नारी शक्ति का युग शक्ति के रूप में उदय

August 1996

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वर्ष 1975 शाँतिकुँज में महाकाल का एक नया संदेश लेकर उतरा- “ नारी शक्ति का युग शक्ति के रूप में उदय।” यूँ शाँतिकुँज ने अपनी स्थापना के प्रथम दिवस से ही वन्द. माताजी को अपनी अधिष्ठातृ शक्ति के रूप में अपना करके नारी के गौरव का उद्घोष कर दिया था। माताजी के सान्निध्य में देव कन्याओं द्वारा सम्पन्न की गई गायत्री पुरश्चरणों की शृंखला ने इस सम्बन्ध में सशक्त पृष्ठभूमि का निर्माण किया। फिर भी इस सबके बावजूद 1975 में नारी अभ्युदय के संदर्भ में किए गए प्रयासों का अधिक सशक्त और सुनियोजित स्वरूप प्रकट हुआ।

इस वर्ष में उत्पन्न हुई अन्तरिक्षीय हलचलों की व्यापकता इस बात से भी समझी जा सकती है कि संयुक्त-राष्ट्र-संघ ने भी इस वर्ष को अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के रूप में मानने का निर्णय लिया। यद्यपि इस निर्णय के काफी पूर्व पू. गुरुदेव महिला जागरण अभियान सम्बन्धी अपना कार्यक्रम निश्चित कर चुके थे। उनके द्वारा किया गया यह निश्चय कुछ ऐसा था, मानो भगवान महाकाल शाँतिकुँज को अपने संकल्पों को केन्द्र बनाकर उनका विश्वव्यापी विस्तार कर रहे हों।इस वर्ष राष्ट्रसंघ ने सभी देशों की सरकारों से तथा समाजसेवी संस्थाओं से अनुरोध किया कि वे महिला जागरण के सम्बन्ध में कुछ अधिक सोचें और कुछ अधिक करें। इसका प्रभाव इतना तो हुआ ही कि युग ऋषि के संकल्प के स्पन्दन विभिन्न हलचलों के रूप में यत्र-तंत्र दिखाई पड़े और जनमानस यह समझने के लिए मजबूर हुआ, कि अचानक हवा का रुख किस ओर मुड़ चला है। संसार भर के देशों की सरकारें इस वर्ष नारी समस्या पर अधिक ध्यान देने की ओर प्रवृत्त हुई । महिलाओं के मार्ग की अड़चने हटाने और सुविधाएँ बढ़ाने के लिए कुछ न कुछ सोचा गया। सामाजिक संस्थाओं ने भी इस वर्ष पहले की अपेक्षा अधिक उत्सुकता और सक्रियता प्रदर्शित की। पत्र-पत्रिकाओं में नारी उत्कर्ष पर अपेक्षाकृत अधिक लेख प्रकाशित हुए। सभा-सम्मेलनों प्रस्तावों, प्रदर्शनों की भी धूम मची। ये सभी ठोस हों या पोले प्रयास, इन्हें अच्छे चिह्न के रूप में तो स्वीकार करना ही होगा। जहाँ नारी संगठनों का अस्तित्व था, वहाँ भी मूर्छना टूटी और कागजी खोखला न खड़ा रखकर, कुछ रचनात्मक कदम बढ़ाने का उत्साह जागा। विचारशील स्त्रियों की एक बड़ी संख्या यह सोचने लगी कि उनके समाज का पिछड़ापन दूर करने के लिए अब कुछ अधिक बड़े प्रयास होने चाहिए और स्थिति में तेजी से सुधार होना चाहिए। पुरुषों में से अनेक दूरदर्शी लोग यह सोचने के लिए विवश हुए कि नारी का पिछड़ापन मानव समाज को प्रभावित करने वाली सबसे बड़ी समस्या है। उसे ऐसे ही उपेक्षित, अनसुलझी स्थिति में नहीं पड़ी रहने देना चाहिए। इसके पहले नारी समस्या पर चर्चाएँ तो होती थी। पर उसे घरेलू स्तर की मानकर ऐसे ही हल्की बात माना जाता था। पर इस वर्ष लोकचिन्तन ने ऐसी नयी करवट ली कि उसे उपेक्षित समस्या का प्राथमिकता देने के लिए विश्वव्यापी स्फुरणा उत्पन्न हुई। इस सबका-समन्वय सन् 75 के उस महान संकल्प में देखा जा सकता है। जिसने पर्दे के पीछे रहते हुए कितनी ही अभिनव हलचलों का सृजन किया । इसके प्रभाव और परिणाम भी उसी अनुरूप हुए । यों समय-समय पर कई आन्दोलन खड़े होते हैं और अपने संयोजकों के प्रभाव तथा उत्साह के अनुरूप उठते, बढ़ते तथा समाप्त हो जाते हैं। पर नारी अभियान उनमें से एक नहीं रहा। क्योंकि यह राष्ट्र संघ की, सरकारों की या संस्थाओं की सामयिक उमंग नहीं थी, जो बरसाती बादल की तरह कुछ घड़ी गर्जन-तर्जन करके ठण्डी पड़ जाती। यदि यह कुछ व्यक्तियों, का संगठनों का प्रयास भर होता तो वैसी आशंका की जा सकती थी पर यथार्थता तो कुछ और ही रही। यह तो युगान्तरीय चेतना का संकल्प था। जिसने कालचक्र की गति को बदलने के लिए विवश किया और उसने युग बदल देने जैसी करवट ली। सूक्ष्म जगत में वे सम्भावनाएँ बन चलीं जो अपने प्रचण्ड गवाह से आगे कितने ही महत्वपूर्ण परिवर्तन प्रस्तुत करेंगी। नारी का पुनरुत्थान उन्हीं में से एक सुनिश्चित तथ्य है।

इस वर्ष नारी उत्थान सम्बन्धी विश्वव्यापी हलचलें कहाँ कितनी हुई, इसका पर्यवेक्षण यदि क्या-क्या छपी, क्या-क्या कहा, सुना गया इस आधार पर निकालना हो तो कुछ सन्तोष की सांसें ली जा सकती हैं। पर यदि युग परिवर्तन, नवनिर्माण के केन्द्र शाँतिकुँज में इन्हीं दिनों क्रियाशील समय को पलट देने और प्रवाह को बदल डालने वाली शक्ति को समझा जा सके तो फिर निराश नहीं होना पड़ेगा। इस समर्थ शक्ति के क्रिया-कलापों का ही एक रूप कन्या प्रशिक्षण सत्रों के रूप में उभरा। यद्यपि कुछ कन्याएँ शाँतिकुँज की स्थापना के साथ ही वन्दनीया माताजी के सान्निध्य में रहने लगी थी। प्रारम्भ में इनकी संख्या चार थी जो आगे बढ़कर चौबीस तक जा पहुंची। लेकिन इनकी दिनचर्या मूलतः तप प्रधान थी। गायत्री पुरश्चरणों की शृंखला के लिए निर्धारित जप पुरा करने के बाद माताजी स्वयं ही इनका शिक्षण कार्य सम्पन्न करतीं। शिक्षण के इस क्रम में औपचारिक शिक्षा के साथ संगीत, कर्मकाण्ड, पौरोहित्य के साथ वक्तृत्व कला का भी समुचित स्थान रहता ।

उन दिनों शाँतिकुँज का कलेवर इतना बड़ा न था। सिर्फ दो तीन कमरों का छोटा-सा परिसर था। आस-पास वन प्रान्त, निकट में बहती गंगा की जलधारा इस सबकी सुरम्यता अनुभव ही करने योग्य थी। शब्दों में भला वह सामर्थ्य कहाँ कि इसका वर्णन कर सके। जैसे-जैसे लड़कियों की संख्या बढ़ती गयी नए भवन भी विनिर्मित होते गए। 1975 में विधिवत् देवकन्या प्रशिक्षण विद्यालय कर आरम्भ हुआ। जिसकी मुख्य अधिष्ठात्री माता जी स्वयं थी। इस प्रशिक्षण की शुरुआत के समय तक शाँतिकुँज का परिसर सप्तऋषियों की मूर्तियों तक सीमित था। यद्यपि उन दिनों ये मूर्तियाँ न थी। गायत्री मन्दिर के ठीक सामने आज जहाँ विश्वामित्र की मूर्ति है, उन दिनों यज्ञशाला हुआ करती थी। वशिष्ठ एवं विश्वामित्र ब्लाक वर्तमान समय की ऊँचाई न पाने के बावजूद अस्तित्व में आ चुके थे। गायत्री मन्दिर के पास वाले हाल के ऊपर एक और हाल बन चुका था। इसे नाम दिया गया-कन्या हाल। यही कन्या प्रशिक्षण का मुख्य कक्ष थी।

एक वर्षीय प्रशिक्षण में भागीदारी पाने वाली लड़कियाँ वशिष्ठ ब्लाक में रहा करती थी। यहीं उनका बोर्डिग हाउस था। भोजन के लिए इन्हें ऊपर माताजी के चौके में जाना होता और इनकी कक्षाएँ प्रातः छह से दोपहर 12 तक कन्या हाल में सम्पन्न होतीं। कक्षाओं के निर्धारित विषय कर्मकाण्ड, रामायण, स्वावलम्बन उद्योग, लाठी, स्काउट गाइड, संगीत गायन-वादन आदि होता। उन्हें स्क्रीन प्रिंटिंग और फोटोग्राफी आदि सिखाने की भी व्यवस्था जुटाई गयी थी।

इस सबके साथ जुड़ा रहता पू. गुरुदेव का भावभरा उद्बोधन जो प्रशिक्षण प्राप्त कर रही लड़कियों में नारी गरिमा का जागरण करता। वह उन्हें समझाते-” नारी ब्रह्म विद्या है, श्रद्धा है, शक्ति है, पवित्रता है, कला है और वह सब कुछ है जो इस संसार में सर्वश्रेष्ठ के रूप में दृष्टिगोचर होता है। नारी कामधेनु है, अन्नपूर्णा है, सिद्धि है, रिद्धि है और वह सब कुछ है जो मानव प्राणी के समस्त अभावों, कष्टों एवं संकटों को निवारण करने में समर्थ है। यदि उस श्रद्धासिक्त सद्भावना के साथ सींचा जाय तो यह सोमलता विश्व के कण-कण को स्वर्गीय परिस्थितियों से ओतप्रोत कर सकती है।

पू. गुरुदेव एवं वन्दनीय माता जी का सहज वात्सल्य बालिकाओं को इसी रूप में प्राप्त होता । हर लड़की यही अनुभव करती कि उसे उसके अपने शाश्वत माता-पिता मिल गए है। शाँतिकुँज से विछोह की कल्पना ही उन्हें रुला देती । जहाँ एक ओर वह सम्वेदना से सींची जा रही थी, वहीं दूसरी ओर उनमें आत्मविश्वास उड़ेला जा रहा था। शाँतिकुँज के इस प्रशिक्षण ने उन्हें कितनी योग्यता, प्रतिभा और मनोबल का वरदान दिया, इसे तो तब जाना जा सका, जब इन देवकन्याओं की टोलियाँ क्षेत्रों में युग निर्माण मिशन के कार्यक्रमों को सम्पन्न करने के लिए सक्रिय हुई।

ऐसा ही एक कार्यक्रम लखनऊ में आयोजित हुआ। उसमें उन दिनों के तत्कालीन गवर्नर डॉ. एम. चन्ना रेड्डी आए हुए थे। उन्होंने इस देवकन्याओं द्वारा प्रस्तुत किया गया भावपूर्ण संगीत सारगर्भित प्रवचन को सुना। सुनने के, पश्चात उनके अचरज का ठिकाना न रहा भला इतने कम उम्र की सोलह, सत्तरह साल की कन्याएँ देश की समाज की विभिन्न समस्याओं को इतना सटीक विश्लेषण कैसे कर पाती हैं। कौन है इनका प्रशिक्षक कहाँ पाया इन्होंने इतना सशक्त, शिक्षण। उत्तर में उन्होंने पू. गुरुदेव, वन्द, माताजी एवं शाँतिकुँज आए बिना न रह सके। यहाँ आने पर उनका मन प्रसन्नता, आह्लाद और नवीन आशाओं से छलक उठा। इन दिनों शाँतिकुँज में जहाँ एक ओर कन्या प्रशिक्षण सत्र, महिला शिविर चल रहे थे। वहीं क्षेत्रों में महिला सम्मेलनों की धूम मची थी। वर्ष 1975 के अक्टूबर माह में गुरुदेव ने घोषित किया कि देवकन्याओं के एक वर्षीय सत्र समापन की ओर है। इसकी समाप्ति के साथ ही सभी संगठित शाखाओं को अपने वार्षिकोत्सव महिला सम्मेलन के रूप में करना चाहिए। सम्मेलनों में, शाँतिकुँज में संगीत, प्रवचन एवं मार्गदर्शन के लिए प्रशिक्षित प्रचारिकाओं का एक जत्था मिशन का प्रतिनिधित्व करने के लिए पहुँच सके, इसके लिए व्यवस्था बनायी जा रही है। जत्थे में चार प्रचारिकाएँ एवं एक प्रबुद्ध संरक्षक इस प्रकार पाँच व्यक्ति रहेंगे।

इन कार्यक्रमों की अवधि पाँच दिन की रखी गई और उसका कार्यक्रम इस प्रकार बनाया गया। प्रथम दिन-प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व प्रभातफेरी। तीसरे प्रहर लाल मशाल के प्रतीक चित्र की सजधज एवं गाजे-बाजे के साथ शोभायात्रा; दूसरे-तीसरे और चौथे दिन-सूर्योदय से पूर्व प्रभातफेरी । प्रातःकाल पाँच कुण्डीय यज्ञ जिसमें कन्याएँ, आहुतियाँ देंगी और महिलाएँ, पूर्णाहुति समेत अन्य कार्यक्रमों में भाग लेंगी। सारा कार्यक्रम महिलाओं द्वारा ही सम्पादित हुआ करेगा। बच्चों के नामकरण, अन्नप्राशन, मुण्डन विद्यारम्भ संस्कार भी साथ-साथ होते रहेंगे। तीसरे प्रहर 2 से 5 तक महिला गोष्ठी मात्र महिलाओं के लिए। रात्रि 7 से 10 खुला महिला सम्मेलन । जिसमें सभी भाग ले सकते हैं। पाँचवें दिन यज्ञ की पूर्णाहुति के समय देव दक्षिणा में कम से कम अपनी आदत में सम्मिलित एक दुर्गुण का त्याग एवं एक सद्गुण अपनाने का संकल्प। प्रसाद स्वरूप महिला जागरण सम्बन्धी सस्ते प्रचार साहित्य का वितरण।

पू. गुरुदेव ने इन्हीं दिनों स्पष्ट किया कि शाँतिकुँज की स्थापना का मूल प्रयोजन महिला जागरण अभियान का आरम्भ करके उसे नारी के समग्र उत्कर्ष की अनेकानेक गतिविधियों को विश्वव्यापी बनाना है। अभियान के क्रियाकलाप चार भागों में विभक्त किए गये 1 साहित्य प्रकाशन 2 नारी शिक्षण सत्र 3- संगठन द्वारा संघ शक्ति का उदय 4- रचनात्मक कार्यक्रमों का व्यापक विस्तार। साहित्य प्रकाशन के सिलसिले में न केवल शत-सहस्र पुस्तकें प्रकाशित हुई बल्कि महिला जागृति अभियान पत्रिका न भी प्रवाह पकड़ा।

भले ही इस वर्ष शाँतिकुँज में नारी अभ्युदय की एक हलकी-सी किरण का ही उदय हुआ हो, पर इसके क्षीण आलोक में उज्ज्वल भविष्य की झाँकी विश्वासपूर्वक की जा सकती है। जिनको सूक्ष्म जगत और उसकी सत्ता पर विश्वास है, वे जानते हैं कि क्रिया की प्रतिक्रिया का अकाट्य प्रकृति नियम अवाँछनीयताओं को उलट देने का सरंजाम अनादि काल से जुटाता रहा है। विश्व का सन्तुलन बनाए रखने के लिए ऐसे अंधड़, तूफान खड़े होते रहे हैं, जिनने निराशा और आतंक की मेघमाला को छिन्न-विच्छिन्न करके समय-समय पर घुटन को दुर किया है। मनुष्य को समष्टि अन्तरात्मा, जिसे विश्वात्मा या परमात्मा कह सकते हैं, विकृतियों के निराकरण के लिए समर्थ प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करती रही हैं। शरीर में विषाणुओं का विजातीय द्रव्य जब अवाँछनीय जमघट एकत्रित हो जाता है तो प्रकृति कोई तीव्र रोग संवेग खड़ा करती है ज्वर, पीड़ाएँ सूजन आदि के रूप में कष्ट तो होता है पर बीमारी को उखाड़ने की दृष्टि से यह आवश्यक होता है।

शरीर स्वास्थ्य के सन्तुलन की तरह समाज स्वास्थ्य में विकृत विषाणुओं की भ्रष्ट मान्यताओं और गतिविधियों की भरमार हो जाती है तो अनिवार्य रूप से उसकी सुधार प्रक्रिया सामने आती है। इस परिवर्तन प्रकरण को मोटे तौर पर भगवान का अवतरण कहा जाता है। अधर्म का उन्मूलन और धर्म का संस्थापन करने के लिए भगवान प्रतिज्ञा बद्ध हैं। साधुता का परित्राण और दुष्कृतों का विनाश करना, सृष्टि के असन्तुलन को सहन न करना उनका स्वभाव है। ठीक है मनुष्य कर्म करने को स्वतन्त्र है। पर यह स्वतन्त्रता औचित्य के साथ जुड़ी रहनी चाहिए। अनौचित्य सर्वत्र असह्य माना गया है और सदा-सर्वदा उसकी प्रतिक्रिया हुई है। यदि ऐसा न होता तो समय-समय पर प्रकट होने वाले दुर्दान्त असुरों ने अब तक कब का इस संसार को अपने पेट में निगल लिया होता।

महिला जागृति के सम्बन्ध में भी यह तथ्य है। स्थिति यह है कि आधी जनसंख्या को शिक्षा एवं स्वावलम्बन के अभाव ने पर्दाप्रथा, अनुभवहीनता एवं सामाजिक कुरीतियों ने बेतरह जकड़ रखा हैं। उसने सदियों से अनौचित्य के प्रहार सहे हैं। असन्तुलन अब असहनीय हो चुका है और संसार के इतिहास पर आरम्भ से लेकर अद्यावधि परिस्थितियों का विहंगावलोकन करें तो पाएँगे कि सन्तुलन बनाने में दिव्य शक्तियों ने देर तो की हैं और ढील भी बरती है, पर उसकी पुरी तरह उपेक्षा नहीं की है। लोग अपना काम अपने हाथों कर लें, उपजते और स्थिति को सुधारने में लगे रहते हैं पर जब सामान्यक्रम गड़बड़ा जाता है और देवत्व को निरस्त करके असुरता सत्ता सम्पन्न होती है तो फिर प्रकृति प्रतिक्रिया का, भगवान के भावावतरण का कोई न कोई रूप सामने आ ही जाता है।

वर्ष 1975 में शाँतिकुँज में नारी अभ्युदय के प्रयासों में यही झाँकी देखी जा सकती है। यह एक ऐसी शुरुआत थी जिससे प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में समूचा विश्व आन्दोलित हुए बिना न रह सका। नारी की अन्तःचेतना ने मूर्छना की स्थिति को अस्वीकार कर दिया। वह मनुष्य से कम स्तर का जीवनयापन करने के लिए तैयार नहीं। समय का समर्थन उसके साथ है ऐसी दशा में न तो अस्वीकृति से काम चलेगा और न दमन को सफलता मिलेगी। न्याय की पुकार जब प्रबल हुई है, तब’-तब उसे मान्यता मिलकर ही रही है। इस वर्ष की यह शुरुआत अपने समय की समस्या का हल माँगने के लिए जोर पकड़ती जा रही है।

वस्तुतः महाकाल का यह प्रथम आश्वासन है जिसके पीछे पिछड़ों को ऊंचे उठाकर समता का धरातल बनाने के लिए वचनबद्ध दैवी शक्तियों ने आश्वासन दिलाया हैं। लोक मानस भी समय की प्रचण्ड धारा के विपरीत बने रहने का देर तक प्रयास नहीं करता रह सकता। तूफान मजबूत पेड़ों को भी उखाड़ फेंकता है। घटाटोप वर्षा में छप्परों से लेकर झोंपड़ों तक को बहते देखा जाता है। पानी का दबाव बड़े-बड़े बाँधो में भी दरार डालने और उन्हें बहा ले जाने का दृश्य प्रस्तुत करता है। यह महाकाल की हुँकार ही है- जो शाँतिकुँज में देवकन्या प्रशिक्षण के रूप में गूँजी थी। जिसने नारी को पिछड़े क्षेत्र से हाथ पकड़कर आगे बढ़ने के लिए धकेला और घसीटा है। अब न सिर्फ नारी के भाग्य में स्वतः की बेड़ियों से मुक्ति लिख दी गयी है वरन् विधाता ने उसे मुक्तिदूत बनने का गरिमापूर्ण दायित्व भी सौंपा हैं। जिन्हें सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त हैं वे अनुभव कर सकते हैं कि यह अपने युग का सुनिश्चित निर्धारण है जो इन्हीं दिनों पुरा होने वाला है। मनुष्य द्वारा मनुष्य के उत्पीड़न का एक और बड़ा दुर्ग अब बिस्मार होने वाला है।


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