इसके लिए सबसे बड़ी वैतरणी जो पार करनी पड़ती है, वह है-मोह-माया की। देवर्षि नारद को परिभ्रमण काल में एक वयोवृद्ध धनवान् मिला। पूजा बहुत करता था, भक्तजन लगता था। उसकी ढलती आयु को देखकर नारद बोले - "परिवार समर्थ हो गया, अब घर से निकल कर वानप्रस्थ लेना चाहिए और लोकसेवा में लगना चाहिए, बात धनवान् के गले न उतरी। उसने कहा-अभी तो परिवार को सम्पन्न बनाना है। फिर कभी समय होगा, तो चलेंगे।" बहुत वर्ष बाद नारद उधर से फिर निकले। धनी भक्त की याद आ गयी। उसके घर पहुँचे, तो मालूम हुआ, वे कुछ समय पूर्व मर गये। नारद ने दिव्य दृष्टि से देखा तो प्रतीत हुआ, वह मर कर बैल बन गया है और हल में चलता है। समीप जाकर नारद ने पूर्व जन्म की बात स्मरण दिलाई और कहा- "अभी भी समय है, हमारे साथ चलो"। बैल को पूर्व जन्म स्मरण हो आया। फिर भी उसने सिर हिलाया - "परिवार को कमाई करके खिलाता हूँ। मेरे चल पड़ने से इन लोगों को कठिनाई पड़ेगी।" नारद चले गये।
कई वर्ष बाद फिर आना हुआ। बैल का समाचार पूछने गये तो ज्ञात हुआ कि वह भी मर चुका। अब वह कुत्ता बना बैठा था उसी घर में। नारद बोले- "कुत्ते की स्थिति में पड़े रहने से क्या लाभ? चलो विश्व कल्याण का कुछ काम करें।" कुत्ता सहमत न हुआ। उसने कहा-विश्व कल्याण से क्या? परिवार कल्याण ही बहुत है। मैं चल पड़ूं तो चोरों की रखवाली कौन करेगा?" नारद चले गये फिर तीसरी बार उसी प्रकार लौटना हुआ और नारद जी ने इस बार भी पहले की तरह पूछताछ की। मालूम पड़ा कुत्ता भी मर गया। देखा तो वह साँप बना। वहीं एक बिल में सिर चमक रहा था। नारद उसके समीप पहुँचे बोले- "ऐसी दुर्गति से क्या लाभ। अब तो इन लोगों की कोई सहायता भी नहीं बन पड़ती होगी चलो न।" सर्प ने असहमति सूचक सिर हिलाया और कहा-घर में चूहे बहुत हैं। इन्हें निगलने और डराने का काम क्या कम है? परिवार का मोह कैसे छोड़ूं?" नारद इस बार भी चले गये। एक दिन साँप बिल से निकला ही था कि घर वालों ने उसकी डंडे से खबर ली और सिर कुचल दिया। ऐसी दुर्गति न हो, इसलिए आत्मीय जनों के प्रति अनावश्यक अतिशय मोह छोड़कर स्वयं को सत्प्रवृत्ति संवर्धन हेतु समाज रूपी रणक्षेत्र में उतर जाना चाहिए।