शाँतिकुँज की नींव तप और ममत्व की ईंटों से बनी

August 1996

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अखण्ड ज्योति मार्च 1969..के सम्पादकीय में ‘हमारे पाँच पिछले एवं पाँच अगले कदम’ शीर्षक से परम पू. गुरुदेव ने लिखा “ अब हम मथुरा स्थायी रूप से छोड़कर जा रहे हैं । माताजी हमारी धर्मपत्नी भगवती देवी शर्मा, हिमालय और गंगातट पर एक ऐसे स्थान पर रहेंगी, जहाँ लोग उनसे संपर्क रख सकें और हमारा संपर्क भी बना रहें । हरिद्वार ऋषिकेश के बीच गंगा तट पर, जहाँ सात ऋषि तप करते थे, जहाँ गंगा की सात धाराएँ है, उस एकाँत भू-भाग में डेढ़ एकड़ माप की छोटी -सी जमीन प्राप्त की गयी, माताजी वहीं रहेंगी । उसमें फूलों को उसी वर्ष लगा दिया है, खाने को फल -शाक, पहनने को दो कैरी कपास जिसका सूत कातकर तन ढक ले । एक गाय जिसका घी अखण्ड दीपक के लिए मिल जाए व छाछ आहार में प्रमुख हो । एक कर्मचारी पेड़-पौधों, गाय को संभालने हेतु और रहने को चार कुटीर । ये सारी व्यवस्थाएँ धीरे-धीरे ढाई वर्ष में पूरी हो जायेंगी । “

कौन जानता था प. पूज्य गुरुदेव जिस शाँतिकुँज के बारे में इतने छोटे से स्वरूप के माध्यम से परिचय दे रहे थे, आने वाले दिनों में इतना विराट रूप ले लेगा जैसा कि एक वटवृक्ष । पं. पूज्य गुरुदेव ने मथुरा से ही अपने हिमालय से लौटने के बाद के एक वर्ष में सन् 1962-63.में नौ वर्ष बाद के शाँतिकुँज, स्वयं की 1990.तक की भूमिका के विषय में काफी कुछ लिख दिया । महापुरुष अपनी दृष्टि से भविष्य के गर्भ में पक रहे हर घटनाक्रम के विकास पर नजर रखते हुए, उसकी व्यवस्थाएँ जुटाने का ताना-बाना ऋषि सत्ताओं की मदद से बुनते रहते हैं। गुरुदेव ने कहा कि मैं हमेशा के लिए गायत्री तपोभूमि मथुरा छोड़कर चला जाऊँगा एवं अन्य कार्यक्षेत्र हिमालय को बनाऊँगा । ढाई वर्ष पूर्व से, पूर्व भूमिका बनानी शुरू कर दी थी । तब कोई भी नहीं जानता था कि हूबहू ऐसा होकर रहेगा । जैसा उन्होंने लिखा है, बार-बार याद आती हैं, क्षेत्रीय दौरों के व्यस्तता के बीच दो तीन दिन के लिये ही सही हरिद्वार आना, सप्तऋषि कुटी प्रज्ञा भवन में ठहरना एवं भावी व्यवस्था का सारा सरंजाम यहीं बैठकर बनाना । विश्वामित्र की तपस्थली के रूप में कभी प्राण चेतना से अनुप्राणित रही जिस भूमि का चयन पूज्यवर ने हिमालय की शिवालिक एवं गढ़वाल श्रृंखलाओं के मध्य हरिद्वार से छह किमी. दूर किया था, घुटनों तक पानी, कीचड़ से भरा यह स्थान बहुत छोटा -सा था, जहाँ पूज्यवर ने स्वयं ईंटों को ढो-ढोकर रहने योग्य स्थान बनाया । जमीन की बिक्री करने वाले दलाल ने कई बार कहा इससे भी अच्छा ऊँचा स्थान है, जहाँ नींव खोदते समय मिट्टी की भराई की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, सस्ते में उपलब्ध है, उसे भी देख लें, किंतु गुरुदेव का दृढ़ विश्वास था कि ऋषि परम्पराओं का बीजारोपण तथा उसे क्रियारूप देने का कार्य यदि कही होना है तो इससे श्रेष्ठ स्थान कहीं नहीं होगा, क्योंकि इस भूमि में परिष्कृत चेतना विद्यमान है । यहाँ थोड़े से जप में भी असीम फलश्रुति मिलती है। प्रायः दो शताब्दियों से तीर्थयात्रियों की उत्तराखण्ड यात्रा का जो पैदल मार्ग था, उसके एवं सप्तर्षि आश्रम के मध्य स्थित इस भूमि खण्ड को जो आज प्रारम्भिक स्थिति से प्रायः दस गुना बड़ा एवं भविष्य में भी जिसके बढ़ते रहने की सम्भावना है, पूज्यवर द्वारा भावी कार्यक्षेत्र के रूप में चुन लिया गया । प. पूज्य गुरुदेव ने मार्च .69.के अपने अखण्ड ज्योति के सम्पादकीय में लिख है - “ यहाँ से जाने के बाद शरीर जीवित रहने तक तीन महत्वपूर्ण कार्य करने है । पहला अग्र तपश्चर्या, दूसरा गुप्तप्रायः अध्यात्म की शाँध साधना, तीसरा परिजनों की विशिष्ट सहृदयता, आत्मीयता, ममता का विस्तार ॥ इसी में उन्होंने आगे लिखा - “ रामकृष्ण परमहंस, योगिराज अरविंद, महर्षि रमण की अनुपम साधनाओं ने भारत का भाग्य परिवर्तन करके रख दिया । अगले दिनों भारत को जिसे अभी भाग्य परिवर्तन का निर्माण का अधिकार मात्र मिला है, हर क्षेत्र में विश्व का नेतृत्व करना है । इसके लिए सूक्ष्म वातावरण को गरम कर सकने वाले महामानवों की आवश्यकता पड़ेगी । यह कार्य स्वतंत्रता संग्राम से भी अधिक भारी होगा । पूज्यवर ने लिखा कि हमें उपरोक्त तीन तपस्वियों की बुझी पड़ी परम्परा को फिर से जीवित करना है ताकि सूक्ष्म जगत गरम हो सके, उत्कृष्ट स्तर के महामानव पुनः अवतरित हो सकें । शाँतिकुँज का निर्माण सम्भवतः इस तपः पूत वातावरण में साधना के बीजाँकुरों का प्रस्फुटन और एक सजीव पौध-शाला निर्माण के लिए प्रयुक्त था । जहाँ शेष दो काम भी साथ चल सके । हमारे प्राचीन अध्यात्म की ज्ञान-विज्ञान परम्परा का पुनर्जीवन, अध्यात्म विज्ञान की शोध साधना जैसा भगीरथ कर गये, सम्भवतः ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के माध्यम से शाँतिकुँज में विराजमान ऋषि सत्ता के मार्गदर्शन में होना था । आत्मा की अनंत शक्ति का प्रयोग करके प्राचीनकाल में लोग अपने आँतरिक और भौतिक प्रगति का पथ जिस प्रकार प्रशस्त करते थे और रीति-नीति में आध्यात्मिक आदर्शों का समावेश रहने से सर्वत्र सुख-शांति का साम्राज्य था, उस विलुप्त अध्यात्म को पुनर्जीवित करने का कार्य जीवन के इस अंतिम अध्याय में ब्रह्मवर्चस द्वारा सम्पन्न होना था । इसीलिए शाँतिकुँज की स्थापना अभीष्ट समझी गयी । ‘मानव में देवत्व और धरती पर स्वर्ग का अवतरण ‘ यही दो सतयुगी समाज का मूलभूत आधार बनेंगी । प. पू. गुरुदेव का यह चिंतन शाँतिकुँज से ही क्रियान्वित होना था । पं.पू. गुरुदेव ने अपनी वेदना व्यक्त करते हुए मार्च 69..की अखण्ड ज्योति में लेखनी से अभिव्यक्ति दी है कि आज धर्म, नीति, सदाचरण आदि की शिक्षा देने वाले ग्रंथ एवं प्रवक्ता तो मौजूद है, पर उस विज्ञान की उपलब्धियाँ हाथ से चली गई, जो इसी शरीर में विद्यमान अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय शक्ति कोषों की क्षमता का उपयोग करके व्यक्ति की, समाज की कठिनाइयों को हल कर सके । पातंजलि योग दर्शन, मंत्र महार्णव, कुलार्णव तंत्र आदि शक्ति विज्ञान के ग्रंथ तो कई है लेकिन उसमें वर्णित सिद्धियों को जो प्रत्यक्ष कर दिखा सके ऐसी मिश्रित साधना नहीं के बराबर दिखायी देती है । यदि इन लुप्त विद्याओं को खोज निकाला जाय तो भौतिक विज्ञान को परास्त कर पुनः अध्यात्म विज्ञान की महत्ता प्रतिस्थापित की जा सकेगी और लोकमानस के प्रवाह को उस स्थिति की ओर मोड़ा जा सकेगा जिसकी हम अपेक्षा करते हैं । ब्रह्मवर्चस की स्थापना का मूलभूत आधार प. पूज्य गुरुदेव के मानस में आठ वर्ष पूर्व ही बन चुका था । गंगा की गोद,हिमालय की छाया एकान्त में स्थित स्थान जो उच्च आध्यात्मिक शोधों के लिए सही सिद्ध हो, वह शाँतिकुँज के अंग के रूप में ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान 1969 में जन्म ले चुका था ।

मात्र अध्यात्म विज्ञान की शोध ही नहीं अपितु समस्त लुप्त प्रायः ऋषि परम्परा का बीजारोपण एवं क्रियान्वयन किस तरह शाँतिकुँज, ब्रह्मवर्चस के समन्वित प्रयास से होगा, यह भी इस भविष्यदर्शी युग ऋषि अवतारी सत्ता द्वारा अपने दिव्य चक्षुओं से देख लिया गया था । आज का शाँतिकुँज एवं ब्रह्मवर्चस उनकी उसी परिकल्पना की फलश्रुतियाँ हैं । स्थूल रूप में चाहे कोई भी कार्यकर्त्ता दिखाई पड़े, किन्तु वह ऋषि चेतना ही इन सारे क्रिया -कलापों के मूल में है जो यहाँ गतिशील होते हैं एवं क्षेत्रों में क्रियारूप लेते देखे जाते हैं । ब्रह्मवर्चस, जिसकी स्थापना 18 वर्ष होने को आते हैं, भले ही वैज्ञानिकों की भाषा में अध्यात्म विद्या का ऐसा प्रस्तुतिकरण न कर पाया हो जैसे वे अपेक्षा रखते हैं, परंतु संजीवनी साधना करने वाले साधकों पर निरंतर प्रयोग करने के बाद उन्हें श्रेष्ठ समर्पित साधक के रूप में, जिन्हें वास्तव में ज्ञान अनुभूतियाँ हुई, हजारों की संख्या में तैयार कर कार्यक्षेत्र में भेजने एवं जन-जन के लिए सुलभ बनाने का कार्य कर दिखाया । शोध वही सफल होती है जो धरातल तक कार्य करने वाले व्यक्ति -व्यक्ति तक पहुँचे । व्यक्ति का भावनात्मक कायाकल्प करके दिखा दे, परिवार में संस्कारों को इस तरह गूँथ दे कि वे उनके दैनंदिन जीवन का अंग बन जाएं। यही हुआ और 80 हजार से अधिक प्रयोग -परीक्षण के उपराँत इन ऊर्जा अनुदानों को पाने के लिए शाँतिकुँज आते हैं एवं परीक्षण कराते हैं, अनुदान पाते हैं,लाभान्वित होकर जाते हैं । यही युग ऋषि चाहते थे । वैज्ञानिकों की संतुष्टि के लिए उन्हीं की भाषा में बुलेटिन इसी वर्ष विनिर्मित किए जा रहे है जो निश्चित ही बुद्धिजीवियों में क्राँति का तूफान खड़ा कर देगा । देरी भले ही हुई हो परंतु कार्य कहीं नहीं रुका है।

तीसरा कार्य जो गुरु सत्ता ने शाँतिकुँज से अनवरत संचालित करने का निर्देश दिया था -वह था ममत्व का अनंत सीमा तक विस्तार । ज्ञातव्य है कि इसके पूर्व आखिरी दिनों की वे ‘विदाई ‘ की घड़ी और हमारी व्यथा वेदना ‘ शीर्षक से अपने अंदर की हूक परिजनों के समक्ष अभिव्यक्त कर चुके थे । इस तीसरे कार्य के अंतर्गत पूज्यवर ने जो विशेष दायित्व कंधों पर लिया, वह था परम व माताजी के ऊपर एक अभूतपूर्व स्तर का शक्तिपात, ताकि वे हरिद्वार में रहकर वह कार्य संपन्न कर सकें जो पूज्यवर गुरुदेव और वं. माताजी मथुरा में रहकर सम्पन्न किया करते थे । माताजी को उन्होंने अपने परिजनों के बीच जोड़ने वाली एक संपर्क कड़ी बताया और यह कहा कि सहारा ताकने वाले कमजोर और छोटे बालक जो गुरुसत्ता के मथुरा से जाने के बाद अपेक्षा रखेंगे वह उन्हें वं. माताजी के माध्यम से सतत् मिलता रहेगा । अपने विराट गायत्री परिवार युग निर्माण के प्रति कितना सघन स्तर का लगाव था कि उनने पूर्व जन्म से जुड़ी हुई आत्माओं के, जिन्होंने थोड़ा भी गुरुसत्ता से संबंध स्थापित किया अपने ममत्व की गंगोत्री के सतत् प्रवाहित होते रहने की सुनिश्चित गारंटी मार्च 69 में दे दी थी । 1971 के बाद शाँतिकुँज में वं. माताजी की मुख्य भूमिका आरम्भ होनी थी । गुरुदेव पृष्ठभूमि में रहकर सारा कार्य करते रहने वालों में थे । ये सारी घोषणाएँ विदाई के पूर्व वर्ष में ही कर दी । शांतिकुंज को समझने से पहले इस समग्र पृष्ठभूमि को समझना बहुत जरूरी है, क्योंकि स्नेह और अपनत्व की आधारशिला पर स्थापित मिशन का यह दृश्यमान कलेवर दोनों ही सत्ताओं के महाप्रयाण के बाद, उन्हीं प्रक्रियाओं को जारी रखने के लिये संकल्पित है, जिनका शुभारम्भ पूज्यवर ने किया । समाज सुधार के रचनात्मक आँदोलन एवं राष्ट्र के साँस्कृतिक उत्थान के लिए अनेकानेक संस्थाएँ बनती है, भवन खड़े होते हैं, किन्तु इनसे शाँतिकुँज की गुरुसत्ता ने इक्कीसवीं सदी की गंगोत्री बनाया है एवं इक्कीसवीं सदी की भाव सम्वेदना बताया है । जिस संस्था का आधार सम्वेदना विस्तार, प्यार ही प्यार पर टिका हो, वह एकता, समता, ममता, शुचिता सभी चार स्तम्भों पर टिके उस सतयुगी समाज निर्माण के लिए प्रतीक है, जिसके लिये दैवी चेतना ने उसे चुकाया । इतना मूलभूत आधार समझ में आने के बाद शाँतिकुँज गायत्री तीर्थ, ब्रह्मवर्चस भवनों का समुच्चय नहीं रह जाते वरन् ऋषि युग्म की तपश्चर्या से अनुप्राणित, भाव सम्वेदनाओं से सिक्त एक ऐसी आश्रयस्थली के रूप में परिलक्षित होकर हमारे सामने आते हैं, जिसके आगोश में पीड़ा, पतन, पराभव से ग्रसित मानवता को प्यार का मलहम लगाया जा सकेगा, दिशाधाराएं दी जा सकेंगी एवं समग्र ढाँचा विनिर्मित किया जा सकेगा, जो देव संस्कृति के, विश्व संस्कृति के, विश्व संस्कृति के रूप में परिणत होने का मूल नियंत्रण बने ।


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