शाँतिकुँज में सम्पन्न हुआ, श्रद्धा-अर्पण और शपथ-ग्रहण

August 1996

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ब्रह्मदीप यज्ञ समाप्त होते ही वन्दनीया माताजी ने संकल्प श्रद्धाँजलि की घोषणा कर दी। पूज्य गुरुदेव कहते थे-”श्रद्धा सक्रियता में बदलनी चाहिए।” इसी आधार पर माताजी ने उनके मिशन को आगे बढ़ाने के संकल्प विकसित एवं समर्पित करने के लिए संकल्प श्रद्धाँजलि का निर्धारण किया । जैसा शानदार जीवन इस मिशन के संस्थापक, संचालन ने जिया, उतने ही शानदार ढंग से उनके व्यक्तित्व को एक विराट् समुदाय द्वारा श्रद्धा सुमन अर्पित किए जाने थे। इसका मूल्य और महत्व इसलिए भी था क्योंकि इसके साथ वे पुनीत संकल्प जुड़े थे, जिनके माध्यम से शिष्य समुदाय परोक्ष में सूक्ष्मीकृत अपनी गुरु सत्ता की विद्या -विस्तार के पुण्य- प्रयोजन के कार्यों को आगे बढ़ाते रहने का सुनिश्चित विश्वास अर्पित करने वाला था।

तैयारियाँ बहुत चुनौती भरी थीं। जून के 15 दिन, जुलाई, अगस्त एवं सितम्बर ही थे। अधिकांश समय वर्षाकाल का था। उतनी ही अवधि में कुम्भ जैसे आयोजन की तैयारी पूरी करनी थी। कुम्भ के लिए प्रशासन अपनी पूरी सामर्थ्य के साथ एक वर्ष तैयारी करता है। लेकिन यहाँ बिना किसी सरकारी सहायता के सिर्फ अपने बलबूते समूची तैयारी अपनी गुरु सत्ता को समर्पित समुदाय किस प्रकार कर सकता है, इसका एक अनूठा उदाहरण पूरे उत्तर भारत की जनता को वर्ष 1990 में देखने को मिला। शिक्षकों से लेकर कृषक, न्यायाधीश, चिकित्सक, इंजीनियर, आई.ए.एस. अधिकारी तक इस मिशन से जुड़े हैं। इनमें से बीस हजार के अधिक स्वयं सेवक के रूप में 15 सितम्बर से ही आ गये थे। आते ही ये सभी बिना किसी पद या शिक्षा, जाति या वर्ण के पूर्वाग्रह के सभी एकजुट होकर कार्यक्रम की तैयारी में लग गए।

इ.पी.टेण्ट, शामियाने, जल, बिजली आदि की व्यवस्था, ऊबड-खाबड़ स्थानों की सफाई, विशाल भोजन भट्टियों का निर्माण आदि सभी काम स्वयंसेवी स्तर पर किए गए। पारस्परिक तालमेल बिठाकर सारे काम इस तरह पूरे होते चले गए कि उन अधिकारियों को भी हतप्रभ रह जाना पड़ा, जो विशाल भूखण्ड की सफाई को न्यूनतम छह माह का काम मानते थे। प्रकृति ने भी जमकर परीक्षा ली । सामान्यतया मानसून की वर्षा 1-12 सितम्बर के बाद इस ओर नहीं होती, किन्तु विरोधी शक्तियाँ संकल्पशक्ति को कसौटी पर कसने को जो बैठी थी। 29 सितम्बर तक रुक-रुक कर पानी बरसता रहा किन्तु एक भी व्यक्ति अपने संकल्प से डिगा नहीं।

एक और परीक्षा सभी परिजनों की मार्ग में ली जा रही थी। सभी कार्यक्रम में पहुँचने को आतुर थे किन्तु उसी बीच अयोध्या प्रकरण तथा मण्डल आयोग की प्रतिक्रिया स्वरूप देशव्यापी आन्दोलन भड़क उठा। बसें, ट्रेनें और फायर ब्रिगेड की गाड़ियां तक जलाई जाने लगीं। सड़कों और प्लेटफार्मों पर सूनापन छा गया। ऐसे में भी दिव्य-चेतना तथा जनश्रद्धा ने अपना कमाल दिखाया। श्रद्धाँजलि समारोह में जितने व्यक्ति पहुँचने थे पहुँचे।मार्ग में न कोई उपद्रव आड़े आया और न कोई जन-धन हानि हुई । हरिद्वार नगर में मात्र इस कार्यक्रम के लिए पाँच लाख परिजन पंजीकृत किए जा चुके थे। स्थानीय लोगों के लिए इतनी विशाल अनुशासित भीड़ का जुटना एक सुखद आश्चर्य था, क्योंकि सभी कुछ सामान्य चल रहा था। कहीं स्थानीय यातायात में बाधा नहीं, कहीं कोई कानून व्यवस्था में गड़बड़ी नहीं। एक लाख परिजनों की रोलिंग भीड़ नित्य आती व जाती रही। सारा हरिद्वार पीले वस्त्र पहने, पीत दुपट्टाधारी स्त्री-पुरुषों से पटा हुआ था।

सुव्यवस्थित ढंग से ठहराने का प्रबन्ध किया गया था। पूरे हरिद्वार नगर की पंद्रह मील लम्बाई व आठ मील की चौड़ाई में कनखल से मोतीचूर तक पंद्रह हजार से अधिक छोलदारियाँ, इ.पी. टेण्ट, शामियाने लगाकर चौबीस नगर बसाए गए थे। अतिरिक्त व्यवस्था हेतु अनुरोध किया गया तो सभा आश्रमों ने युग पुरुष का श्रद्धाँजलि देने हेतु अपने द्वार खोल दिए। इन आश्रमों के अतिरिक्त टेण्टों में बहुसंख्यक जन बिना किसी साधन-सुविधा की अपेक्षा किए ठहरे हुए थे।

‘कार्यक्रम का शुभारम्भ प्रातः ब्रह्मवेला में पू. गुरुदेव के जीवन-वृत पर बनी एक विशाल प्रदर्शनी का वन्दनीया माताजी द्वारा उद्घाटन से हुआ। इसके पश्चात् वे ब्रह्मर्षि नगर के विशाल मंच पर पहुँची। झण्डारोहण किया गया तथा एक विशाल मशाल प्रज्ज्वलित की गई । कलश पूजन के पश्चात् 1008 कलशधारी महिलाओं के नेतृत्व में एक विशाल शोभायात्रा, प्रवचन सभागार से निकली। चौदह किलोमीटर लम्बा यह जुलूस प्रातः 7 बजे रवाना हुआ व मध्याह्न साढ़े बारह बजे याज्ञवल्क्यनगर पहुँचा, जो सप्तर्षि आश्रम के समीप याज्ञवल्क्य की तप-स्थली में विनिर्मित किया गया था। यहाँ 1008 कुण्डों की भव्य यज्ञशाला बनाई गई थी। कलशों को यहाँ विधि-विधान से स्थापित कर प्रातःकाल के कार्यक्रम को विराम दिया गया। संध्याकाल में युग गायन के साथ कार्यक्रम की शुरुआत हरिद्वार, ऋषिकेश मार्ग पर अवस्थित प्रवचन सभागार में हुई। शाँतिकुँज के प्रतिनिधियों के प्रारम्भिक उद्बोधन के बाद वन्दनीया माताजी का प्रेरक, ओजस्वी प्रवचन हुआ। इसी के साथ इस दिन के कार्यक्रम की समाप्ति हुई।

पुरी नगरी में बसाए गए विभिन्न नगरों में जिस प्रकार प्रकाश की व्यवस्था थी, उससे रात्रि में भी शहर से छह मील दूर कभी नीरव लगने वाले क्षेत्र में भी जंगल में मंगल जैसी स्थिति नजर आ रही थी। संकल्पित साधकों ने अगले दिन प्रातः 3-30 बजे से दिनचर्या आरम्भ की। प्रातः ध्यान-साधना के बाद 1008 कुण्डीय गायत्री महायज्ञ आरम्भ हुआ, जो 11-30 तक चलता रहा। साथ-साथ आज जहाँ देवात्मा हिमालय बन रहा है उसी भूमि में अखण्ड गायत्री जप एवं संस्कारों का क्रम नियमित चलता रहा। इसी के साथ प्रवचन सभागार में वन्दनीया माताजी द्वारा दीक्षा दी गई इस कार्यक्रम में प्रतिदिन 50 हजार से अधिक परिजन उपस्थित रहते थे।

मध्याह्न में कार्यकर्ता गोष्ठियाँ जगह-जगह विभिन्न नगरों में आयोजित की गई। इनका उद्देश्य था- पू.गुरुदेव का उज्ज्वल भविष्य के लिए महाकाल की साझेदारी का आमंत्रण ‘जन-जन तक पहुँचाया जाय। युगसन्धि साधना में भागीदारी चिंतन, मनन, स्वाध्याय का क्रम अपनाना तथा छोटे-छोटे दीपों द्वारा जन-जन को युगपरिवर्तन की विचारधारा से अनुप्राणित करना यह त्रिविध उद्देश्य इन कार्यकर्ता गोष्ठियों का था, जो तीन दिन टुकड़ों-टुकड़ों में पूरा होता चला गया। संध्याकाल में वन्दनीया माताजी के उद्बोधन के पूर्व गायत्री तपोभूमि के व्यवस्थापक पण्डित लीलापत शर्मा का प्रेरक उद्बोधन हुआ। उन्होंने पू. गुरुदेव के विद्या-विस्तार कार्यक्रम के प्रसार हेतु उनके लिखे साहित्य को उन सभी मिशन का आलोक नहीं पहुँच पाया है। इसके पश्चात् वन्दनीया माताजी का सारगर्भित प्रवचन हुआ। जिसमें उन्होंने उपासना, साधना, आराधना के मर्म को पूज्यवर के जीवन के परिप्रेक्ष्य में समझाया।

तीसरा दिन अति विशिष्ट था। इस दिन सामूहिक गायत्री महायज्ञ के साथ-साथ 301 जोड़ों के आदर्श विवाह भी थे। एक साधनहीन कृषक से लेकर एक पूँजीपति का लड़का आज आदर्श विवाह पद्धति द्वारा दाम्पत्य जीवन में प्रवेश कर रहा था। दहेज विरोधी आन्दोलन इस मिशन का एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम रहा है। नगर व प्रान्त के पत्रकार गण, दूरदर्शन व आकाशवाणी के प्रतिनिधि इस कार्यक्रम को देखने आए थे। मध्याह्न 12-30 पर उत्तरप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल महामहिम श्री सत्यनारायण रेड्डी ने पधार कर अपनी शुभकामनाएँ उपस्थित समुदाय को दीं। इसी के साथ प्रातःकालीन सभा समाप्त हुई।

भोजन व दोपहर की गोष्ठियों के बाद शाम की सभा आरम्भ हुई। वन्द. माताजी के प्रारम्भिक उद्बोधन के बाद महामहिम राज्यपाल महोदय श्री रेड्डी ने उपस्थित समुदाय को दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन व सत्प्रवृत्ति संवर्धन के निमित्त लगे रहने हेतु भूरि-भूरि बधाई दी। साथ ही गुरुदेव के समाज निर्माण के कार्यक्रम को युगान्तरकारी अभियान बताया। उनके उद्बोधन के पश्चात् भी जनसमुदाय के आने का क्रम चालू था। विराट सवालक्ष दीपों का महायज्ञ आरम्भ हुआ। “यन्मण्डलं दीपित्करं विषालम्” की धुन के बीच सभागार के चारों ओर सजाए गए दीपक जला दिए गए । मंच के चारों ओर विशाल स्टैण्ड पर दीपों के थाल सजा दिए गए थे। दृश्य देखते ही बनता था। शरदपूर्णिमा की रात थी, परन्तु पूर्णिमा का चाँद भी छोटे-छोटे दीपों की समन्वित आभा-ऊर्जा के समक्ष मद्धिम लग रहा था। दीपयज्ञ के पश्चात् गायत्री माता की आरती जब अहमदाबाद शाखा के एक परिजन ने अपने मस्तक पर 151 दीप सजाकर नृत्य करते हुए गायी तो सबकी तालियाँ पूरी आरती तक एक साथ बजती रहीं।

1 अक्टूबर से प्रारम्भ हुआ कार्यक्रम 4 अक्टूबर तक आ पहुँचा। इस दिन विदाई होनी थी। सभी का लग रहा था। कि देखते-देखते चार दिन कैसे बीत गए। नित्य अगणित व्यक्ति तीन विशाल भोजनालयों में भोजन करते रहे, कोई बिना भोजन के नहीं रहा, कोई बीमार नहीं पड़ा एवं कहीं किसी प्रकार की कोई की अव्यवस्था नहीं देखी गई। जाने की वेदना सभी को थी। वन्दनीया माताजी द्वारा 1008 कुण्डीय यज्ञशाला में स्वयं आकर उपस्थित याज्ञिकों को दीक्षा देने के उपरान्त विदाई गीत हुआ एवं वन्दनीया माताजी द्वारा भावभरे शब्दों में कार्यक्रम का समापन घोषित कर दिया गया। वन्दनीया माताजी ने स्वयं एक गीत गाकर परिजनों को विदाई दी। चारों ओर आँसू ही आँसू थे। सभी सोच रहे थे कि ममत्व की साकार प्रतिमा माताजी से कैसे दूर रहेंगे। पर सभी ने अपने को सँभाला व लोटने की तैयारी आरम्भ की। सबसे मनमोहक दृश्य था वह जब माताजी प्रवचन सभागार से वापस शाँतिकुँज लौटीं एवं उनके पीछे विशाल जनसमूह उन्हें नमन करता हुआ पूरे रास्ते चलता रहा यहीं श्रद्धा तो मूलभूत पूँजी है इस मिशन की, जिसने लाखों मणि-मुक्तकों को गूँथकर एक हार कि रूप में पिरो दिया है। इसी श्रद्धांजलि पर्व में संकल्पित परिजनों ने पूरे देश में प्रेरक आयोजनों की धूम मचा दी। देखने वाले समझ नहीं पाए कि कैसे यह छोटी-छोटी हैसियत वाले लोग इतने बड़े कार्य, इतने आत्मविश्वास के साथ कर रहे हैं, किन्तु करने वाले अनुभव करते थे कि सजल श्रद्धा का भाव प्रवाह बरबस उनके हाथों-पैरों व मन-मस्तिष्क को सक्रिय किए हुए है।

इस सक्रियता का वर्ष 1992 का 8-9-10 जून को पुनः आह्वान हुआ । अबकी बार संकल्पवान परिजनों को शपथ ग्रहण के लिए बुलाया गया था। शपथ समारोह की शोभायात्रा में भागीदारी के लिए मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, उत्तरप्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र व दक्षिण भारत से सैकड़ों की संख्या में जीप, बसें, मेटाडोर आदि वाहन 5 जून की शाम आँवलखेड़ा पहुँचे। वहाँ 6 जून को परम पूज्य गुरुदेव की जन्मभूमि के रजकलश लेकर यह काफिला अलीगढ़, बुलंदशहर, रुड़की होते हुए 8 जून की शाम को शाँतिकुँज आ पहुँचा। इसी शाम शोभा यात्री की अगवानी शाँतिकुँज के ठीक सामने बने प्रवचन सभागार में की गई। वन्दनीया माताजी ने स्वयं इन रजकलशों का पूजन सम्पन्न किया।

प्रवचन सभागार के समीप बनी 108 कुण्डीय यज्ञशाला में प्रातः ध्यान-साधना के बाद अगले दिन आए हुए परिजनों ने यज्ञ सम्पन्न किया।

यज्ञ के साथ ही आए हुए परिजनों ने दीक्षा प्राप्त की। इस बीच संस्कार शाला में देव संस्कृति की रश्मियां 12 संस्कारों के रूप में बिखरती रहीं और 10 जून गायत्री जयन्ती की प्रातः परम पू. गुरुदेव की द्वितीय पुण्य तिथि पर शपथ समारोह सम्पन्न हुआ। इस दिन परम पु. गुरुदेव की जन्मभूमि की रज व सप्त सरोवर का गंगाजल हाथ में लेकर सवा लाख परिजनों ने देव संस्कृति के उद्धार व विस्तार की शपथ ली। साथ ही इस शपथ समारोह में भागीदारी लेने वालों में निम्न व्रतों को निष्ठापूर्वक अपनाने का बीड़ा उठाया गया।

1. प्रतिवर्ष न्यूनाधिक तीन माह का समय शाँतिकुँज के लिए देना। नियोजन केन्द्र द्वारा जो हो उसे स्वीकार किया जाना।

2. या एक लोकसेवी परिव्राजक की तीन माह की अवधि के लिए ब्रह्मवृत्ति जीवन निर्वाह का प्रबन्ध करना।

3. शक्ति संचार साधना के वे भागीदार जो

नियमित उपासना, एक घण्टा एवं बीस पैसा प्रतिदिन अथवा एक दिन की आजीविका माह में एक बार शाँतिकुँज को देव संस्कृति विस्तार के निमित्त देने का अनुबन्ध।

4. भविष्य में होने वाले कार्यक्रमों का अपने क्षेत्र में आयोजित करने, भाग लेने का संकल्प।

5. शाँतिकुँज में सम्पन्न होने वाले सत्रों में अपने क्षेत्र के दस प्रतिभावान लोगों को भेजने का संकल्प।

कहना न होगा, शपथ ग्रहण करने वाले परिजनों ने देव संस्कृति के उद्धार व विस्तार का बीड़ा उठाया। संकल्प श्रद्धाँजलि समारोह में परिजनों की अन्तर्चेतना में जो संकल्प बल पैदा हुआ था, वह शपथ समारोह में विकसित रूप में अनुभव किया गया। इसी ऊर्जा से देव संस्कृति दिग्विजय अभियान की प्रचण्ड धारा बह निकली।


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