संसार का सबसे संवेदनशील राडार मनुष्य का कान है। ध्वनि कम्पनों की वह कितने अच्छे भेद प्रभेद के साथ पकड़ता है, इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि कोलाहल रहित स्थान में मक्खी की भिनभिनाहट जैसी बारीक आवाज छह फुट दूरी से सुनी जा सकती है।
न्यूजर्सी की टेलीफोन प्रयोगशाला में एक कमरा इस तरह का बनाया गया कि उसमें कोई बाहरी आवाज तनिक भी प्रवेश न कर सके। इसमें प्रवेश करने पर कुछ ही समय में मनुष्य को सीटी बजने, रेल चलने, झरने गिरने, आग जलने, पानी बरसने से समय होने वाली आवाजों जैसी ध्वनियाँ सुनाई पड़ती थीं। इस प्रयोग को कितने ही मनुष्यों ने अनुभव किया, बात यह थी कि शरीर के भीतर जो विविध क्रिया-कलाप होते रहते हैं, उनसे ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं। वे इतनी हलकी होती हैं कि बाहर होते रहने वाले ध्वनि प्रवाह में एक प्रकार से खो जाती हैं। नक्क र खाने में तूती की आवाज की तरह यह भीतरी अवयवों की ध्वनियाँ कानों तक नहीं पहुँच पातीं, पहुँचती हैं तो वायु मण्डल में चल रहे शब्द कम्पनों की तुलना में अपनी लघुता के कारण उनका स्वल्प अस्तित्व अनुभव न होता हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। पर जब बाहर की आवाज रोक दी गई और केवल भीतर की ध्वनियों को मुखरित होने का अवसर मिला तो वे इतनी स्पष्ट सुनाई देने लगीं मानो वे अंग अपनी गति विधियों की सूचना चिल्ला-चिल्ला कर दे रहे हों।
रक्त संचार, श्वाँस प्रश्वास, आकुंचन-प्रकुंचन ग्रहण-विसर्जन स्थगन-परिभ्रमण विश्राम-स्फुरणा शीत-ताप जैसे परस्पर विरोधी अथवा पूरक अगणित क्रिया कलाप शरीर के अंग अवयवों में निरन्तर होते रहते-हर हलचल ध्वनि तरंगें उत्पन्न करती हैं। ऐसी दशा में उनका शब्द प्रवाह उपयुक्त स्थिति में कानों तक पहुँच ही सकता है और संवेदनशील कर्णेन्द्रिय उन्हें भली प्रकार सुन भी सकती है।
कान जैसा कोई इलेक्ट्रॉनिक मनुष्य द्वारा बन सकना सम्भव नहीं। क्योंकि कान में ऐसी संवेदनशील झिल्ली लगाई गई है, जिसकी मोटाई एक इंच का 2500 बिलियन (एक बिलियन बराबर दस लाख) है। इतनी हलकी साथ ही इतनी संवेदनशील ध्वनि ग्राहक वस्तु बन सकना मानवीय कर्तृत्व से बाहर की बात है। सुनने के प्रयोजन में काम आने वाले मानव निर्मित यंत्रों की तुलना में कान की संवेदन शीलता दस हजार गुनी है। हमारे कान-लगभग 4 लाख प्रकार की आवाज पहचान सकते हैं और उनके भेद प्रभेद का परिचय पा सकते हैं। सौ वाद्य यंत्रों के समन्वय से बजने वाला आरकेस्ट्रा सुन कर उनसे निकलने वाली ध्वनियों का विश्लेषण प्रस्तुत करने वाले कान कितने ही संगीतज्ञों के देखे गये हैं। शतावधानी लोग सौ शब्द श्रृंखलाओं के क्रमबद्ध रूप से सुनने और उन्हें मस्तिष्क में धारण कर सकने में समर्थ होते हैं। कहते हैं कि पृथ्वीराज चौहान ने घण्टे पर पड़ी हुई चोट को सुनकर उसकी दूरी की सही स्थिति विदित कर ली थी।
कानों की झिल्ली आवाज की बिखरी लहरों को एक स्थान पर केन्द्रित करके भीतर की नली में भेजती है। वहाँ वे तरंगें विद्युत कणों में बदलती हैं। इसी केन्द्र में तीन छोटी किन्तु अति संवेदनशील हड्डियाँ जुड़ती हैं; वे परस्पर मिलकर एक पिस्टन का काम करती हैं। इसके आगे लसिका युक्त घोंघे की आकृति वाले गह्वर में पहुँचते पहुँचते आवाज का स्वरूप फिर स्पष्ट हो जाता है। इस तीसरे भाग की झिल्ली का सीधा सम्बन्ध मस्तिष्क से है। कान के बाहरी पर्दे पर टकराने वाली आवाज को लगभग 3500 कणिकाओं द्वारा आगे धकेला जाता है और मस्तिष्क तक पहुँचने में से सेकेंड के हजारवें भाग से भी कम समय लगता है। मस्तिष्क उसे स्मरण शक्ति के कोष्ठकों में वितरित विभाजित करता है। वह स्मरण शक्ति पूर्व अनुभवों की आवाज पर भी यह निर्णय करती है कि यह आवाज तुरही की है या घड़ियाल की। सुनने की प्रक्रिया को अन्तिम रूप यहीं आकर एक बहुत बड़ी-किन्तु स्वल्प समय में पूरी होने वाली प्रक्रिया के उपरान्त मिलता है।
कितने ही जीवों में मनुष्य की अपेक्षा अधिक दूर की आवाजें सुनने की शक्ति हैं। घोड़े को ही लें, उसके कानों के बाहरी परदे में 17 पेशियाँ होती हैं जबकि मनुष्य में उनकी संख्या 9 है। इसी अनुपात से घोड़ा मनुष्य की अपेक्षा अधिक दूरी की और अधिक हलकी आवाजें सुन सकता है।
नेपोलियन बोना पार्ट की स्मरण शक्ति बहुत तीव्र थी। अपनी सेना के प्रायः हर सिपाही का नाम उसे याद रहता था और आवाज सुनने भर से बिना देखे वह यह बता देता था कि कौन बोल रहा है। इसी प्रकार सिकन्दर की श्रवण शक्ति विलक्षण थी। एक बार रात को उसने एक गाना सुना। निस्तब्ध नीरवता में वह गीत बहुत दूर से आ रहा था पर सिकन्दर ने उसे सुन ही नहीं, याद भी कर लिया। कई दिन वह संगीत प्रवाह उसी तरह उसी समय पर सुनाई पड़ता रहा। सिकन्दर ने अपने कर्मचारियों को उस गायक की दिशा और दूरी बताकर बुला लाने के लिए भेजा। पाँच मील दूरी पर नीरव जंगल में वही व्यक्ति गाया करता था जिसकी आवाज सिकन्दर ने सुनी।
मस्तिष्क के साथ नाक, कान, आँख, जीभ, इन्द्रियाँ जुड़ी हैं। उन सभी के कार्यों का संचालन सन्तुलन रखने में मस्तिष्क की शक्ति विभक्त रहती है और खर्च होती है। यदि इनमें से कोई एक इन्द्रिय कुण्ठित हो जाय तो उस पर होने वाली क्षमता अन्य इन्द्रियों पर या इन्द्रिय विशेष पर लग जाती है। इसी कारण अन्धों में विशिष्ट प्रतिभा विकसित देखी जाती है। अन्य इन्द्रियों के कुण्ठित होने का भी दूसरी इन्द्रियों की शक्ति बढ़ने का लाभ होता है। पर चूँकि नेत्रों में सबसे अधिक शक्ति नियोजित है इसलिए अन्धों में गायन, स्मरण आदि की विशेषताएँ अधिक मात्रा में विकसित देखी जाती हैं।
अभ्यास से दुर्बल व्यक्ति भी पहलवान बन जाते हैं। कालिदास मूर्ख थे पर विद्याध्ययन में निरंतर श्रम संलग्न रहने से वे उच्च कोटि के कवि और विद्वान बन गये। इन्द्रियों की शक्ति का यदि अभिवर्धन किया जाय तो उनकी क्षमता में असाधारण और आश्चर्य जनक वृद्धि हो सकती है। कर्णेन्द्रिय का विकास इतना अधिक हो सकता है कि वह सिकन्दर की तरह दूरगामी, हलकी आवाजें भी अच्छी तरह सुन ले। भीड़ के चहल-पहल के सम्मिश्रित शब्द घोष में से अपने परिचितों की आवाज छाँट और पकड़ ले। फुसफुस की-कानाफूसी की आवाजों को भी कर्णेन्द्रिय की प्रखरता को तीव्र बनाने पर सुना जा सकता है। ऐसी विशेषताएँ कइयों में जन्मजात होती हैं किन्हीं में प्रयत्न पूर्वक अभ्यास करने से विकसित होती हैं।
यह तो स्थूल कर्णेन्द्रिय में निकटवर्ती उच्चारणों को सुनने, समझने की बात हुई, इससे भी बढ़कर बात यह है कि सूक्ष्म और कारण शरीरों में सन्निहित श्रवण शक्ति को यदि विकसित किया जा सके तो अन्तरिक्ष में निरन्तर प्रवाहित होने वाली उन ध्वनियों को भी सुना जा सकता है, जो चमड़े से बने कानों की पकड़ से बाहर है।
सूक्ष्म जगत की हलचलों का आभास इन ध्वनियों के आधार पर हो सकता है। कराहने की आवाज सुनकर किसी के शोक ग्रस्त होने, दर्द से छटपटाने, सताये जाने आदि को स्थिति का, दूरी का, नर-नारी का, बाल-वृद्ध का अनुमान लगा लिया जाता है उसी प्रकार कर्णेन्द्रिय की पकड़ में बाहर की सूक्ष्म ध्वनियों को यदि सुना जा सके तो विश्व में विभिन्न स्थानों पर विभिन्न स्तर की घटित होने वाली घटनाओं का विवरण जाना जा सकता है, सम्भावनाओं का पता लगाया जा सकता है तथा लोक लोकान्तरों में हो रही हलचलों को समझा जा सकता है। सर्व साधारण के लिए अविज्ञात जानकारियाँ सूक्ष्म शरीर की कर्णेन्द्रिय के विकास द्वारा नितान्त सम्भव है।
तन्त्र विद्या में ‘कर्ण पिशाचिनी’ साधना का महत्वपूर्ण प्रकरण है। रेडियो, टेलीफोन तो निर्धारित स्थान से निर्धारित स्थान पर ही सन्देश पहुँचाते हैं उन्हें विशेष यंत्रों द्वारा ही प्रेषित किया जाता है और विशेष यंत्र ही सुनते हैं। कर्ण पिशाचिनी विद्या से कहीं पर भी हो रहे शब्द प्रवाह को सुना जा सकता है। स्थूल शब्दों के अतिरिक्त अन्य घटनाक्रमों की हलचलें विद्युत के रूप में अन्तरिक्ष में विद्यमान रहती हैं, उन किरणों को प्रकाश रूप में देखा जा सकता है और शब्द रूप में सुना जा सकता है। तांत्रिक साधना से इस सिद्धि को उपलब्ध करने वाले अपने ज्ञान भण्डार को असाधारण रूप से बढ़ा सकते हैं और उस स्थिति से विशेष लाभ उठा सकते हैं।
नाद योग सूक्ष्म शब्द प्रवाह को सुनने की क्षमता विकसित करने का साधना विधान है। कानों के बाहरी छेद बन्द कर देने पर उसमें स्थूल शब्दों का प्रवेश रुक जाता है। तब ईश्वर से चल रहे ध्वनि कम्पनों को उस नीरवता में सुन समझ सकना सरल हो जाता है। नाद योग के अभ्यासी आरम्भ में कई प्रकार की दिव्य ध्वनियाँ कानों के छेद बन्द करके मानसिक एकाग्रता के आधार पर सुनते हैं। शंख, घड़ियाल, मृदंग,
बहुसंख्य व्यक्तियों को अंत तक बोध नहीं हो पाता कि क्यों वे इस धरती पर जन्मे हैं व क्या उन्हें करना है? मखौल में ही वे जिन्दगी ....................। एक साधु तीर्थ यात्रा पर निकले। मार्ग-व्यय के लिए किसी सेट से ................ तो उसने कुछ दिया तो नहीं, पर अपना एक काम भी सौंप दिया ......................... ............... हाथ में थमाते हुए कहा-प्रवास काल में जो सबसे बड़ा मूर्ख ........दे देना।” संत बिना रुष्ट हुए उसका काम कर देने का वचन ......................... में ले गये। बहुत दिन बाद वापिस लौटे, तो सेठ को बीमार पड़े पाया। ................ धन से वे न अपना इलाज करा पाये और न किसी सत्कर्म में लगा पाये। मरणासन्न स्थिति में संबंधी, कुटुम्बी उनका धन-माल उठा-उठा कर ले जा रहे थे। सेठ जी को मृत्यु और लूट का दुहरा कष्ट हो रहा था। साधु ने सारी स्थिति समझी और दर्पण उन्हीं को वापस लौटा दिया। कहा-आप ही इस ............. सबसे बड़े मूर्ख मिले, जिसने कमाया तो बहुत, पर सदुपयोग करने का विचार .................. उठा।” क्रमों के संकेत प्रकट करने वाली अधिक सूक्ष्म आवाजें भी पकड़ में आती हैं। अनुभव के आधार पर उनका वर्गीकरण करके यह जाना जा सकता है कि इन ध्वनि संकेतों के साथ कहाँ किस प्रकार का-किस काल का घटना क्रम सम्बद्ध है। आरम्भिक अभ्यासी भी अपने शरीरगत अवयवों की हलचल, रक्त प्रवाह, हृदय की धड़कन, पाचन संस्थान आदि की जानकारी उसी भाँति प्राप्त कर सकता है जिस तरह कि डॉक्टर लोग स्टेथिस्कोप आदि उपकरणों से हृदय की गति, रक्त चाप आदि का पता लगाते हैं अपने ही नहीं दूसरों के शरीर की स्थिति का विश्लेषण इस आधार पर हो सकता है और तदनुकूल सही निदान विदित होने पर सही उपचार का प्रबन्ध हो सकता है।
सूक्ष्म शरीर की कर्णेन्द्रिय को विकसित करके संसार में घटित होने वाले घटनाक्रम को जाना जा सकता है। कारण शरीर का सम्बन्ध चेतना जगत से है। लोगों की मनःस्थिति के कारण उत्पन्न होने वाली अदृश्य ध्वनियाँ जिसकी समझ में आने लगें वह मानव प्राणी की, पशु-पक्षियों और जीव-जन्तुओं की मनःस्थिति का परिचय प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार बिना उच्चारण के एक मन से दूसरे मन का परिचय, आदान-प्रदान होता रह सकता है। विचार संचालन विद्या के ज्ञाता जानते हैं कि मनःस्थिति के अनुसार भावनाओं के उतार-चढ़ाव में एक विचित्र प्रकार की ध्वनि निसृत करते हैं और उसे सुनने की सामर्थ्य होने पर मौन रह कर ही दूसरों की बात अन्तःकरण के पर्दे पर उतरती हुई अनुभव की जा सकती है और अपनी बात दूसरों तक पहुँचाई जा सकती हैं।
कारण शरीर की कर्णेन्द्रिय साधना, दैवी संकेतों के समझने, ईश्वर के साथ वार्तालाप और भावनात्मक आदान प्रदान करने में समर्थ हो सकती है। साधनात्मक पुरुषार्थ करते हुए अपने इन दिव्य संस्थान को विकसित करना-अपूर्णता से पूर्णता की ओर बढ़ना यही तो योग साधना का − आत्म साधना का उद्देश्य है।