अपनों से अपनी बात - अगले दिनों चुनाव प्रक्रिया पूरी तरह बदलेगीपंचायत राज्य ही विश्व-शासन का आधार बनाएगा

May 1996

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

पंचायत की कल्पना में भविष्य की स्वर्णिम आभा की झलक देखी जा सकती है। इक्कीसवीं सदी के भारत की शासन व्यवस्था के प्रायः सभी सूत्र इसमें संजोये हैं। पहले भी व्यवस्था के इसी स्वरूप और सूत्र को अपना कर भारतीय संस्कृति विशेषकर भारतीय राज्य व्यवस्था ने चक्रवर्ती होने का गौरव हासिल किया था। इसी रक्षा कवच के बलबूते हमारी राष्ट्रीय एकता और अखण्डता, सुदृढ़ता और सुव्यवस्था मृत्युंजयी बनी रही।

इसी का उल्लेख करते हुए सुप्रसिद्ध इतिहासवेत्ता डॉ0 राधा कुमुद मुखर्जी ने कहा है- “स्थानीय स्वायत शासन के स्वतन्त्र विकास के फलस्वरूप देश को कछुए की खोल की तरह सुरक्षित, शान्ति का एक स्वर्णिम स्थान प्राप्त हुआ जहाँ राष्ट्र की संस्कृति उस समय अपनी सुरक्षा कर लेती थी जब देश के राजनैतिक गगन पर तूफान फुट पड़ता था। एक के बाद दूसरे विदेशी विजेता आ-आ कर अपना आधिपत्य जमाते रहे, लेकिन यहाँ के ग्राम संघ ज्वार-भाटों से अप्रभावित रहने वाली समुद्री चट्टानों की तरह सर्वथा अप्रभावित रहे।

सही कहें तो पंचायत व्यवस्था न केवल शासन व्यवस्था के रूप में बल्कि यहाँ की जीवन-पद्धति के रूप में विकसित हुई थी। वैदिक काल में तो गाँव से लेकर राष्ट्र तक ही नहीं अपितु समूचे विश्व भर की शासन व्यवस्था पंचायत प्रणाली पर आधारित थी। ऐतरेय ब्राह्मण में इस तथ्य का उल्लेख करते हुए कहा गया है-

साम्राज्यं भोज्यं स्वराज्यं वैराज्यं परमेष्टयं राज्यं महाराज्यं आधिपत्तमय। समन्तपयायी स्यात्-सार्वभौमः सर्वायुधः आन्तादाराधात्। पृश्चिवयं समद्रं पर्यात्तया एक राष्ट्र इति।

और यही कारण था कि पंचायत की अवधारणा गाँव तक ही न सिमट कर जन राज्य तक चली गयी

इमं देवाडअसपत्नध्ष्टं सुवध्वं महते क्षताया महते-जान राज्याय।

वैदिक साहित्य में वैदिक काल के स्वर्णिम युग की खोज करने पर पता चलता है कि उस समय तक तो ‘राजा’ शब्द का प्रचलन ही न हुआ था। समिति, आमन्त्रण और ग्राम सभा आदि शब्दों का ही प्रचलन दिखाई देता है। जो वेद मनीषियों के अनुसार पंचायत के ही पर्यायवाची शब्द थे। रामायण काल में पंचायत व्यवस्था भारतीय लोकतन्त्र की इकाई के रूप में सुविकसित थी। इसी के माध्यम से ही गांवों की स्वायंत्ता, स्वावलम्बन एवं सत्ता का विकेन्द्रीकरण सम्भव बन पड़ता था। महाभारत में जिस संघ-राज्य का उल्लेख मिलता है उसमें गाँव से लेकर राष्ट्र तक की शासन व्यवस्था इसी पंचायत प्रणाली पर ही आधारित थी। थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ यह व्यवस्था कौटिल्य काल तक चलती आयी।

आचार्य पाणिनि के समय में घर से लेकर गणराज्य तक का प्रशासनिक ढाँचा पंचायती व्यवस्था पर ही आधारित था। हाँ इसके स्वरूप में जरूर थोड़ा-बहुत परिवर्तन हो गया था। उस समय ‘पूरा’-’गण’ और ‘संघ’ आदि पंचायत के पर्यायवाची शब्दों के रूप में प्रचलित थे। बौद्धकाल में भी ग्राम सभा से लेकर गणराज्य की लोक तान्त्रिक व्यवस्था होने के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं। अकेले लिच्छवी गणराज्य में 770 राज्य या गणराज्य होने का उल्लेख आता है। न सिर्फ प्रशासनिक बल्कि धार्मिक अनुष्ठानों में पंचायत-प्रणाली ही व्यावहारिक मानी जाती थी। तत्कालीन जैन साहित्य में अरायाणि, गणरायनि, दो एरव्यणि, वैरज्जाणि एवं विरुद्धरज्जाणि के नाम से जिन स्थानीय शासनों का उल्लेख मिलता है, वे विभिन्न प्रकार की पंचायतें ही थीं। मौर्यकाल में शासन व्यवस्था का राष्ट्रीय स्वरूप राज तांत्रिक होने पर भी स्थानीय शासन प्रबन्ध पंचायतों के माध्यम से ही किया जाता था। मुगल काल में भी ग्रामीण पंचायतें बरकरार रहीं। हाँ ईस्ट इण्डिया कम्पनी की घुसपैठ के साथ ही इनके पतन की शुरुआत हुई। सुविख्यात मनीषी डॉ0 अल्तेकर ने सही की कहा है-” अंग्रेज शासकों ने ग्राम पंचायतों की इस प्राचीन परम्परा का ध्वंस कर हमारे देश के प्रति सर्वाधिक घातक कुकृत्य किया है।”

अँग्रेज की इस करनी के पीछे उनकी यह सोच थी कि भारत साँस्कृतिक दृष्टि से सर्वाधिक समृद्ध देश है और इसकी साँस्कृतिक जड़ें गाँवों में हैं। जब तक इन्हें खोखला नहीं किया जाता इस देश को पूरी तरह गुलाम बना पाना सम्भव नहीं। इसी वजह से न केवल उन्होंने यहाँ के इतिहास की विकृति करने की कोशिशें की बल्कि पंचायत व्यवस्था को भी अपने घातक प्रहारों का निशाना बनाया। इस दृष्टि से भारत के इतिहास की व्याख्या विनोबा जी ने बहुत ही मौलिक ढंग से की है। उन्होंने कहा है कि प्राचीन काल में देश भी आजाद था और गाँव भी आजाद थे। जब अरब और मुगल आए तो देश गुलाम था किन्तु गाँव आजाद थे ? अँग्रेजों के समय में देश भी गुलाम था और गाँव भी गुलाम थे। अंग्रेजों के जाने के बाद देश तो आजाद हो गया लेकिन गाँव गुलाम ही रह गाए।

इस गुलामी से छुटकारा पाने के लिए विनोबा और महात्मा गाँधी दोनों ने ही पंचायतों को पुनर्जीवित और पुनर्गठित करने पर बल दिया था। लेकिन मूलभूत बात यह है, कि उनके अनुसार पंचायत पद्धति के द्वारा ही केन्द्रीय एवं राज्य सरकार का गठन किया जायगा। बापू के शब्दों में- ‘आजादी नीचे से शुरू होनी चाहिए। हर गाँव में जम्हूरी सल्तनत या पंचायत का राज्य होगा। उनके पास पूरी सत्ता और ताकत होगी ऐसा समाज, अनगिनत गाँवों को बनाना होगा। उसके पास फैलाव एक के ऊपर एक के ढंग पर नहीं, बल्कि लहरों की तरह एक के बाद एक ही शक्ल में होगा। जिन्दगी मीनार की शक्ल में नहीं होगी जहाँ ऊपर की तंग चोटी के नीचे चौड़े पाए को बड़ा होना पड़ता है। वहाँ तो समुद्र की लहरों की तरह जिन्दगी एक के बाद एक घेरे की शक्ल में होगी और व्यक्ति उसका मध्य-बिन्दु होगा जो हमेशा अपने गाँव की खातिर मिटने के लिए तैयार होगा, गाँव अपने इर्द-गिर्द गांवों के लिए मिटने के लिए तैयार रहेगा। ‘गाँधी जी ने अपनी आखिरी वसीयत में भी कांग्रेस संविधान को पंचायत में भी कांग्रेस संविधान को पंचायत पद्धति पर आधारित नियमों के अनुसार ‘लोक सेवक संघ’ के स्वरूप में संगठित करने की अनुशंसा की थी। वे तो लोक सभा एवं विधान सभाओं का अप्रत्यक्ष निर्वाचन एवं गठन पंचायत पद्धति से ही चाहते थे, ताकि वास्तविक लोकताँत्रिक विकेन्द्रीकरण हो सके। अधिकाधिक स्वावलम्बन इसका आर्थिक और “पंच बोले सो परमेश्वर” यानि सर्वसम्मति, सर्वानुमति से चुनाव, इसका साँस्कृतिक एवं आध्यात्मिक आधार है।

परमपूज्य गुरुदेव ने वर्तमान व्यवस्था पर असन्तोष व्यक्त करते हुए एक स्थान पर लिखा है- “शासन की असफलता से हम दुःखी हैं। इस असफलता का निवारण युग निर्माण आन्दोलन का मुख्य अंग है। अगले दिनों समाज व्यवस्था, शासन-व्यवस्था को हम अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित एवं परिवर्तित करेंगे। समाज व्यवस्था के प्रयत्नों से जन जीवन इतना प्रबुद्ध हो सकेगा कि उसे कोई अपनी कुटिल चालों से बहका न सके। चुनाव में पार्टी को नहीं, व्यक्ति के जीवन स्तर की प्रामाणिकता को ही परखा एवं चुना जायगा। पार्टियाँ भी अब की तरह जातीय, क्षेत्रीय रूपों में अपना अस्तित्व न रख पाएँगी।

चुनाव की प्रक्रिया में भारी फेर-बदल होगी। पंचायती राज्य ही अपना क्रमिक विकास विश्व शासन तक करेगा। ग्राम पंचायत में चुने हुए लोग क्षेत्र पंचायत का, क्षेत्र पंचायत वाले जिला पंचायत का, जिला पंचायत वाले प्रान्त पंचायत का और प्रान्त पंचायत वाले राष्ट्रीय पंचायत का चुनाव करेंगे। यही क्रम अन्ततः विश्व शासन को जन्म देगा। इस प्रक्रिया से लाभ यह होगा कि अधिक ऊँची पंचायत के लिए अधिक उत्तरदायी अधिक योग्य वोटर होंगे और उनसे अधिक विवेकशीलता और जिम्मेदारी की आशा की जा सकती है।

आज पंचायत इसलिए प्राण-हीन है, क्योंकि उनके पास कुछ है ही नहीं। सरकारी अनुदानों की राहत पर चलने वाली इन पंचायतों से न तो लोक-शक्ति निकल सकती है और न लोक-योजनाएँ। पंचायत पर जो रिपोर्ट, प्रकाशित हुई है, उनमें यह साफ नजर आता है कि पंचायतें खुद के लिए कानूनों में प्रदत्त टैक्स लगाने या वसूलने से हमेशा परहेज करती है और सरकार के अनुदानों की और टकटकी लगाकर देखती रहती हैं । इस लिए जब तक सरकार से मिलने वाले अनुदानों की आशा- सम्बल समाप्त नहीं हो जाएगी, हम स्थानीय पुरुषार्थ प्रकट होने की अपेक्षा नहीं कर सकते।

भारतीय संविधान के 73 वें संशोधन विधेयक में गाँवों को स्वयं पूर्ण बनाने की बात विस्मृति कर दी गयी है। कुछ हजार रुपये उन्हें दे दिए जाएंगे, यह कहना तो पुरुषार्थ-हीनता को बढ़ावा देने वाली भिक्षावृत्ति है। दुर्भाग्य तो और हो जाता है, जब गाँव की योजना भी जिला एवं केन्द्र से आने वाली हो । जब पंचायत की अपनी योजना नहीं अपना राजस्व नहीं, फिर स्वशासन कैसा राज्य एवं केन्द्र सरकारों की भिक्षा की ओर टकटकी लगाकर देखती रहने वाली पंचायतों में तेजस्विता एवं लोक-योजनाएँ नहीं पनप सकतीं।

समाज के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना करना पंचायत का मुख्य मुद्दा होना चाहिए। लेकिन अभी तक इसमें विफलता ही मिली है। आर्थिक लोकतंत्र के साथ-साथ सत्ता के लोकताँत्रिक विकेन्द्रीकरण की दृष्टि से भी पंचायतें सब से अधिक प्रभावशाली एवं शक्तिशाली इकाई नहीं बन सकीं जिन पर राज्य और केन्द्र निर्भर करे। इसके विपरीत अभी तो पंचायतें लोक ताँत्रिक सत्ता-वृत के बाहर एक अत्यन्त कृत्रिम एवं ऐच्छिक संस्था बनी हुई है। विधान सभाओं के हाथों पंचायत की तकदीर साँप देने से पंचायत कभी पुरुषार्थ बन भी नहीं सकती। इसको जब तक केन्द्र या राज्य सरकार का अंग माना जाता रहेगा, तब तक पंचायतों की अस्मिता की रक्षा नहीं हो सकती। असल में चाहे वे बलवन्त राय मेहता हो या सामुदायिक विकास के अर्थ कर्ता-धर्ता श्री एस॰ के0 ढ़े हो, इन महारथियों ने पंचायतों को योगात्मक आर्थिक लोकतन्त्र के उपकरण बनाने के विषय में कभी गम्भीरता पूर्वक विचार ही नहीं किया। यदि ऐसा किया गया होता तो अशोक मेहता कमेटी की पंचायतों को पर्याप्त संवैधानिक अधिकार दिए जाने की सिफारिश न करनी पड़ती। आर्थिक लोकतन्त्र के बिना पंचायतों के नाम से इस तरह के प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण को इसीलिए भीमराव अम्बेडकर ने अज्ञान, अंधविश्वास एवं गतिहीनता की संज्ञा दी थी।

जब तक नीचे से ऊपर तक की शासन व्यवस्था एक-दूसरी से समुद्री लहरों की भाँति सम्बद्ध नहीं होंगी, पंचायत को सच्ची प्रतिष्ठा मिलना असम्भव प्रायः है। यही नहीं, स्थानीय स्वशासी निकायों तथा केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों के बीच अधिकारों एवं अनुदानों के लिए खींचतान की स्थिति बनी रहेगी इस समस्या का हल तभी सम्भव है, जबकि केन्द्रित राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था को उलटकर विकेन्द्रित किया जाय । यह बात किसी तरह की समानान्तर व्यवस्था से सम्भव होती नजर नहीं आती। इसके लिए तो समूची चुनावी प्रक्रिया को भी पंचायती आधार देना होगा। अन्यथा पंचायतों को दी जाने वाली वर्तमान संवैधानिक संजीवनी भी उतनी कारगर न सिद्ध होगी। दरअसल वर्तमान संविधान द्वारा बनायी गयी दुहरी समाज व्यवस्था में जहाँ नागरिकों को आजीविका का मौलिक अधिकार है और न जमीन जोतने वालों को जमीन का अधिकार है। वहाँ सच्चा लोकतन्त्र विकसित हो पाना सम्भव नहीं। फिर वहाँ जन योजना, जन-तन्त्र , जन-समाज की बात सोचना भी दिया स्वप्न देखने के सदृश है।

इसीलिए भारत के साँस्कृतिक जीवन में ‘पंचायती व्यवस्था’ को अति महत्वपूर्ण स्थान दिया गया था। गाँधीजी की ग्राम स्वराज्य की कल्पना, बिनोवा जी की ग्रामदान की सोच इसी की पर्याय रही है। इस प्रक्रिया में नीचे स्तर से ग्राम विकास के लिए काफी गुँजाइश रहती है। सारा गाँव एक परिवार का रूप ले लेता है। पारम्परिक पंचायत प्रणाली में ‘निर्णय प्रक्रिया की भी एक खासियत रही है कि यहाँ बहुमत या अल्पमत रही है कि यहाँ बहुमत या अल्पमत के आधार पर कोई निर्णय नहीं किया जाता। गाँव के लोगों द्वारा चुने हुए पाँच लोगों की सभा ही सर्व सम्मति से निर्णय करती है।

गोस्वामी तुलसीदास ने भी रामचरित में इस बात को बार-बार कहा है-

जो पंचहि मत लागै नीका। करहु हर्षि हिय रामहि टीका॥ मोरिबात सब विधिहि बनाई॥

जबकि वर्तमान संसदीय प्रणाली बहुमत एवं अल्पमत के कारण विरोध की राजनीति बन कर रह गयी है। विरोध के इसी जहर ने विकेन्द्रीकृत होकर ग्रामीण जीवन को भी पंगु कर दिया है और आज गाँव एक परिवार के रूप में नहीं टुकड़े और गुटों में बँटा दिखाई देता है। और पंचायतें राजनीतिज्ञों की दूसरे दर्जे की टीम के खिलाड़ियों का खेल बनकर रह गयी है।

इसका समाधान सर्वसम्मति, आम राय या सर्वानुमति की ही प्रणाली से सम्भव है। हर देश की अपनी परम्परा होती है। भारत की संस्कृति का स्वर समन्वय है। यही इस देश की परम्परागत साधना रही है। यही कारण है कि पंचायत प्रणाली में भी ‘पंच परमेश्वर’ यानि कि आमराय द्वारा निर्णय-प्रक्रिया पर जोर दिया गया है। ‘सदा सवंगत सर्वहित’ ही पंचायत का बीज मंत्र है। यही वह प्रक्रिया है जिसकी शुरुआत आज भले छोटी दिखे, परन्तु अपने विस्तार में यह धरती पर स्वर्ग के अवतरण का दृश्य उपस्थित करेगी। वर्तमान में किए गए पंचायत राज की कोशिशें इक्कीसवीं सदी में अपना ऐसा कुछ विकसित रूप उपस्थित करेगी, जब गाँव से राष्ट्र तक के प्रशासकों का निर्वाचन प्रजातन्त्र जन के द्वारा किया जायगा। वैदिक पंचायतों के समय में भी निर्वाचन बहुमत के द्वारा नहीं सर्वमत के द्वारा ही किया जाता था। इस प्रकार विरोध का विष फैलने के अवसर ही नहीं थे। अथर्ववेद में कहा भी गया है-

सर्वास्त्वा राजन् प्रदिशोहयन्तूपसद्यो नमस्यो मवेह। त्वाँ विशो वृणताँ राज्याय त्वामिमा; प्रदिशः पंचदेवी॥ -अधर्व 3।4।र-र

अर्थात्- हे लोकनायक ! समस्त दिशाएँ तथा उपदिशाएँ आपको पुकारें ! आप अपने क्षेत्र में सबके लिए वन्दनीय बनें। हे तेजस्विनी ! ये प्रजाएँ आपको शायन का संचालन करने के लिए स्वीकार करें तथा पाँचों दिशाओं के पंच आपके मत से एक हों।

आज की पंचायती कल्पना कल इसी रूप में साकार दिखेगी। विरोध का स्थान आम राय लेगी। अकेली सत्ता ही गाँव में नहीं आएगी, बल्कि गाँवों का पराक्रम पुरुषार्थ भी जगेगा और प्राचीन भारत की वैदिक संस्कृति फिर से अपना खोया गौरव प्राप्त करेगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118