शाँतिकुँज की चौबीस वर्षीय साधना की पूर्णाहुति आँवलखेड़ा समारोह

August 1996

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भव्य आयोजन यों ढेरों संस्थाएँ प्रतिवर्ष करती रहती हैं। करोड़ों की संख्या में धन भी लगाया जाता है। किन्तु एक ऐसा आयोजन, जिसमें छोटे-बड़े, हर जाति, वर्ग, सम्प्रदाय के व्यक्ति की न्यूनाधिक शक्ति नियोजित हुई हो, विशुद्धतः आध्यात्मिक ऊर्जा से अनुप्राणित हो वह आँवलखेड़ा का पूर्णाहुति आयोजन ही कहा जाएगा। इसकी शुरुआत 1 नवम्बर, 1994 को वन्दनीया माताजी के शक्ति कलश की स्थापना से हुई। यह शक्ति कलश शाँतिकुँज हरिद्वार से चलकर दिल्ली होता हुआ आँवलखेड़ा लाया गया था। भारत की राजधानी दिल्ली में तालकटोरा स्टेडियम में 30 अक्टूबर के दिन लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष श्री शिवराज पाटिल, प्रतिपक्ष नेता श्री अटल बिहारी बाजपेई, श्री नरेन्द्र मोहन (संस्थापक दैनिक जागरण कानपुर) एवं श्री मणिशंकर अय्यर (सुप्रसिद्ध पत्रकार एवं साँसद) के द्वारा चढ़ाए गए श्रद्धा सुमनों एवं पन्द्रह हजार परिजनों की भावांज्जलि के पश्चात् यह यात्रा संपन्न हुई थी।

कलश यात्रा के दिन से ही एक वर्ष का अखण्ड जप अनुष्ठान गायत्री शक्तिपीठ परिसर में प्रारम्भ हो गया। सूक्ष्म जगत के परिशोधन एवं महाप्रज्ञा के अभेद सुरक्षा कवच निर्माण के निमित्त यह अनुष्ठान वर्षभर चलता रहा। इस पूरे एक वर्ष में अनेकानेक प्रकार की अनुभूतियाँ परिजनों को होती रहीं । वह जन्मभूमि जहाँ आज से 85 वर्ष पूर्व हमारी आराध्य गुरुसत्ता प्रकट हुई थी, एक तीर्थ का रूप लेने लगी। इस चार हजार आबादी वाले छोटे से गाँव में जब इतने वृहद आयोजन की बात उठती तो सभी हैरत में पड़ जाते । आखिर कैसे और किस तरह हो सकेगा यह सब?

इस प्रश्न का सार्थक समाधान प्रस्तुत करने का

श्रेय अपने मिशन के समर्पित इंजीनियर कार्यकर्त्ताओं को है । जिनके सही विज्ञानसम्मत विधि से किए गए सर्वेक्षण एवं निर्माण कार्य ने जन्मभूमि स्मारक से लेकर चौबीस नगरों, भोजनालयों, कलामंच, ज्ञान- मंच, देवमंच, संस्कारमंच तथा विचारमंच से लेकर प्रदर्शनी को मूर्त रूप दे दिया। इस समूचे निर्माण को देखकर विश्वकर्मा द्वारा आनन-फानन किए निर्माण कार्य की पौराणिक कथाएँ संजीव हो उठती थीं । देखने वालों को लगने लगता कुछ इसी तरह उन्होंने इन्द्र की सुधर्मा सभा द्वारिकापुरी का निर्माण किया होगा।

इस कार्य में सबसे बड़ी समस्या थी निर्माण स्थल पर खड़े बाजरे के खेत । कैसे तो वह फसल कटे व कैसे वह स्थान इस योग्य बने कि वहाँ निर्माण आरम्भ हो सके। इसके लिए आए हुए अभियन्तागणों से लेकर प्रायः पाँच हजार से अधिक समयदानियों ने पन्द्रह दिन से भी कम की अवधि में सारी फसल काटकर किसानों के पास पहुँचाने तथा उन स्थानों पर रोलर्स चलाकर किसानों के पास पहुँचाने तथा उन स्थानों पर रोलर्स चलाकर उन्हें समतल बनाने का पुरुषार्थ सम्पन्न किया। ये पंक्तियाँ पढ़ने में जितनी आसान लगती हैं, कार्य फावड़ा, गैती, कुदाली तो क्या छोटा-मोटा बागवानी का काम भी नहीं किया था, उनने अगस्त, सितम्बर एवं अक्टूबर के पूर्वार्द्ध की कड़ी धूप में खड़ी फसल को काटकर अभियन्ताओं के कार्य को सुगम बनाया। अस्थाई टीन शेड बनते चले गए, स्वयंसेवक नगर बना, उनका भोजनालय चलने लगा। इस सबसे साथ ही पूरे क्षेत्र के आस-पास के गाँवों की प्रव्रज्या, दीवाल लेखन, गाँव की सफाई आदि कार्य भी चलते रहे। भावनासिक्त इस श्रमदान की काई कीमत नहीं लगाई जा सकती गुरुनिष्ठा से उपजा यह श्रमदान हमेशा- हमेशा मिशन के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में चमकता रहेगा। श्रमदान जितना भावभरा थी, उतना ही श्रद्धा से ओत-प्रोत था आंवलखेड़ा की पुण्य भूमि के किसानों का सहयोग । इस ग्राम व आस-पास के सभी गाँवों के किसानों ने भावभरे स्वर में कहा-” हम अपनी नियमित फसल की बुवाई नहीं करेंगे, पुरा ढाई हजार एकड़ का क्षेत्र आपके लिए है, आप जैसा चाहे उपयोग करें ।” छोटी खेती वाले किसानों से लेकर बड़े किसानों ने एक स्वर से कहा-”कार्यक्रम यहीं होना चाहिए। हम आलू आदि की फसल जो बोई गयी थी जब निर्माण वालों को स्थान की आवश्यकता पड़ी, कच्ची-अधपकी फसल भी वे लोग स्वेच्छा से काटते रहे। भावना का प्रवाह कुछ ऐसा था कि उस्मानपुर ग्राम ने तो सर्वसम्मति से अपना नाम श्री रामपुर कर लिया।

यह कथा निर्माण काल की है। इस बीच अखण्ड जप अनवरत चलता रह। जिस पावन स्थली में आश्विन कृष्ण त्रयोदशी वि. संवत् 196(20 सितम्बर, 1911) के पावन दिन परम पू. गुरुदेव का अवतरण हुआ था, उसी परिसर में इस अवसर पर एक भव्य कीर्ति स्तम्भ की स्थापना हुई। कीर्ति स्तम्भ के शीर्ष पर ज्ञान यज्ञ की लाल मशाल जो संघ शक्ति की प्रतीक है, स्थापित की गई है। इसी पिछले हिस्से में बने एक भव्य कक्ष में पूज्यवर के जीवनरूपी विशाल सागर मंथन के निकले चौदह रत्नों के रूप में उनकी जीवन यात्रा के चरणों को चौदह शीर्षकों में बाँटकर काले ग्रेनाइट पत्थर पर सुनहरे अक्षरों में उकेरा गया है। पूज्यवर एवं माताजी के बड़े आकार के चित्र भी यहाँ लगाए गए हैं।

इस कीर्तिस्तम्भ को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री पी. वी. नरसिंह राव ने 2 नवम्बर की अपराह्न वेला में राष्ट्र में समर्पित किया। वे विशेष रूप से उसके लिए वायुसेना के विमान से आगरा आए और आगरा से हैलिकॉप्टर से आँवलखेड़ा में तब आए थे जब स्वयं उन्हें अगले दिन एक लम्बी विदेशयात्रा पर रवाना होना था। उनके साथ पूर्व रक्षा राज्य मंत्री श्री सुरेश पचौरी, पूर्व जल संसाधन एवं संसदीय कार्य मंत्री श्री विद्याचरण शुक्ल, श्री रामलाल राही, श्री भुवनेश्वर चतुर्वेदी, श्री अरविन्द नेताम, उ.प्र. के तत्कालीन राज्यपाल श्री मोतीलाल वोरा एवं अखिल भारतीय काँग्रेस समिति के महासचिव श्री माधव सिंह सोलंकी एवं जनार्दन पुजारी भी थे। इतना बड़ा काफिला एवं उसके साथ जुड़ी सुरक्षा व्यवस्था आने से परिजनों को कुछ असुविधा भी हुई, किन्तु वह थोड़ी देर को थी इसलिए यह ली गई। तत्कालीन प्रधानमंत्री जी का यह काफिला पूज्यवर की विराट जीवन प्रदर्शनी, आदर्श ग्राम का मॉडल देखकर जन्मभूमि की ओर बढ़ा वहाँ से प्रवचन मंच पर आया। वहाँ श्री राव ने स्मारिका का विमोचन करने के पश्चात् दिए गए अपने उद्बोधन में इस यात्रा को एक आध्यात्मिक यात्रा बताया और राष्ट्र निर्माण में गायत्री परिवार के योगदान की सराहना की।

पूर्णाहुति महायज्ञ के देव पूजन के क्रम में वयोवृद्ध स्वामी कल्याणदेव ने आकर सभी को विभोर कर दिया। शक्रताल (मुजफ्फर नगर) गंगातटवासी संत श्री कल्याणदेव जी लगभग 108 वर्ष से अधिक आयु के हैं। पू. गुरुदेव सही अर्थों में ब्राह्मण की परिभाषा करते हुए सबसे प्रथम उन्हीं का उदाहरण देते रहे है। जीवेम् शरदः शतम् की उक्ति को चरितार्थ करते स्वामी जी सभी के प्रेरणा के स्रोत हैं। पूज्यवर एवं माताजी के चित्रों पर पुष्पाँजलि अर्पित कर देवमंच से उन्होंने भावभरे शब्दों में कहा- मैं तो मात्र आचार्य जी एवं उनके क्रियाकलापों के यज्ञीय जीवन के दर्शन हेतु मथुरा जाता था। मेरा उनका सम्बन्ध तो कृष्ण सुदामा के समान था। उनके निर्देशानुसार मैंने भी अपने क्षेत्र में सौ से भी अधिक यज्ञ कराए। संत श्रेष्ठ स्वामी जी ही देवमंच से बोले। बाकी जो भी अतिथि अभ्यागत आए, उन्हें आयोजन तंत्र ने विचार मंच से बोलने की व्यवस्था रखी थी। एक नवंबर को पूर्व प्रधानमंत्री व उनके साथ आए मंत्रीगणों के अतिरिक्त तीन नवम्बर को काँग्रेस (तिवारी) के कार्यकारी अध्यक्ष श्री अर्जुन सिंह चार नवम्बर को इसी के अध्यक्ष एवं वर्तमान साँसद श्री नारायण दत्त तिवारी, भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण सचिव श्री जगदीशचंद्र पन्त, छह नवम्बर को म.प्र. मुख्यमंत्री श्री दिग्विजयसिंह एवं राज्यपाल श्री मो. शफी कुरैशी पधारे। छह नवम्बर को ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सहकार्य वाहक श्री कुप.सी. सुदर्शन भी विशेष रूप से अपने व्यस्त कार्यक्रमों के बीच आए। सात नवम्बर के दिन जो पूर्णाहुति का दिन था, अन्तिम दिन था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक श्री प्रो. राजेन्द्र सिंह ने आकर यज्ञशाला में हवन किया, संयोजन मण्डल से मिले तथा प्रदर्शनी देखकर प्रसन्न मन से अपने अगले कार्यक्रम की ओर चले गए।

प्रथम पूर्णाहुति के इस कार्यक्रम में सम्पूर्ण यज्ञ नगर में पाँच मंच स्थापित थे। जिसमें देवमंच, संस्कारमंच एवं ज्ञानमंच। इन तीनों से विशुद्धतः आध्यात्मिक उद्बोधनों निर्दोषों एवं प्रेरणा को देने का क्रम चला। विचारमंच एवं कलामंच अलग उद्देश्यों के लिए बनाए गए थे। पूरे सात दिन प्रायः बीस से पच्चीस लाख व्यक्ति इस यज्ञ नगर में आते रहे व इन मंचों से प्रवाहित ज्ञान गंगा में स्नान कर लाभ लेते रहे।

देवमंच 1251 कुण्डीय यज्ञशाला के शीर्ष पर स्थित था। जहाँ से कलश यात्रा के बाद हुई कलश-स्थापना (3 नवम्बर से लेकर पूर्णाहुति 7 नवम्बर) के दिन तक समग्र संचालन गणाध्यक्ष, ब्रह्मणाच्छाँसी, ब्रह्मा, अध्वर्यु होता, उद्गाता भाई-बहिनों के द्वारा होता रहा। विगत सहस्र वर्ष के इतिहास में सम्भवतः पहली बार नारी शक्ति द्वार इतने बड़े महायज्ञ का संचालन किया गया।

संस्कारमंच इस बार विशिष्ट बनाया गया था। पर्णाच्छादित दो चौबीस कुण्डीय यज्ञशालाएं भी साथ में विनिर्मित थीं। गुरु ग्राम में दीक्षा लेने का विशेष महत्व समझते हुए पाँच व छह नवम्बर को तीस-तीस हजार नए परिजनों के अतिरिक्त हजारों पुराने परिजनों ने पुनः दीक्षा ली। विशिष्ट संस्कारों के क्रम में वेद स्थापना (वेद पूजन) का क्रम भी तीसों दिन सम्पन्न हुआ। सस्वर मंत्र पाठ व भावपूर्ण संगीत के साथ ब्रह्मवादिनी बहिनों एवं भाइयों द्वारा पुँसवन, नामकरण, अन्नप्राशन, मुण्डन, विद्यारम्भ आदि संस्कार भी सम्पन्न होते रहे। इसके अतिरिक्त 108 आदर्श विवाह, 1200 वानप्रस्थ संस्कार भी सम्पन्न हुए।

ज्ञानमंच-बैकड्राप के रूप में जन्मस्थली की झल व परम पू. गुरुदेव के विराट् रूप को दर्शाता एक चित्र पृष्ठभाग में था। गुरुसत्ता के प्रतीक के रूप में बीच में एक भव्य सिंहासन पर गुरुदेव एवं माताजी की पादुकाएँ थी। प्रतिनिधि रूप में श्रद्धेय पंडित लीलापति जी शर्मा, डॉ. प्रणव पण्ड्या ने अपने विचार इस मंच से व्यक्त किए। इसी मंच से भव्य विराट् दीप यज्ञ का संचालन भी किया गया।

विचारमंच- इसे केन्द्रीय कार्यालय के सामने आगरा रोड पर बनाया गया था। पत्रकार नगर भी पास में ही था । अतः सारे भारत से आए पत्रकार इसमें सतत् उपस्थिति रहे। विचार मंच से विचार क्रान्ति का स्वर गुँजायमान करने वाले स्वर मुखरित होते रहे। मुख्य रूप से इसका स्वरूप एक विचार गोष्ठी का था। कोई एक नहीं 5-6 वक्ता निर्धारित विषय पर अपने विचार व्यक्त करते गए।

कलामंच- यह न केवल क्षेत्रीय स्तर की प्रतिभाओं के लिए एक ऐतिहासिक अवसर था, बल्कि जन-जन के लिए एक स्वस्थ मनोरंजन का स्वरूप लेकर सामने आया। पूज्यवर चाहते थे कि लोकरंजन से लोकमंगल के लिए लोक कला को पुनर्जीवित किया जाए। यह भूमिका कलामंच ने पूरी तरह निभाई। शाँतिकुँज के समर्पित युवा कार्यकर्त्ता श्री उमाकान्त सिंह के सूत्र-संचालन में प्रतिभाओं के सम्मोहन प्रदर्शन ने दर्शकों का दिल जीत लिया।

इस विराट् आयोजन का सर्वाधिक आकर्षक केन्द्र-बिन्दु थी एक व्यापक प्रदर्शनी। यह कई भागों में बँटी थी किन्तु प्रत्येक अपने में परिपूर्ण । गुरुदेव-माताजी के निर्धारणों, जीवन दर्शन, आदर्शों का राष्ट्र निर्माण के विविध कार्यक्रमों की मनोरम झाँकी यहाँ प्रदर्शित की गई थी। समर्पित कलाकारों द्वारा बनायी गई महाकाल की विराट प्रतिमा सर्वाधिक आकर्षक का केन्द्रबिन्दु थी। इस प्रदर्शनी को देखने वाले अनायास ही पूज्यवर के विचारों एवं जीवनक्रम को अपने अन्तः- करण की गहराइयों में धारण करते देखे गए।

पूर्णाहुति महायज्ञ के इस कार्यक्रम में मीडिया प्रशासन की भूमिका के बारे में जितना कहा जाय कम ही होगा। सभी ने यथायोग्य अपनी शक्ति अनुसार इसमें योगदान दिया। इस आयोजन की पूर्णता तो सन् 2001 में हुई मानी जाएगी। पर इतना अवश्य कहना होगा, इस आयोजन के रूप में शांतिकुंज की चौबीस वर्षा की सतत् साधना पूर्ण हुई। शाँतिकुँज के लिए इन पिछले चौबीस वर्षों का प्रत्येक वर्ष उसके संस्थापक के चौबीस पुरश्चरणों वाले, चौबीस वर्षों का अन्तिम अध्याय था, इसी के साथ तरुण तपस्वी शाँतिकुँज ने अपने पच्चीसवें वर्ष रजत जयन्ती वर्ष में प्रवेश किया।


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