महापुरुषों की यही विशेषता रही है कि वे स्वयं आजीवन स्वाध्यायशील रहे हैं। आचार्य अत्रे उन दिनों बीमार पड़े थे। फिर भी चारपाई पर सिरहाने, बगल में उनने ढेरों पुस्तकें जमा कर रखी थीं। उस कष्टकर मनःस्थिति में पढ़कर मन का हलका करते थे। एक मित्र मिलने आये और उन्होंने पूर्ण विश्राम की बात कहते हुए पढ़ने से बचने का परामर्श दिया। अत्रे जी ने मुस्कराते हुए कहा-मैं बीमारी की खुराक बना हुआ हूँ, पर मैं भूखा कैसे रहूँ? अपनी खुराक पुस्तकों से हासिल करता हूँ।”
इसी प्रकार सभी की अभिरुचि यदि ज्ञानार्जन-स्वाध्याय के प्रति जाग उठे तो उनका व्यक्तित्व भी अपूर्ण न रहे। जो इसमें पिछड़ जाते हैं, वे पछताते हैं।