अनीति से लड़कर अवतार के सहचर बने

August 1996

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

करुण क्रन्दन और पैशाचिक अट्टहास दोनों की सम्मिलित गूँज ने उन्हें चौका दिया । वे अपने कर्त्तव्य कर्म से निवृत्त होकर आयु के अन्तिम चरण में शान्तिपूर्वक भगवद् भजन करते हुए आत्म-साधना में तल्लीन थे । उनकी यह आत्मतल्लीनता यह सिद्ध कर रही थी कि मोक्ष का प्रयत्न अधम योनि में भी निषिद्ध नहीं है । यदि कोई सच्चे मन से निम्न योनि में भी धर्म-कर्त्तव्यों का पालन करता है तो वह उस योनि को भी धन्य बनाकर स्वयं भी धन्य बन जाता है और यदि मनुष्य जैसी श्रेष्ठ योनि पाकर भी अधम कार्य करता है तो न केवल मनुष्यता को कलंकित करता है, बल्कि स्वयं भी अधम बन जाता है । लेकिन वह तो अधम योनि में रहते हुए भी आन्तरिक देवत्व से भरे−पूरे थे और इसी कारण उनके मर्मस्थल को इस करुण क्रन्दन ने बाँध दिया ।

एकबारगी उन्होंने अपनी गर्दन ऊपर उठाई । आंखें आकाश की ओर निहारने लगी । त्रैलोक्य विजेता कहलाने वाला रावण एक स्त्री को अपहरण किए लिए जा रहा था । दशमुख रावण, जगद्विजयी रावण, देव-दानवों, मानवों को अपने आतंक से पीड़ित करने वाला रावण । अनगिनत कहानियाँ प्रचलित थी रावण की उस क्रूरता के विषय में, जिसे वह अपनी शूरता समझ बैठा था । अपनी दुर्बुद्धि के बावजूद वह अतुलित बल का स्वामी था । अपरिमित सस्नास्नों का भण्डार था उसे पास । सृष्टि का संचालन करने वाली अनेक नियामक शक्तियों को उसने वशीभूत कर रखा था । सभी उससे भयभीत थे । उसका नाम ही किसी बड़े से बड़े पराक्रमी योद्धा को कंपा देने के लिए पर्याप्त था ।

आज वही रावण स्वयं ““““एक बार उन्होंने वृद्धावस्था से जर्जर अपने शरीर की ओर देखा, तत्क्षण उन्हें सीता का करुण क्रन्दन फिर से सुनायी पड़ा । अगले ही पल ज्यादा कुछ सोच-विचार किए बगैर वह उड़ चले । आत्म बलिदान का निश्चय उनके पंखों में गरुड़ का सा वेग भर रहा था ।

उन्हें अपनी ओर आते देख सीता की करुण ध्वनि एक बार फिर सुनायी पड़ी “ आर्य ! यह दुष्ट मेरा अपहरण कर रहा है । आप अत्यन्त वृद्ध है । असमर्थ है इस राक्षस को रोकने में । अपने को संकट में न डाले, किन्तु आर्य पुत्र से, लक्ष्मण से कह दें.........।”

“पुत्री सीता । बात पूरी होने के पहले ही जटायु का स्वर गूँजा -भय मत कर । मैं इस राक्षस को नष्ट कर दूँगा । “

सीता को आश्वासन देने के साथ ही उन्होंने रावण को ललकारा -ठहर, अत्याचारी ठहर । अनीति का जन्मजात शत्रु जटायु आ गया । साथ ही वातार्णव में डैनों के डाँड इतनी जोर से मारे कि समीप का पूरा वन हिल गया । अनेक शाखाएँ टूट गिरी । मानो भयानक अन्धड़ आ गया हो । मुहूर्त मात्र में पुष्पक विमान के आगे आकर प्रतिरोध में टक्कर मारी । रावण के साथ ही पुष्पक भी काँपकर गतिभंग हो गया । रावण ने चौंक कर देखा - क्या यान किसी पर्वत शिखर से टकरा गया ? और खंग खींचता हुआ बोला- “ अच्छा जटायु तू है । “

एक और धर्मात्मा जटायु और दूसरी और दिव्यास्त्रों से सज्जित दशानन । निःशस्त्र जटायु ने रावण के छक्के छुड़ा दिए । रावण ने अपने दसों हाथों में पाँच धनुष चढ़ाए और बाणों की झड़ी लगा दी, किन्तु जटायु का वेग प्रचण्ड था । अपने पंखों के झटके से उन्होंने बाणों को व्यर्थ कर दिया । पंजे के प्रथम आघात में ही रावण का सारथी समाप्त हो गया । उसके यान को चोंच के प्रहार से रावण का शरीर लथपथ हो गया । निःशस्त्र जटायु ने रावण के छक्के छुड़ा दिए, कई बार परास्त किया, किन्तु निर्लज्ज पापी जूझता ही रहा और अनीतिपूर्वक घात-प्रतिघात करता रहा ।

श्रावण ने धोखे से उनका एक पंख काट डाला । एक पंख कटते ही असन्तुलित होकर वे लड़खड़ाए । तब तक रावण ने उनके दोनों पैर काट दिए और गिरने से पहले ही दूसरा पंख भी काट लिया । जटायु भूमि पर गिरे । इतने में रावण आतुरतापूर्वक भाग निकला । अपनी मूर्छा के बावजूद जटायु की सांसें अभी गतिशील थी ।

पल, घड़ियाँ गुजरती रही । साथ ही राम के कदमों को आहट भी नजदीक आती गयी । “राम” । जटायु के मुख से एक क्षीण ध्वनि निकली । राम की गोद में उनका सिर था । वह सीताहरण और दशानन के संघर्ष की कथा अटकते-अटकते, धीमे स्वरों में सुना रहे थे, किन्तु मैं वृद्ध उस दुर्दम से जीत न सका । उसने तलवार से मेरे पंख और पैर काट दिए । मैं तुम्हारे अवतार कार्य में समुचित सहयोग न कर सका ।

“ नहीं तात । आप अवतार चेतना के शाश्वत सहचर है । आपका साहस, त्याग, बलिदान भविष्य के लिए लोकादर्श होगा । राम भी आपके सम्मुख कंगाल है । आपको कुछ देने में राम भी समर्थ नहीं, मर्यादा पुरुषोत्तम भरे गले से बोले -” परार्थ में प्राणोत्सर्ग करने वाले प्राणियों को परम पद तो स्वतः मिल जाता है । राम आपको क्या देगा, वह तो सर्वदा के लिए आपका ऋणी है।”

राम के इस कथन के साथ ही जटायु ने देह छोड़ दी । लक्ष्मण ने आस-पास से सूखी लकड़ियाँ एकत्र करके गोदावरी के तट पर चिता का निर्माण किया । दोनों भाइयों ने जटायु का शरीर उठाया । गोदावरी में स्नान कराके उसे चिंता पर स्थापित किया । श्रीराम के आदेश से लक्ष्मण पर्णशाला से अग्नि ले आए । सबका शरीर दक्षिणाग्नि की आहुति बनता है, किन्तु चिता की परिक्रमा करके श्रीराम ने अपने हाथों से उसमें अपने द्वारा स्थापित पूजित अग्नि अर्पित की । पशु -पक्षियों के लिए यों अन्त्येष्टि संस्कार का विधान नहीं है । किन्तु जिन श्री राम के हाथों की अग्नि महाराज दशरथ को नहीं मिल सकी, जटायु को प्राप्त हुई ।,

चिताग्नि शान्त हो जाने पर श्री राम ने भाई के साथ गोदावरी स्नान करके, अंजलि के जल से भस्म को गोदावरी में प्रवाहित किया । तर्पण किया जटायु का और उनके उपयुक्त पिण्डदान किया। देर तक दोनों भाई बैठे रहे यहाँ । भगवान श्री राम को उस समय जैसे सीता भूल ही गयी । उनके मुख पर केवल जटायु के स्नेह, शौर्य सद्गुण की प्रशंसा थी । आखिर वह उनके शाश्वत सहचर जो थे ।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118