स्वस्थ रही। उसके बाद उसे टी0 बी0 हो गयी, भगवान की माया ! बाईस साल तक वह स्त्री जिन्दा रही। टी0 बी0 से हालात ऐसी हो गयी थी कि उस को करवट लेना तक मुश्किल हो गया था। लेकिन उसके पति का एक ही काम था। आफिस जाने से पहले स्त्री को नहलाना, कपड़े साफ करना, सिर में कंघी करना, शाम को आकर फिर घर का सारा काम करना, उसका सारा का सारा समय उसी में चला जाता था। मित्रों ने कहा- आप सिनेमा नहीं जाते ? उसने कहा- हमारी बीबी बीमार है और मैं उसकी सेवा वफादारी से करता हूँ। इससे अधिक संतोष कहाँ मिल सकता है। सिनेमा में क्या है जिसे देखकर चैन और खुशी प्राप्त हो सके। उसमें भी तो हम यही देखने जाते हैं कि हमारा दाम्पत्य जीवन खुशहाल कैसे हो ? मेरी कर्तव्यपरायणता देखकर जब उसकी आँखों में से आँसू की बूँदें ढुलक पड़ती हैं तो मैं तो ये समझता हूँ कि ये हीरे मोती से ज्यादा बड़े उपहार है और जब उसकी हालत देखकर मेरी आँखों में मुहब्बत के आँसू छलक उठते हैं तो वह समझती है कि स्वर्ग उस पर न्यौछावर हो गया ?

साथियों ! पारिवारिक जीवन की सुख-शान्ति शक्ल सूरत पर नहीं टिकी है, ये तो आदमी की सीरत पर टिकी है, ये तो आदमी की सीरत पर टिकी हुई है। मनुष्यों को कहिए जब आपको विवाह करना पड़े तो सूरत देखने की अपेक्षा सीरत और रंग देखने की अपेक्षा उसकी भावनाओं को देखना पसंद करें। अपने साथी का ‘कष्ट’ ढूँढ़ने की अपेक्षा गुण-कर्म और स्वभाव ढूँढ़ना पसंद करें। अगर आप को बच्चों के निर्माण की राष्ट्रीय जिम्मेदारी उठानी पड़े, अगर आपके पास मुहब्बत है तो आप बच्चे पैदा करने से पहले यह भलीभाँति समझ लें कि बच्चे के विकास के लिए खुराक काफी नहीं हैं बोर्नविटा काफी नहीं हैं, अच्छे कपड़े काफी नहीं हैं स्कूलों के जलखानों में भेज देना काफी नहीं है। इन जलखानों में बच्चे सिर्फ एटीकेट सीख सकते हैं। कपड़े की क्रीज कैसे खराब हो जाती है ? कैसे ठीक रखी जा सकती है, ये सभ्यता और शिष्टाचार सीख सकते हैं, पर उनका भावात्मक विकास नहीं हो सकता ? क्योंकि जिन माँ- बाप के मनों में परिवार के प्रति, एक दूसरे के प्रति प्यार-मुहब्बत और आदर्श कर्तव्यनिष्ठा भरी है, उनके व्यवहार से ही बच्चे में भावनात्मक विकास हो सकता है। आज परिवारों में इनका अभाव है। इंग्लैण्ड और अमेरिका में ऐसे बहुत सारे बच्चे पैदा होते हैं जिन्हें मां - बाप संभालने की स्थिति में नहीं होते और उन्हें अनाथालय में भर्ती करा दिया जाता है। सरकार उनको बेहतरीन शिक्षा , बेहतरीन खुराक देती है। फिर भी प्यार- मुहब्बत की कमी से उनका भावनात्मक विकास नहीं हुआ। इसीलिए जो सरकारी अनाथालयों में पाले गये, उनमें से कोई भी बच्चा राष्ट्र का कर्णधार नहीं हो सका, कोई भी महापुरुष नहीं हुआ, कोई लेखक-कवि नहीं हुआ। अधिकाँश आदमी उनमें से फौजी होते हैं। ये वही व्यक्ति हैं जिन्होंने मुहब्बत को नहीं पिया। आदमी को मुहब्बत पिलायी जानी चाहिए, खासतौर से बच्चों को, बोर्नविटा नहीं !

मुहब्बत अगर हम पिला सकते हों तो हमारे बच्चे बेहतरीन राष्ट्र निर्माण के लिए कितने उपयोगी और व्यक्ति के लिए कैसे उपयोगी बन सकते हैं, इसका एक छोटा सा उदाहरण मैं आपको सुनाता हूँ। विनोबा भावे की माँ को अपने बच्चे भी पालने पड़े और अपने पड़ोसी का एक बच्चा भी। उनकी पड़ोसिन एक बच्चा दे गयी और कह गयी थी कि अब हम दुनिया से जा रहे हैं, मेरे बच्चे का तुम पालन करना। विनोबा भावे की माँ उस बच्चे का भी पालन करने लगी उसको वे घी से चुपड़ कर गरम-गरम रोटी खिलाती थी और अपने बच्चों को सूखी और बासी रोटी। विनोबा ने एक दिन अपनी माँ से पूछा माँ ! हम बच्चे एक जैसे हैं फिर तुम फर्क क्यों करती हो, एक गर्म रोटी खिलाती हो और एक को ठण्डी। एक को घी की, एक को बिना घी वाली । इस फर्क का क्या कारण है ? हम बच्चे हैं तो एक जैसा खाना क्यों नहीं देतीं ? माँ ने कहा बेटे ये मेरी पड़ोसिन का बच्चा है, इसलिए ये भगवान का बच्चा है। तु मेरा बच्चा और तेरे साथ मेरी ममता जुड़ी हुई है, और इसके साथ भगवान की जिम्मेदारियाँ जुड़ी हुई हैं। क्योंकि एक माँ अपने बच्चे को मेरी गोद में सौंप कर गयी थी, सो भगवान के बच्चे के लिए जो करना चाहिए मैं वही इसके साथ करती हूँ। मुहब्बत से भरी विनोबा की माँ उस बच्चे का पालन करती रही, उनने स्वार्थ को नहीं देखा। विनोबा जी की जीवन कथा में लिखा है कि सुबह के वक्त जब माँ चक्की पीसती थी, मैं उनके पास जाता था और मुझे भूख लग आती थी तो जो चने वे पीसती थीं, उसी को खाकर रह जाता था। विटामिन ए, विटामिन बी और विटामिन सी प्राप्त नहीं कर सके विनोबा जी। लेकिन भोजन के साथ-साथ वह खुराक खाते रहे जो कि इनसानी खुराक है- मतलब मुहब्बत ! अगर आपके पास वह मुहब्बत है तो आपको बच्चे पैदा करने चाहिए, बच्चों के निर्माण पर ध्यान देना चाहिए अन्यथा नहीं ! ईसा मसीह से एक आदमी ने पूछा आपने भगवान देखा है ? उन्होंने कहा- हाँ, तो दिखाइये। ईसा एक छोटा बच्चा उठाकर ले आये, और बोले यही भगवान है। इसका मन निर्मल, भावनायें निश्छल हैं, काम, क्रोध, मद मोह, मत्सर इत्यादि बुराइयों से यह बचा हुआ है। जो इनसान इन बुराइयों से बचा हुआ है। जो इनसान इन बुराइयों से बचा हुआ है उसे भगवान होना चाहिए और इनसान के रूप में भगवान देखना हो तो ये बच्चा है।

बच्चों के पालन के लिए जो निष्ठायें और वफादारी होनी चाहिए थीं, वह हमारे पास नहीं हैं। यही कारण है कि हमारे बच्चे बागी हो गये। बच्चा बैठा था इन्तजार में कि पिताजी आयेंगे, बन्दर-भालू और खरगोश की कहानियाँ सुनाएंगे, गोदी में लेंगे, कंधे पर बिठाएंगे, घुमाने ले जायेंगे और पिताजी साइकिल से आये। बच्चे दौड़े पापा आ गये, किसी ने पायजामा पकड़ा किसी ने कुर्ता और उछलने लगे और पत्थर जैसे हम बच्चों को डांटने फटकारने लगे- भागों यहाँ से सारे कपड़े गन्दे कर दिये। बच्चे सहम कर माँ की गोद में छिप गये सोचा शायद माँ आँखों के आँसू पोंछ देगी। पिता ने कहा- इन शैतानों को संभालो, हमें सिनेमा जाना है, क्लब जाना है। जिन बच्चों ने स्नेह पाया ही नहीं, उनका विकास कैसे होगा ? हम शिकायत करते हैं बच्चे अनुशासनहीन है, कहना नहीं मानते, बुजुर्ग की इज्जत नहीं करते और मास्टरों को धमकाते हैं, युनिवर्सिटी के शीशे फोड़ देते हैं और यह नहीं करेंगे तो और क्या करेंगे बेचारे। छोटेपन से यही देखा और सीखा है। इस रोकने की जिम्मेदारी मास्टरों, अध्यापकों की नहीं, वरन् उन लोगों की है जिन्होंने बच्चे पैदा किये, किन्तु उससे पहले ये नहीं सोचा कि हमारे पास मुहब्बत नहीं है तो भगवान को क्यों बुलाएं। ये विचार करना चाहिए था कि लोहे के दिल, पत्थर के दिलवाले, हम विलासी और कामी व्यक्ति बच्चों की जिम्मेदारी नहीं उठा सकते। ऐसे लोगों को यह कहना चाहिए कि भावी नागरिकों को महापुरुषों के रूप में विकसित करना चाहते हों और ये चाहते हों कि हमारे देश के नागरिक महान बनें, ओजस्वी बनें, शक्तिवान बनें, नेता बनें और महत्ता एवं महिमा को लेकर प्रकट हों तो उनके लिए दौलत जमा करना काफी नहीं है, बल्कि उनमें गुणों का विकास ही वह प्रमुख तत्व है जो छोटे और गरीब आदमियों को दुनिया की निगाहों में अजर अमर बना सकता है। छोटे घरों में पैदा हुए मनुष्यों को बादशाह बना सकता है, ऊँचे पदों पर पहुँचा सकता है।

राजस्थान में हीरालाल शास्त्री नाम के 45 रुपये मासिक वेतन पाने वाले एक संस्कृत के अध्यापक हुए हैं। 26 वर्ष की उम्र में उनकी का देहान्त हो गया। लोगों ने कहा- दूसरी शादी कर लीजिए। उन्होंने कहा- पहली पत्नी की सेवा और वफादारी का तो कर्ज चुका नहीं पाया और आप लोग दूसरी शादी की बात करते हैं। वे नौकरी छोड़कर अपनी पत्नी के गाँव में चले गये और निश्चय किया कि इस गाँव की एक लड़की ने मेरी सेवा-सहायता की, मैं इस गाँव की सेवा करूंगा और कन्या पाठशाला खोलने के इरादे से गाँव की लड़कियों को एक पेड़ के नीचे पढ़ाने लगे। कुछ लोगों ने मजाक भी उड़ाया पर वे अपनी निष्ठा पर अडिग रहे। यह देख गाँव के भले लोगों ने छप्पर डाल दिया, बच्चियाँ पढ़ने लगीं। लोगों ने सोचा जो आदमी कष्ट मुसीबतों को सहकर दूसरों की सुविधा और राष्ट्र की प्रगति, गाँव की प्रगति के लिए काम कर रहा है, उसका नाम इनसान के रूप में भगवान होना चाहिए। फिर क्या था- रुपया-पैसा, सोना-चाँदी, लोहा-सीमेंट भागते चले आये और उस स्थान पर वनस्थली नाम का विद्यालय बनकर खड़ा हो गया। हिन्दुस्तान में यह महिला विश्व विद्यालय पहले नम्बर का है जिसमें हवाई जहाज उड़ाने से लेकर स्कूटर चलाने तक और विभिन्न विषयों का प्रशिक्षण दिया जाता है। स्वाधीनता के बाद जब पहली गवर्नमेंट बनायी गयी तो इन्हीं हीरालाल शास्त्री को राजस्थान का मुख्यमंत्री बनाया गया। मनुष्य का आध्यात्मिक विकास इस बात में नहीं कि उसके पास धन कितना है, अय्याशी और विलासिता के साधन कितने हैं ? ये मनुष्य की महानताएँ या प्रगति की निशानियाँ नहीं है। प्रगति की निशानियाँ आदमी के अंदर की हिम्मत और जीवट है जिसके आधार पर आदमी सिद्धान्तों का पालन करने में समर्थ हो पाता है।

कोरिया के एक किसान याँग का नाम सुना है आपने ? जिस तरह हमारा यहाँ गाँधी जी की तस्वीरें घरों में अंगी रहती हैं, दक्षिण कोरिया में याँग की तस्वीर टंगी रहती हैं। नयी फसल जब तैयार होकर आती है तो पहले याँग की पूजा होती है और बाद में अनाज का उपयोग किया जाता है। 1821 में जब कोरिया में अकाल पड़ा उस बुरे समय में लोग भूखों मरने लगे। याँग ने अपने बच्चों और बीबी को बुलाकर कहा- देश में पन्द्रह बीस लाख लोग भूख से तड़प कर मर रहे हैं, हमारे पास अनाज है जिसे खाकर हम जिंदा रह सकते हैं लेकिन अगले वर्ष वर्षा हुई और अगर बीज न मिल सका तो सारे का सारा कोरिया मनुष्यों से रिक्त हो जायगा इसलिए अनाज खाने की अपेक्षा बीज के लिए रखा जाय। अनाज के कोठे को बन्द करके सरकारी बैंक की सील लगवा दी और कहा- वर्षा होने पर जब बीज की जरूरत पड़े तभी इसे खोला जाय। बीबी बच्चों सहित पांचों प्राणी भूखों मर गये वर्षा होने पर बीज को बोया गया और याँग वहाँ का देवता बन गया क्योंकि उसने अपने स्वार्थ और हविश का त्याग किया था।

महानताएं सिखायी जाती हैं, बड़प्पन नहीं। अमीरी नहीं महानता। हमें लोगों के मस्तिष्क बदलना चाहिए। अगर राष्ट्र को महान बनाना हो, व्यक्ति को महान बनाना हो, राष्ट्र को समर्थ और मजबूत बनाना हो तो हमको लोगों से यह कहना चाहिए कि पहले हर व्यक्ति स्वयं बदले, अपने परिवार को बदले तब अपने आस-पास के परिकर को बदले। दुनिया बदल रही है- सुधर रही है, ऐसे में हम कैसे बच सकते हैं ? हमको महत्वाकाँक्षायें नहीं, जगानी चाहिए। आज आदमी के भीतर महत्वाकांक्षा भड़क गयी है। हर आदमी महत्वाकाँक्षी है और बड़ा आदमी बनना चाहता है- अमीर बनना चाहता है। मैं खुशहाली और अमीरी के खिलाफ नहीं हूँ, लेकिन मैं यह कहता हूँ कि अमीरी ही काफी नहीं है। अमीरी के साथ-साथ मनुष्य के भीतर जो महानताएं प्रसुप्त पड़ी हैं, उन्हें भी जगाया जाना चाहिए जैसे इंग्लैण्ड के नेलसन एवं जापान के गाँधी कागावा ने अपने भीतर से जगायी थी।

नेलसन इंग्लैण्ड की सेना में एक सामान्य सिपाही था, किन्तु जब उसने देखा कि उसके देश की सेनायें बुरी तरह दुश्मनों के हाथों पिट रही है तो वह अपने अफसरों के पास गया और बोला- सिपाहियों को बन्दूकें ही काफी नहीं हैं। सिपाहियों में जोश, देशभक्ति की भावना ही विजय दिलाती है। यह काम मुझे सौंपा जाय। बड़े अफसरों ने उसे यह काम सौंप दिया और नेलसन जिस निष्ठा के साथ, देश भक्ति के साथ जिस उमंग के साथ लड़ा वे उमंगें हमने भारतीय सैनिकों में पाकिस्तान के साथ लड़ाई के समय देखी है जो टैंकों से टकराने में भी पीछे नहीं रहे और अपनी जान की बाजी तक लगा दी। नेलसन ने यही किया। उसने अपने सीने पर बम बाँधे और दुश्मनों के टैंकों के सामने आ गया। टैंक द्वारा उसे कुचला गया। लेकिन टैंक भी बमों के धमाके के साथ उड़ गये। घायल एवं लहु लुहान नेलसन जब खड़े होने योग्य नहीं रह गया तो उसने अपने आपको एक पेड़ से बँधवा लिया और अपनी सेना का मार्गदर्शन करने लगा। शरीर से , फेफड़े से खून के फव्वारे छूट रहे थे, फिर भी वह मोर्चे पर डटा रहा। इंग्लैंड जब जीत गया तो खुशियों का समाचार नेलसन के कान में सुनाया गया, तो उसने कहा- अब मुझे मरने में कोई डर नहीं, मेरी मौत खुशी का उपहार है। अब मैं शान्ति के साथ अपनी अच्छाई के साथ मरूंगा और इतना कहकर उसने अंतिम साँस ली।

इसी तरह कागावा ने अपना पेट काट

कर बीमारों, भिखारियों, अपाहिजों, कोढ़ियों और शराबियों की दशा सुधारने में सारा जीवन खपा दिया। जैसे हिन्दुस्तान में गाँधी जी की तस्वीरें हर जगह टंगी हुई मिलेंगी, वैसे ही जापान के हर घर में कागावा का चित्र टंगा हुआ मिलेगा। जैसे हर हिन्दुस्तानी बच्चे को गाँधी जी का नाम मालूम है, वैसे ही जापान के हर नागरिक को कागावा का नाम मालूम है। इसलिए मालूम है कि उसने देश के पिछड़े लोगों के लिए सारी जिन्दगी जद्दोजहद की। कागावा का नाम अजर-अमर हो गया। इंग्लैण्ड का हर नागरिक कृतज्ञता के भावों से भरा हुआ है नेलसन के लिए और जापान का कागावा के लिए, कोरिया का हर नागरिक कृतज्ञता के भावों से भरा हुआ है याँग के लिए। यही महानता है।

भाइयों, हमें महत्वाकाँक्षाओं को भूल जाना चाहिए और मनुष्य के भीतर उन्नति की भावना, महानता की भावना विकास करनी चाहिए- अमीरी की नहीं, अय्याशी की नहीं। कारण अमीरी आदमी के अंदर व्यसन पैदा कर देती है और उनके बच्चों को चोर बना देती है। आदमी को बीमार बना देती हैं और साथ ही सामाजिक जीवन में दुष्ट परम्परायें कायम हो जाती हैं। अतः इस बात को हमें और आपको जानना चाहिए। अगर आपको स


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118