एक नारी की निश्छल साधना

October 1995

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जम्बुद्वीप का नृत्य-संगीत विद्यालय और आचार्य कुमारदेव को उन दिनों आर्यावर्त ही क्यों, सारा संसार जानता था। वह संगीत सिद्ध थे। संगीत की ऐसी कोई विद्या बाकी न थी, जिसका मर्म वह न जानते रहे हों।

मगध, कौशल, कौशाम्बी, सिन्धु, पाँचाल, उरु, कुरु, मिश्र, यूनान आदि अनेक देशों की राजकुमारियाँ और सामन्तों की पुत्रियाँ उनके गुरु कुल में नृत्य, संगीत सीखती थीं। पर आचार्य देव को आज तक कोई ऐसा योग्य शिष्य नहीं मिल सका था, जिससे वह आशा करते कि वह नाद योग संगीत की परम्परा को उन्हीं के समान जीवित रख सकेगा।

उस दिन पहली बार आशा की सुनहली किरण आचार्य कुमारदेव के हृदय में उतरी, जिस दिन मगध की राजनर्तकी सुनन्दा की ज्येष्ठ कन्या कोशा ने आश्रम में प्रवेश लिया। आचार्य देव जानते थे कि संगीत और नृत्य कलाएँ योग साधनाएँ हैं। उन्हें वही प्राप्त कर सकता है, जिसमें असीम श्रद्धा, निष्ठा और चारित्रिक पवित्रता भी हो। यह संस्कार आत्मा से सम्बन्ध रखते हैं-समृद्धि सवर्णता और कुल की श्रेष्ठता से नहीं। सो जब उन्होंने कोशा को उस रूप में पाया तो उनकी वर्षों की निराशा दूर हो गयी। कोशा को पाकर उनका आचार्यत्व एवं वात्सल्य दोनों एक साथ उमड़ पड़े। उन्होंने पूरे परिश्रम से उसे आरती, अभिसारिका, परकीय, प्रमोद, मधुमिलन, संगोपन, सूचिका, ताँडव आदि गूढ़ और सूक्ष्म भावनाओं से ओत-प्रोत नृत्य सिखाये। कोशा ने उसे सीखा, कला पारंगत हुई और एक दिन मगध की राजनर्तकी का यशशील पद भी प्राप्त कर लिया।

योग साधनाएँ कठिन बतायी जाती हैं, पर सिद्धि का संवरण उससे भी कठिन बात है। वह जिस दिन मगध की राजनर्तकी घोषित हुई, उसी दिन से उसे प्राप्त करने के लिए श्रीमन्तों, सामन्तों, राजकुमारों तक में होड़ लग गयी। स्वयं मगध नरेश की दृष्टि भी निष्कलुष न रह सकी। पर उसके मस्तिष्क में आचार्य देव के वह शब्द अभी सुप्त नहीं हुए थे जो उन्होंने आश्रम से विदा करते वक्त कहे थे− “भद्रे! राजनर्तकी का गौरव प्राप्त हुआ तो क्या, तुम भारतीय नारी हो, भारतीय नारी सदैव एक पुरुष का वरण करती है और उसके आदर्शों के लिए अपने को न्योछावर करती रही है, उस परम्परा को भूलना मत।”

दीपक की लौ में जल जाने वाले पतंगों की तरह अनेकों कामुक व्यक्तियों की लालसायें बढ़ीं और कोशा की दृढ़ता की अग्नि में भस्मसात् होती गयीं। कोशा महामंत्री शकटार के पुत्र स्थूलिभद्र को प्रेम करती थी। उनके अतिरिक्त उसने स्वप्न में भी किसी पुरुष का स्मरण नहीं किया।

कोशा जितनी पवित्रता से स्थूलिभद्र को प्रेम करती थी, उतनी ही तीव्रता से रथाध्यक्ष राजकुमार सुकेतु उस पर आसक्त था। जिस दिन उसे यह पता चला कि कोशा स्थूलिभद्र को वरण कर चुकी है, उसका प्रतिशोध उमड़ उठा। उसने शकटार की हत्या करा दी, ताकि स्थूलिभद्र का कोई प्रभाव शेष न रहे। इस घटना से स्थूलिभद्र इतना आहत हुए कि उन्होंने वैराग्य धारण कर लिया और वन में जाकर तप करने लगे। यह कोशा के जीवन में वज्रपात की तरह था। किन्तु उसकी चारित्रिक दृढ़ता में रत्ती भर भी प्रभाव नहीं पड़ा।

तपस्वी स्थूलिभद्र चातुर्मास के लिए मगध आने वाले हैं, यही नहीं वे कोशा के ही अतिथि होंगे। एक क्षीण आशा अभी भी उसके मन में बनी हुई थी। पर जब वह आये और चातुर्मास साधना पास रहकर कर चुके, किन्तु उनके मन में एक क्षण के लिए भी काम-विकार और साँसारिक आकर्षण जाग्रत न हुआ तो कोशा की रही-सही आशाएँ टूट गईं।

स्थूलिभद्र चातुर्मास समाप्त कर निर्विकार लौट गये। वह रात कोशा के लिए जीवन की सबसे निराश और भयंकर रात थी। आशा जीवन को बाँध रखने वाली एक प्रबल आकर्षण शक्ति है, वह टूट जाए और फिर जीवन में प्रसन्नता दिखाई न दे तो विरक्ति स्वाभाविक ही है। रात का एक-एक पल उसके लिए भारी पड़ रहा था। एक परमात्मा के अतिरिक्त दूसरा कोई आश्रय समझ में नहीं आ रहा था, पर उस दिव्य सत्ता को समझ पाना यकायक सबके बस की बात कहाँ? वह तो योगियों को ही कठोर तपश्चरण से मिलता है।

रात्रि के समय, कोशा उठी और द्वार से बाहर की ओर चल पड़ी। वह घर से एक ही क्षण में निकलकर कहीं प्राणान्त कर लेना चाहती थी, पर जैसे ही वह द्वार पर आयी, सम्मुख खड़े आचार्य कुमारदेव को देखकर अवाक् रह गयी। आगे बढ़कर उसने सजल नेत्रों से प्रणिपात किया- "यह जीवन बड़ा कठिन है गुरुदेव!" बस वह इतना ही कह सकी। आँखों से आँसुओं की अविरल धारा फूट पड़ी।

आचार्य देव ने उसे उठाकर हृदय से लगाते हुए कहा- "पुत्री उठो, तुम्हारा चरित्र स्थूलिभद्र की साधना से कहीं अधिक पवित्र है। अब तुम आश्रम में रहकर शिक्षा कार्य करो, तुम्हारी गाथा चिरकाल तक भारतीय नारी को चरित्र का उपदेश देती रहेगी।"


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