प्राण प्रत्यावर्तन साधना, जो युग परिवर्तन की गतिविधियों का आधार बनी ।

August 1996

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शाँतिकुँज में वन्दनीया माताजी की तप -साधना चल रही थी । विश्वामित्र की तपस्थली में फिर से एक बार नए प्राणों का संचार हो रहा था । उसमें नई ऊर्जा भरी जा रही थी । इसी बीच गुरुदेव हिमालय से वापस आ गए । इस बार भी वह देवात्मा हिमालय से तप-प्राण बटोर कर लौटे थे । अनेक नई जिम्मेदारियाँ भी उन्हें सौंपी गई थी । उनके वापस आने से शाँतिकुँज परिसर में उल्लास और उत्साह का उफान आ गया । माताजी अपने आराध्य को अपने समीप पाकर प्रसन्न थी । ऋषि युग्म के तपःपूत व्यक्तियों के स्पर्श से समूचा परिसर महाप्राण का आगार बन गया । यहाँ का कण-कण उनकी तप -ऊर्जा से प्राणवान हो उठा ।

पूज्यवर अपनी नई जिम्मेदारियों को अपने सहचरों में बाँटना चाहते थे । आखिर उन्हें नवयुग के आगमन के लिए नए सरंजाम जो जुटाने थे । पर उन्हें परिजनों की दुर्बलता का भी पता था । उन्हें इस बात का अहसास था कि उन्हें प्राणवान बनाए बिना यह कार्य सम्भव नहीं । सौ नई जिम्मेदारियों को सौंपने से पहले प्राण प्रत्यावर्तन की बात सोची गई । प्राणों का नवीनीकरण करने के लिए बसन्त 1973 से प्राण प्रत्यावर्तन सत्र शृंखला का आयोजन हुआ ।

इस सत्र शृंखला का नाम विशेष ही अपनी गरिमा प्रकाशित करने के लिए पर्याप्त है। प्राण प्रत्यावर्तन अर्थात् प्राण चेतना का आदान-प्रदान । यह आदान प्रदान किसके साथ ? इसका उत्तर यही हो सकता है -लघु का महान के साथ, आत्मा का परमात्मा के साथ, प्राण का महाप्राण के साथ-युग निर्माण मिशन के परिवार का उसके सूत्र संचालक के साथ ।

प्राण अर्थात् व्यष्टि-व्यक्ति की परिधि में अवरुद्ध चेतना । महाप्राण अर्थात् समष्टि की अनन्त सीमा में सुविस्तृत ब्रह्म सत्ता । दोनों का एक दूसरे में आदान -प्रदान हो आत्मा अपने को परमात्मा में समर्पित करें । शिष्य स्वयं को चेतना को गुरु में उड़ेलें ओर परमात्मा गुरु अपने आनन्द, अनुग्रह को, भावभरी आत्मीयता के साथ साधक पर, जीवात्मा पर बरसा दे । शिष्य अपनी क्षुद्रता का, स्वार्थ भरी संकीर्णता का गुरु में विसर्जन करे और गुरु उसे अपनाकर अपनी विभूतियों से उसके व्यक्तित्व को सजा दें ।

व्यक्तिगत क्षुद्रता की बूँद को जिन्होंने समष्टि के विशाल सागर में घुलाया है वे ही तो महामानव, देवदूत और ऋषिकल्प कहलाने के अधिकारी हुए है, अभावग्रस्त दुःख दैन्य की तुच्छता का अनन्त और असीम के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेना और विराट के ब्रह्मलोक से टपकने वाले अमृत का रसास्वादन करना यही है । आध्यात्मिकता का सार, ब्रह्मविद्या का उद्देश्य इसी प्राण प्रत्यावर्तन में निहित है।

प्राण का महाप्राण के साथ आदान-प्रदान सम्भव हो सके, आत्मा और परमात्मा के परस्पर मिलन की अनुभूति होने लगे, यही है प्रत्यावर्तन प्रक्रिया, जिसकी व्यवस्था इन दिनों शाँतिकुँज में की गई थी । इन प्रत्यावर्तन सत्रों में उपयुक्त साधकों को क्रमशः थोड़ी -थोड़ी संख्या में बुलाया गया। एक सत्र में अधिकतम चौबीस, पच्चीस साधकों की ही व्यवस्था थी । इन सत्रों की अवधि चार दिन की थी । एक दिन आने का, एक दिन जाने का जोड़ ले तो छह दिन कहा जा सकता था । पर साधना काल 4 दिन अथवा 96 घण्टे का ही रखा गया था ।

इस अवधि में साधकों को अपनी एकान्त कोठरी में एकाकी रहना पड़ता । चार दिनों में प्रतिदिन छह घण्टे साधना के लिए अनिवार्य थे । एक घण्टा मध्याह्न बौद्धिक प्रवचन द्वारा आत्मबोध की शिक्षा दी जाती और सायंकाल एक घण्टा भाव गीतों द्वारा अन्तःकरण में उच्चस्तरीय उत्कृष्टता को उमगाया जाता था । छह घण्टे साधना, 2 घण्टे प्रशिक्षण इस प्रकार आठ घण्टे का नियमित और अनुशासित कार्यक्रम इन सत्रों में रहता । दिनचर्या इतनी सुगठित कि फौजी अनुशासन का पालन करने वाले ही उसमें फिट बैठे । अस्तव्यस्तता के आदी लोग इसमें रुक नहीं सकते थे । साधना वाले चार दिनों में प्रत्येक साधक को शाँतिकुँज की समी-मर्यादा में रहना पड़ता । इस परिसर से बाहर निकलने की कतई छूट नहीं थी । सीताजी की सुरक्षा के लिए जिस प्रकार लक्ष्मण रेखा खींची गई थी, लगभग वैसी ही शाँतिकुँज की सीमाएँ प्रतिबन्ध रेखा बन जाती ।

प्रत्यावर्तन सत्रों में आहार की भी विशेष मर्यादा रखी गयी थी । प्रातः काल जलपान में सर्वप्रथम आहार के रूप में पंचगव्य ही साधकों को दिया जाता । मध्याह्न को जौ, चावल और तिल की रोटी जी जाती । यों साथ में चावल, दाल, दलिया जैसे सात्विक आहार की मात्रा रहती पर प्रथम आहार हविष्यान्न चरु का ही करना पड़ता । मध्याह्नकालीन और सायं कालीन भोजन में गंगाजल ही प्रयुक्त होता ओर आहर के साथ गंगाजल ही पीने को दिया जाता ।

साधकों को आहार बनाने और परोसने के लिए साधना परायण हाथों का ही उपयोग होता । इस क्रम को वंदनीया माताजी के साथ पुरश्चरण में संलग्न कन्याएँ ही सम्पन्न करती । ब्रह्मचर्य से रहने वाले शरीर ही इस आहार का स्पर्श करते । इससे पूर्व उसे और भी सुसंस्कारी बनाने के लिए आध्यात्मिक उपचारों से सम्पन्न किया जाता । उस पर निरीक्षण दृष्टिपात उन आंखों का रहता, जिन्होंने प्रत्यावर्तन सत्र शृंखला का आधार खड़ा किया था । हविष्यान्न से बनी रोटी के साथ एक विशेष तरह की औषधि गुणों से युक्त चटनी भी दी जाती । इस चटनी में ब्राह्मी, आँवला का विशेष योग रहता । लेकिन इसके साथ ही शतावरी, शंखपुष्पी, गोरखमुण्डी और बच का भी उपयुक्त मिश्रण रहता । इस प्रकार इसे एक मस्तिष्कीय बलवर्द्धक रसादन भी कहा जा सकता है । रोटी के साथ दी जाने वाली यह चटनी स्वास्थ्य की दृष्टि से तो एक महत्वपूर्ण आहार थी । पर उसका मुख्य लाभ अन्तःकरण चतुष्टय से सम्बन्धित मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का स्तर तमोगुण, रजोगुण को भूमिका से ऊँचा उठाकर सतोगुणी स्तर तक पहुँचाने का था । जिसे इसका उपयोग करने वाले साधक अपने अंतर्मन में अनुभव करते ।

साधना उपक्रम में उत्कृष्ट भावनाओं का सघन समावेश प्रत्यावर्तन साधना की अपनी खासियत थी । यही कारण है कि इन दिनों हर साधक को प्रायः मौन रहना पड़ता । उसे गुरुदेव के अतिरिक्त किसी अन्य से बातचीत करने की मनाही थी । साधकों को घर-गृहस्थी और काम -धन्धों की चिन्ता करने से मन को मुक्त रखने तथा अनावश्यक चर्चाएँ तथा हलचलें न करने के लिए कहा जाता । ताकि आत्मचिंतन आत्म -सुधार, आत्मनिर्माण एवं आत्म-विकास की दृष्टि से बनाया गया कार्यक्रम सुचारु रूप से चल सकें । उपासना को केवल लकीर पीटने की तरह मात्र कर्मकाण्ड स्तर तक पूरा नहीं किया जाता, वरन् उसके साथ जिस भावोत्कर्ष का सम्बन्ध है उसे अधिकाधिक प्रखर बनाने पर जोर दिया जाता । यही कारण है कि इन दिनों साधकों की मनःस्थिति उच्चस्तरीय भावभूमिका में अवस्थित रहती और वे किसी शान्ति लोक में निवास करने का अद्भुत आनन्द जीवन में पहली बार मिला अनुभव करते ।

उपासना पद्धति में शिथिलीकरण मुद्रा, उन्मनी मुद्रा खेचरी मुद्रा, गायत्री जप, सोऽहम् साधना, बिंदु योग, आत्माराधना, तत्वबोध, नाद योग के दस साधना क्रमों का समावेश था । इसके अतिरिक्त आत्मशोधन की प्रक्रिया ही अमूल्य थी, जिसे साधक गुरुदेव के सान्निध्य में पूरा करते । यह प्रक्रिया विगत जीवन के पापों का स्मरण करने और बताने प्रायश्चित करने ओर भविष्य में पुनः उन भूलों को न दुहराने का निश्चय करने के रूप में सम्पन्न होते । यह प्रत्यावर्तन का प्रथम और आवश्यक चरण था । पहले दिन जब साधक पू.गुरुदेव से मिलने जाते, तो वह उनसे अकेले में अपनी सभी ग्रन्थियों को खोलने की बात कहते । उनके वात्सल्य का स्पर्श पाकर सभी अपनी-अपनी गलतियों को कह सुनाते । साथ ही व्यक्तिगत समस्याओं पर भी उसी दिन आदान-प्रदान, परामर्श कर लिया जाता । ये दोनों कार्य प्रथम दिन ही पूरे हो जाते । ताकि चार दिन बिना इस स्तर का परामर्श किए हुए आवश्यक साधनाक्रम पर मन एकाग्र रखा जा सकें ।

साधनाक्रम को सामान्य शौच,स्नान, भोजन, विराम के अतिरिक्त छह घण्टे रखा गया था । शारीरिक श्रम आठ घण्टा, मानसिक श्रम सात घण्टा और आध्यात्मिक श्रम छह घण्टे की सन्तुलित मर्यादा निर्धारित है, उसकी के अनुरूप इस अवधि का निर्धारण किया गया था यों मध्याह्नकालीन एक घण्टे का प्रवचन और सायंकाल एक घण्टे का संगीत भी जोड़ लिया जाय तो यह अवधि आठ घण्टे भी गिनी जा सकती है । हर साधक को प्रतिदिन पन्द्रह मिनट व्यक्तिगत परामर्श के लिए एकान्त अवसर मिलता सौ उसे सवा आठ घण्टे भी गिना जा सकता है । शेष समय स्वाध्याय, चिन्तन, मनन के लिए था ।

सामान्यक्रम में इस दिनचर्या को इस तरह विभाजित किया गया । (1) प्रातः 4 बजे उठना (2) 4 से 5 शौच -स्नान (3) 5 से 6.30 तक साधना का प्रथम सोपान (4) 6.30 से 7 बजे जलपान (5) 7 से 7.30 तक वस्त्र धोना, सफाई, व्यायाम ( 6 ) 7.30 से 10 साधना का द्वितीय सोपान (7) 10 से 10.30 भोजन (8) 10.30 से 1.30 विश्राम, स्वाध्याय, मनन, चिन्तन (9) 1.30 से 2.30 प्रवचन (10) 2.30 से 3 जलपान (11) 3 से 5 साधना का तृतीय सोपान (12) 5 से 5.30 शौच आदि (13 ) 5.30 से 6 में भोजन (14 ) 6 से 7 टहलना (15) 7 से 8 भाव संगीत (15) 8 से 4 तक शयन ।

मध्याह्न 10.30 से 1.30 और साँय 5 से 7 की अवधि में हर दिन व्यक्तिगत परामर्श के लिए प्रत्येक साधक को एकान्त समय मिलता । साधना के लिए जो तीन सोपान निर्धारित किए गए थे, उनमें 10 सूत्री क्रियाकलापों का समावेश था जिसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है -

(1) प्रातः 5 से 5.15 शिथिलीकरण मुद्रा, शवासन-शरीर को बिना तनाव का बनाना, अधिकाधिक शिथिल करना, मृतक जैसी स्थिति में शरीर में ढीलापन लाना ताकि मांसपेशियों का तनाव समाप्त हो सके और ध्यान-धारणा में कोई विघ्न न आए ।

(2) 5-15 से 5.30 उन्मनी मुद्रा व मन को विचार रहित खाली कर देना । प्रलय काल जैसी, नीचे नील जल, ऊपर नील आकाश के बीच अपने को एकाकी बालक की तरह कमल पत्र पर पड़े हुए बहते जाने की भावना करना । संसार में वस्तुओं और व्यक्तियों का सर्वथा अभाव अनुभव करना । सर्वथा नीरवता का ज्ञान करना । इस ध्यान से मन खाली हो जाता है और ध्यान पर चित्त को एकाग्र करना सरल हो जाता है।

(3) 5.30 से 6.30 खेचरी मुद्रा जिव्हा को तालू पर उलटकर ब्रह्मा रन्ध्र से टपकने वाले आनन्द और उल्लास को उभय स्तर की अमृत बिन्दुओं का रसास्वादन करना । आनन्द अर्थात् सन्तोष, हर्ष, उल्लास अर्थात् ऊर्ध्वगमन के लिए उमंग उत्साह ।

ये तीन साधनाएँ डेढ़ घण्टे में करने के उपरान्त एक घण्टे के अवकाश के बाद प्रभातकालीन मध्याह्न के पूर्व भाग में की जाने वाली साधनाओं का क्रम आता था । जिनका स्वरूप कुछ इस प्रकार था -

(4) 7.3. से 8 तक आधा घण्टा गायत्री मंत्र की पाँच मालाओं का जप । जप काल में आधे समय मल -मूत्र सनी मलीनता के कारण माता का अपनी गोद न लेना स्नान कराया जाना और पोंछा जाना तदुपरान्त माता की गोद में प्रश्रय और प्यार-दुलार मिलना । जप के अन्त में मूर्याघं देते हुए अपनी उपलब्धियों को जल रूप मानकर ब्रह्मवर्चस के प्रतीक भगवान आदित्य के चरणों में समर्पित, विसर्जित करना ।

(5) 8 से 8-54 पौन घण्टा सोऽहम् साधना-आरम्भ के पन्द्रह मिनटों में श्वास के साथ ‘सो’ की तथा श्वास बाहर निकालते समय ‘हम’ के ध्यान की भावना करना । उसके उपरान्त श्वास के रूप में महाप्राण का शरीर के रोम-रोम प्रवेश और ‘हम’ के रूप में निकृष्ट स्तर की अहंता का बहिष्कार ।

(6) 8-54 से 9.30 पौन घण्टा बिन्दुयोग त्राटक । प्रकाश बत्ती पर दृष्टि जमाना । आँखें बन्द करना और भूमध्य भाग आज्ञाचक्र में प्रकाश ज्योति का ध्यान जमाना । उस प्रकाश का शरीर के प्रत्येक अवयव एवं मन के प्रत्येक स्तर में प्रवेश अनुभव करना और अपनी सत्ता के कण -कण में दैवी प्रकाश की ज्योति जगमगाती अनुभव करना ।

(7) 9.30 से 10 आधा घण्टा नादयोग का पूर्वार्द्ध । भगवान की बंसी जैसी पुकार प्रेरणा में अपने लिए आह्वान का आमंत्रण मानना और रास नृत्य की तरह ईश्वरीय संकेतों पर थिरकने लगने की भावविभोर स्थिति में पहुँचना ।

साधना के इस द्वितीय सोपान के पूरा होने के बाद अगले तृतीय सोपान की बारी आती है।

(8) 3 से 3-45 पौन घण्टा आत्मबोध । दर्पण में अपनी छबि देखते हुए अब तक के अवरोधों के लिए अपने को उत्तरदायी मानते हुए भर्त्सना करना और भविष्य में सत्पथ गमन के लिए अनुरोध, अनुग्रह करना । इसी कलेवर में शैतान और भगवान की परस्पर विरोधी सत्ताएँ अवस्थित देखना । दोनों में से एक को चुनना । आत्मसत्ता के भीतर समाए हुए इष्ट देव का अभिवन्दन और प्रत्यक्ष करना । भविष्य में उसे देवस्तर का बनाने का विश्वास करना । उसी उज्ज्वल स्वरूप को ईश्वर प्राप्ति का प्रत्यक्ष कारण मानना और उस स्तर के लिए अभी से श्रद्धाँजलि समर्पित करना ।

(9) 3 -45 से 4.30 पौन घण्टा तत्वबोध । शरीर और आत्मा का पृथक्करण । अपने शरीर की मृतक स्थिति -कुत्तों, कौओं, कीड़ों, द्वारा खाया जाना, जलाया, गाड़ा जाना । अपने को किसी ऊँचे स्थान पर बैठकर यह सब दृश्य देखने की स्थिति में रहना । शरीर और मन को आत्मा का उपकरण, वाहन मात्र समझना । उनके स्वार्थ और अपने स्वार्थ में अन्तर करना । उपलब्ध क्षमता में से कितना अंश इन वाहनों के लिए रखना और कितना आत्म-कल्याण के लिए रखा जाना चाहिए । इसका निर्णय करना ।

(10) 4.30 से 5 आधा घण्टा नादयोग का उत्तरार्द्ध । इस बार उच्च दृष्टिकोण अपनाकर संसार में मनुष्यों में बिखरे हुए उत्कृष्टता के तत्व का अनुभव करना और विधेयात्मक दृष्टिकोण के अनासक्त मनः स्थिति के फलस्वरूप मिलने वाले स्वर्गीय आनन्द की अनुभूति में संगीत ध्वनि के साथ-साथ हर्षोल्लास भरे भाव नृत्य में संलग्न होने की अनुभूति करना ।

प्रत्यावर्तन के इस दस सूत्री साधनाक्रम में पाँच योगों का अद्भुत रीति से समायोजन किया गया था ।(1) लययोग (2) बिन्दुयोग (3) प्राणयोग (4) ऋजुयोग (5) नादयोग । इस एक ही साधनाक्रम में पाँच योग साधनाएँ जुड़ी गुँथी है। इन्हें पाँच कोषों के अनावरण का प्रयोजन पूरा करने वाली पंचकोशी उच्चस्तरीय गायत्री साधना भी कह सकते हैं। प्रातः खेचरी मुद्रा वाला प्रथम साधना सोपान लययोग है। दूसरे सोपान में सोऽहम् साधना प्राणयोग के अंतर्गत आती हैं आज्ञाचक्र में ज्योति अवतरण बिन्दुयोग है। नादयोग के दो प्रयोग ब्रह्म सम्बन्ध और मनोनिग्रह का प्रयोजन दो बार में पूरा करते हैं। तीसरे सोपान में आत्मबोध और तत्वबोध की साधना ऋजुयोग के दो पक्ष है। लययोग से आनन्दमय कोश -बिन्दुयोग से अन्नमयकोश, प्राणयोग से प्राणमय कोश, नादयोग से मनोमयकोश और ऋजुयोग से विज्ञानमय कोश की जागृति होती है।

इनमें से प्रत्येक योग की अपनी सिद्धियाँ है, खेचरी मुद्रा से अमरत्व की, देवत्व प्राप्ति, देव सत्ताओं के साथ आदान-प्रदान । बिन्दुयोग से अदृश्य दर्शन, व्यक्तित्व में विद्युतीय प्रवाह का अभिवर्द्धन । प्राणयोग से स्थिरता, सुदृढ़ता, साहसिकता एवं तेजस्विता की वृद्धि, अभय एवं पराक्रम में कौशल । नादयोग से दिव्य श्रवण, वायरलैस जैसा चेतन स्तर उपयोग सूत्र का उठना । ऋजुयोग से आत्मसाक्षात्कार स्वर्ग एवं मुक्ति की प्राप्ति सिद्धियों के संकेत भर है। वस्तुतः उनका सीमाबन्धन नहीं किया जा सकता कि वे कितने प्रकार और कितने स्तर की हो सकती हैं यह साधक की मनः स्थिति पर निर्भर है । दर्पण पर साधना करने के छोटे-से विधान को ही ले लें उसमें छाया पुरुष सिद्धि की समस्त सम्भावनाएँ विद्यमान है । अपने ही स्तर का एक नया सूक्ष्म व्यक्तित्व उत्पन्न कर लेना छाया पुरुष कहलाता है। पाँच कोशों में पाँच छाया पुरुष तक सिद्ध कर लेने की गुँजाइश हैं वे विश्वस्त सेवक का कार्य करने में निरन्तर जुटे रह सकते हैं । प्राणयोग के सहारे प्राण चिकित्सा से कठिन रोगों को सरलतापूर्वक दूर करने में सफलता मिल सकती है । ये सभी पाँच योग जिस सूत्र में गूंथे गए थे वह मंत्रयोग हैं गायत्री महामंत्र की साधना सभी सिद्धियों का आधार है ।

इस साधनाक्रम में, इन साधना सत्रों जिनने भी भागीदारी ली वे आज भी उन चार दिनों की स्मृतियों, अलौकिक अनुभूतियों को अभी तक भूले नहीं हैं । प्रायः सभी का सर्वमान्य अनुभव यही है कि इन दिनों चौबीसों घण्टे पूरे शरीर में विद्युत प्रवाह-सा दौड़ता रहता था । ऐसा लगता था -मानो गुरुदेव अस्तित्व में नए प्राण का संचार कर रहे है। प्राणों के इस प्रवाह को जिसने भी धारण किया वे अविच्छिन्न रूप से सदा सर्वदा के लिए उनके अपने हो गए । यही नहीं अपने में ऐसे साहस, मनोबल, प्राण, बल अनुभव करने लगे कि युग निर्माण मिशन की बड़ी से बड़ी जिम्मेदारी को आसानी से उठाते चले गए । इन सत्रों की उपलब्धियों, अनुभूतियों को यदि संक्षेप में कहा जाय तो यही कहना होगा कि यह प्राण प्रत्यावर्तन साधना युग परिवर्तन की गतिविधियों का आधार बनी । प्रत्यावर्तित जीवन सांसारिक आसक्ति से छूटकर लोकसेवी वानप्रस्थ में बदलता चला गया ।


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