इक्कीसवीं सदी की गंगोत्री

August 1996

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लिखते समय अनेकानेक घटनाक्रम आँखों के सामने हैं,क्योंकि जिनसे मिले, ढेरों, अनुदान पाए, उनके लीला-प्रसंगों के अनगिनत रूप स्मृतियों में तरंगित हो उठते हैं। किन्तु जब किसी ऐसे विशेष स्थान के बारे में लिखने की बात आती हैं, जो छोटे शुभारम्भ के विराट में परिणत हुआ हो तो मन असमंजस में पड़ जाता है । जो स्थान दो अवतारी चेतना के गलने और उनके माध्यम से लाखों लोगों के जुड़ते चले जाने के साथ-साथ विस्तार पाता गया हो, उसका वर्णन शब्दों में कैसे सम्भव है? यह चर्चा विशेष रूप से प. पूज्य गुरुदेव एवं वन्द, माताजी के तप से अनुप्राणित शाँतिकुँज गायत्री तीर्थ के बीज से वटवृक्ष बनने के इतिहास के संबंध में की जा रही है ।

अनेकानेक भव्य भवन तो आध्यात्मिक स्तर पर ऊँचे पहुँचे महापुरुषों के द्वारा बनाकर छोड़ दिए जाते हैं। वैभव भी देखने में कुछ कम नहीं होता, अपितु विस्तार लिए हुए होता है, परन्तु जिन भवनों में प्राण -प्रतिष्ठा की गई हो और जिनकी एक-एक ईंट में ऋषि सत्ता की तप -ऊर्जा समाहित हो, उन भवनों की ईंट मिट्टी से बने या संगमरमर, ग्रेनाइट से लदे आलीशान निर्माणों के समकक्ष नहीं रखा जा सकता । बैलूर मठ के सौ वर्ष पूर्ण होने को है, किन्तु आज भी कलकत्ता जाने पर जब इस स्थान के दर्शन का सौभाग्य मिलता है, तो मस्तिष्क में उस महापुरुष की स्मृति जाग्रत हो उठती है, जिसकी साधना और तप ने एक विवेकानंद और समकक्ष तेरह से अधिक गुरुभाई तैयार कर आध्यात्मिक ऊर्जा की दृष्टि से एक विशिष्ट निर्माण कर दिखाया । इसी तरह पाण्डिचेरी स्थित अरविंद आश्रम तथा सम्प्रति बन रहे ओरोविल देखने पर वहाँ एक जाग्रत चेतना का आभास मिलता है । महापुरुषों की तप साधना से अनुप्राणित इन निर्माणों के माध्यम से एक प्रेरणा स्थली, एक तीर्थ चेतना का परिचय मिलता है ।

शाँतिकुँज का जो रूप आज हमारे परिजन देखते हैं, उसका शुभारम्भ 1968-69 में जिस छोटे रूप में हुआ था, उसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। इसका बीजारोपण शक्तिस्वरूपा वन्द,माताजी के संरक्षण में चौबीस घण्टे जप में निरत देव कन्याओं की तप ऊर्जा के माध्यम से हुआ । सत्ताईस विराट विश्वव्यापी आश्वमेधिक आयोजन एवं एक अत्यंत भव्य श्रद्धाँजलि समारोह सम्पन्न करके आज का शाँतिकुँज ...1968-69 वर्ष पूर्व कैसा था, किस तरह छोटी -सी शुरुआत से विस्तृत होते-होते वर्तमान विराट रूप को पा सका है, यह जानने की जिज्ञासा हर उस परिजन को होगी,जो इस तंत्र से बाद में जुड़ा या जो पीढ़ी अब आने वाले दिनों में जुड़ेगी ।

यहाँ से उठने वाले प्रेरणा प्रवाहों के माध्यम से 21 वीं सदी में सतयुगी समाज का निर्माण होने जा रहा है । शाँतिकुँज तप-ऊर्जा से ओत-प्रोत एक जाग्रत चेतना केन्द्र है। इसमें ऋषि युग्म के अतिरिक्त लाखों व्यक्तियों की साधना ही नहीं जुड़ी, अपितु परोक्ष रूप से हिमालय वासी ऋषि सत्ताओं द्वारा निरंतर किए जाने वाले तप की ऊर्जा का भी समावेश है।

हो सकता है यह आश्रम किसी को देखने में वैभवपूर्ण अट्टालिकाओं की तुलना में साधन विहीन प्रतीत हो, परंतु जीवनभर ब्राह्मणोचित जीवन जीने वाले सद्गुरु ने अपने प्रचण्ड तप से इस स्थान को घनीभूत ऊर्जा पुँज बनाया है, इसे कोई भी संवेदनशील व्यक्ति अंदर प्रवेश करके ही महसूस कर सकता है।

यहाँ यह स्पष्ट करते हैं कि हम जो कुछ भी लिख रहे है, वही बिना किसी लाग -लपेट के शक्ति केन्द्र का अभूतपूर्व इतिहास है । शाँतिकुँज, ब्रह्मवर्चस,, गायत्री नगर के गर्भ में पक रही एक ऐसे तीर्थ चेतना से परिचित हो, जो चर्म चक्षु से दिखाई नहीं पड़ती । इस शाँतिकुँज के रजत जयंती वर्ष विशेषांक में परिजन पं. पूज्य गुरुदेव एवं वन्द, माताजी की उस विलक्षण जीवन यात्रा का विवरण पढ़ सकेंगे, जिसने छोटे से निर्माण को उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाओं का ब्ल्यू प्रिंट बना दिया । पढ़ें और पाएँ उस इतिहास को, जो विगत 25.वर्षों का है एवं बहुत कुछ इसमें से अभी तक परिजनों के समक्ष नहीं आ पाया था ।


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