उन्होंने सूक्ष्म बनकर स्थूल में नव-प्राणों का संचार किया

August 1996

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अश्वमेध महायज्ञों की अभूतपूर्व सफलता के साथ ही वन्दनीया माताजी को विश्वास हो गया कि उनके बच्चे अब अपनी जिम्मेदारी सँभालने योग्य हो गए हैं। उन्हें अपने उस दायित्व बोध के पुरा होने की अनुभूति हुई, जिसकी साँकेतिक चर्चा वे यदा- कदा करती रहती थीं। उन्हें लगने लगा कि बाकी कार्य अब सूक्ष्म संकेतों से भी चल जाएगा। इसके लिए अब स्थूल शरीर की कोई विशेष आवश्यकता नहीं। उनका यह भाव चित्रकूट अश्वमेध यज्ञ से वापस लौटने पर और भी गहरा हो गया। परम पू. गुरुदेव से एकाकार होने की उनकी आतुरता और अधिक घनीभूत हो उठी।

पु. गुरुदेव के महाप्रयाण के बाद अक्सर वे भावुक हो जाया करती थीं। गुरुदेव के प्रसंग आते ही उनकी अन्तः पीड़ा बरबस नेत्रों से छलक उठती। श्रद्धाँजलि समारोह के समापन के बाद उन्होंने अपने कक्ष से सटे हुए बड़े हाल में सभी स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं की गोष्ठी ली थी। उसमें उन्होंने कहा था- “मेरी तो अब चलाचली की बेला है। बच्चों! मिशन को तो तुम्हें ही चलाना होगा। पूर्णाहुति के दिन से ही मेरा मन अब जाने को हो रहा है। मुझसे अपने आराध्य का वियोग सहा नहीं जाता। तुम बुज़दिल मत बनना। वो तो बाजी मार ले गए। अस्सी साल में आठ सौ साल का काम करके चले गए। मुझे तुम्हारी देख−रेख को छोड़ गए तो बेटो! तीन-चार साल जबतक शरीर साथ देगा व देखूँगी कि तुम मजबूत हो गए तो मैं भी चल दूँगी। मैं भला अपने आराध्य से दूर क्यों रहूँ। मेरा चिन्तन अब ऐसा ही बन रहा है, किन्तु तुम निराश मत होना, चार साल बहुत होते हैं ।”

बात के क्रम का आगे बढ़ाते हुए वह बोलीं- तुम सबको देखना है कि आगे क्या होता है, सन् 1995 से 2000 में जो काम होंगे वे माताजी नहीं बेटेजी करेंगे । यह और भी शानदार होंगे। अब हम मिशनरी भावना की तरह फैलते चले जाएँगे। देखते-देखते कई गुना हो जाएँगे। तुममें से विवेकानन्द निकलेंगे, दयानन्द निकलेंगे, निवेदिताएँ निकलेंगी और देखते जाओ, तुमसे वह करा लेंगे जो तुमने कभी सोचा भी नहीं था। अशक्तता की वजह से मेरे हाथ-पैर भले ही न चलते हों पर मेरी शक्ति पूरी तुम्हारे साथ है। जब मैंने गुरुजी के साथ रहकर यहाँ तक विकास कर लिया तो तुम मेरा आशीर्वाद लेकर चलो, देखो तो सही तुम्हें कहाँ से कहाँ पहुँचा दूँगी।

जिस शारीरिक अशक्तता का जिक्र उन्होंने अपनी गोष्ठी में किया था। चित्रकूट अश्वमेध के बाद से वह और ज्यादा हो गयी। वैसे भी शरीर का संचालक मन है। जब तक मन शरीरगत रहता है, देह की सार-सँभाल होती रहती है। सामान्यजन तो देह परायण होते हैं। उनका मन चौबीसों घण्टे देह के बारे में ही सोचता रहता है। लेकिन यह सोच देह के रखरखाव की नहीं, देह को माध्यम बनाकर अत्यधिक भागों की चाह ही बाद में उनकी दुर्गति का कारण बनती है। परन्तु योगीजनों को न तो भोगों की परवाह होती है और न चाह। उनका मन तो पूरी तरह परमात्मा में तल्लीन होता है। यह तल्लीनता जब बढ़ती जाती है तो मन के सूत्र शरीर से टूटने लगते हैं और देह से उनकी आत्मा का बिछोह हो जाता है।

यह कारण है कि योगीजन मन के सूत्रों को देह से जोड़े रखने के लिए किसी न किसी गतिविधि अथवा प्रवृत्ति को अपनाते रहते हैं। श्रीरामकृष्ण परमहंस प्रायः भावसमाधि में रहा करते थे। भावसमाधि को तोड़ने के लिए वे मन को खाने-पीने की चीजों में लगाते रहते थे, ताकि देहबोध बना रहे। गुरुनानक, तुकाराम, समर्थ रामदास प्रभृति सन्तों, भक्तों ने लोकसेवा को अपनी देह रक्षा का साधन चुना था। वन्द. माताजी ने मिशन की गतिविधियों में अपने का संलग्न कर रखा था। यह संलग्नता उनकी अपने आराध्य की सेवा भी थी और इसी के माध्यम से मन देह और संसार से जुड़ा रहता था। पर बाद के दिनों में उनका मन सभी ओर से सिमटकर पू.गुरुदेव में तल्लीन होने लगा। इस बढ़ती तल्लीनता के कारण देह के सूत्र टूटने लगे।

मन और देह के सूत्रों का टूटना, उनका अस्त-व्यस्त होना ही उनकी बीमारी का कारण बना। वैसे इस बीमारी का एक और कारण था, जिसका जिक्र करते हुए गुरुदेव ने एक स्थान पर लिखा है-”शरीर छोड़ते समय हम लोगों को भी कष्ट आ सकता है। माताजी भी बीमार पड़ सकती है। पर यह बीमारी उनके किसी कर्म विपाक के कारण नहीं होगी। परिजनों, अपने बच्चों के कष्ट जो अत्यधिक मात्रा में उन्होंने लिए हैं उसे वे देह की बीमारी के माध्यम से निबटाकर जाएँगी, ताकि किसी तरह का कर्म बन्धन न रहे और जीवन मुक्ति की स्थिति में किसी तरह का व्यवधान न पड़े।”

बस यही कारण था वन्द. माताजी की बीमारी का, जो उन्होंने मई से सितम्बर तक अपने ऊपर ली। अतिशय दैहिक कष्ट के बावजूद समीपस्थ जनों ने उन्हें हमेशा हँसते-मुसकराते हुए ही देखा। चरम पीड़ा और असह्य वेदना कभी उनके मन को स्पर्श नहीं कर सकी। बीमारी के दिनों में उन्हें देखने वाला स्वल्पबोध क्षमता सम्पन्न बालक देह और नित्य मुक्त आत्मा के अन्तर का गम्भीर दार्शनिक तत्व बड़ी आसानी से समझ सकता था। इन दिनों भी वह आने-जाने वालों के भोजन का आश्चर्यजनक रूप से ध्यान रखती थीं। बाहर से आया हुआ एक कार्यकर्ता जब उनसे मिलने गया, उस समय वे गहरे कष्ट में थीं। पर उसे देखते ही वे बड़े वात्सल्यपूर्ण स्वर में बोलीं-”बेटा! इसे अभी खाना खिलाओ।” उनके इन शब्दों को सुनकर सुनने वाले की आँखें भर आयीं।

तभी तो पू. गुरुदेव उनके बारे में कहा करते थे-” माताजी आदि से अन्त तक माताजी ही हैं। मई 1971 की अखण्ड ज्योति में उन्होंने लिखा- “यों वे रिश्ते में हमारी धर्मपत्नी लगती हैं, पर वस्तुतः वे अन्य सभी की तरह हमें भी माता की भाँति दुलारती रही हैं। उनमें मातृत्व की इतनी उदारता गरिमा भरी पड़ी है कि अपने वर्तमान परिवार को भरपूर स्नेह दे सकें” और सचमुच यह स्नेह उन्होंने अपनी अन्तिम साँस तक दिया भी। बीमारी के दिनों में तो यह शायद पहले से भी कहीं अधिक बढ़ गया था। जिनसे वे मिलीं, जो उनके पास गए, वे भावपूरित हो गए और जो नहीं जा पाए वे भी अपनी अन्तरात्मा में उनके प्यार की छुअन प्रतिपल महसूस करते रहे।

बीमारी के दिनों में ही भिण्ड में 17 वाँ अश्वमेध यज्ञ 3 से 5 मई, 1994 को आयोजित हुआ। इस अश्वमेध में जैन मत के प्रतिष्ठित विद्वान दिगम्बर सन्त श्री योगेन्द्र सागर जी पधारे। आयोजन, जनसमूह, विशिष्ट अभ्यागत सभी को माताजी का अदृश्य स्पर्श महसूस होता रहा। इस अश्वमेध के थोड़े ही दिन बाद शिमला (हि.प्र.) में 18 वें अश्वमेध महायज्ञ का आयोजन हुआ। इस आयोजन में समूचे पर्वतीय क्षेत्र के कर्मनिष्ठ भावनिष्ठ, जनश्रद्धा से ओत-प्रात होते देखे गए। कइयों ने अपनी मान्यताओं, भावनाओं के अनुसार यह कहा कि यह देवों का यज्ञ हैं। सारे देवता यहाँ अपने दिव्य शरीर से पधारे हैं। जब आदिशक्ति स्वयं अपने दिव्य शरीर से गयीं थीं, तो उनकी अनुगत देवशक्तियों का वहाँ आना अचरज जैसी कोई बात नहीं।

इन अश्वमेध महायज्ञों के पश्चात् भाद्रपद मास की पूर्णिमा आ पहुँची। माताजी ने इसी दिन को अपने आराध्य से शाश्वत मिलन के लिए चूना था। इस दिन प्रातः से ही शाँतिकुँज में अजब रोमाँचक स्थिति थी। सभी कार्यकर्त्ता सहमे-सकुचे-से थे। कइयों को उनके अंतर्मन में घटना के पूर्व संकेत भी मिल रहे थे। प्रायः सभी के मन तथ्य से अवगत हो चले थे। पर एक-दूसरे से कहने-सुनने में हर कोई संकोच अनुभव कर रहा था। आज का मौसम भी समशीतोष्ण हो चला था। वर्षा के उमस भरे दिनों में भी शीतल समीर का अहसास हो रहा था। कुछ ऐसा लग रहा था जैसे देवगण वन्दनीया माताजी की अगवानी के लिए तैयार हो चुके हों।

और वे पल आ ही गए। 11 बजकर 40 मिनट से ही हर पल एक संकेत देने लगा था। जीवात्मा देह से अपने संपर्क तन्तुओं को समेटते जा रही थी। दस मिनट बाद ही परम वन्दनीया माताजी अपने आराध्य से एकाकार हो गयीं। परम पू. गुरुदेव ने इस स्थिति की चर्चा करते हुए जनवरी 1988 की अखण्ड ज्योति में-’जोति फिर भी बुझेगी नहीं’ शीर्षक के अंतर्गत लिखा है-”प्रकृति के नियम बदले नहीं जा सकते। पदार्थों का उद्भव, अभिवर्द्धन और परिवर्तन होते रहना एक शाश्वत क्रम है। इस नियति चक्र से हम लोगों के शरीर भी नहीं बच सकते। बदन बदलने के समय में अब बहुत देर नहीं है। पर वस्तुतः यह कोई बड़ी घटना नहीं है। अविनाशी चेतना के रूप में आत्ता सदा अजर-अमर है। परिजन हम लोगों का संयुक्त जीवन अखण्ड दीपक का प्रतीक मानकर उसे आत्मसत्ता की साकार प्रतिमा मानते रहें। वह हम लोगों के लिए मत्स्यवेध जैसा लक्ष्यवेध करने वाले शब्दबेधी बाण की तरह आराध्य बनकर रही है। साथ ही साधना का सम्बल भी।”

शरीर परिवर्तन की बेला आते ही यों तो हमें साकार से निराकार होना पड़ेगा, पर क्षणभर में उस स्थिति से अपने को उबार लेंगे और दृश्यमान प्रतीक के रूप में उसी अखण्ड दीपक का ज्वलन्त ज्योति में समा जाएँगे जिसके आधार पर अखण्ड ज्योति नाम से सम्बोधन अपनाया गया है। शरीरों के निष्प्राण होने के उपरान्त जो चर्म-चक्षुओं से हमें देखना चाहेंगे व इसी अखण्ड ज्योति की जलती लौ में हमें देख सकेंगे। दो शरीर अब तक द्वैत स्थिति में रहे हैं। भविष्य में दोनों की सत्ता एक में विलीन हो जाएँगी और उसे तेल बाती की प्रथक सत्ताओं की एक लौ में समावेश होने की तरह अद्वैत रूप में गंगा, यमुना के संगम रूप में देखा जा सकेगा। इस महामिलन को प्रज्ञा और श्रद्धा का एकीकरण भी समझा जा सकेगा।

प्रज्ञा और श्रद्धा के इस एकीकरण ने सूक्ष्म होते हुए भी स्थूल में प्राणों का नवसंचार किया । यह प्राण-ऊर्जा बाद के अश्वमेध यज्ञों में महसूस की जाती रही। इस अश्वमेध यज्ञों का क्रम इस प्रकार रहा-

19. बुलंदशहर (उ.प्र.) 17 से 20 नवम्बर, 94

श्रद्धेया शैलदीदी ने इस कार्यक्रम का संचालन किया। इस कार्यक्रम में पधारे प्रसिद्ध पर्यावरणविद् एवं चिपको आन्दोलन के नेता श्री सुन्दरलाल बहुगुणा ने कहा- “ मैं आप सबको आपके सौभाग्य के लिए बधाई देने आया सब जो कुछ लाख लोग जमा हैं, दुनिया का नई राह दिखाना चाहते हैं।”

20. हल्दीघाटी (राज.) 29 नवंबर से 2 दिसम्बर, 94

राणा प्रताप की शौर्यभूमि हल्दीघाटी से सम्पन्न हुआ यह महायज्ञ अनेक तरह से अद्वितीय रहा। यज्ञीय प्रक्रिया में सभी वर्गों के विशिष्ट अभ्यागतों ने भाग लिया। तृतीय पीठेष्वर पुष्टिमार्ग, निम्बर्काचार्य के साथ अनेक राजनेतागण भी पधारे। यज्ञ के क्रम में राजसमन्द की विशाल झील के किनारे हजारों व्यक्तियों द्वारा हल्दीघाटी के शूरवीरों का श्रद्धासिक्त तर्पण किया गया।

21. राजकोट (गुजरात) 14 से 17 दिसम्बर, 94

श्रद्धेया शैलदीदी ने लाल मशाल जलाकर यज्ञ का शुभारम्भ किया। यज्ञ के कार्यक्रम में गुजरात शासन के वित्तमंत्री श्री मनोहर सिंह जाडेजा, राज्यमंडी डॉ. चन्द्रिकाबेन चूड़ा सामा के साथ सौराष्ट्र नारी जगत की अग्रणी सुश्री सहनाज बाबी भी पधारी। सुश्री बाबी ने इस के सम्बन्ध में कहा-”यह हिन्दुओं का ही नहीं, मानव मात्र का कल्याण करने वाला विराट आयोजन है।”

22. जबलपुर (म.प्र.) 28 से 31 जनवरी, 95

मध्यप्रदेश की संस्कारधानी कहे जाने वाले इस शहर में सम्पन्न हुए महायज्ञ में राज्य महामहिम राज्यपाल मो. शफी कुरैशी ने कहा-गायत्री परिवार एकता और समता की राष्ट्रीय भावनाएँ फैला रहा है। उसे हर जगह सुना जा सकता है और सूना जाएगा। अश्वमेध के अन्यान्य कार्यक्रमों में मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्री श्यामाचरण शुक्ल, संत सुधारक हृदय-रामजी आदि ने भी भाग लिया, प्रोत्साहन दिया।

23. कोटा (राज.) 12 से 15 फरवरी, 1995

इस आयोजन की भव्यता एवं विशालता को देखते हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने 10 हजार से अधिक स्वयं सेवक भेजे। प्रधानमंत्री कार्यालय से सम्बद्ध तत्कालीन राज्यमंत्री श्री भुवनेश चतुर्वेदी ने यज्ञशाला में उपस्थित होकर सभी याज्ञिकों, ऋत्विजों को अभिनन्द किया।

24. गोरखपुर (उ.प्र.) 25 से 28 फरवरी, 1995। यज्ञीय कार्यक्रमों की भव्यता के अतिरिक्त इस कार्यक्रम की सबसे बड़ा उपलब्धि इस यज्ञ का वैज्ञानिक प्रयोग-परीक्षण है। यहाँ की एक सामाजिक संस्था एवं गोरखपुर विश्वविद्यालय के दो शोध छात्रों तथा डॉ. राकेश शर्मा ने अलग-अलग मिट्टी, पानी, हवा के यज्ञ के समय और बाद के नमूने लिए। परीक्षण के उपरान्त जो परिणाम उपलब्ध हुए हैं उन्हें क्रान्ति से भरा एक उद्घोष कहा जा सकता है।

25. इन्दौर (म.प्र.) 5 से 8 अप्रैल 1995

श्रद्धामय भव्यता से भरे इस आयोजन में पधारे म.प्र. क मुख्यमंत्री श्री दिग्विजयसिह ने अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा- “मैं यहाँ मुख्यमंत्री के रूप में नहीं, गायत्री परिवार के स्वयं सेवक के रूप में आया हूं। यही मेरा वास्तविक पद है।”

26. शिकागो (अमेरिका) 27 से 30 जुलाई, 1995

यहाँ सम्पन्न हुए अश्वमेध महायज्ञ का प्रभाव इतना व्यापक रहा कि इसके तुरन्त बाद प्रथम विश्वधर्म संसद, जहाँ स्वामी विवेकानन्द ने अपना ऐतिहासिक भाषण दिया था, वहाँ पर एक ताम्र पट्टिका का अमेरिकन सरकार द्वारा लगायी गयी एवं आर्ट इन्स्टीट्यूट को सभी भारतीयों के लिए खोल दिया गया।

अश्वमेध महायज्ञों की इस कड़ी में 27 वाँ अश्वमेध 26 से 29 जुलाई, 1996 की तिथियों में अपने भव्य आकर्षण के साथ इस पंक्तियों के लिखे जाने के समय ही सम्पन्न हो रहा है। इन सभी की आश्चर्यजनक सफलता, उमड़ती जप श्रद्धा को देखकर यही कहा जा सकता है कि वन्दनीया माताजी ने अपने जीवनकाल में जिस अभियान को आरम्भ किया था, उसमें उन्होंने सूक्ष्म होकर नए प्राणों का संचार किया।


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