ऐसे सम्पन्न हुआ सूक्ष्मीकरण का विलक्षण प्रयोग

August 1996

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युग सन्धि के क्षण बड़े रोमाँचकारी होते हैं। पुरातन के ध्वंस में तेजी आने के साथ ही नवीन का अंकुरण होता है। वर्ष 1980 से ऐसी ही युग परिवर्तन बेला शुरू हुई। पू. गुरुदेव ने 1980 से 2000 इस बीस वर्षों को युग-सन्धि काल घोषित किया। बीस सालों के इस काल खण्ड को चार भागों में बाँटते हुए उन्होंने कहा- “ये पाँच-पाँच साल की पंचवर्षीय योजनाएँ महाकाल ने बनायी हैं। सरकारें अपनी स्थिति के अनुरूप किसी छोटे से भू-भाग के लिए पाँच साल के कार्यक्रम बनाती हैं। भगवान ने किसी देश विशेष के लिए नहीं सारी धरती के लिए ये पंचवर्षीय योजनाएँ बनायी हैं। एक के बाद दूसरी योजना में उथल-पुथल का जोर बढ़ता जाएगा। अन्तिम में तो जैसे क्रान्तियों की बाढ़ आ जाएगी।”

उनकी इन योजनाओं की शुरुआत के साथ ही शाँतिकुँज के एक अध्याय का पटाक्षेप हो गया। सन् 1979 में शक्तिपीठों के निर्माण के साथ ही शाँतिकुँज का परिसर विस्तार पा चुका था। गायत्री नगर का निर्माण कार्य पूरा होते-होते विचार क्रान्ति के युगान्तरकारी महायज्ञ में आत्माहुति करने वाले जीवनदानी सैकड़ों की संख्या में यहाँ आ पहुँचे। यह उस आह्वान का उत्तर था जो युग देवता ने वर्ष 1982 के एक लेख ‘भलाई को तैर कर ऊपर आने का आमंत्रण’ में किया था। अब तक शक्तिपीठों के उद्घाटन कार्यक्रम प्रायः समाप्त हो चुके थे। शाँतिकुँज में चान्द्रायण कल्प साधना सत्रों की शृंखला चल रही थी।

इन वर्षों में समूचा विश्व-”विश्वयुद्ध के भय से आक्रान्त हो रहा था। सुप्रसिद्ध ज्योतिषी, भविष्यवक्ता, विख्यात मनीषी विनाशकारी विश्वयुद्ध की अटकलें लगा रहे थे। भयावह अटकलों एवं इनके परिणामों को बताने में वैज्ञानिक समुदाय भी पीछे न था। परमाणु-क्षमता-सम्पन्न देश रोज नए विनाशकारी कार्यक्रमों की घोषणा करते। जिन्हें सुनकर मानवी-सभ्यता काँप-काँप उठती। सूक्ष्म जगत में आसुरी उन्माद की हलचलें उग्र और प्रचण्ड हो चली थीं। परम पू. गुरुदेव इन्हें निरस्त करने के लिए अपने स्वाभाविक तप में संलग्न थे।

तभी एक दिन जनवरी 1984 को आसुरी उन्माद से ग्रस्त एक युवक ने उन पर प्राणघातक हमला किया। यह हमला किसी एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति पर नहीं, बल्कि किसी प्रचण्ड आसुरी शक्ति का देवसेना के महानायक पर आक्रमण था। जो इस बात को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त था कि असुरता ने सीधे नवनिर्माण के किले पर धावा बोल दिया हैं। गुरुदेव को तथ्य समझने में देर न लगी। उन्हें अब स्पष्ट हो गया कि स्वाभाविक तप से काम चलने वाला नहीं हैं। इस समय विश्वामित्र, अगस्त्य की प्रचण्ड शक्ति, दधीचि के वज्र के बिना काम चलने वाला नहीं है।

और मार्च 1984 को राम-नवमी के दिन से उन्होंने सूक्ष्मीकरण साधना की घोषणा कर दी। इसके पीछे निहित उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा-” सूक्ष्मीकरण का अपना नया कदम लोकमंगल और उच्च उद्देश्य की पूर्ति के लिए और भी अधिक महत्वपूर्ण है। समय की विपन्नता दिन-दिन बढ़ती जा रही हैं, इसमें सन्देह नहीं। दृश्यमान और अदृश्य क्षेत्रों में सर्वनाशी विभीषिकाएँ जिस क्रम से गहरा रही हैं, उसे देखते हुए कभी भी ऐसा अनिष्ट हो सकता है जिसके कारण पृथ्वी को ऐसे चूरे में बदलना पड़े जैसा कि मंगल और बृहस्पति के बीच निरन्तर एक अन्धड़ की तरह घूमता रहता है। अणु-आयुधों की, रासायनिक शस्त्रों की, घातक किरणों की संख्या एवं विचित्रता इतनी बढ़ गयी है कि उनके द्वारा बिना आमने-सामने का युद्ध छिड़े भी ऐसा हो सकता है कि रात को अच्छे-खासे सोये हुए आदमी मृतक या अर्द्धमृतक जैसी स्थिति में मिलें। महायुद्ध के अलावा वायुप्रदूषण, विकिरण, जनसंख्या विस्फोट, खनिज सम्पदा का समापन, पृथ्वी की उर्वरता का घटना, वृक्ष कटना, पशुओं का मिटना जैसे अनेक ऐसे कारण विद्यमान जो शीतयुद्ध बनकर वही काम कर रहे हैं जो शहतीर में लगने वाला घुन धीरे-धीरे किन्तु निश्चित रूप से करता है।

इस अंधकार भरी निविड़ निशा में प्रभात की आशा की किरण यदि जीवित है तो एक ही है कि अदृश्य जगत से कोई सृजन प्रवाह उमगे और वर्षा के बादलों की तरह तपते धरातल को शीतलता और हरीतिमा से भर दे। ऐसे अवसरों पर दैवी चमत्कार ही काम करते हैं। हेमन्त में जब शीत की अधिकता से जंगलों के जंगल पत्ते रहित होकर ठूँठ बन जाते हैं। पाले के दबाव से जब पौधे मुरझाये और मृतक जैसे दिखते हैं, तब बसन्त का मौसम ही उत्साहवर्द्धक परिवर्तन का माहौल बनाता है। यह कार्य कोई संस्था या संगठन करना चाहे तो कठिन है। पतझड़ ग्रस्त पेड़-पौधों को पुष्प-पल्लवों से लादने में इनसानी कोशिशें कहाँ तक सफल हो सकती हैं। सूखी जमीन को हरा-भरा बनाने में सिंचाई के प्रयत्न कितने क्षेत्र में सफल हो सकते हैं, इसका अनुमान सहज लगाया जा सकता है। वर्षा और बसन्त ही हैं जो हरीतिमा उगाने और उसे फलने-फूलने की स्थिति तक पहुँचाने की जिम्मेदारी उठा सकते हैं। “वर्तमान में सम्पन्न की जा रही सूक्ष्मीकरण साधना के परिणाम अगले समय में वर्षा एवं बसन्त जैसे ही देखे जा सकेंगे।”

इस प्रचण्ड साधना के दिनों में पूज्य गुरुदेव ने मिलने-जुलने का क्रम एकदम बन्द कर दिया। बाहर से आने-जाने वाले ही नहीं शाँतिकुँज में रहने वाले कार्यकर्त्ता भी उनसे इन दिनों नहीं मिल सकते थे। उनके साधनामय जीवन की एक-मात्र सहयोगिनी वन्दनीया माताजी उनके पास रहती थीं। लेखन सम्बन्धी कार्यों में सहयोग के लिए दिन में कुछ समय इस पत्रिका के वर्तमान सम्पादक का भी उनके पास रहना होता था। उन दिनों उनकी दिनचर्या हर-हमेशा की अपेक्षा कुछ अधिक ही अनुशासित हो गयी थी। दिन की स्थूल गतिविधियों में लेख नहीं दिखाई देता था। भोजन का क्रम प्रायः न के बराबर ही था। माताजी के आग्रह पर यदा-कदा वे बहुत थोड़ा-सा खा लेते थे। एक बार उनके कई दिन न खाने से चिन्तित इस सम्पादक ने उनसे खाने के लिए निवेदन किया तो उन्होंने सूर्य की ओर इशारा करते हुए कहा-”मेरा भोजन वहाँ से आ जाता है। तुम चिन्ता न करो।”

अपनी दिनचर्या में वे इन दिनों वाणी का उपयोग प्रायः न के बराबर ही करते। दिनचर्या की इस विशेषता के साथ उनका साधना कक्ष भी इन दिनों विशेष बन गया था। इसे स्पष्ट करते हुए उनके शब्द हैं-”जिस आवास-स्थली में, कोठरी में रहा जा रहा है, जहाँ तक एक दो का ही प्रवेश वाँछित समझा गया है, उसे अभिमंत्रित-कीलित किया गया है। इसमें जो प्रयोग चल रहे हैं वे अद्भुत हैं। कुछ ऐसे हैं, जो रात्रि को करने पड़ते हैं। कुछ दिन में करने के हैं। कुछ मंत्र ऐसे हैं जिनमें तनिक भी एक शब्द की भी भूल हो जाने पर उच्चारण तन्त्र ही उलट-पलट सकता है। इसलिए प्रयोग चलाते समय क्षण-क्षण में यह देखभाल करनी पड़ती है कि शरीर और मस्तिष्क का सन्तुलन ठीक रह रहा है या नहीं। बिगड़ता है तो उसे हाथों-हाथ सुधारना पड़ता है।”

लगातार तीन वर्षों तक चलने वाला यह विलक्षण प्रयोग असाधारण रूप से सफल रहा। असाधारण प्रक्रिया की ही भाँति उसके परिणाम भी असाधारण रहे । इस तपश्चर्या की पहली उपलब्धि थी-पाँच वीरभद्रों का उत्पादन । ये पाँच वीरभद्र क्या करेंगे, उसके बारे में उनके शब्द हैं-”सूक्ष्मीकरण के महाप्रयोग से उत्पन्न एक वीरभद्र विचार संशोधन में लगेगा। सूक्ष्मीकरण से उत्पन्न दूसरे वीरभद्र के लिए यही काम सौंपा गया है कि नवनिर्माण के लिए जितने प्रचुर साधनों की आवश्यकता है, उन्हें कहीं से भी, किसी भी कीमत पर जुटाया जाना चाहिए। इतने साधन जो जुटा सके, सो कितना समर्थ होगा यह अनुमान लगाने में किसी को चूक नहीं करनी चाहिए। तीसरा वीरभद्र दुरात्माओं के लिए भय का वातावरण उत्पन्न करेगा। सूक्ष्मीकरण से उत्पन्न चौथे वीरभद्र को प्रस्तुत एवं भावी प्रज्ञा-परिजनों को अधिक समर्थ बनाने के लिए सुरक्षित छोड़ दिया गया है। सूक्ष्मीकरण से उत्पन्न चार वीरभद्रों को असाधारण काम सौंपे गए हैं, उनके लिए खुराक कहाँ से आए? इसके लिए निर्मित एक पाँचवाँ वीरभद्र विशुद्ध तपश्चर्या में ही निरत रहेगा।

इस महान साधना के दिनों में एक और महान प्रयोग सम्पन्न हुआ- विश्व कुण्डलिनी का जागरण- यह जागरण पुरातन काल में विश्वामित्र के द्वारा सम्पन्न हुआ था, उस बार भी विश्व-वसुधा का कायाकल्प हुआ था इस बार भी वैसा ही होने जा रहा है। इसके प्रभाव और परिणामों को बताते हुए उन्होंने जनवरी 1987 की अखण्ड ज्योति में लिखा-महाप्रज्ञा की जो इन तीन वर्षों में कुण्डलिनी जाग्रत हुई है, उसकी ऊर्जा का उदय प्रथम इस देश में होगा। पीछे क्रमशः वह समस्त विश्व में फैलता जाएगा। उसके प्रभाव से होता हुआ परिवर्तन विभिन्न क्षेत्रों में, विभिन्न रूपों में दृष्टिगोचर होगा। यह सम्भावना नहीं, सुनिश्चितता है।

इस तीन वर्षीय साधना का एक और आश्चर्यकारी परिणाम हुआ-ब्रह्मांड के आनंदमय कोष का जागरण। ब्रह्मांड के प्रथम कोष अन्नमय कोष के रूप में वनस्पतियों में चेतना होते हुए भी हलचल नहीं होती। प्राणियों में चेतना है, हलचल भी। प्राणविद्युत का स्थूल नियोजन भर पाने वाले इन जीवों को ब्रह्मांड का प्राणमय कोष माना गया। मानसिक क्षमता सम्पन्न मनुष्य ब्रह्मांड का मनोमय कोष है। महर्षि अरविन्द ने अपनी तप-साधना से ब्रह्मांड के विज्ञानमय कोष को जाग्रत किया। जिसके जागरण से बौद्धिक क्षमताओं से सम्पन्न मानव देव मानव बनने लायक हो सकेगा। गुरुदेव ने महर्षि के अधूरे कार्य को पूरा करते हुए इन्हीं दिनों ब्रह्मांड के आनन्दमय कोष का जागरण मनुष्य में दैवी भावनाओं-सम्वेदनाओं की सृष्टि करने वाला होगा।

तीन वर्षीय सूक्ष्मीकरण साधना की इन विलक्षण परिणतियों के आधार पर ही उन्होंने घोषित किया-सघन तमिस्रा चिरस्थाई लगती हो, वे अपने ढंग से सोचे, पर हमारा दिव्य दर्शन उज्ज्वल भविष्य की झाँकी करता है। इस पुण्य-प्रयास में सृजन की पक्षधर देवशक्तियां प्राण-पण से जुट गयी हैं। इसी सृजन प्रयास के अकिंचन घटक के रूप में हमें भी कुछ कारगर अनुदान प्रस्तुत करने का अवसर मिल रहा है। इस सुयोग, सौभाग्य पर हमें अतीव सन्तोश है और असाधारण आनन्द।”

पू. गुरुदेव की सूक्ष्मीकरण साधना के समय शांतिकुंज में एक-मासीय और नौ दिवसीय साधना सत्रों का क्रम अनवरत चलता रहा। सूक्ष्मीकरण साधना की पूर्णाहुति देशव्यापी 108 कुण्डीय-महायज्ञों राष्ट्रीय एकता सम्मेलनों के रूप में की जाने लगी। इन महायज्ञों की घोषणा पूज्यवर ने अपनी विशेष साधना में विराम के अवसर पर की।

बसन्त 1986 को वे अपने एकान्त कक्ष के बाहर आए। यहाँ रहने वाले कार्यकर्ता, क्षेत्रों में क्रियाशील परिजन सभी अपने मार्गदर्शक, संरक्षक को स्थूल रूप में देखकर प्रसन्न थे। इसी अवसर पर उन्होंने प्रवचन मंच में अपनी तप साधना, भावी कार्यक्रम, परिजनों की उसमें भागीदारी के बारे में बताया। सूक्ष्मीकरण साधना के बाद यह पूज्यवर का प्रथम प्रवचन था। द्वितीय एवं अन्तिम प्रवचन इसी वर्श गुरु पूर्णिमा को हुआ। अपने इस प्रवचन में उन्होंने कहा-”युग निर्माण हमने करके रख दिया है। तुम लोगों को सिर्फ श्रेय लेना है। इस कथन के साथ ही उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता का सार बताते हुए कहा- करिष्ये वचनं तव, जब वीरवर अर्जुन ने भगवान कृष्ण से वाक्य कहा तो पार्थ सारथी के चेहरे पर प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी। उन्हें लगा कि उनके उपदेशों को कुन्ती पुत्र ने आत्मसात् कर लिया है। मैं तुमसे भी यही सुनने की आशा करता हूँ। तुमसे “करिष्ये वचनं तव’ सुनकर मुझे भी सन्तोश मिलेगा। लगेगा तुमने मेरी बात समझ ली।”

इस प्रवचन के बाद परम पू. गुरुदेव ने फिर कभी प्रवचन मंच पर आकर प्रवचन नहीं दिए। बाद के दिनों में अपने कक्ष में बैठकर ही परिजनों का मार्गदर्शन करते रहे। यह मार्गदर्शन ही शांतिकुंज के क्रियाकलापों की ऊर्जा का स्त्रोत रहा।


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