शक्ति प्रवाह के स्रोत - गायत्री शक्तिपीठ

August 1996

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शक्ति मन्दिरों की घण्टियों की आवाज मेरे कानों में सुनायी पड़ रही है। यहाँ से उफनता शक्ति प्रवाह मनुष्य की दिशा और दशा को बदलकर रख देगा। भारत को केन्द्र बनाकर यह शक्ति प्रवाह समूचे विश्व का कायाकल्प करेगा। स्वामी विवेकानन्द का यह भविष्य कथन, उस समय साकार होने लगा, जब परम पू. गुरुदेव ने सन् 1979 के बसन्त पर्व पर शाँतिकुँज में 24 शक्तिपीठों के निर्माण की घोषणा की । सुनने वाले हतप्रभ थे, क्योंकि इससे पहले न तो उन्होंने ऐसी कोई चर्चा की थी और न ही कोई संकेत दिया था। यही नहीं कुछ वर्षों पहले जब एक कार्यकर्त्ता ने टाटानगर में गायत्री मन्दिर बनाने की चर्चा चलाई थी, तो उसे डाँटकर चुप कर दिया गया था।

सभी की हैरानी, उत्सुकता, जिज्ञासा का जवाब उन्होंने इन शब्दों में दिया- “यह संकल्प महाकाल का है। यह एक दैवी योजना है जिसे पूरा करने का दायित्व इसी बसंत पर्व पर शाँतिकुँज को सौंपा गया है। बसन्त पर्व पर युग सृजन की महाशक्ति के हर वर्ष नए निर्देश उतरते हैं। युग निर्माण मिशन की गतिविधियों की अद्यावधि सूत्र-संचालन इसी क्रम से होता चला आया है। इस बसन्त पर्व पर गायत्री शक्तिपीठों की प्रेरणा उभरी हैं। महाकाल के संकल्प कभी अधूरे नहीं रहे। इस संदेश के अपूर्ण रहने की कोई आशंका नहीं । मनुष्य तुच्छ है, उसके साधन भी सीमित है। इसलिए उसके निजी प्रयासों में परिस्थिति के अनुरूप कुछ सफल, कुछ असफल होते रहते हैं। किन्तु दैवी संकल्प के बारे में ऐसी कोई बात नहीं। सर्वसमर्थ सत्ता अपने प्रयोजन पूरे तो उसी मनुष्य शरीर से कराती है, पर वस्तुतः उसको सँभालने, साधन जुटाने और सफल बनाने का उत्तरदायित्व वह स्वयं ही सम्भालती है। श्रेय उन सौभाग्यशालियों को अनायास ही मिल जाता है। जो ऐसे महान प्रसंगों में प्रभु कृपा के निमित्त बन जाते हैं। प्रज्ञावतार का आलोक विश्वव्यापी बनाने के लिए गायत्री तीर्थों की स्थापना का अभियान भी ऐसा ही है, जिसे पूरा तो कुछ मनुष्य ही करेंगे, पर उनकी सफलता में अदृश्य शक्ति द्वारा सूत्र-संचालन होने तथा साधन-व्यवस्था का एकत्रीकरण किए जाते रहने के प्रत्यक्ष अनुभव होते रहेंगे।

इस क्रम में गायत्री शक्तिपीठ का प्रथम शिलान्यास ब्रह्मवर्चस के रूप में हुआ है। चौबीस अक्षरों की चौबीस प्रतिमाओं का परिचायक यह धर्म संस्थान अन्तर्राष्ट्रीय गायत्री तीर्थ माना जाएगा। इसी का विस्तार दूसरे चरण में 24 गायत्री तीर्थों की स्थापना के रूप में किए जाने का निर्धारण है। यह 24 स्थापनाएँ भी एक क्रम व्यवस्था मात्र है। इसे विराम, निर्धारण समझा जाय। वस्तुतः उसका विस्तार होगा और वह प्रगति 108 की संख्या को पार करती हुई 240 और 2400 तक जा पहुँचेगी।”

पूज्यवर के उपरोक्त कथन ने स्थिति स्पष्ट कर दी। जिज्ञासा को समाधान मिला। उत्सुकता यह सोचकर शाँत हुई कि ग्वाल-बालों की कमजोर कलाइयों और पोले बाँस की लाठियाँ गोवर्धन उठा सकती हैं, इस पर कौन, किस आधार पर विश्वास करे? इतने पर भी अनहोनी होकर रही, गोवर्धन उठ ही गया। गायत्री शक्तिपीठों की प्रतिष्ठापना का संकल्प महाकाल का है। उसी के प्राण इस अभियान में संलग्न हैं। जब मनुष्यों के प्राणवान संकल्प पूरे हो सकते हैं, तो सृष्टि सन्तुलन का उत्तरदायित्व सम्हालने वाली शक्ति की इच्छा क्यों पूरी न होगी?

गुरुदेव के महत्संकल्प का प्रभाव कुछ ऐसा रहा कि उसी दिन से प्राणवान परिजनों के हृदय में संकल्पों का उफान उठने लगा। देखते-देखते 24 शक्तिपीठों के निर्माण के लिए संकल्प ले लिए गए। निर्माण के लिए संकल्प ले लिए गए। निर्माण के इस प्रथम चरण में संकल्प गुरुदेव, माताजी के सामने ही लिए जाते। वह स्वयं अपने हाथ से संकल्पित परिजन के हाथ में कलावा बाँधते और निर्माण के लिए आशीर्वाद स्वरूप कुछ धन राशि भी प्रदान करते। यह धन राशि छोटी होने पर भी चमत्कारिक रूप से आर्थिक स्त्रोत का काम करती और दुगुना, दस गुना, सौगुना होते-होते अपना इतना विस्तार कर लेती कि इस धन से शक्तिपीठ का भवन निर्माण हो सके।

इस क्रम में जहाँ एक ओर परिजनों के मन में शक्तिपीठों के निर्माण के संकल्प उत्पन्न हो रहे थे, वहीं दूसरी ओर अनुदान देने वाले भावनाशीलों की बाढ़ आ रही थी। आर्थिक रूप से सम्पन्न एवं आर्थिक रूप से विपन्न दोनों के मन में टीस बराबर थी। हर किसी को लगन थी कि वह महाकाल की योजना में क्या और कितना कर सकता है? इतिहास एक बार फिर से बुद्ध और शंकराचार्य के संघारामों और चार धामों के निर्माण की नवीन एवं व्यापक पुनरावृत्ति कर रहा था। बिम्बसार और मान्धाता जैसे श्रीमन्तों के साथ आँवले का दान करने वाली वृद्धा ब्राह्मणी एक-एक करके आगे आने लगे।

अनुदान देने के इस सिलसिले में अनेक बार ऐसे दृश्य देखने को मिलते कि आँखें भर आतीं। ऐसी ही एक घटना गरीब सब्जी बेचने वाली महिला देवकी बाई की है। वह उन्हीं दिनों शिविर में शाँतिकुँज आयी हुई थी। शक्तिपीठों के निर्माण के बारे में जोर-शोर से जो तैयारियाँ हो रही थीं, उसने भी सुन रखी थी। एक दिन दोपहर को वह ऊपर गुरुजी से मिलने आयी। पास खड़े मिलाने वाले कार्यकर्त्ता ने सोचा कि वह अपनी किसी समस्या के बारे में कहने आयी होगी। किन्तु आशा के विपरीत उसने कहना शुरू किया-”गुरुजी। हमें पता चला है कि आप शक्तिपीठ बना रहे हैं। वहाँ गायत्री माता की पूजा होगी, लोगों का जीवन सुधरेगा। मैं बहुत गरीब हूँ, इस नेक काम के लिए मैं ज्यादा कुछ तो नहीं दे सकती। मेरे पास है भी क्या जो दे सकूँ? रोज सब्जी बेचती हूँ, तब घर चलता है। लेकिन मेरे पास चाँदी के कड़े हैं।” कहते हुए उसने अपने हाथों से दोनों कड़े उतार दिए और गुरुदेव के चरणों के पास रखते हुए बोली-बस सम्पत्ति के नाम पर यही मेरे पास है इसे स्वीकार कर लीजिए।

उसका यह कथन सुनकर गुरुदेव की आँखें डबडबा आयीं। देवकी बाई का भी गला रुँधा हुआ था। उसकी भावनाएँ आँखों में छलक उठी थीं। एक पल के लिए पास खड़े लोग भौंचक्के थे। कहाँ तो वे सोच रहे थे कि यह कुछ माँगने आयी होगी पर यह तो देने आयी है। ठीक ही तो है, भगवान के प्रेमी भगवान से माँगते कहाँ हैं? वे तो देते हैं। राजा बलि ने भगवान को दिया शबरी भगवान को देने के लिए बावली थी। जिसके पास जो था वही सौंपा और धन्य हो गए। देवकी बाई भी अपने हृदय की भावनाएँ सौंपने आयी थी। उसके दान को, उन चाँदी के कड़ों को गुरुदेव ने अपने हाथ से उठाकर मस्तक पर लगाया और बोले- यह सबसे बड़ा दान है। हमने सब कुछ पा लिया । बाद में उन चाँदी के कड़ों की फोटो भी उतारी गई। लेकिन इसके पहले ही उनकी अमर स्मृति भक्त और भगवान दोनों के हृदयों में सुरक्षित हो चुकी थी।

भावभरे इन अनुदानों से शक्तिपीठ बनाने का सिलसिला चल निकला। इस अभियान में जुटे संकल्पित परिजनों को उनकी भावनाओं के अनुपात में अदृश्य शक्ति का सहयोग मिलता रहा। इस क्रम में कई ऐसे घटनाक्रम घटे जिससे यह प्रमाणित होता है कि युगांतरीय चेतना का वरदान प्राप्त हो तो फिर साधनहीनता आड़े नहीं आती। गुजरात-जूनागढ़ के गुणवन्त भाई पंड्या जिन्हें ‘पथिक’ उपनाम से भी जाना जाता है, इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

भावुक हृदय के गुणवन्त भाई ने शक्तिपीठ बनाने का संकल्प तो ले लिया, पर निभाएँ कैसे? उन दिनों वह स्कूल में शिक्षक थे। यहाँ से उनको 300-400 रुपये की मासिक आय होती थी। इतनी छोटी-सी रकम में घर का खर्च मुश्किल से चल पाता है, फिर भवन निर्माण की बात भला कैसे सम्भव हो? लेकिन सब कुछ सम्भव है। गुरुदेव की कृपा, उनकी सामर्थ्य पर उन्हें भरपूर भरोसा था। इसी विश्वास के बलबूते वह गिरनार पर्वत पर अम्बाजी के मन्दिर से थोड़ी दूर एक गुफा में उन्होंने अनुष्ठान करते हैं- माँ कोई न कोई मार्ग सुझाएँगी। दिन बीतने लगे-अनुष्ठान का क्रम जारी था- साथ ही अन्तः हृदय में एक अविराम प्रार्थना उठ रही थी। एक दिन उनके पास एक साधु वेषधारी तपस्वी आए। उनके चेहरे की आभा, देह की कान्ति, नेत्रों की ज्योत्सना यह बता रही थी कि वह कोई पहुँचे हुए योगी हैं। बात भी कुछ ऐसी ही थी- उन्होंने अपना परिचय भी इसी रूप में दिया कि वह हिमालय के दुर्गम क्षेत्र में तपस्या करते हैं। अपने इस परिचय के साथ उन्होंने पथिक जी को आश्वासन दिया कि तुम्हारे गुरु का काम भगवान का काम है। हिमालय की सभी ऋषि सत्ताएँ इसमें सहयोग कर रही हैं। चिन्ता न करो-तुम्हारी शक्तिपीठ बनेगी और भव्य बनेगी।

इस घटना से उन्हें आश्वासन तो मिला। पर अभी तक न तो जमीन थी और न धन। अनुष्ठान पूरा होते-होते उस क्षेत्र में एक फारेस्ट अधिकारी आए, उनके सहयोग से जमीन की व्यवस्था हो गयी। अब धन का प्रबन्ध कैसे हो? अपने घर की सम्पत्ति, श्रद्धालुओं का दान सब कुछ लगाने पर एक छोटा-सा मन्दिर बन गया। लेकिन इस छोटे से भवन के निर्माण में भी उनके ऊपर काफी कर्ज चढ़ गया था। शक्तिपीठ के उद्घाटन के सिलसिले में पू. गुरुदेव स्वयं पधारे। उन्हें गुणवन्त भाई पंड्या की अन्तर्व्यथा पूर्णतया ज्ञात थी। उद्घाटन, प्राण प्रतिष्ठा के बाद प्रणाम का क्रम चला। पूज्यवर लगातार 8 घण्टे बिना वहाँ से हिले-डुले प्रणाम में बैठे रहे। लोग आते, उनके प्रणाम में बैठे रहे। लोग आते, उनके चरणों पर भेंट अपनी श्रद्धानुसार चढ़ा जाते। आठ घण्टे के बाद जब प्रणाम का क्रम रुका, तब गुरुदेव उठे और उन्होंने पथिक जी से कहा-देखो तुम इस धन को ले लो, इतने से तुम्हारा कर्जा उतर जाएगा। चढ़ाई गई रकम अभी तक गिनी नहीं गयी थी। गिनने पर मालुम हुआ, कुल धन दो लाख इक्यावन हजार रुपया है, जबकि उन पर ढाई लाख-यानि दो लाख पचास हजार का कर्जा था। कर्जा चुकने पर भी एक हजार रुपये बच रहे।

उस समय तो यह शक्तिपीठ काफी छोटा था लेकिन भगवान महाकाल की कृपा से सहयोग मिलता रहा, अनुदान आते गए, शक्तिपीठ का कलेवर विस्तार पाता गया। तत्कालीन फारेस्ट मिनिस्टर उनके पास स्वयं आयी और भूमि देने के साथ अन्य उचित सहयोग देने का आश्वासन दिया। आज लगभग 4 एकड़ जमीन में फैले इस शक्तिपीठ की इमारत अत्यन्त भव्य है। भारतवर्ष के सर्वश्रेष्ठ शक्तिपीठ के रूप में इसे जाना जाता है। भवन एवं विस्तार की दृष्टि से ही नहीं क्रिया- कलापों की दृष्टि से भी इसे अनुपमेय कहा जाएगा।

बात जूनागढ़ के ही शक्तिपीठ की नहीं, भारतवर्ष के जिस क्षेत्र में जहाँ भी शक्तिपीठें बनायी गयीं, वहाँ अदृश्य सत्ता का समर्थ संरक्षण एवं सहयोग मिलता रहा। इस सहयोग की कहानियाँ इतनी और ऐसी हैं, जिनका स्मरण युग निर्माण मिशन के कार्यकर्त्ताओं को पुलकित करता रहता है। अतीत के पुनरागमन, वर्तमान के निर्धारण और भविष्य के संयोजन के त्रिविध उद्देश्य पूरे कर सकने में सर्वथा समर्थ गायत्री शक्तिपीठ योजना अपने समय का अनुपम प्रयास है। इसे भागीरथी तप-साधना के साथ जुड़ा हुआ गंगावतरण कह सकते हैं। अभी वह कल्पना के गर्भ में है। इन दिनों उसके द्वारा उत्पन्न होने वाली सम्भावना और प्रतिक्रिया का सुखद अनुमान ही लगाया जा सकता है पर भविष्य में जब व मूर्तरूप में सामने होगी तो प्रतीत होगा कि मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण के संदर्भ में जो कहा और किया जा रहा है वह अनर्गल नहीं है।

प्राणवान संकल्प-साधनहीन परिस्थितियों में भी किस प्रकार उगते, बढ़ते और फलते-फूलते हैं? इसके अनेक उदाहरण इतिहास के पृष्ठों पर अंकित हैं। उस शृंखला में नवयुग के अवतरण को लक्ष्य रख कर किए गए इस प्रयास को अपने समय का दुस्साहस की कहा जाएगा। इसकी उपमा खोजनी हो तो समुद्र पाटने के लिए प्राणपण से सन्नद्ध टिटहरी से अथवा सागर को पाटने में प्रवृत्त गिलहरी से ही दी जा सकती है। सेतुबन्ध बँध जाने जैसे सहज बुद्धि द्वारा असंभव घोषित किए जाने वाले कार्य को सम्भव बनाने के लिए प्राणों की बाजी लगाई थी। साधनहीन क्या कर सकते हैं? इसके लिए उनके लिए इतना ही सम्भव था कि लकड़ी पत्थर जमा करने में श्रम लगाएँ। इतिहास साक्षी है कि काम उतने भर से ही चल गया था। पहाड़ मनुष्यों का भार वहन करते हैं, यह एक तथ्य है पर मनुष्य पहाड़ का भार वहन कर सकते हैं यह विश्वसनीय नहीं हैं। इतने पर भी गुरुवर श्रद्धा-परमात्मा में विश्वास की सामर्थ्य जिन्हें विदित है वे जानते हैं राम काज में लगे रामदूतों के लिए पहाड़ उठना हँसी-खेल हो गया था। शक्तिपीठों के निर्माण में भी इसी कौशल और वर्चस को श्रेय दिया जा सकता है।

इनके निर्माण की शृंखला पूरी होते-होते यह निर्धारित किया गया कि इनमें प्राण-प्रतिष्ठा स्वयं पूज्य गुरुदेव करेंगे। इस निर्धारण में परिजनों में अपूर्ण उल्लास एवं उत्साह का संचार किया। लगभग एक डेढ़ वर्ष इस तरह कार्यक्रमों की शृंखला चलती रही। युगशक्ति की पावनधारा का पुण्य प्रवाह पूज्यवर स्वयं लेकर गए। स्थान-स्थान पर अपने प्रवचनों में इनके मूल्य और महत्व को समझाया। एक जगह उन्होंने अपने उद्बोधन में कहा-” भगीरथ अपने साथ गंगा की धारा को जहाँ-जहाँ से ले गए, वे सभी स्थान तीर्थ हो गए। हम आप लोगों के लिए युग शक्ति गायत्री का प्रवाह लेकर आए हैं।

“ये स्थान भी तीर्थ हैं। तीर्थ तो श्रद्धा के प्रतीक होते हैं। श्रद्धा वस्तुओं से नहीं उत्कृष्ट व्यक्तित्वों द्वारा संचालित आस्थाओं का संवर्द्धन करने वाले किए गए क्रिया-कलापों द्वारा ही उत्पन्न होती है। महत्व डिब्बी का नहीं उसमें रखी हुई अँगूठी का होता है। बिकता छिलका नहीं धान चावल है। धान तो उसके ऊपर लिपटाभर होता है। मूल्याँकन मनुष्य का किया जाता है। पोशाक तो उसकी शोभा-सज्जा के लिए होती है। सच तो यह है कि पोशाक के बिना भी महानता अपने गौरव को अक्षुण्ण रख सकती है। अच्छा व्यक्तित्व, अच्छा स्वास्थ्य अच्छा आच्छादन का सुयोग मिल सके तब तो कहना ही क्या है। इतने पर भी यह तथ्य अपने स्थान पर अडिग है कि गरिमा उत्कृष्टता सम्पन्न व्यक्तित्व की है। उसी की शोभा-क्षमता बढ़ाने में आवरण का उपयोग होता है।

अच्छा होता तीर्थ कलेवर वर्तमान साधनों का ही उपयोग धर्म-धारणा की पुनर्जीवन प्रक्रिया के लिए हो सका होता। पर उसमें असफलता मिलने की सम्भावना दीखने पर अब यही कदम उठाया गया है कि युग तीर्थों का नवनिर्माण किया जाय, जिससे जनसाधारण को तीर्थों की गरिमा स्वीकार करने और उनसे लाभान्वित होने का पूरा-पूरा अवसर मिल सके। गायत्री तीर्थ निर्माण योजना, गायत्री शक्तिपीठों की स्थापना के पीछे एकमात्र उद्देश्य यही है कि तीर्थ तत्व अपने असली रूप में पुनः जनसाधारण के सामने उपस्थित हो सके और प्राचीनकाल की उस पुण्य परम्परा को क्रियान्वित कर सके, जिससे भारतभूमि को उसके महान पुत्रों की गरिमा को गगनचुम्बी बनाया था। पूज्य गुरुदेव के इस कथन के अनुरूप युगतीर्थों की यह शृंखला अपने अगले चरण में उन क्रिया-कलापों का ऐसा स्वरूप प्रस्तुत करने वाली है, जिसके बलबूते भारतीय संस्कृति अपनी गरिमा समूचे विश्व में प्रतिष्ठित कर सकेगी। यहाँ से उफनता, साँस्कृतिक प्रवाह राह भटकी मानवता को जीवन बोध करा सकेगा।


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