तुच्छता को त्यागें, महानता का वरण करें

October 1995

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नीति-मर्यादा का परिपालन ही सदाचार है। जहाँ सदाचार होता है, वहाँ सुव्यवस्था कायम रहती है ओर उन्नति-प्रगति भी होती रहती है। इसका लोप ही अव्यवस्था का कारण बनता है और पतन का निमित्त भी।

सदाचार में ऋजुता, सरलता और साधुता का समावेश है। इन्हीं से ऐसे लोग प्रशंसा पाते एवं महान् बनते हैं, किन्तु कठोर और क्रूर प्रकृति के कारण कदाचारी सर्वत्र अपयश और अपमान के भागी बनते हैं। नीतिवानों का जीवन यज्ञमय होता है। यज्ञ परमार्थ का पर्याय है। इसीलिए यज्ञीय जीवन को दिव्य जीवन कहा गया है। जहाँ यज्ञीय भाव है, वहाँ प्रकारान्तर से सदाचरण की ही उपस्थिति समझना चाहिए। सदाचार युक्त नैतिक जीवन की पराकाष्ठा यज्ञ में हुई है। इसी से सत्कर्म पैदा होते, उसी में स्थिर रहते और उसी में उनकी पूर्णता है।

यज्ञीय जीवन सृजनात्मक होता है। संसार में जब-जब सर्वहित की भावना से, सर्वोन्नति की कामना से क्रान्तियाँ हुई हैं, तब-तब निर्माण कार्य भी विपुल हुए हैं। साहित्य, कला आदि सभी पर उनका प्रभाव सुस्पष्ट है। मनुष्यों के हृदयों में सर्वहित का संकल्प दृढ़ हो, इसके लिए विशिष्ट आचार की, ऐसे व्यवहार की नितान्त आवश्यकता रहती है, जिसमें सब प्रेमपाश में ओत-प्रोत हुए, सहयोग करते हुए आगे बढ़े। सदाचरण पर ही यज्ञ क्रिया निर्भर है और यज्ञ भावना से सदाचार उन्नत होता है। उदारता की स्थिरता के लिए सत्य आचरण अत्यन्त आवश्यक है। सत्याचरण से परस्पर विश्वास, स्नेह और सौहार्द के भाव उदय होकर दृढ़ होते हैं। यही दृढ़ता मनुष्यों में उद्देश्य पूर्ति के लिए तन, मन, धन लगाने की उत्कट भावना उमगाती है। यह उत्साह वहीं दिखाई पड़ता है, जहाँ सद्भावना होती है। दुर्भावना तो आपसी दूसरी बढ़ाती, कटुता पैदा करती और विनाश के कुचक्र रचती है, जबकि सद्भावना की शक्ति रचनात्मक होती है। यह शक्ति जब सत्संकल्प, सद्विचार के रूप में प्रकट होती है, तो दिव्य वातावरण का निर्माण करती, धरती पर स्वर्ग उतारती और मनुष्यों में देवताओं की झाँकी उत्पन्न करती है।

इसके विपरीत स्वार्थ में पारस्परिक वैर-विरोध ही बढ़ता है। जहाँ स्वार्थ होगा, वहाँ उसकी भगिनी ईर्ष्या भी साथ होती है। स्वार्थी व्यक्ति न दूसरों की उन्नति देख सकता है, न शान्ति। वह सदा इसी फिराक में रहता है कि कैसे उसकी शान्ति छीनी जाय और उन्नति का अपहरण किया। इस निमित्त वह अपना बहुमूल्य समय और श्रम खपाता और पैसा भी बहाता रहता है। यह सम्पदा यदि उसकी स्वयं की प्रगति के लिए लगी होती तो शायद वह अपने प्रतिपक्षी से भी कई मामलों में आगे बढ़ गया होता, पर मूढ़मति को यह शिक्षा कौन दे कि इसमें सामने वाले की कोई हानि नहीं, जबकि स्वयं का घाटा अपार है। जहाँ दुर्बुद्धि और दुर्भाव होंगे, वहाँ अभाव ही अभाव होगा। शान्ति का अभाव, संतोष का अभाव, धन, यश, कौशल और विवेक का अभाव-यह सब दुर्बुद्धि की परिणति है। दुर्भाव उसे और मजबूत आधार प्रदान करता है। स्वार्थ को यदि स्वतंत्र और निरंकुश छोड़ दिया जाय, तो यह व्यक्तियों नहीं, जातियों नहीं, राष्ट्रों तक में कलह-विग्रह बढ़ा कर महायुद्ध की भीषण दुरभिसंधि खड़ी करता है। इस दिनों जाति, धर्म, भाषा, लिंग, क्षेत्र के नाम पर होने वाले विवाद और दंगों के मूल में इसी की मुख्य भूमिका है। स्वार्थी अपना छोटा-सा स्वार्थ साधने के पीछे पूरे समाज और राष्ट्र को वैर, वैमनस्य एवं हिंसा के गर्त में धकेल देता है। यह तनिक भी नहीं सोचता कि इसका अन्तिम परिणाम क्या होगा? क्या वह स्वयं इस परिणाम से बचा रह सकेगा? शायद इसे उसकी स्वार्थ-बुद्धि सोचने नहीं देती। यही कारण है कि सर्वत्र उसकी निन्दा-भर्त्सना के साथ-साथ अपकर्ष भी होता चलता है। उत्कर्ष यदि कहीं दिखाई पड़ता है, तो वह “चार दिनों की चाँदनी फिर अँधेरी रात” वाली कहावत ही चरितार्थ करता और यह बताता है कि बालू की ढेर को चट्टानी टीला न समझा जाय, जो प्राकृतिक व्याघातों के बावजूद भी सदा अपने को अजर-अमर बनाये रखता है। परमार्थपरायणता की ही जड़ इतनी मजबूत हो सकती। स्वार्थपरता तो एक ठोकर खाकर ही छिन्न-भिन्न होने लगती है।

जहाँ विकार है, वहीं क्षुद्र इच्छाएँ पनपती हैं। यदि इस विकार को मिटाया जा सके, तो भावनाएँ शुभ और निरभ्र आकाश जैसी होंगी। फिर इस उद्गम से जो कामनाएँ पैदा होंगी, वह स्रोत जैसी ही शुभ और शिव संकल्पयुक्त होंगी। इसी स्थिति में मानवी ध्येय श्रेय हो पाता और व्यक्ति महानता की ओर अग्रसर होता है महान् व्यक्ति ही श्रेष्ठ युग और सभ्य समाज को जन्म देता है। इन दिनों का समाज सभ्य जैसा लगते हुए भी असभ्यता के चरम पर पहुँचा हुआ है। यदि इसका कारण ढूँढ़ना हो तो मानवी मन का अध्ययन करना पड़ेगा और यह देखना पड़ेगा कि प्रगति का इतना विराट् विस्तार कर लेने पर भी मनुष्य असभ्य स्तर का किस भाँति बना रहा? पर्यवेक्षण से यही ज्ञात होता है कि दोनों प्रकार के मानवों में एक मूलभूत अन्तर है। आदि मानव अपने अल्प विकसित बुद्धि और मन के कारण असभ्य बने हुए थे, तो वर्तमान मानव अपनी सुविकसित बुद्धि के कारण इस श्रेणी में आ पहुँचे। इस मध्य प्रगति यात्रा की इस विशाल अवधि में उसकी बुद्धि तो बढ़ी, पर मन पशुवत् बना रहा। बुद्धि के विकास के साथ-साथ मन का परिष्कार न हो सका, इसलिए आज वह बुद्धि की दृष्टि से सर्वोच्च स्थिति में रहने पर भी मन पर पशुताजन्य क्षुद्रता के लदे रहने के कारण जिस बुद्धि का उपयोग विकास के कामों में होना चाहिए था, सम्प्रति विनाश प्रयोजनों में लगी रहकर मनुष्य की असंस्कृति का पर्याय बनी हुई है। इसीलिए जहाँ बुद्धि का विकास वाँछनीय है, वहाँ मानसिक चेतना का परिष्कार भी अभीष्ट है, तभी बुद्धि का सदुपयोग हो सकेगा और व्यक्ति देवोत्तम बन सकेगा।

देवता अर्थात् सदाचारी, दानव अर्थात् दुराचारी। दोनों में आकाश-पाताल जैसा अन्तर है। सदाचारी में स्वाभिमान कूट-कूट कर भरा होता है, जबकि दुराचारी में इसका स्थान उद्धत अहंकार लिये होता है। सदाचारी में आत्म सम्मान होता है, जबकि दुर्जनों में घमंड। उद्दण्डता दुराचारी का दुर्गुण है, तो साधुता सत्पुरुष का आभूषण। कुटिल प्रकृति के कपटी लोग ढीठ होते हैं, तो ईश्वर विश्वासी विनयशील जन सभ्य स्वभाव के। निर्लज्जता कुकर्मियों में प्रायः देखी जाती है, तो मर्यादा सभ्य जनों की विशेषता है।

मृदुलता सौम्य लोगों का स्वाभाविक लक्षण है, तो कठोरता असभ्यों की चिर-परिचित पहचान है। साधु लोगों का जीवन अकृत्रिम होता है, जबकि असाधु बनावटीपन में जीते हैं। सज्जनों की चापलूसी सिर्फ ईश्वर के दरबार में होती है, किन्तु दुर्जन प्रकृति के लोभी लोग जहाँ स्वार्थपूर्ति की संभावना दिखाई पड़ती है, वहीं चाटुकारिता प्रदर्शित करने लगते है। उत्तम पुरुष आत्मिक उन्नति करते हुए आत्म साक्षात्कार की दिशा में अग्रसर होते हैं, जबकि अधम पुरुष अपनी आत्मा का गला घोंटते हुए पतनोन्मुख बनते देखे जाते हैं। एक का लक्ष्य महान् है, दूसरे का आदर्श अतिशय क्षुद्र। एक मिल-बाँट कर खाने और सहयोग-साकार से जीने के दर्शन पर विश्वास करता है, तो दूसरे की नीति अनीति और अपहरण है। एक धर्म का अनुचर है, तो दूसरा अधर्म का अनुयायी। एक में सहिष्णुता की पराकाष्ठा है, तो दूसरा उतना ही असहिष्णु। एक का उद्देश्य समाज को सुखी बनाना है, जबकि दूसरे का लक्ष्य उसे दुःख के महागर्त में धकेल देना है।

इस प्रकार देखा जाये तो हम पायेंगे कि सद्गुणों की सम्पत्ति में ही व्यक्ति और समाज की वास्तविक उन्नति छिपी हुई है। जहाँ दुर्गुण होंगे, वहाँ उसके पीछे अवनति भी प्रच्छन्न रहती है। यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठ सकता है कि यदि पतन और अवगुण सगे भाई हैं, तो फिर-चोरों डकैतों, बेईमानों, ठगों, अपराधियों की उन्नति दिन दूनी रात चौगुनी होती क्यों दिखाई पड़ती है? जबकि सरल और ईश्वर परायण लोग जीवन भर जहाँ-के-तहाँ बने रहते हैं। इस संबंध में पहली बात तो यह है कि डकैतों और दुर्जनों की प्रगति उक्त कर्म में लिप्त रहने ............................................................. संभव है नीच कर्म से .......................... सम्पत्ति की चकाचौंध से कोई उन्हें उन्नत मान ले, पर उन्नति की इस प्रकार की परिभाषा करना बुद्धि के दिवालियेपन के अतिरिक्त और कुछ नहीं। यह ठीक है कि उन्नति भौतिक भी होती है, पर किसी की सम्पदा पर अवैध कब्जा जमा लेना और यह घोषित करना कि उसने धन कमा लिया, उत्कर्ष कर लिया-सरासर गलत है। प्रगति जहाँ भी होगी वहाँ श्रम-सीकर भी गिरेंगे। पुरुषार्थ का पसीना बहाये बिना यह संभव नहीं। फिर भी कुछ क्षण के लिए यदि इसे उन्नति मान भी ली गई, तो तत्काल दूसरा सवाल उठ खड़ा होगा कि क्या मनुष्य का लक्ष्य इसी प्रकार की प्रगति करना है? उत्तर “नहीं” में प्राप्त होगा।

वास्तव में जीवन का मूल उद्देश्य आत्मिक विकास करना है। आत्मिक विकास उन गुणों को विकसित करके ही संभव हो सकता है, जो आत्मा का स्वाभाविक गुण है। आत्मा का गुण उत्कृष्टता मूलक है। हम स्वयं को श्रेष्ठ-सदाचारी बनाकर ही इस स्तर को प्राप्त कर सकते हैं, जिसमें मनुष्य देवता कहलाने का अधिकारी बनता है। दानव तो यत्र-तत्र-सर्वत्र ही इन दिनों देखे जा सकते हैं। हमारी गरिमा और महिमा इसी में है कि हम तुच्छता को त्यागें और महानता का वरण करें। तभी अव्यवस्था का अन्त और सुव्यवस्था का शुभारंभ हो सकेगा और समाज दयनीय से दिव्य बन सकेगा।


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