सिद्धियों का भाण्डागार है मानवी अन्तराल

October 1995

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कुमायुँ की पहाड़ियों पर कई दिन घूमते, वन श्री का अवलोकन करते हुए वह कुमायुँ के राजा साहब और रानी साहिबा के साथ नैनीताल के पास एक ऐसे स्थान पर जा पहुँचे जहाँ की फूलों की छटा देखते ही बनती थी। समय काफी हो चुका था, यह स्थान भी बहुत रमणीक था सो उस दिन पड़ाव के लिए उसे ही चुन लिया गया। आज्ञा होते ही खेमे गाड़ दिये गये। थोड़ी देर पहले जो स्थान निविड़ एकान्त था, अब उसी में सैकड़ों तंबू लग गये, सेवक-सेविकाओं की चहल-पहल और व्यस्तता दिखाई देने लगी।

रात के बारह बजे तक गपशप भोजन-पान चलता रहा और इसके बाद फिर सन्नाटा छाने लगा। सब लोग अपने-अपने बिस्तरों पर चले गये और दिन भर के थके होने के कारण थोड़ी ही देर में सो गये। नींद का पहला चरण ही पूरा हुआ था कि उन्होंने अनुभव किया कि उनकी चारपाई पर कोई है। नींद टूट गयी। उन्होंने स्पष्ट सुना-कोई उनका नाम लेकर कह रहा है-मिस्टर फैरेल-जिस स्थान पर आपका यह तंबू लगा है, इसकी हमें पहले से ही आवश्यकता है, तुम इस स्थान को खाली कर दो, मेरी बात तुम्हारी समझ में न आये तो सामने उत्तर-पश्चिम में जो पहाड़ी दिखाई दे रही है, वहाँ आओ मैं तुम्हें सब समझा दूँगा।”

“पर आप हैं कौन?” यह कहते हुए उन्होंने चारपाई से उठकर टार्च जलाई। सारा तंबू प्रकाश से भर गया, पर वहाँ कोई भी तो नहीं आया था। वह बाहर निकल कर आये, लेकिन वहाँ पर भी कोई नहीं था। किसी के पैरों के निशान भी तो नहीं थे जिससे पता चलता कि वहाँ कोई आया है। एक बार तो उन्हें कुछ भय सा लगा, किन्तु दूसरे ही क्षण वे चुपचाप तंबू में चले गये और पुनः सोने के लिए लेट गये। लेटते समय उन्होंने घड़ी देखी-रात के साढ़े तीन बजे थे।

बहुत प्रयत्न करने पर भी उन्हें नींद नहीं आ रही थी, किसी तरह आँखें मूँद लेते थे, तभी फिर किसी के आने की सी आहट हुई। लेटे ही लेटे उन्होंने आँखें खोली और देखा कोई छाया पुरुष सामने खड़ा है, इस बार भी उसने वही शब्द कहे। उनने पहचान के लिए जैसे ही टार्च जलाई कि वहाँ न तो कोई छाया थी, न आदमी-वही एकान्त। सारे शरीर से पसीना फूट पड़ा। आज तक उन्होंने कभी भी अपने अंदर साहस की कमी अनुभव न की। अनेकों बार युद्ध की भयंकरता झेली थी। अपने बढ़े-चढ़े साहस के कारण ही आज वह पश्चिमी कमाण्ड के सेनापति थे। लेकिन आज वह एक बार अतीन्द्रिय सत्ता की कल्पना मात्र से सहम उठे। देह काँपने लगी, मुँह से एक शब्द फूटना भी आफत थी। चुपचाप आँखें ही मूँदते बनी। फिर सुबह तक न उनने आँखें खोली और न कुछ देखा या सुना पर एक विलक्षण आकर्षण उठ रहा था कि क्यों न उस पहाड़ी पर चलकर देखें बात क्या है? जूते, कपड़े पहनकर बाहर निकले, देर से सोने के कारण बाकी लोग अभी तक सोये पड़े थे। श्री फैरेल बाहर निकले और चुपचाप उस पहाड़ी की ओर चल पड़े।

जिस स्थान पर पहुँचने के लिए उन्हें निर्देश दिया गया था, वहाँ तक पहुँचने का रास्ता बहुत ही दुर्गम, सँकरा और भयावह था। ऊपर चढ़ने की हिम्मत जबाब दे रही थी, लेकिन न जाने कौन सा अदम्य आकर्षण उन्हें ऊपर खींचे लिए जा रहा था। ऐसा लग रहा था, जैसे कोई व्यक्ति साथ-साथ रास्ता दिखाता चल रहा हो। ऊपर चढ़ने की शक्ति भी कोई अदृश्य सत्ता ही जुटा रही थी। साढ़े तीन घण्टे के कड़े परिश्रम के बाद वह ऊपर जा पहुँचे। हाँफी और पसीने के कारण दम फूल रहा था, आगे चलना कठिन दिखाई दे रहा था, सो वहीं पड़े एक चौकोर पत्थर पर थोड़ा आराम करने की इच्छा से बैठ गये।

अभी दो क्षण भी नहीं बीते कि ठीक उसी आवाज ने चौंकाया-मिस्टर फैरेल! अब तुम अपने जूते वहीं उतार दो और धीरे-धीरे उतर कर यहाँ मेरे पास आओ।” इन शब्दों के साथ ही उनकी दृष्टि उठी, उन्होंने देखा एक अति जर्जर शरीर किन्तु मुखमण्डल से झर रही अपूर्व तेजराशि वाले साधु सामने खड़े हैं। वह सोचने लगे-मैं तो इनको जानता तक नहीं, जानना क्या इससे पहले कभी देखा भी नहीं, यह मेरा नाम कैसे जान गये? यह यहीं थे तब बिलकुल इन्हीं के शरीर जैसी छाया, रात मेरे तंबू तक कैसे पहुँची? न कोई बेतार का तार, न रेडियो माइक्रोफोन, फिर इनकी हु-ब-हू आवाज मेरे पास तक कैसे पहुँची? न जाने कितने सवाल एक साथ उनके मस्तिष्क में उठ खड़े हुए। उनके इन सवालों पर एक और सवालिया निशान लगाते हुए साधु ने कहा-तुम जो सोच रहे हो, वह एकाएक समझने वाली बातें नहीं है, समझ सकते भी नहीं, क्योंकि उसके लिए लम्बे समय तक साधना और योगाभ्यास करना पड़ता है। जीवन के सुख और इन्द्रियों के आकर्षण त्याग कर लम्बे समय तक तप करना पड़ता है। वह न आपके लिए सम्भव है, न आप जान सकते हैं, आपको तो जिस काम के लिए बुलाया है, उसी के लिए यहाँ आ जाइये।”

फैरेल आश्चर्य चकित रह गये कि यह व्यक्ति मनुष्य है या देवता, बातें मेरे मन में उठ रही हैं और जान यह रहे हैं मनुष्य भी क्या कोई पुस्तक है? जिसके सम्पूर्ण रहस्य को, अप्रकट को इस तरह पढ़ा जा सकता है? इस तरह के विचित्र प्रश्न और चिन्तन करते हुए वह नीचे उतरने लगे और थोड़ी ही देर में वहाँ पर जा पहुँचे, जहाँ साधु बैठे थे। वहाँ एक व्यक्ति के आराम करने भर की जगह और धूनी में जल रही आग के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था।

पास में पहुँचते ही, साधु ने अपना जर्जर हाथ उनकी पीठ पर फेरा। हाथ फेरते ही वह एक बारगी चौंक पड़े, अरे यह क्या, वृद्ध शरीर में यह क्या विद्युत शक्ति-उनका शरीर जो अभी-अभी थकान से टूट रहा था, फूल की तरह हल्का जान पड़ा। श्रद्धावश उन्होंने झुक कर साधु के चरण स्पर्श किये। अब तक वह सैकड़ों साधु देख चुके थे, लेकिन यहाँ तो कुछ विलक्षण ही था। उन्हें अनुभव हुआ कि ऐसे ही साधुओं ने भारतीय दर्शन का सम्मान बढ़ाया है। ये भीख माँगने-पेट भरने वाले बाबा जी नहीं हैं, तपस्वी हैं। जो शरीर से 80−90 पाउण्ड होकर भी शक्ति और सामर्थ्य में हजारों बमों की क्षमता से कहीं अधिक शक्तिशाली और ज्ञान-विज्ञान के भण्डार होते हैं।

वातावरण में संव्याप्त मौन को तोड़ते हुए साधु कह रहे थे-वह स्थान जहाँ आपका तंबू लगा है, वहाँ पहुँचने के लिए मैंने एक युवक को प्रेरित किया है। वह पूर्वजन्म में मेरा शिष्य था, साधना अधूरी रह गयी। अब मैं फिर उससे लोक मंगल के लिए साधना और तप कराना चाहता हूँ, पर उसकी पूर्वजन्मों की स्मृतियाँ सो गयी हैं, इस जन्म के संस्कार और परिस्थितियाँ उसे खींचती हैं, इसलिए साधना में आरुढ नहीं हो पा रहा। मैंने उसे प्रेरणा देकर बुलाया है वह आया और निर्देशित स्थान न पा सका तो उसे भ्रम होगा और मैं जो चाहता हूँ, वह न हो पाएगा, इसलिए आप वह स्थान तुरन्त खाली कर दें।

कमाण्डर फैरेल कहने लगे-भगवन् आप मुझे भी अपने पूर्व जन्मों की कुछ बातें बतायें?” इस पर साधु बोले-बेटा यह सिद्धियाँ तमाशे के लिए नहीं होती, इनका एक प्रयोजन है, उसी में खर्च किया जाना उचित है, हाँ यदि तुम चाहो तो उस लड़के के पूर्व जन्म का विवरण दिखाते समय उपस्थित रह सकते हो। बस अब जाओ? खेमे में तुम्हारे लिए हलचल मच रही है, मुझे भी जल्दी है।”

वह जिस रास्ते आये थे, उसी रास्ते से वापस लौट गये। यहाँ सचमुच उनकी तीव्रता से खोज हो रही थी। उन्होंने सारी बातें राजा साहब को बतायी और वह स्थान छोड़कर खेमे की 200 गज दूर कर दिया।

सायंकाल होने तक एक युवक सचमुच इधर-उधर कुछ खोजता हुआ सा उस स्थान पर आ पहुँचा। सब ओर से आश्वस्त होकर वह युवक वहाँ बैठ गया, तक तक फैरेल भी वहाँ पहुँच गये, उनकी जिज्ञासा तीव्र हो रही थी, साधु भी थोड़ी देर में वहाँ आ पहुँचे। श्री फैरेल और युवक दोनों ने उन्हें प्रणाम किया और आदेश की प्रतीक्षा में खड़े हो गये।

वह स्थान पेड़ों की झुरमुट में था। उसकी सफाई की गयी। अग्नि जलाकर साधु ने कुछ पूजा की, मंत्र पढ़े और एक स्थान में उनको बैठा दिया। अब तक चारों ओर अंधेरा छा चुका था।

साधु ध्यानावस्थित होकर बैठ गये। उनके मस्तिष्क से प्रकाश की रेखा फूटी और एक वृक्ष के मोटे तने पर गोलाकार बिम्ब उभर उठा-फिर उसमें जो कुछ देखा, वह बिलकुल सिनेमा की तरह व्यवस्थित चलता फिरता, बोलता नाटक सा था। जिसमें उस युवक के पूर्व जीवन की अनेक घटनाएँ ठीक चलचित्र जैसी ही प्रत्यक्ष आँखों से दिख रही थी। बीच-बीच में वह युवक कुछ उत्तेजित सा हो उठता था, हाँ हाँ यह सब मैंने ही किया

है, ऐसा बोल पड़ता था। उसकी मृत्यु तक की सारी घटनाएँ फैरेल ने भी देखीं तो वे भारतीय दर्शन की इस महानतम उपलब्धि से इतने प्रभावित हुए कि अपना सारा जीवन अपने सारे संस्कार ही बदल कर उन्होंने अपने को पूरा भारतीय बना लिया।

युवक ने अन्त में साधु को प्रणाम कर कहा-भगवन् अब मेरा मोह टूट चुका है, मैं अपनी छोड़ी हुई साधना और कठिन तपश्चर्या के लिए पुनः तैयार हूँ, आप मुझे रास्ता दिखाइये, ताकि मैं उस छोड़े हुए अधूरे कार्य को पूरा कर सकूँ।”


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