परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी

October 1995

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गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

युग निर्माण योजना और उसके भावी कार्यक्रम-

युग निर्माण योजना का प्रारम्भ इस उद्देश्य से हुआ कि मनुष्य की भावनात्मक स्थिति में परिवर्तन किया जाये और उसे ऊँचा उठाया जाय। संसार में जितनी भी समस्यायें हैं उन सारी समस्याओं का एक मात्र उपाय यह है कि मनुष्यों का भावनात्मक स्तर गिरता हुआ चला गया। यदि मनुष्यों का भावनात्मक स्तर ऊँचा हो तो जो समस्यायें आज हमको दिखाई पड़ती हैं उनमें से एक का भी अस्तित्व न रहे। जितनी भी कठिनाइयाँ मनुष्य के सामने हैं वे उसकी स्वयं की पैदा की हुई हैं, वास्तविक नहीं। सृष्टि में जितने भी जीव रहते हैं सारे के सारे अपने जीवन की सुविधाओं को आसानी से प्राप्त कर लेते हैं। कीड़े-मकोड़ों से लेकर के जलचर, नभचर और थलचर के सामने कोई ऐसी समस्या नहीं है जिसके कारण से वह दुःखी रहते हों। मनुष्यों के सम्पर्क में जो आ गये हैं उन प्राणियों के दुखी होने के कारण हैं। उनको मनुष्यों ने पाल रखा है, वे दुःखी भी हो सकते हैं, काटे भी जा सकते हैं, भूखे भी रखे जा सकते हैं, घायल भी हो सकते हैं लेकिन जो प्रकृति की गोद में रहते हैं उनके सामने कोई समस्या नहीं है जीवन यापन करने के सम्बन्ध में फिर मनुष्य के सामने इतनी समस्यायें क्यों? मनुष्य तो बुद्धिमान प्राणी हैं, सुशील प्राणी हैं, उन्नत प्राणी है उनके सामने तो सुख सुविधाओं के अम्बार होने चाहिये।

लेकिन हम देखते हैं कि दूसरे प्राणियों की तुलना में मनुष्य बहुत दुखी है। उसका एक मात्र कारण यह है कि उसकी विचारणाएँ, उसकी भावनायें, उसके दृष्टिकोण निम्न स्तर के होते चले गये। अगर यह स्तर उनका ऊँचा उठा रहा होता तो अभावग्रस्त स्थितियों में भी मनुष्य ने शान्ति का जीवन जिया होता। कहा जाता रहा है कि सम्पदायें मनुष्य के पास होंगी, सुख सुविधायें मनुष्य के पास होंगी तो वह समुन्नत होगा, सुखी रहेगा और आनन्द से रहेगा, लेकिन यह बात सही नहीं है। गरीब लोगों के पास जिनके पास साधन और सामान नहीं होते, सम्पत्ति नहीं होती, वह भी बड़ी सुख और सुविधा का जीवन जीते हैं और उनकी वृद्धि का कोई मार्ग रुका नहीं रहता। ऋषियों का जीवन इसी प्रकार का था। उनके समान ज्यादा अभावी दुनिया में कोई भी नहीं है। पहनने के नाम पर एक लंगोटी, इस्तेमाल करने के नाम पर एक कमण्डल, फूस की झोंपड़ी, जमीन पर सोना, फूस की बिछावन, घास–पात और कन्द-मूल खा करके गुजारा कर लेना। इतना सब होते हुए भी ऋषियों ने बताया कि अभावग्रस्तता में भी जीवन सुखी बन सकता है, सुख और शान्ति का स्रोत बन सकता है विद्या अध्ययन में कोई रुकावट पैदा नहीं हुई। मगर सही बात यह है कि जिन-जिन लोगों के पास विशेष सुविधायें थीं, उन लोगों की अपेक्षा उन लोगों ने ज्यादा सुखी और समुन्नत जीवन जिया। ये बात उन्होंने साबित करने के लिए की थी कि वक्त बेवक्त वे न हों, साधन मनुष्य के पास न हों तो भी वह आदमी सुखी जीवन जी सकता है, समुन्नत जीवन जी सकता है और दूसरों के लिये बड़ा उपयोगी सिद्ध हो सकता है। फर्क केवल एक है कि भावनात्मक स्तर ऊँचा उठा हुआ हो।

इसकी तुलना में दूसरी बात है जिनके पास अपार सम्पदायें थीं और रावण जैसों के पास सम्पदाओं की क्या कमी थी उसकी सोने की लंका बनी हुई थी, लेकिन वह स्वयं भी दुख में रहा, स्वयं भी क्लेश चक्र में पड़ा रहा, उसके सम्पर्क में जो लोग आये, जहाँ कहीं भी वह गया, वहाँ उसने दुख फैलाया और संकट फैलाया। सम्पत्ति से क्या लाभ रहा। विद्या से में चैन से रहा हूँ लेकिन उसके पास विद्या होने से भी क्या लाभ हुआ? उसके पास धन था, विद्या थी, बल था, सब कुछ तो था, लेकिन एक ही बात की कमी थी भावनात्मक स्तर का न होना। बस, एक ही समस्या का आधार है जिसे यों हम समझ लें तो फिर हम उपाय भी खोज लेंगे और विजय भी मिलेगी। उपाय हम अनेक ढूँढ़ते रहते हैं पर मैं समझता हूँ कि इतने पर समाधान नहीं हो पाते। खून अगर खराब हो तो खराब खून के रहते हुए फिर कोई दवा-दारु कुछ काम नहीं करेगी। फुन्सियाँ निकलती रहती हैं। एक फुंसी पर पट्टी बाँधी, दूसरी फुंसी फिर निकल पड़ेगी। एक घाव अच्छा हुआ, दूसरा घाव फिर पैदा हो जायेगा। बराबर कोई न कोई शिकायत पैदा होती रहेगी। खून खराब न हो, खून साफ हो जाय तब न कोई फुंसी उठने वाली है न कोई और चीज उठने वाली है। ठीक इसी प्रकार से अगर हमारा भावनात्मक स्तर ऊँचा हो तो न कोई समस्या पैदा होने वाली है और न कोई गुत्थी पड़ने वाली है। इसके विपरीत हमारी मनः स्थिति और हमारा दृष्टिकोण गिरा हुआ हो तो हम जहाँ कहीं भी रहेंगे अपने लिये समस्या पैदा करेंगे और दूसरों के लिये भी समस्या पैदा करेंगे। यही वस्तु स्थिति है और यही इसका आज की परिस्थितियों का दिग्दर्शन है।

भूतकाल में भारतवर्ष का इतिहास उच्च कोटि का रहा है, समुन्नत रहा, सुखी रहा है। इस पृथ्वी पर देवता निवास करते थे, स्वर्ग की परिस्थितियाँ थीं, इसका और कोई कारण नहीं था न आज के जैसे साधन उस जमाने में थे। आज जितनी नहरें हैं उतनी उस जमाने में थीं कहाँ। आज बिजली के जितने साधन-शक्ति प्राप्त हैं उस जमाने में कहाँ थे। आज जितने अच्छे पक्के मकान और दूसरे यातायात के साधन हैं उस जमाने में कहाँ थे। लेकिन इस पर भी यह देश सम्पदा का स्वामी था। इस देश के नागरिक देवताओं के शिविर में चले जाते थे। यह भूमि तब स्वर्गादपि गरीयसी मानी जाती थी। यद्यपि आज की तुलना में अभावग्रस्त थी, उस जमाने में इसका क्या कारण था। इसका कारण एक ही था कि उस जमाने के लोग उच्च कोटि का दृष्टिकोण अपनाये हुए थे। उनकी भावनाएँ उच्च स्तर की थी। उसका परिणाम यह था कि लोग परस्पर स्नेह पूर्वक रहते थे, सहयोग पूर्वक रहते थे, परस्पर विश्वास करते थे, एक दूसरे के प्रति वफादार होते थे, अपने होते थे, सदाचारी होते थे, सदा खुश रहना जानते थे, एक दूसरे के प्रति सेवा करने की वृत्तियाँ हर एक के मन में बसी हुई थी। अपने आप स्वयं कष्ट सदा लेना और दूसरे की सेवा करना हर आदमी के समाने लक्ष्य था। यही कारण था कि आदमी थोड़ी-सी वस्तुओं में साधारण वस्तुओं में ही सुखी रहते थे और दुनिया के जगद्गुरु कहलाते थे, वास्तविक शासक कहलाते थे बाहर के लोग वहाँ आकर बुलाते थे कि आप चलिये हमारी शासन व्यवस्था को सम्हालिए। वहाँ सुख सम्पदाओं के पेड़ से किफायतशारी मितव्ययिता के आधार पर जो कुछ भी सम्पदा थी, उसी के इस्तेमाल करने और कुछ बचत करने का था। यहाँ हर घर में सोना-चाँदी था, हर घर में लक्ष्मी का निवास था क्योंकि आदमियों में मितव्ययिता से उपयोग किया हुआ था। अपव्ययता का दौर जो आजकल चारों ओर फैला हुआ है उस जमाने में नहीं था। उस जमाने की परिस्थितियाँ और आज की परिस्थितियों में हम जब तुलनात्मक दृष्टियों से देखते हैं कि जो सम्पन्नता आज हमारे पास ज्यादा है, शिक्षा हमारे पास ज्यादा है विज्ञान के साधन हमारे पास ज्यादा हैं, चिकित्सा के माध्यम हमारे पास ज्यादा हैं, असंख्य माध्यम और साधन ज्यादा हैं फिर भी हम असन्तुष्ट होकर कहीं अधिक दुखी, कहीं अधिक दीन, कहीं अधिक उलझे हुए, कही अधिक व्याधियों में ग्रस्त हैं। इस प्रकार भावनात्मक स्तर का निकृष्ट हो जाना ही है।

युग निर्माण योजना का आविर्भाव केवल इसी समस्या का समाधान करने के लिये हुआ था। दूसरे शब्दों में इसको हम यों कह सकते हैं कि विश्व की जितनी भी समस्यायें, कठिनाइयाँ और गुत्थियाँ हैं उन सबका समाधान एक ही उपाय से करने के लिए, एक ही उपाय से दूर करने के लिये जो हल ढूँढ़ा गया था, वह नव निर्माण आन्दोलन था। नव निर्माण आन्दोलन का अर्थ भावनात्मक नव निर्माण है। मनुष्य की विचारणायें, भावनायें और दृष्टिकोण को बदल देना-यही हमारा उद्देश्य है, उसे बदल देने के पश्चात् सारी परिस्थितियाँ स्वयं ही बदल जाती हैं। एक-एक चीज को हम बदलना चाहें तो बहुत मुश्किल है। हजारों समस्यायें सामने हैं, उनको अलग-अलग तरीके से हल करना असम्भव है क्योंकि जैसे-जैसे मनुष्यों की आमदनी बढ़ती चली जाएगी, उससे हर आदमी का खर्च बढ़ता चला जायेगा। आदमी का खर्च बढ़ता चला जाये और आमदनी की अपेक्षा खर्च ज्यादा किया तो दर्द कैसे दूर हो जायेगा। अपव्यय अगर मनुष्य के काबू से बाहर है तो चाहे कितनी ही आमदनी क्यों न बढ़े हमेशा कर्जदारी की समस्या बनी रहेगी। इसी प्रकार से अगर कोई आदमी क्रोधी है, कोई आदमी स्वार्थी है, कोई आदमी दुष्ट प्रकृति का है तो वह भी अपने समीपवर्ती लोगों के साथ जो व्यवहार करेगा उसकी प्रतिक्रिया होगी ही और दूसरे लोग भी उसके प्रति डाह रखेंगे, ईर्ष्या रखेंगे, दुर्व्यवहार रखेंगे, कुढ़ेंगे, जलन पैदा करेंगे, लड़ाई झगड़े होंगे और सब समस्यायें उत्पन्न हो जायेंगी। गुस्सा वहीं है, गुस्से का केन्द्र एक ही है, इसलिये उसको हल करने के लिये भावनात्मक निर्माण करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं हैं। चाहे वह उपाय आज इस्तेमाल किया जाय या एक हजार वर्ष बाद। स्वस्थ स्थिति तब हो सकती है जब सबका ध्यान उस ओर जायेगा कि जहाँ गुत्थियों का केन्द्र है। ऐसे केन्द्र को सुधारने और सम्भालने के लिये कदम उठाये जायें। युग निर्माण योजना ने यह कदम उठाया और उसकी ओर पाँव बढ़ाया। इसलिये हमारा प्रयास भावनात्मक निर्माण है। इसी का दूसरा नाम विचार क्रान्ति है, इसी का दूसरा नाम ज्ञान यज्ञ है। ज्ञान यज्ञ का विचार क्रान्ति के नाम पर युग निर्माण योजना ने बहुत दिन पूर्व कुछ क्रिया कलाप प्रारम्भ किये थे और उन क्रिया कलापों के लिये एक मंच, एक साधन, एक माध्यम बनाया गया था और वह धर्म मंच माध्यम बोला गया था, क्योंकि भारतवर्ष की प्रतिक्रिया विशेष रूप से इसी लायक थी। भारतवर्ष में अस्सी फीसदी लोग बिना पढ़े लिखे रहते हैं और ये अस्सी फीसदी लोग देहातों में रहते हैं। इनके मानसिक स्तर ऐसे हैं जिसमें कोई चीज समझी या समझायी जा सकती है, बोली जा सकती है और उसके भीतर गहराई तक उतारी जा सकती है, वह धार्मिक क्षेत्र ही है। यहाँ लोग रामायण की बात, कहानी को, सामाजिक कथा को जानते हैं, श्रीकृष्ण भगवान की कथा को जानते हैं, मोरध्वज की कथा को जानते हैं लेकिन उनसे राजनीति या दूसरी समस्याओं के बारे में पूछा जाये तो शायद ही वह कुछ बात बता पायेंगे। यहाँ का देहाती व्यक्ति भी लोक परलोक की बात, भगवान की बात, आत्मा की बात, तीर्थयात्रा, पुण्य परमार्थ की बात, परलोक की बात किसी हद तक बता सकता है और दूसरी बातों को नहीं। इसीलिये यह तय किया गया कि लोगों का मन बदल जाये, लोगों की दिशा जिधर है, व लोगों का ध्यान जिधर है, लोगों की जानकारियाँ जिस क्षेत्र में है, उसको हाथ में लेकर के भावनात्मक नव निर्माण का प्रयास प्रारम्भ किया जाये। धैर्य सत्ता और राजसत्ता दोनों समानान्तर है। अगर ये राजसत्ता चाहे तो लोगों के मानसिक स्तर को ऊँचा उठा सकती हैं और लोगों को दिशायें दे सकती हैं, लोगों को क्रोध से रोक सकती हैं और लोगों को शुद्ध और सदाचारी बना सकती हैं। इसी प्रकार से धर्म सत्ता में भी वह सामर्थ्य है कि वह लोगों की भावनाओं को पढ़ सकती है और लोगों को अच्छे मार्ग पर चलने के लिये प्रेरणा दे सकती है। अतः प्रयास यही किया गया कि हम धर्म तंत्र को सम्भालें और उसकी शक्ति का उपयोग करें और लोगों की भावनाओं को ऊँचा उठाने के लिये प्रयास करें। धर्म तंत्र अपने आप में बड़ा सामर्थ्यवान है। धर्म तन्त्र में 56 लाख व्यक्ति सन्त और महात्मा, बाबा और ब्राह्मण, महात्मा के रूप में भारतवर्ष में 7 लाख गाँवों में रहते है। भारतवर्ष में 7 लाख गाँव हैं और 56 लाख सन्त महात्मा हैं। हर गाँव के पीछे 8 आदमी आते हैं। अगर ये 8 आदमी चाहें कि हर गाँव को अपना कार्य क्षेत्र और सेवा क्षेत्र बना लें तो हर गाँव में से शिक्षा की समस्या को हल किया जा सकता है। सामाजिक गुत्थियों की समस्याओं को दूर किया जा सकता है। विषमतायें और दूसरी बुराइयाँ जो हमारे देहातों में व और जगहों में फैली हुई हैं उनको मिटाया जा सकता है। यह काम कोई कठिन नहीं हैं। सफाई की समस्या को सहज समझा जा सकता है। इसके अतिरिक्त सन्त महात्मा घर-घर भक्ति के नाम पर सहयोग की भावना पैदा करें, कल्याण की भावना पैदा करें, मिल जुल कर के काम करने की भावना पैदा करें। कल्याण की भावना पैदा करें, मिल जुल कर के काम करने की भावना पैदा करें। सरकार का यह व्यक्तिगत उत्तरदायित्व हो तो हमारा विश्वास बन सकता है और हमारा इतिहास अन्य किसी देश की तुलना में आगे बढ़ सकता हैं, पीछे रहने की कोई जरूरत नहीं। लेकिन ये धर्मतन्त्र ठीक तरीके से काम नहीं कर सका। प्रयास युग निर्माण योजना का यही था कि धर्म तन्त्र में जितने भी व्यक्ति काम करते हैं उन सबको यह प्रेरणा दी जाय, वह शिक्षा दी जाये कि वह भगवान का सूक्ष्म स्वरूप समझें, भगवान का सन्देश समझें और भगवान की सेवा पूजा का उद्देश्य समझें।

पिछले दिनों में ही समझाया जाता रहा है कि भगवान पूजा-पाठ का भूखा है। उसकी थोड़ी-सी प्रार्थना कर दी जाये, स्तुति कर दी जाये या भोग-प्रसाद जैसी छोटी मोटी रिश्वतें खिला दी जायें तो हमारी मनोकामना पूर्ण करने के लिये वह तैयार रहता है। ये कितनी गन्दी और घृणित भावना थी। युग निर्माण योजना ने यह प्रयास किया कि हर व्यक्ति को यह बताया जाये कि भगवान कोई व्यक्ति विशेष नहीं हैं, बल्कि एक समग्र सत्ता का नाम है। यह सारा विश्व ब्रह्माण्ड की पूजा करना और सेवा करना-यही भगवान की वास्तविक सेवा और पूजा है। इसका प्रभाव-परिणाम यह हुआ कि असंख्य व्यक्ति जो पूजा-भजन में ही सारा समय खर्च कर देने के लिये तैयार थे, उन्होंने सेवा को अपना धर्म मानना स्वीकार किया और पूजा भजन एक सीमित मात्रा में करने के पश्चात् बचे हुए समय में सेवा कार्यों को अपने हाथ में ले लिया। धर्म मंच को सेवा-शिक्षा में मोड़ने का प्रयास एक बहुत ही अच्छा और बड़ा उपयोगी प्रयास था। उसने इस देश के नागरिकों में भावनात्मक नव निर्माण करने की दिशा में बहुत सफलता पायी। धर्म क्षेत्र में जो सम्पत्ति लगी हुई है, जो पूँजी लगी हुई है, युग निर्माण योजना का यह प्रयास है कि इस पूँजी को केवल पंच-पुजारियों के कार्यों में खर्च न होने दिया जाये, बल्कि ऐसे उपयोगी कार्यों में लगाया जाये जिससे कि उसे जन कल्याण के प्रयोजनों में प्रयोग किया जा सके। अकेले केवल मथुरा-वृन्दावन में ही 2-3 मन्दिर ऐसे हैं जिनमें कि एक-एक लाख रुपया मासिक भोग-प्रसाद में खर्च कर दिया जाता है। वैसे मथुरा-वृन्दावन में 5000 मन्दिर हैं। 5000 मन्दिरों की आमदनी और खर्चे का क्या ब्यौरा दिया जाये। दो मन्दिर ऐसे ही हैं मथुरा का द्वारकाधीश मन्दिर और वृन्दावन का रंगजी का मन्दिर, दोनों मन्दिर ऐसे हैं जिनमें कि भगवान के भोग और प्रसाद पर एक-एक लाख रुपया खर्च होता है। एक लाख रुपये के हिसाब से साल भर का खर्च हुआ बारह-बारह लाख रुपया। बारह लाख रुपये में साल में एक बढ़िया विश्वविद्यालय चलाया जा सकता है और उस विश्वविद्यालय के द्वारा ऐसे प्रशिक्षित व्यक्ति तैयार किये जा सकते हैं, स्नातक बनाये जा सकते हैं जो विश्व की शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक समस्याओं का अध्ययन करने के बाद सारे विश्व में भारत माता का सन्देश और भारतीय संस्कृति का सन्देश पहुँचाने में समर्थ हों। ऐसे कार्यकर्ताओं को तैयार करना इस विश्वविद्यालय के लिये क्या कठिन होगा।

इंजीनियर बनाने वाले विश्वविद्यालय अपना काम करते हैं, चिकित्सक-डॉक्टर बनाने वाले विश्वविद्यालय अपना काम करते हैं। धर्म प्रचारक और लोक सेवा करने वाले विश्वविद्यालय कहीं भी नहीं हैं। अगर एक मन्दिर चाहे तो अपनी आमदनी का बारह-लाख रुपया साल भर में खर्च कर सकता है और जाने क्या से क्या समाज की सेवा कर सकता है। गायत्री तपोभूमि का मासिक व्यय दो हजार रुपया मासिक है। इसका अर्थ हुआ चौबीस हजार रुपया साल। कहाँ बारह लाख रुपया साल भर के खर्चे का एक मन्दिर का, कहाँ चौबीस हजार रुपया। ऐसे एक मन्दिर की आमदनी से गायत्री तपोभूमि जैसी संस्थायें 48 बनाई जा सकती हैं। यही वह आधार है जो नव निर्माण का, युग निर्माण का संकल्प पूरा कर सकेंगे। आज की बात समाप्त।

ओम् शान्ति


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