सच्चा तीर्थवास

August 1996

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प्रभो! लगभग पन्द्रह साल हो गए मुझे आपके इस पवित्र वृन्दावन धाम में निवास करते; किन्तु तीर्थ की प्राप्ति मुझे नहीं हुई! मैं तीर्थवासी नहीं बन सका! कोई दूसरा सुनता उनकी इस बात को, तो उनका उपहास किए बिना नहीं रहता। लेकिन फुरसत किसे थी उनकी बात सुनने की। यात्री आते थे-सैकड़ों की तादाद में आते थे और बाँके बिहारी के दर्शन करके वापस लौट जाते। किसे पड़ी थी यह देखने की कि एक सफेद दाढ़ी वाला, गोरा रंग, झुर्रियों भरे चेहरे वाला बूढ़ा पता नहीं कब से बाँके बिहारी के द्वार के एक ओर ऐसे बैठा है, जैसे गिर पड़ा हो और फिर उठने में असमर्थ हो गया हो। उसकी आँखों से झरती बूँदें नीचे के चिकने फर्श को धो रही थीं और उसके हिलते अधरों से जो अस्फुट शब्द निकलते थे, उन्हें या तो वह स्वयं सुनता था या सुनते थे एक साथ उसके हृदय में और उससे पर्याप्त दूर आराध्यपीठ पर विराजमान श्री बाँके बिहारी जी।

आप संसार के स्वामी हैं और मैं आपके ही संसार का एक प्राणी हूँ। आपका हूँ और आपके द्वार पर आ पड़ा हूँ। बार-बार वह रुकता था, हिचकियाँ लेता और फिर-फिर मस्तक उठाकर बड़े कातर नेत्रों से आगे आराध्य पीठ पर स्थिति प्रभु की मूर्ति की ओर देखता था। आप मुझे मुक्त कर देंगे, यह जानता हूँ-मुक्त कहाँ होना चाहता हूँ मैं, मुक्त तो वह भी हो जाता है जिस पर वृन्दावन की पावन रज उड़कर पड़ जाती है। मैं आपके धाम में आया था तीर्थवास करने और वह आपके श्री चरणों में आकर भी मुझे प्राप्त नहीं हुआ।

तुम तीर्थ में ही हो भद्र! महाप्रभु बल्लभाचार्य पधारे थे श्री बाँके बिहारी का दर्शन करने। बल्लभाचार्य का ईश्वर सहचर्य, शास्त्रों का पारदर्शी ज्ञान, उत्कट तपश्चर्या लोकविख्यात थी। उनमें जो विवेक, वैराग्य, आत्मनिष्ठा तथा अनुभव सिद्ध ज्ञान का अद्भुत तेज था, वृद्ध ने अवकाश नहीं पाया उठने का। उसने घूमकर महाप्रभु के चरणों पर मस्तक रख दिया और उसके नेत्र जल से आचार्य के श्रीचरण प्रक्षालित हो गए।

देव! इस वृन्दावन धाम की भुवन पावनता में मुझे कोई सन्देह नहीं है। कुछ क्षण में वृद्ध ने आश्वस्त होकर दोनों हाथ जोड़ लिए। किन्तु मैं इतना अधम हूँ कि पन्द्रह सालों से यहाँ रहने पर भी श्री जगदीश्वर की कृपा का अनुभव नहीं कर सका। तीर्थवास मुझे अब भी प्राप्त नहीं हुआ।

यह तीर्थ में है, वृन्दावन धाम की पावनता में विश्वास रखता है, फिर ? महाप्रभु के पीछे जो अनुमत वर्ग, किन्तु उनमें से कइयों के मन में यह प्रश्न उठा।

“ भावुकता के आधिक्य ने मस्तिष्क को कुछ अव्यवस्थित कर दिया हैं।” एक युवक ने जिनके शरीर पर वैष्णवों के वस्त्र थे और सम्भवतः अभी अध्ययन करते होंगे अपने साथ के अन्तेवासी से धीरे से कहा।

भद्र! मैं श्री बाँके बिहारी के दर्शन करके शीघ्र लौट रहा हूँ। महाप्रभु ने किसी की ओर ध्यान नहीं दिया। लगता था कि आज वे इस वृद्ध पर कृपा करने ही मन्दिर पधारे हैं। वृद्ध के कन्धे पर उनका करुण कर कमल रखा था। “तुम मेरे साथ आज बैठक चलोगे।”

आचार्य चरण उत्तर की अपेक्षा किए बिना आगे बढ़ गये। वृद्ध स्थिर नेत्रों से उनके आगे बढ़ते चरणों की ओर देखता खड़ा रहा।

खड़े-खड़े न जाने कब उसका मन अतीत के स्मरण में भीगने लगा। “मैं पिता का कर्तव्य पूरा कर चुका, अब तुम लोगों को पुत्र का कर्तव्य पूरा करना चाहिए।” ठाकुर जोरावरसिंह आदर्श पिता रहे हैं, आदर्श जागीरदार हैं और आदर्श क्षत्रिय हैं। पुत्रों को उन्होंने शिक्षा दी, केवल पुस्तकों की ही नहीं, व्यवहार का भी विद्वान बनाया और अपनी नैतिक दृढ़ता उनमें लाने में सफल हुए। पुत्र अब युवक हो गए हैं। दोनों पुत्रों का विवाह हो चुका है और जागीरदारी उन्होंने सम्हाल ली है। प्रजा के लिए यदि जोरावरसिंह सदा स्नेहमय पिता रहे हैं तो उनके पुत्र सगे भाई हैं। परन्तु अब जोरावरसिंह वृन्दावन जाकर तीर्थवास करना चाहते हैं। उन्होंने निश्चय कर लिया और उनका निश्चय जीवन में कभी परिवर्तित हुआ हो तब तो आज हो। पुत्रों, पुत्र वधुओं और प्रजा के सैकड़ों, हजारों लोगों को जो व्यथा आज हो रही है- उनका यह देवता जैसा पिता क्या सचमुच इतना निष्ठुर है कि उनको छोड़कर चला ही जाएगा?

“पिता को पुत्रों का तब तक रक्षण, शिक्षण और पालन करना चाहिए जब तक पुत्र स्वयं समर्थ न हो जाएँ और पुत्रों को समर्थ हो जाने पर पिता को अवकाश दे देना चाहिए कि वह भगवान की सेवा में लगे।” जोरावरसिंह स्थित स्वर में कहे जा रहे थे- “मैं अपना कर्तव्य कर चुका, जो तुम्हारे प्रति। अब मुझे परम पिता के प्रति अपना कर्तव्य पूरा करने दो।”

“आप यहाँ रहकर भजन करें तो...............” पुत्र अपने पिता को जानते थे, वे साहस नहीं कर सकते थे यह बात कहने का ।एक प्रजाजन ने एक युवक ने किया था यह प्रस्ताव। यद्यपि सभी के हृदय यही प्रस्ताव करना चाहते थे, किन्तु वाणी अवरुद्ध हो रही थी।

“तुम बच्चे हो, जोरावरसिंह उस युवक की ओर देखकर हँस पड़े वृन्दावनधाम-लीला पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के पावन धाम की महिमा समझ नहीं पाते हो तुम और यह भी नहीं समझ पाते कि यहाँ रहने के लिए जितनी शक्ति चाहिए, हृदय में, वहाँ इस क्षुद्र प्राणी में नहीं है। मैं बृजधाम के अधीश्वर के श्रीचरणों में गिर जाना चाहता हूँ।”

बात बहुत बढ़ाने जैसा है नहीं। प्रजाजनों को, परिजनों को, पुत्रों को दुःख तो होना था ही; किन्तु जोरावरसिंह अपने निश्चय पर दृढ़ रहे। वे घर छोड़कर वृन्दावन आ गए। अवश्य ही उन्होंने पुत्रों का यह अनुरोध स्वीकार कर लिया था। कि शरीर निर्वाह व्यय वे पुत्रों से ले लिया करेंगे और वृन्दावन में उनके निवास के लिए यमुना जी की ओर बस्ती से दूर एक छोटी कुटिया भी उनके पुत्रों ने ही बनवा दी थी। बहुत अनुरोध करने पर भी कोई सेवक साथ में उन्होंने नहीं लिया।

प्रातः यमुना स्नान करके जोरावरसिंह श्री बाँके बिहारी के मन्दिर चले जाते थे और रात्रि में प्रभु के शयन होने तक वहीं रहते थे। लौटते समय निश्चित पुजारी उन्हें महाप्रसाद दे देता था और इसके लिए उसे जोरावरसिंह के पुत्र मासिक दक्षिणा दे दिया करते थे। कुटिया पर लौटकर भगवत्प्रसाद लेते थे जोरावरसिंह।

भगवद् धाम में निवास, भगवन्नाम का जप, केवल एक बार भगवत्प्रसाद ग्रहण-किसी दूसरे से कुछ बोलने का कदाचित् ही अवकाश मिलता था जोरावरसिंह को। परन्तु वे बोलते पर्याप्त थे, जप के सिवा वे बोलते ही तो रहते थे, यही कहना ठीक होगा। बोलते थे, प्रायः बोलते रहते थे- मन्दिर के द्वार के पास बैठे-बैठे। रोते थे और बोलते थे-प्रार्थना करते थे, उलाहना देते थे, अनुरोध करते थे.. परन्तु उनका यह सब केवल श्री बाँके बिहारी के प्रति था।

“तुम कृपण हो गए हो! मुझ एक प्राणी को तीर्थवास देने में तुम्हारा क्या बिगड़ा जाता है? मेरे लिए ही तुम इतने कठोर क्यों हो गए?” पता नहीं क्या-क्या कहते रहते थे जोरावरसिंह। लेकिन उनका विषय एक ही था- तीर्थवास चाहिए उन्हें।

जो दूसरों को अपने सान्निध्य मात्र से पावन कर दे वह तीर्थ। जोरावरसिंह की यह परिभाषा उनकी अपनी नहीं है। तीर्थ की यह परिभाषा तो सभी शास्त्र करते है; किन्तु जोरावरसिंह की मान्यता है कि जब तक हृदय में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार आदि का लेश भी हैं, तीर्थ में रहकर भी तीर्थ की प्राप्ति नहीं हुई। यह जोरावरसिंह की परिभाषा है आप इसे मान ही ले ऐसा मेरा आग्रह नहीं । किन्तु वह गलत भी तो नहीं कहता। देवता हुए बिना देवता नहीं मिलता। तीर्थस्वरूप बने बिना तीर्थ की प्राप्ति नहीं होती। केवल शरीर तीर्थ में चला गया या रहा, यह तीर्थवास नहीं है। तीर्थस्वरूप श्री बाँके बिहारी के श्रीचरण हृदय में प्रकट हो जाएँ तो तीर्थवास प्राप्त हुआ।

एक अड़ियल भक्त ने एक भारी- भरकम परिभाषा बना ली और वह उस पर अड़ा है। श्री बाँके बिहारी जी तो है ही ऐसे कि उनके साथ उलटी-सीधी सबकी सभी हठ निभ जाती है। किन्तु महाप्रभु श्री बल्लभाचार्य इस बूढ़े क्षत्रिय को अपनी चौकी के पास इतने आदर से बैठाकर उसकी बातें इतनी एकाग्रता से सुन रहे हैं। यह क्या कम आश्चर्य की बात है।

“ठाकुर, तुमसे काम, क्रोध मोह आदि कोई दोष है कहाँ है?” एक बार समस्त विद्वत्वर्ग चौका। उनके सम्मुख जो यह पागल-सा बूढ़ा बैठा है, वह वासनाशून्य, क्षीण कल्मष है? महाप्रभु तो कह रहे थे- “तुम तीर्थ में हो कब से तीर्थवासी हो?”

“मुझे भूला नहीं कि मैं क्षत्रिय हूँ, मैं जागीरदार हूँ। कोई अपमान करे तो कदाचित् मैं सहन नहीं कर सकूँगा और मेरे हृदय में श्री बाँके बिहारी जी के दिव्य चरण.........।”

“नित्य विराजमान हैं वे दिव्यचरण तुम्हारी हृदय में। यह दूसरी बात है कि उनकी उपलब्धि पिपासा को बढ़ाती रहती है।” आचार्य श्री वात्सल्यपूर्ण स्वर में कह रहे थे- जोरावरसिंह संयम, सदाचार, तितीक्षा, इन्द्रिय एवं मन का दमन तथा सतत् भगवत्स्मरण जिसमें है, उसी ने तीर्थ पाया है। उसी का तीर्थवास सच्चा तीर्थवास है। महाप्रभु के मुख से निकली वाणी को सभी उपस्थित जन ध्यान से सुन रहे थे-युगावतार की लीलाभूमि, देवताओं की तपस्थली में रहने मात्र से मन, प्राण, चेतना आलोकमय लोक में जा पहुँचते हैं। तुम धन्य हो कि तुमने यहाँ रहने का संकल्प लिया। लेकिन रहते तो सभी हैं पर शरीर से। तुम विचारों और भावनाओं से, समूचे अन्तःकरण से तीर्थ चेतना में डूबने का प्रयास कर रहे हो, इसीलिए तुम तीर्थवास कर रहे हो। तुम तीर्थ में हो और तीर्थ तुममें है। तुम्हारा दर्शन दूसरों को पवित्र करता है।

देव ! प्रभो! वृद्ध जैसे हाहाकार कर उठा! असह्य हो गया उसके लिए अपनी प्रशंसा को सुनना।

श्री बाँके बिहारी जी तुम्हारे हैं न? महाप्रभु ने प्रसंग मोड़ लिया। नहीं क्यों होंगे। जोरावरसिंह के स्वर में क्षत्रिय का ओज आया। वे संसार के स्वामी हैं और मैं उनके ही संसार का का हूँ वे तो मेरे हैं ही।

वे तुम्हारे हैं- इसीलिए तुम्हें तीर्थ नित्य प्राप्त है। महाप्रभु की व्याख्या जोरावरसिंह से भी अद्भुत थी-”भगवद् विश्वास है तो तीर्थ नित्य प्राप्त है और भावनाएँ तीर्थ चेतना में नहा न सकें, मन वहाँ के अधिष्ठातृ देव के स्मरण में भीग न सके तो प्राप्त तीर्थ भी अप्राप्य ही है।”


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