सच्चा सौंदर्य अन्तस् का ही है।

May 1996

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वह दीर्घ नेत्रों वाली तरुणी, जिसके सोने के रंग के शरीर पर यौवन अरुणोदय का उल्लास लगता था। जिसको चलते देखकर लगता था। कि संध्या अपने आलक्तक लगे चरण धरती हुई सुवर्ण - मेघ की दीप्ति से मनोरम होकर रंग - बिरंगे वस्त्र पहनकर चली आ रही हो। जिसके नेत्र फिरते थे, तो रूप में तोरणों की सृष्टि होती थी। वह राजकुमारी थी, अपार रूप-सम्पदा की स्वामिनी। लेकिन उसका रूप दर्प-मण्डित था अहंकार की स्वाभाविक आभा उसके हाव-भाव एवं व्यवहार में सहज परिलक्षित होती थी।

उन दिनों राजाओं की सत्ता अबाधित थी। समूची शक्ति और सत्ता उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती थी। उनकी मर्जी को कानून ही नहीं ईश्वर की इच्छा भी समझा जाता था। भोली-भाली निरीह जनता उनके हर आदेश को सिर-माथे चढ़ाती थी। आदेश सही हो या गलत, उसकी कहीं कोई फरियाद नहीं थी। ऐसी अबाधित सत्ता भोगने वाली राजकुमारी अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझती थी।

लेकिन इतने पर भी खैर न थी उसे दुःखी-गरीब लोगों को हंसी उड़ाकर एक अपूर्व सुख मिलता था। किसी का भी मजाक उड़ाना - उन्हें अपने व्यंग - बाणों से आहत करना उसका प्रिय व्यसन था।

राजमहल नहीं के किनारे पर था। राजकुमारी के कमरे का वातायन नदी की ओर खुलता था। वह अपने वातायन पर बैठकर अपनी सहेलियों के साथ आने-जाने वालों पर अपने व्यंग - प्रहार करती हरती व्यंग से मुरझाए शरमाए हीनता से सकुचे चेहरे देखकर उसका दर्प और बढ़ जाता। राजमहल से होकर गुजरा जन सामान्य की मजबूरी थी, क्योंकि नदी की ओर जाने का यही एक रास्ता था। बेचारे चुप-चाप सुनते और आहत होकर चले जाते। राजसत्ता के समक्ष कर भी क्या सकते थे।

सहेलियों के साथ एक दिन राजकुमारी नदी पर स्नान करने गयी। वहाँ से लौटते वक्त उसने आते-जाते ढेरों लोगों पर तरह-तरह के व्यंग बाण छोड़ने आरम्भ किये-देख तो उस आदमी के कान कैसे हैं - जैसे हाथी के कान हों और उसकी नाक जैसे सुअर की नाक चिपका दी गयी हों। दाँत तो देख उसके जैसे भेड़िये के हों। चाटुकार सहेलियाँ उसकी हाँ में हाँ मिलाती हुई हँस देती। उनकी हँसी की गूँज से न जाने कितने हृदय पीड़ा से भीग जाते।

से सब इससे बेखबर थी। नदी के किनारे खड़े एक वृद्ध संन्यासी उनके इस व्यवहार को बारीकी से देख रहे थे। संन्यासी की पारदर्शी दृष्टि रूपवान शरीर में छुपे कुरूप व्यक्तित्व को परख रही थी। उन्हें इस बेमेल संयोग पर आश्चर्य मिश्रित दुःख हुआ। वे सोचने लगे - काश ! इस राजकुमारी की देह जितनी सुन्दर है उकसा मन भी उतना ही सुन्दर होता। कुछ सोचते हुए उन्होंने राजकुमारी को सत्परामर्श देने के उद्देश्य से कहा-

“बेटी ! तुम इस देश की राजकुमारी हो। भगवान ने तुम्हें सुखी और सम्पन्न जीवन इसलिए दिया है कि तु औरों पर कृपा कर सको। ये लोग तो तुम्हारी प्रजा हैं, तुम्हें उन्हें सहारा देना चाहिए। तुम्हें इनके दुःख दर्द दूर करने चाहिए। लेकिन ऐसा करना तो दूर-उलटे तुम इनकी खिल्ली उड़ा रही हो। इन्हें अपनी कटूक्तियों से आहत कर रही हो। इनको पीड़ा पहुँचा रही हो। भला ऐसा करना तुम्हें शोभा देता है ?”

संन्यासी की बात सुनकर राजकुमारी के अहं का पारा और चढ़ गया। उसने संन्यासी की ओर क्रोधित दृष्टि से देखते हुए कहा-बूढ़े। तुझे खबर है तू किससे बात कर रहा है। मैं यहाँ की राजकुमारी हूँ फिर मैं गलत क्या कह रही हूँ कुरूप को कुरूप न कहा जाय तो और क्या कहा करें। खबरदार आइन्दा जो कुछ टोका-टाकी की। संन्यासी को धमकाती हुई राजकुमारी आगे बढ़ गयी।

कुछ दिनों के बाद फिर से घटनाक्रम ने अपने को दुहरा दिया। राजकुमारी अपनी सहेलियों के साथ नदी पर स्नान करने गयी। जब स्नान करके निकली तब उसने देखा एक ब्राह्मण नदी किनारे बैठा जप-ध्यान कर रहा था। उसकी नाक कुछ बड़ी थी, चेहरे पर दाढ़ी भी थी। राजकुमारी का तो स्वभाव ही ठहरा-व्यंग करके दूसरों को चोट पहुँचाना उसका छिद्रान्वेषी स्वभाव तो दूसरों की हँसी उड़ाने का मौका तलाशता रहता था। ब्राह्मण को देखकर उसे फिर से अपने कटु वचनों से मर्माहत करने का मौका मिल गया।

उस ब्राह्मण को देखकर उसने अपनी सहेली के चिकोटी काटी-अरी चित्रना देख न, यह रीछ कैसा बगुला भगत बना बैठा है। इतनी लम्बी नाक और चेहरे पर बाल पूरा रीछ लगता है। कैसे-कैसे कुरूप लोग हैं, दुनिया में ? बेचारे ब्राह्मण के कानों में भी ये शब्द पड़ें, लेकिन वह कर भी क्या सकता था। चुपचाप अपमान का घूँट पीकर रह गया। हाँ उसकी पीड़ा आँखों में जरूर छलक आयी।

संयोग से उस दिन भी वही संन्यासी थोड़ी दूर पर खड़े सारा नजारा देख रहे थे। उन्होंने ब्राह्मण के चेहरे पर उभर आयी पीड़ा। की लकीरों को साफ-साफ देख लिया, साथ ही उन्होंने राजकुमारी के चेहरे पर आयी दर्प की सन्तुष्टि को पढ़ लिया। इस उद्धत अहं को वे सहन न कर सकें। उन्हें अचानक शास्त्र का वह वाक्य याद आया कि जब राज सत्ता निरंकुश हो उठे - तो योगी को अपने योग-बल और तप शक्ति का प्रयोग करना चाहिए।

उन्होंने एक राजकुमारी को फिर से समझाने का प्रयास किया, सौंदर्य शरीर सौष्ठव का पर्याय नहीं, इसका मापन और मूल्याँकन तो आन्तरिक सद्गुणों के आधार पर ही हो सकता है। इस प्रकार से असहाय लोगों की हँसी उड़ाना अच्छा नहीं है। कभी अपनी कुरूपता की ओर भी देखिए आत्म-सौंदर्य को जाग्रत करने का मौका मिलेगा।

संन्यासी की सिखावन का धृष्ट राजकुमारी पर कोई असर नहीं हुआ। उलटे उसने नदी किनारे की एक मुट्ठी धूल उठाकर संन्यासी के चेहरे पर डाल दी। उसके इस व्यवहार पर तपस्वी की ऊर्जा चरम सीमा पर पहुँच गयी। वह कुपित होते हुए बोले-घमण्डी लड़की। तूने ब्राह्मण के मुख की तुलना जिस जानवर से की है तेरा चेहरा उसी जानवर सा हो जाएगा।

उसी दिन शाम को जब वह राजोद्यान में टहल रही थी, उसकी दृष्टि सुन्दर पुष्पों पर पड़ी। उसने हाथ बढ़ाकर पुष्पों को तोड़ लिया और मधुर और मादक सुरभि का आनन्द लेने लगी। किन्तु तभी एक आश्चर्य हुआ, जैसे-जैसे राजकुमारी फूलों को सूँघती, वैसे-वैसे उसकी नाक बड़ी होती जाती। देखते-देखते नाक इतनी बड़ी हो गयी, कि उसे सम्भालना कठिन हो गया। यहीं नहीं उसके चेहरे पर घने बाल भी उग आये। अब वह देखने में रीछ की तरह बदशक्ल लग रही थी।

पास खड़ी दासी ने जब यह देखा तो उसने इस घटना की सूचना महलों में राजा को दी। राजा और महारानी भागे-भागे राजोद्यान की ओर दौड़े। महारानी तो अपनी पुत्री की शक्ल देखकर रो पड़ी। फौरन राजवैद्य को बुलाया गया। फौरन उपचार आरम्भ किया गया, परन्तु कोई लाभ न हुआ। थक-हार कर राजवैध ने कह दिया “राजन ! यह कोई शारीरिक व्याधि नहीं, दैवकोप है। इसे औषधि से ठीक नहीं किया जा सकता।”

दिन बीतते गए, परन्तु स्थिति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इस बीच राजकुमारी ने अपने माता-पिता से संन्यासी का शाप कह सुनाया था। अपने को सौंदर्य की देवी समझने वाली राजकुमारी इन दिनों किसी को अपना मुख नहीं दिखा सकती थी। यहीं नहीं दिखा सकती थी। यही नहीं वह स्वयं भी शीशे में अपना चेहरा नहीं देख पाती थी। आज उसे अहसास हो रहा था कि असंख्य लोगों पर उसकी कटूक्तियों का क्या असर हुआ होगा। उसकी बातों से कितने मन आहत हुए होंगे।

इधर राजा उस संन्यासी को ढूंढ़ने के लिए भरपूर कोशिश कर रहे थे। एक दिन राजकर्मचारियोँ ने पास के वन में एक तेजस्वी संन्यासी के होने की सूचना दी। राजा अपने साथ पालकी में राजकुमारी को लेकर संन्यासी के पास उपस्थित हुए। संन्यासी ने बड़े आत्मीय भाव से पूछा - “राजन्। आप चिन्तित दिखायी देते हैं, कारण ?”

राजा ने लगभग बिलखते हुए अपनी चिन्ता का कारण बताते हुए कहा - “किन्तु महाराज, आपकी रहस्यमयी मुस्कान से तो लगता है कि आप मेरी परेशानी का कारण पहले से ही जानते हैं।”

संन्यासी बोले - ‘ठीक कहते हैं राजन्। न केवल चिन्ता को बल्कि चिन्ता निवारण के उपाय को भी जानता हूँ।”

संन्यासी का वाक्य सुनकर राजा को कैसे अपने खोए हुए प्राण वापस मिले। उसने उनके पाँवों पर अपना सिर रखते हुए कहा - “शीघ्र बताइए, महाराज ! हम बहुत दुःखी हैं।

“लेकिन आप से भी अधिक दुःखी आपके राज्य में हैं। वह भी एक दो नहीं, सैकड़ों - हजारों की संख्या में । लेकिन आपकी घमण्डी लड़की उनकी सेवा - सहायता तो दूर उलटे मजाक उड़ाती रही।”

“मैं अपने किए पर शर्मिन्दा हूँ।” राजकुमारी के स्वर में प्रायश्चित का पुट था।

“तो फिर सुनो!” संन्यासी ने गम्भीरता पूर्वक कहना प्रारम्भ किया-”मैं एक औषधि देता हूँ। पन्द्रह दिनों तक राजकुमारी उसके लेप को अपने चेहरे पर लगाए। लेकिन एक शर्त हैं।”

“कौन सी शर्त ?” राजकुमारी ने आतुरतापूर्वक कहा।

“आप बताइए, पूरी करूंगी।”

“औषधि का लेप, जिस जल से तैयार होगा वह नदी किनारे बैठने वाले अन्धे, लूले, अपाहिज लोगों के पाँवों का धोवन होना चाहिए और उनके पाँव राजकुमारी स्वयं धोएगी। इससे उन्हें इस बात का अनुभव हो सकेगा कि किसी धरती का हर प्राणी किसी न किसी रूप में ईश्वरीय सौंदर्य को व्यक्त करता है।”

अगले दिन से ही राजकुमारी संन्यासी की बतायी रीति के अनुसार औषधि उपचार में जुट गयी। पन्द्रह दिन पूरे होते-होते उसका शरीर पर्वत हो गया। हाँ अब की बार उन्हें यह ज्ञात हो गया था कि कुरूपता बाह्य नहीं आन्तरिक होती है और सच्चा - सौंदर्य शारीरिक - सौष्ठव नहीं आन्तरिक - सद्गुण सम्पत्ति हैं।


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