सर्दी के दिनों में अँगीठी सुलगाने के प्रयास में दो छोटे बच्चों ने मिट्टी के तेल के स्थान पर पेट्रोल डाल दिया, आग भड़की। एक तो तत्काल मर गया। दूसरा महीनों अस्पताल में रहने के बाद कुरूप और अपंग हो गया। दोनों पैर लकड़ी की तरह सूख गये। पहियेदार कुर्सी के सहारे घर लौटा तो किसी को आशा न थी कि वह कभी चल-फिर भी सकेगा। पर लड़के ने हिम्मत नहीं छोड़ी। आज की तुलना में अधिक अच्छी स्थिति प्राप्त करने के लिए वह प्रयत्न करता रहा। निराश या खिन्न होने के स्थान पर उसने प्रतिकूलता को चुनौती के रूप में लिया और उसे अनुकूलता में बदलने के लिए अपने कौशल और पौरुष को दाँव पर लगाता रहा। उसने बैसाखी के सहारे न केवल चलने में, वरन् दौड़ने में सफलता पाई और पुरस्कार जीते। इस विपन्नता के बीच भी उसने पढ़ाई जारी रखी, एम. ए., पी.एच.डी. उत्तीर्ण की और विश्वविद्यालय में निर्देशक के पद पर आसीन हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध में वह मोर्चे पर भी गया। जहाँ अड़ा वहीं सफल रहा। रिटायर होने पर उसने अपनी जमा पूँजी से अपंगों को स्वावलम्बन देने वाला एक आश्रम खोला, जिसमें इन दिनों आठ हजार अपंगों को पढ़ने, रहने और कमाने का प्रबन्ध है। अमेरिका में संकल्पवान् साहसी ग्रेट कनिंघम का नाम बड़ी श्रद्धापूर्वक लिया जाता है और कठिनाइयों से जूझने के लिये उसका जीवन वृत्तांत पढ़ने-सुनने का परामर्श दिया जाता है।