गायत्री महामंत्र-वेदों का सार

August 1996

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,षं नो मित्रः। शं वरुणः। शं नो भवर्त्वयमा। शं नो इन्द्रो बृहस्पतिः। शंनो विष्णुरुरुक्रम। नमो ब्रह्यणे। नमस्ते वायो। त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्यासि। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्यवादिषम्। ऋतंभवादिषम्। सत्यम वादिषम्। तनमाभावीत्। तद्वक्तारमारवीत्। आवीन्माम्। अवीद्वक्तारम्। ॐ शान्ति। शान्ति!! शान्ति!!!

एक धीर, गम्भीर स्वर तथा उसका अनुकरण करते हुए बालकों का लयबद्ध समवेत स्वर, प्रभातकालीन सूर्य की सुनहरी धूप समूचे आश्रम पर बिखर गयी थी। पहले कुछ किरणें गोशाला के ऊपर धीमे से आयीं थीं, बड़ी सुहावनी थी। अतः प्रार्थना करते-करते सारा आँगन उस आह्लादक स्वर्णिमा से भर गया था तथा प्रार्थना करते हुए बटुकों के मुग्ध, स्निग्ध चेहरे चमकने लगे। वायु के एक झोंके ने आश्रमवासियों में सिहरन पैदा कर दो। जैसे उसने धूप की चुनौती को स्वीकार किया हो तथा अपने अस्तित्व का बोध कराया हो । किन्तु बालक निर्विकार भाव से गुरुदेव ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के साथ प्रार्थना के स्वरों में तन्मय थे।

ब्रह्मर्षि वशिष्ठ का यह आश्रम आर्यावर्त के ज्ञान- विज्ञान का केन्द्र बिन्दु था। महर्षि ने इसे मुख्य रूप से चार भागों में विभक्त कर रखा था। एक भाग था गार्हस्थ कर्म का, जिसकी देखभाल स्वयं भगवती अरुन्धती करती थीं। एक भाग था तपश्चरण का, जिसका प्रभार बालखिल्य ऋषियों के पास था। अध्ययन, अध्यापन, योग के प्रभाग का कार्य महर्षि वशिष्ठ स्वयं देखते थे तथा कृषि गोपालन हेतु उन्होंने अपने वरिष्ठ शिष्य सुतपा को नियुक्त कर रखा था। यह आश्रम अत्यन्त मनोरम ब्रह्मलोक जैसा जान पड़ता था। अनेक प्रकार की पुष्पलताएँ तथा वृक्ष लगे हुए थे। अनेक प्रकार के मृगगणों से भरा हुआ था। सिद्ध, चारण, देव, गंधर्व, किन्नर, ब्रह्मर्षि तथा देवर्षि गणों से परिपूर्ण था जो आश्रम की शोभा बढ़ाते थे। अग्निकल्प महात्माओं की तपस्याओं से संकुप था। जिनमें कुछ केवल पानी पीकर रहते थे। कुछ केवल हवा का भक्षण करके तपस्या कर रहे थे, कुछ सूखे पत्तों का भोजन करके ही जीवन धारण किए हुए थे। कुछ फल, मूलों पर आधारित थे। सभी इन्द्रियजयी तथा दान्त थे तथा जप-होम-परायण थे। इसके अतिरिक्त वैखानसों से भी यह आश्रम चारों ओर से सुशोभित था। उल्लास ही उल्लास, पूरा आश्रम स्फूर्ति और उनके शिष्यों के चेहरे इन्हीं भावों को प्रसारित कर रहे थे।

प्रार्थना की समाप्ति के बाद महर्षि अपना व्याख्यान प्रारम्भ भी नहीं कर पाए थे कि श्रोताओं से प्रश्न आना प्रारम्भ हो गया। वशिष्ठाश्रम की यह विशेषता थी कि प्रश्नों का बड़ा सम्मान था। पूरे-पूरे सत्र में उपाध्याय अपनी बात नहीं कह पाते थे केवल अन्तेवासियों के प्रश्नों का उत्तर देते थे। ऋषि कहते थे कि प्रश्नोत्तरी खाए हुए ज्ञान के रोमन्थ के समान है जिससे वह पचता है तथा सच्चे विवेक में परिणत होता है। अतः जितना अधीत किया हुआ है या श्रवण के माध्यम से जितना ज्ञान मस्तिष्क में गया है, उसका पहले पचना, हृदयंगम होना आवश्यक है। प्रश्नोत्तर तथा उन पर तर्कपूर्ण विचार इस हेतु आवश्यक है। प्रश्नों को ही दिशा देकर महर्षि अपने प्रतिपाघ विषय को भी गहराई से समझा देते हैं।

प्रश्न उठे इसलिए कि प्रार्थना ही आज को ऐसी थी। अभी तक प्रार्थनाएँ मूलतः गुरु-शिष्यों तथा उनके कल्याण आशंसन तक सीमित थीं। आज अनेक प्रणम्य तत्व उनमें आ गए। अतः व्युत्पन्न विद्यार्थियों की जिज्ञासाएँ फूट पड़ी।

गुरुदेव! मित्र वरुण अर्यमा किस प्रकार से हमार प्रणम्य हुए। ये कौन हैं? सबसे पहला प्रश्न अप्रत्याशित रूप से लक्ष्मण का था। हाँ गुरुदेव! और इन्द्र बृहस्पति तथा वायु ये भी प्रणम्य क्यों हैं? शत्रुघ्न भी कहाँ पीछे रहने वाले थे। विष्णु के विषय में कुमार ने सम्भवतः इसलिए नहीं पूछा क्योंकि उनके कुल देवता श्री रंगजी उनके अनुसार सम्भवतः विष्णु ही थे। ब्रह्म को भी वे विष्णु से अभिन्न मानते थे। और गुरुदेव। हम उनसे रक्षा की याचना क्यों करते हैं सूर्यदेव की शक्ति को हम देख सकते हैं किन्तु वायु, वरुण यदि हमारी रक्षा कैसे करेंगे। गुह को भी प्रश्न करने का साहस हो गया।

ऋषिवर! हम इनकी प्रार्थना करें तथा इनसे शान्ति एवं कल्याण की याचना करें तो अन्य देव जैसे अग्नि, यम आदि अप्रसन्न नहीं होंगे। इस प्रार्थना में उनके नाम नहीं हैं। काशी के राजकुमार प्रतर्दन का प्रश्न था।

महर्षि प्रश्नों को सुनकर गदगद हो गए तथा उनके प्रवासी पुत्र मन ही मन बड़े प्रसन्न हुए। इस आश्रम में बालक कितने व्युत्पन्न हो जाते हैं। उन्होंने अन्य आश्रम तथा गुरुकुल भी देखे थे। यहाँ का अपना ही वैशिष्ट्य था।

साधु वत्स ! साधु ! महर्षि ने दोनों हाथ उठाते हुए प्रसन्न स्निग्ध चितवन से अन्तुवासियों को देखा तथा उनके प्रश्नों का समाधान करने का उपक्रम प्रारम्भ किया। “ वत्सगण ! तुम्हारा सभी का मूल प्रश्न यह है कि ये देवता कौन है? ये कितने हैं तथा ये हमारे प्रणम्य क्यों हैं ? इनमें ऐसी कौन−सी शक्ति है कि ये हमारी रक्षा कर सकते हैं ! यही न ?”

हाँ गुरुदेव ! अनेक आवाजें आयीं।

“ हाँ वत्स ! इसी की व्याख्या हम करेंगे तथा इसी के उत्तर में वैदिक साहित्य का परिश्रम निहित हैं। बच्चों ! तुम्हें स्मरण होगा कि हमने कल के सत्र में चौदहों विद्याओं का परिचय दिया था- चार वेद, छह वेदाँग, पुराण, न्याय मीमाँसा तथा धर्मशास्त्र और यह भी बताया था कि अगले दिन इन इनमें प्रवेश करके उनका सारभूत तत्व बताएँगे। तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर के माध्यम से हम सबसे पहले अपने आदि वाङ्मय वेदों में प्रवेश करते हैं। “

साधु ! साध! वेदिका पर से ही कुछ ऋषिगणों की आवाज आयी।

“ बच्चों ! वेद के दो विभाग हैं-मंत्र और ब्राह्मण। ‘ मंत्र ब्राह्मणात्मको वेदः ‘ किसी देवता, विशेष की स्तुति में प्रयुक्त होने वाले वाक्य की मंत्र कहते हैं तथा यज्ञानुष्ठान का विस्तारपूर्वक वर्णन करने वाले ग्रन्थ को ब्रह्माण कहते हैं। मंत्रों के समुदाय की संहिता कहते हैं। ये चार हैं ऋक्, यजुः, साम, अथर्व।”

गुरुदेव ! संहिताएँ या वेद चार हैं, किन्तु अनेक बार हमने आपको तथा सुतपा एवं अन्य गुरुवरों को वेदत्रयी या केवल त्रयी शब्द का प्रयोग करते सुना है। वेद विद्या या वेदों के अर्थ में यह विसंगति कैसी ? प्रतर्दन ने ही प्रश्न किया।

“ वत्स मुझे पता था तुम यह प्रश्न करोगे और इसीलिए आगे बढ़ने से पहले मैं कुछ रुक गया ताकि यह प्रश्न उठे। तुमने ठीक कहा। वेदों की त्रयी भी कहते हैं। किन्तु यह व्याख्या वेदों की संख्या की प्रतिपादक नहीं है अपितु उनमें आए हुए मंत्रों के स्वरूप की बोधक है। ये मंत्र तीन प्रकार के हैं पाद से युक्त छन्दोबद्ध मंत्र जो ऋक् कहे जाते हैं। संगीतबद्ध मंत्र जो साम कहे जाते हैं। तथा इन दोनों से पृथक, गद्यात्मक वाघ के स्वरूप के मंत्र जिन्हें यजुः कहते हैं। अतः मंत्र त्रिविध होने से इन्हें त्रयी कहते हैं चारों वेदों में इन्हीं तीनों प्रकारों के मंत्र हैं। वेदों के इस स्वरूप को समझने के बाद हम प्रधान प्रतिपाद्य देवताओं पर आते हैं। ये कौन हैं ? कितने हैं? इनका स्वरूप क्या है ? आदि। “

“ वत्सगण! सावधानी से सुनो अत्यन्त गूढ़ विषय है - देव-देवता देवी सभी एक ही अर्थ में प्रयुक्त हैं इन सबमें दिव्य धातु दिखती है। जिसका अर्थ होता है द्युति अर्थात् चमकना। अतः देवत्व की अवधारणा में चमक प्रकाश प्रधान है। इसलिए इनका सम्बन्ध दिन से है जिसे दिवा कहते हैं। मनुष्य से तुलना करने पर उनसे भिन्नता बनाने के लिए ये सूक्ष्म है जबकि प्राणी स्थूल है। असुरों से भिन्नता बताने के लिए ये प्रकाशवान है जबकि दैत्य या असुर अन्धकारमय है।”

“ गुरुदेव! इसका अर्थ हुआ कि वह तत्व जो प्रकाशमान, सूक्ष्म तथा आद्य है वही देव है।” राम ने व्याख्या का उपसंहरण-सी करते हुए कहा

“ बिल्कुल ठीक रघुवर !”

किन्तु इससे समस्या नहीं सुलझती गुरुवर ! इन

धर्मों से युक्त तत्व आदि देवें है तो उसमें बहुत्व कहाँ से आ गया । उनके अलग-अलग नाम कैसे हो गए ? इस बार भरत की बारी थी। वे देवों के एकत्व के हामी थे।

अभी समझाता हूँ, पहले देव शब्द की व्याख्या पूरी हो जाय। अभी जो व्याख्या हमने की वह कही हमारी बुद्धि का विलास तो नहीं, स्वयं वेद इस विषय में क्या कहते हैं। यह जानना आवश्यक है। चार गुण-धर्म हमने देवताओं के बताए-प्रकाशकत्व, सूक्ष्मत्व उद्गावर्तित (ऊपर उठाना) तथा पूर्ववर्तित्व (पहले पैदा होना)।

साधु गुरुदेव ! साधु! हम कृतज्ञ हुए। कई स्वतर एक साथ बोल उठे।

“ अब मैं तुम्हारे इस प्रश्न पर आता हूँ कि इनमें बहुत्व कहाँ से आ गया ? ऋषियों तथा साधारण आर्यजनों को दृष्ट तथा अनुभूत ये तत्व विभिन्न गुणधर्मों के साथ प्रत्यक्ष हुए। उन गुणधर्मों के आधार पर उनकी संज्ञाएँ हो गयी वे संज्ञाएँ उन गुणधर्मों के सतत् साहचर्य के कारण उन-उन गुण-धर्मोवाचक हो गयी। उन्हें हम इन्द्र, पूषा, वरुण आदि नामों से पुकारने लगे। ‘

“उदाहरण के लिए, दिन-रात को हमने घड़ियों तथा प्रहरों में बाँट रखा है और कहते हैं अभी तीसरा प्रहर है, दो घड़ी बीत चुकी आदि। यह विभाजन कल्पित तथा अखण्ड समय पर आरोपित खण्डता है। किन्तु व्यवहार के लिए उपयोगी है। जब हम कहते हैं कि चौथा प्रहर हो गया तो सन्ध्या का अर्थ आने लगेगा और सन्ध्या समय के विभाग का चौथा प्रहर हमेशा माना जाने लगेगा। दिन रात में 60 घड़ी तथा 8 प्रहर 24 होरा, 21600 कलाएँ कितने विभाजन हो गए एक अखण्ड काल के, दिवा-रात्रि या मास-संवत्सर का विभाजननादि इसी प्रकार कल्पित तथा आरोपित है। किन्तु व्यवहार में वह प्रतीत तो होता है। तत्वज्ञ को भिन्नता का व्यवहार करते हुए भी इसकी अखण्डता का सदा बोध रहना चाहिए।

और स्पष्ट करे गुरुदेव! कई समवेत स्वर-उभरे।

“ अखण्ड महाकाल की तरह परम चेतन, परम

सूक्ष्म, परम प्रकाशमान, परम लघु, परम महत परम आद्यतत्व को हमने अनुभव के आधार पर अर्थात् जैसे हमें या पूर्वज ऋषियों का दिखाया, अनुभूत हुआ उसके आधार पर विभाजन कर लिए गए। अनुभव के, गुण-धर्म के आधार पर उनके अलग-अलग नाम दे दिए जो उन-उन गुण-धर्मों के प्रतीक हो गए। ‘

महर्षि के कथन की समाप्ति के साथ राम का स्वर उभरा । वे पूछ रहे थे- क्या किसी ने महाकाल को, परम चेतन तत्व की समग्र अनुभूति की है।

इस प्रश्न को सुनते ही महर्षि मुस्करा पड़े, उनके मुखमंडल पर अतीत की अनेक यादें एक साथ चमक उठीं। वे बोले हाँ वत्स ! ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने। अपनी अनुभूति को उन्होंने गायत्री छंद में गाया भी है। परमात्मा का यह स्तुतिमान सभी वेदों का सार है। यह गायत्री मंत्र एक साथ सभी देव शक्ति की उपासना करने का मंत्र है। अब हम तुम्हें इसी का अर्थ बोध कराएँगे।

ओ..... ओ म् म्.........

महर्षि के मुख से निकली इस प्रणव ध्वनि को सभी बालकों ने दुहराया। आश्रम प्रणव की सुन्दर तरंगित ध्वनि से भर गया।

ॐ भूर्भुवः स्वः

“ प्रणव का उच्चारण करके हम परम चेतन का स्मरण करते हैं। अनन्तर दृश्यमान जगत का पृथ्वी, अंतरिक्ष कैसे हुआ ? राम ने प्रश्न किया। तुम ठीक कहते हो राम! भुवः भू का बहुवचन है किन्तु पृथ्वी

हाँ प्रभो ‘ भुवः तो भू का बहुवचन है। इससे अन्तरिक्ष का अर्थ कैसे ज्ञात होता है। छोटे गुरुदेव सुतपा को भी अपनी बहुत दिन की शंका दूर करने का मौका मिल गया।

तुम ठीक कहते हो राम ! भुवः भू का बहुवचन है किन्तु पृथ्वी तथा आकाश के बीच तो अनेक भौतिक पिण्ड हैं, वे क्या हैं। प्रत्येक पिण्ड एक ‘भू’ होता है। अतः वे सब मिलकर भुवः कहलाए तथा समग्र रूप से उनकी आख्या अन्तरिक्ष हो होगी, क्योंकि समस्त भवन तथा उसका आधार सभी


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