जरा जगाकर तो देखिए मस्तिष्क की प्रसुप्त परतों को

October 1995

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

कैसे बन सकते हैं हम प्रतिभाशाली? यह सवाल किसी एक का नहीं हममें से बहुतों का है। किसी वैज्ञानिक, मेधावी साहित्यकार, ख्याति प्राप्त आविष्कारक के दिमागी चमत्कारों को देखकर खुद के मन में वैसा ही बनने की ललक जग उठती है। आखिर क्या है ऐसा उनके दिमाग में। मस्तिष्क की संरचना तो प्रायः सबकी एक ही तरह की होती है। लेकिन न जाने क्यों कुछ बुद्धू होते हैं और कुछ बुद्धिमान।

इन दिनों वैज्ञानिकों ने इस पहेली का हल ढूँढ़ने की कोशिश की है। “ड्राइंग आन दि राइट साइड ऑफ ब्रेन” की लेखिका, विख्यात वैज्ञानिक बेट्टी एडवर्डस लिखती हैं कि प्रतिभाशाली व्यक्तियों के मस्तिष्क का दांया हिस्सा अधिक सक्रिय होता है। यों तो दांए-बांए हिस्से के ठीक-ठीक सामञ्जस्य से ही मस्तिष्क के क्रिय कलाप चलते हैं। लेकिन फिर भी जिनका दांया मस्तिष्क तुलनात्मक रूप से ज्यादा विकसित होता है, उनमें अन्वेषक बुद्धि, जिज्ञासु प्रवृत्ति, गहरी समझ, विश्लेषण क्षमता कुछ ज्यादा ही देखने को मिलती है।

कहने को शरीर की लम्बाई पाँच-छह फुट होती है। लेकिन उसे छोटे से मस्तिष्क के इशारों पर नाचना पड़ता है। फिर अकेला शरीर ही क्यों? मस्तिष्क की सक्रियता बढ़ी-चढ़ी हुई तो संस्थाओं, समूह, समाज को उसके संकेतों के अनुसार घूमना पड़ता है। व्यक्ति में मस्तिष्क की हैसियत वही है जो किसी कारखाने में बिजली आपूर्ति करने वाले जनरेटर की होती है। जीवन-संचालन की प्रेरणाएँ ही नहीं, जरूरी सामर्थ्य भी उसे वही से मिलती है। तकरीबन दस अरब न्यूरान कोशों से बने, सवा-डेढ़ किलो वजन के भूरे लिबलिबे पदार्थ जैसे इस अंग की क्षमता किसी-सुपर कम्प्यूटर से भी हजारों लाखों गुनी हैं। आखिर सुपर कम्प्यूटर भी तो किसी न किसी के मस्तिष्क की देन है।

क्या कुछ होना है? इसकी सेन्ट्रल प्रोसेसिंग यूनिट कुछ ही क्षणों में तय करके कुछ माइक्रो सेकेंड्स में व्यक्त भी कर देती है और क्रियान्वित भी। लगातार काम करते रहने वाले मस्तिष्क में बावन हजार मीटर प्रति सेकेण्ड की गति से विद्युत संवेग इधर से उधर दौड़ते रहते हैं और आने जाने वाले संकेतों-संदेशों क्रियान्वित होने वाले निर्णयों की आधारशिला रखते हैं। इस सारे कामों के लिए ऊर्जा पैदा करने का काम भी स्वयं यहीं सम्पन्न हो जाता है। न किसी पावन हाउस की जरूरत पड़ती है और न बाहरी जनरेटर की।

इस विलक्षण अंग का, भगवान के बनाये इस सुपर-कम्प्यूटर का सार्थक उपयोग कैसे करें? यह बात संसार में कम ही लोग समझ पाते हैं अन्यथा ज्यादातर लोगों की सोच-समझ चालाकी-चतुरता उदरपूर्ति और वंश वृद्धि में ही खपती मिटती रहती है। सुविख्यात वैज्ञानिक एवं शरीर शास्त्री डॉ. स्टेनले इंगलबर्ट अपनी रचना “आर यू थिंकिंग राइट” में लिखते हैं− कि परमात्मा ने सबको समान क्षमताएँ दे रखी हैं। बात उनके उपयोग में लाने अथवा निरुपयोगी बेकार पड़े रहने की है।

सामान्य क्रम में मस्तिष्क के बांए हिस्से को प्रतिभा क्रिया कौशल एवं विलक्षण स्मरण शक्ति का केन्द्र माना जाता है और दांया हिस्सा, संवेदनशीलता एवं कलाकारिता का उद्गम स्रोत कहलाता है। यह तथ्य सभी को मालूम है कि बांए हिस्से से शरीर के दाहिने अर्धांग का संचालन होता है और दांए हिस्से से शरीर का बांया अर्धांग संचालित होता है। लेकिन इंगलबर्ट के अनुसार बात ऐसी नहीं है। कोई व्यक्ति जिसे हमने कभी देखा था, कोई चीज जिसे हम ढूँढ़ने की कोशिश कर रहे हैं कि कहाँ रखा है, इस समय हम मस्तिष्क के दांए हिस्से को अधिक एवं बांए हिस्से को कम काम में लाते हैं। यह ‘शिफ्ट टू राइट’ की क्रिया जगने की दशा के सोलह घण्टों में कार्पस कैलोजम के माध्यम से किसी विचारशील व्यक्ति में प्रति घण्टे पचास बार से भी ज्यादा होती है।

कैलीफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के डॉ. रोज़र स्पेदरी और उनके साथियों ने मिर्गी के कई रोगियों का सर्जरी से पहले और बाद में विश्लेषण करने पर पाया कि दिमाग के दोनों हिस्सों के क्रिया-कलापों का समन्वय अथवा विभान कर देने से विद्युत्विन्गारियों के क्रम में फर्क पड़ जाता है। जिन रोगियों के दोनों हिस्सों के मिलन बिन्दु को काट दिया जाता है, उनमें स्प्लिटब्रेन सिन्ड्रोम विकसित हो जाता है। ऐसे रोगियों में न सिर्फ दुहरा व्यक्तित्व विकसित हुआ, बल्कि महत्वपूर्ण विभूतियों का समायोजन हो पाने के अभाव में वे प्रतिभाशाली होते हुए भी उसका सदुपयोग कर सकने की स्थिति में नहीं रहे। इस तरह के अध्ययनों के कारण अब यूरो सर्जरी संबंधी चिन्तन में सिरे से फेर-बदल हुई है और शल्य क्रिया के रचनात्मक परिणाम सामने आने लगे हैं।

पश्चिमी देश हों अथवा अपना देश-हर कहीं समाज में बचपन से यही सिखाया जाता है कि दांए हाथ से ही काम करना चाहिए। काम कोई भी हो भले खाना खाना हो अथवा लिखना हो, या रोजमर्रा के क्रिया-कलापों का कोई सा पक्ष हो, दांए हाथ से ही करना चाहिए। जबकि बांए हाथ से भी काम करने को प्रोत्साहन देने की जरूरत है। ऐसे में मस्तिष्क का दांया हिस्सा मुख्य एवं कार्यकारी अंग की भूमिका अदा करता है और जब कभी बच्चों को यह बाधित किया जाता है बांया नहीं सिर्फ दांया हाथ इस्तेमाल करें तो मस्तिष्क के दोनों हिस्सों में असमंजस की स्थिति पैदा हो जाती है।

न्यूरोफिजियोलॉजिस्ट ने इसे ‘शिफ्ट टू लेफ्ट’ बताया है। डॉ. जूडीहेम्स के अनुसार-ऐसे बालक अपनी प्रतिभा का समुचित विकास नहीं कर पाते हैं। दुहरी मानसिकता का शिकार होकर उन्हें कुण्ठाओं और ग्रन्थियों से कसा-बँधा जीवन जीना पड़ता है। डॉ. हेम्स के शब्दों में मस्तिष्क के दांए भाग की अपेक्षा करते-करते हमने उसे मेजर से माइनर बना डाला।

अपने दिमाग को क्रिया-कौशल में प्रवीण और पारंगत बनाना अपने हाथ की बात है। मस्तिष्क विज्ञानियों के अनुसार जो किया जाना है, उसकी त्रिआयामी आकृति भावी रूपरेखा सबसे पहले मस्तिष्क में बनाने की कोशिश करनी चाहिए। यह कौशल-इंसान को जनम से मिला हुआ है और यह प्रक्रिया दिमाग के दाहिने हिस्से में ही सम्पन्न होती है। यदि किसी काम की पूर्व योजना तथा उसके क्या? क्यों? और कैसे? के विभिन्न बिन्दुओं पर चिंतन करके विचारों का एक प्रतिरूप दिमाग में बना लिया जाय तो काम पूरा होकर ही रहता है। ‘माई लाइफ एण्ड फिलॉसफी में इस तथ्य का जिक्र करते हुए आइन्स्टीन का कहना है कि वह इसी प्रणाली के आधार पर स्वयं को प्रतिभाशाली बना सके थे।

यहाँ तक कि जो विचार मन को परेशान कर रहे हैं, जिनका आपस में कोई तारतम्य नहीं बैठ पा रहा है। उन्हें यदि थोड़ा समय देकर कुछ समय के लिए भुला दिया जाए, तो कुछ क्षणों बाद वे दांए गोलार्ध में जाते हैं और पुनः चिन्तन करने पर सुलझे हुए रूप में सामने आ जाते हैं। यह प्रक्रिया लेटे-लेटे घूमते हुए अथवा ध्यान की स्थिति में भी संपन्न की जा सकती है।

मस्तिष्क दांए हिस्से को कैसे विकसित करे? इस सवाल के जबाब में मनोवैज्ञानिक कई तरह की युक्तियाँ सिखाते हैं लेकिन आर्थर कोयस्लर के अनुसार इसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त प्रक्रिया ध्यान है। क्योंकि इस अवस्था में के प्रथम चरण में ही कल्पनाओं और विचारों में समरसता आने लगती है। सामञ्जस्य स्थापित होने लगता है। शनैः शनैः जब आकृतियों का चिन्तन करके उन्हें आदर्शवादी चिन्तन के साथ जोड़ा है तो अगले क्रम में शान्त-प्रसन्न स्थिति प्राप्त होती है। शान्त और नीरवता की इस दशा में मस्तिष्क दांए हिस्से की क्षमताएँ आश्चर्यजनक रूप से जाग्रत होती है। बहुत सम्भव है मस्तिष्क की नीरव स्थिति के इसी आश्चर्य जनक प्रभाव को अनुभव कर अनन्त निर्विकल्प का सूत्र दिया है। आखिर वह स्वयं भी चमत्कारी प्रतिमा के स्वामी भी तो थे। क्यों न हम भी सही चिन्तन प्रणाली एवं ध्यान की पद्धति का अनुसरण कर दांए मस्तिष्क की सोई क्षमताओं को जगाएँ और प्रतिभाशाली बनें।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles