प्रतिभा के बीजाँकुर हर किसी में विद्यमान

July 1989

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सड़क पर मोटर के मोटर के पहिए दौड़ते दीखते हैं, पर इंजन का पर्दा उठाकर देखने पर प्रतीत होगा कि उसके भीतर तेल जलकर ऊर्जा उत्पन्न कर रहा है। उस उत्पादन में भी बैटरी और डायनुमो की अपनी भूमिका है। उसी शक्ति से अनेक कलपुर्जे अपने-अपने ढंग से घूमते और मोटर को सड़क पर गतिमान बनाते हैं। मानवी सत्ता के संबंध में भी यही बात है। उसकी प्रत्यक्ष हलचल, हाथ, पैर, सिर, धड़, आँख, मुँह आदि माध्यम से कार्य करती दीख पड़ती है। पर त्वचा का ढक्कन उठा कर देखने से कुछ और ही प्रतीत होता है। हृदय का रक्त संचार, माँस-पेशियों का आकुंचन-प्रकुंचन, श्वास-प्रश्वास आदि हरकतें भीतरी अवयव करते हैं और उनके घर्षण से ऊर्जा का वह उत्पादन होता है, जिसके माध्यम से भीतर अंग अवयव अपनी-अपनी निर्धारित क्रिया-प्रक्रिया सम्पन्न करते रहने में समर्थ होते हैं।

इन सब के भीतर भी एक गहरी परत है, जो मस्तिष्क के मध्यभाग-ब्रह्मरंध्र में विद्युत प्रवाह के उद्गम स्रोत का काम करती है। इस उद्गम का भी स्वतंत्र कर्तृत्व नहीं है। वह अखिल ब्रह्मांड में संव्याप्त महाऊर्जा से संबंध जोड़कर जितना आवश्यक है उतना ग्रहण करती है। अंग-अवयवों की बनावट तो रक्त, माँस, अस्थि, मज्जा आदि से विनिर्मित प्रतीत होती है, पर वस्तुतः इनके मध्यवर्ती अरबों खरबों जीवकोषों-ऊतकों की ऐसी क्रियाशीलता काम करती दिखाई देती है मानो किसी स्वतंत्र विश्व का उद्भव, अभिवर्धन परिवर्तन उनके बीच हो रहा हो। यों जीवकोष अपने स्थान पर व्यवस्थित रूप से विद्यमान दीखते हैं, पर वे तेजी से अपना काम करते हुए अपनी सीमित सत्ता को समाप्त कर लेते हैं ओर साथ ही एक और आश्चर्य प्रस्तुत करते हैं कि अपने समकक्ष उत्तराधिकारी कोष बनाकर अपने मरण से पूर्व स्थानापन्न कर देते हैं ताकि रिक्तता उत्पन्न न होने पावे। मृतक कोष कचरे के रूप में त्वचा छिद्रों द्वारा बाहर निकलते रहते हैं। साथ ही अन्न, जल वायु जैसे आवश्यक पोषण माध्यमों को ग्रहण करने से लेकर पचाने तक में लगे रहते हैं।

आकलन कर्त्ताओं ने हिसाब लगाया कि यदि शरीर के छोटे-बड़े अनेकानेक अंग-प्रत्यंगों की बिजली को एकत्रित किया जा सके तो उसकी शक्ति किसी विशालकाय बिजली घर से कम न होगी। इतनी आपूर्ति किये बिना जन्म से लेकर मरण पर्यन्त जो असंख्य क्षेत्रों की अनेक स्तर की गतिविधियाँ बिना रुके अनवरत रूप से काम करती रहती हैं, उनका इस प्रकार क्रियाशील रह सकना संभव न हुआ होता। औसत पाँच फुट छः इंच का यह कलेवर अपने भीतर इतनी शक्ति सामर्थ्य छिपाये हुए है जिसे यदि वैज्ञानिकों द्वारा स्थूल उपकरणों के माध्यम से उत्पन्न किया जाय तो उसके लिए मीलों लम्बे विशालकाय बिजली घर की आवश्यकता पड़ेगी। रासायनिक साधन-सामग्री जितनी मात्रा में जिस स्तर की जुटानी पड़ेगी, उसका लेखा जोखा लिया जाय तो उसे भी बन्दरगाहों पर बने विशालकाय गोदामों से कम आकार और कम मूल्य का न आँका जायेगा। इसीलिए इसे विधाता की अनुपम कृति और उपलब्ध कर्ता पर बरसाई गई असीम अनुकम्पा कहा जाता है।

साधारणतया इस विद्युत प्रवाह का एक बहुत छोटा अंश ही काम में आता है। उतना जिससे हलकी-फुलकी दिनचर्या चलती रहे। आजीविका, उपार्जन, परिपालन, निद्रा, जाग्रति तथा और छिटपुट काम भी इसके द्वारा सम्पन्न हो पात हैं। क्रियाशील उतना ही अंश रहता है, जो काम में आता रहता है। प्रतीत यह होता है कि मानवी चेतना मात्र उतनी ही मात्रा में विद्यमान है जिससे निर्वाह का साधारण उपक्रम किसी प्रकार चलता रहे। पर वस्तुतः बात इतनी छोटी है नहीं। मानवी विद्युत भण्डार की असीमित उपयोगिता और महत्ता-क्षमता का यदि आकलन किया जा सके तो प्रतीत होगा कि वह इतनी अधिक है कि जिसके सहारे अपना और दूसरों का इतना अधिक हित साधन हो सकता है जितना कि कभी कभी मनुष्य कृत ऐतिहासिक चमत्कारों की बात पढ़ कर हतप्रभ हो जाना पड़ता है। प्रचलित भाषा में इन्हें दैवी वरदान के नाम से पुकारा जाता है। ऋद्धि-सिद्धियों का भंडार कहा जाता है। अथवा विभूतियों के नाम से उनकी चर्चा होती रहती है। ऐसे संदर्भ प्रायः सही ही होते है तब मानना पड़ता है कि मनुष्य वस्तुतः असीम शक्तियों का भंडार हैं। इसी बात को इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि वह तप के बल पर देवताओं से उच्चस्तरीय विभूति-वरदान उपलब्ध कर सकता हैं किन्तु वास्तविक इतनी ही है कि जो कुछ उभरता है, भीतर से ही उफन कर ऊपर आया हुआ होता है। नदियों और निर्झरों के उद्गम किसी भूखण्ड से ही उद्भूत होते हैं। पेड़-पौधे यों जमीन से ऊपर दीख पड़ते हैं, पर सच बात यह है कि उनकी जड़े जमीन के भीतर भी गहराई तक जमी होती हैं। सड़क पर-दौड़ती मोटर को मात्र पहियों की ही करामात नहीं मान लेना चाहिए, वरन अनुमान यह भी लगाना चाहिए कि पर्दे की ओट में शक्ति का उत्पादन और भण्डारण करने में कोई विशेष व्यवस्था काम कर रही है।

जिन्हें पेट-प्रजनन की ही गरज है, जो लोभ, मोह और अहंकार से ऊँचे उठ सकने की आवश्यकता ही नहीं समझते, उनके संबंध में तो कुछ कहा ही क्या जाय? किन्तु जिन्हें कोई महत्वपूर्ण लक्ष्य प्राप्त करना है उनके लिए एक ही उपाय है कि प्राप्त शक्तियों को जाग्रत करके उन्हें उस स्तर का अभ्यास करायें जिसके बल-बूते बड़े काम किये जाते और बड़े लाभ अर्जित किये जाते है। दूसरों की सहायता की बात उतनी अधिक नहीं सोचनी चाहिए, जितनी कि मनोकामनाओं से ग्रसित लोग आसमान से उपलब्धियाँ उतरने की बात सोचते और व्यर्थ की अपेक्षा करते रहते हैं। अपना पुरुषार्थ जगे तो यह स्वाभाविक है कि खिलते हुए फूल को देख कर उस पर तितलियाँ मँडरायें और भौंरे यश गीत गाने की झड़ी लगायें। सफलता अर्जित करने वालों की जय जयकार करने के लिए अपरिचित भी भीड़ में सम्मिलित हो जाते हैं। पर जब कठिन समय सामने आता है तो कोई विरले ही पास फटकते हैं। हारे हुए को तो व्यंग-उपहास सुनने और मूर्ख कहलाने के अतिरिक्त स्वजनों तक से और कुछ नहीं मिलता।

अध्यात्म दर्शन का सार निष्कर्ष इतना भर है कि अपने को जानो “आत्मानं विद्धि आत्मावाद के शताव्य” अपने को विकसित करो और ऐसी राह पर चलो जो कहीं अपने लक्ष्य तक पहुँचती हो। यह शिक्षा अपने आपके लिए है। इसे स्वीकार-अंगीकार करने के उपरान्त ही वह प्रयोजन सधता है जिसमें दूसरों से कुछ समर्थन, सहयोग, अनुदान पाने की आशा की जाय। देवता भी तपस्वियों को ही वरदान देते हैं, बाकी तो फूल प्रसाद के दोने लिए देवस्थानों के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते रहते हैं। भिखारी कितना कुछ कमा, लेता है, इसे सभी जानते हैं। उन्हें जीवन भर अभावों की, उपेक्षा की शिकायत ही बनी रहती है। श्रीमन्तों की मुट्ठियाँ भी उनके लिए सिकुड़ी हुई ही रहती हैं।

वस्तुस्थिति समझने के उपरान्त उसी निमित्त उन्मुख होना चाहिए कि अपने को अधिक प्रामाणिक और अधिक प्रखर बनाने में जुट पड़ा जाय। मनौती मनाते रहने की अपेक्षा यही अवलम्बन सही और सच्चा है। इस हेतु कुछ कदम बढ़ाने से पूर्व यह अनुमान लगा लेना चाहिए कि अपने भीतर सामर्थ्य का अपरिमित भण्डार भरा पड़ा है। स्रष्टा ने मनुष्य को असाधारण सफलताएँ उपलब्ध कर सकने की संभावनाओं से भरा पूरा बनाया है। आवश्यकता मात्रा इतनी है कि अवरोध की झीनी दीवार को गिराने के लिए साहस जुटाया जाय। अण्डे में जब चूजा समर्थ हो जाता है तो वह भीतर से जोर लगाता है और छिलके को तोड़कर बाहर आता है। इसके बाद तो उसकी माता ही सहायता करने लगती है। प्रसव वेदना का कारण एक ही है कि गर्भस्थ शिशु बाहर निकलने के लिए अपनी शक्ति प्रयोग करता है। यदि भ्रूण अति दुर्बल और मृत, मूर्छित हो तो प्रसव की संभावना अत्यंत दुष्कर हो जाती है।

गर्मी संघर्ष से उत्पन्न होती है। हलचल और प्रगति भी उसी के सहारे बन पड़ती है। प्रतिभा परिष्कार के लिए भी यही करना पड़ता है। अखाड़ों में कड़ी मेहनत किये बिना कोई पहलवान कैसे बने? सैनिकों को अनेक प्रकार के कठिन अभ्यास आये दिन करने पड़ते हैं। नदियों का प्रवाह अनेक चट्टानों को उलटता हुआ आगे बढ़ता है। मोर्चा जीतने के लिए रण क्षेत्र में अपने कौशल का परिचय देना होता है।

तपश्चर्या का तात्पर्य अपने आप को जानबूझकर कठिनाइयों से भरी तितीक्षा में लगाना है। इससे पौरुष जगता और कुसंस्कारों से पीछा छुड़ाने का अवसर मिलता है। प्रतिभा को परिष्कृत करने का प्रथम सोपान यही है कि अपने व्यक्तित्व को घेरी हुई अवांछनियताओं से आक्रोशपूर्वक गुंथ पड़ा जाय, जो उथली विचारणा के बलबूते सहज ही अपना कब्जा छोड़ती नहीं। उनसे संघर्ष करना पड़ता है। विद्युत हो या गर्मी, रगड़ से ही पैदा होती है। अग्नि का प्रकटीकरण भी इसी प्रकार होता है। जीवन का आरंभ भी घर्षण के साथ ही आरंभ होता है। प्रतिभा परिष्कार की भी यह आरंभिक शर्त है। इस हेतु आलस्य और प्रमाद से सर्व प्रथम लड़ना पड़ता है। उसमें स्थिति पर चुस्त-दुरुस्त रहने की जागरूकता की अवधारणा करनी पड़ती है। निराशा, अनुत्साह, चिन्ता, खिन्नता जैसे मानसिक दुर्गुणों के साथ तब तक संघर्ष करना पड़ता है। जब तक कि उनके स्थान पर आशा, प्रसन्नता, उमंग, निश्चिन्तता, निर्भयता और शिष्टता जैसी सत्प्रवृत्तियाँ अपने आपको प्रतिष्ठित न कर लें। यह नित्य ध्यान रखने और निरन्तर अभ्यास करने का विषय है। जिसे बिना थके-बिना हारे अनवरत रूप से क्रियान्वित करते रहना चाहिए।

प्रतिभा त्रिवेणी संगम की तरह है। जिसमें शारीरिक ओजस् मानसिक तेजस् और अंतराल में समाहित वर्चस् को जगाना, उभारना और प्रखरता सम्पन्न बनाने के स्तर तक उठाना पड़ता है। संयम सध सके तो स्वस्थ रहने की गारंटी मिल जाती है। उपयुक्त काम का चुनाव करते हुए उसमें अभिरुचि, एकाग्रता और तत्परता का नियोजन किये रखा जाय तो साधारण काम काज भी इस अभ्यास के सहारे अधिकाधिक बुद्धिमता और कुशलता प्रदान करता चलता है। इसी आधार पर शारीरिक ओजस् और मानसिक तेजस् की उतनी मात्रा उपलब्ध हो सकती है। जिस पर संतोष और गर्व अनुभव किया जा सकें।

सदाशयता पर सघन श्रद्धा के होने का नाम ही वर्चस् है। आदर्शवादिता इसी अवलम्बन को अपनाती है और उत्कृष्टता को इससे कम में चैन नहीं पड़ता। वर्चस् जिसके भी अन्तराल में उभरता है उसमें शालीनता की, सदाशयता की, सज्जनता की कमी नहीं रहती। इस दिव्यता का जितना अंश जिसके हाथ लग जाता है वह उतने ही अंश में धन्य हो जाता है। आत्म साधना की यही तीन उपलब्धियाँ हैं। जिनने ओजस् तेजस् और वर्चस् की साधना की, समझना चाहिए कि वह सच्चे अर्थों में तपस्वी और मनस्वी हो गया। मानवी गरिमा के साथ जुड़ी हुई सिद्धियाँ और विभूतियाँ उसके पैरों पर लौटेगी।

उच्चस्तरीय प्रतिभा ही “ब्रह्मतेजस्” है उसी को “ब्रह्मवर्चस” भी कहते हैं। उसे जिसने जिस अनुपात में अर्जित कर लिया है वह शरीर सीमित होते हुए भी अपनी तुलनात्मक प्रखरता के सहारे ऐसे पुण्य प्रयोजन सम्पन्न करने में समर्थ रहा है कि जिसे अनुकरणीय भी माना जाय और अभिनन्दनीय भी। भगवान बुद्ध का उदाहरण प्रत्यक्ष है। उनने अपने जीवन काल में एक लाख भिक्षु-भिक्षुणियाँ परिव्राजक बनाकर विश्व के कोने-कोने में धर्म चक्र प्रवर्तन के लिए भेजे थे और वे सभी एक से एक बढ़ी चढ़ी सफलता करने में सफल हुए थे। अशोक और हर्षवर्धन ने उनके प्रतिबंध से प्रभावित होकर अपना विपुल-वैभव उनके निर्देशों पर न्यौछावर कर दिया था। आम्बपाली और अंगुलिमाल जैसों ने निकृष्टता का परित्याग कर उत्कृष्टता स्तर का कायाकल्प कर लिया। एकाकी संकल्प ने असंख्यों को अनुप्राणित करके उन्हें दिशा उलट देने के लिए बाधित कर दिया था। मनस्वी गान्धी का उदाहरण भी लगभग इसी से मिलता जुलता हैं नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना करने से लेकर उसके संचालन तक की जिम्मेदारी का निर्वाह चाणक्य की प्रतिभा ही करती रही थी। चुम्बक अपने समकक्षी को खोजता-जुटाता तो अनायास ही रहता है।

महामना मालवीय जी आरंभ में सामान्य वकील और सम्पादक भर थे, पर जब उन्होंने हिन्दू विश्व विद्यालय के निर्माण का संकल्प लिया तो प्रायः पचास करोड़ की सम्पत्ति उन लोगों से जुटाई जिनके साथ उनकी कोई पूर्व जान पहचान तक नहीं थी।

अर्जुन ने पाताल से गंगा उभार कर भीष्म मो ताजा जल पिलाया था भीष्म भी कुछ कम न थे। शर शय्या पर पड़े हुए असह्य वेदना सहते हुए भी उनने मौत से कह दिया कि अभी मरने की फुरसत नहीं है। यह लौट गई और तब आई जब उत्तरायण मुहूर्त में उनने चलने का मुहूर्त निश्चिततः किया था। मनस्वी के आगे नियति भी पानी भरती है। सावित्री ने यमराज के हाथ से अपने पति का मुर्दा वापस लौटा लिया था। दमयन्ती के नेत्र तेज से व्याध का जल जाना प्रसिद्ध है। सगर पुत्रों की गौतम ऋषि के शाप से क्या दुर्गति हुई थी, इतिहास प्रसिद्ध हैं

राणा साँगा अस्सी गहरे घावों से आहत होते हुए भी मृत्यु पर्यन्त शत्रुओं से लड़ते रहे थे वाल्टेयर ने अस्पताल की चारपाई पर पड़े-पड़े ही इतने महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे थे-कि उनके पुरुषार्थ को देखते हुए आश्चर्य चकित हुए बिना रहा नहीं जाताँ संसार के इतिहास में ऐसे अनेकों करोड़पतियों का उल्लेख है जिनकी निजी योग्यता और पूँजी नहीं के बराबर थी। उनने अदम्य उत्साह और सूझबूझ के सहारे धन कुबेर बनने का सुयोग प्राप्त किया। बाटा, टाटा, बिड़ला से लेकर रॉकफेलर फोर्ड तक की बड़ी नामावली इसी पंक्ति में खड़ी दीख पड़ती हैं।

विनोबा के भुदान आन्दोलन की सफलता, पटेल द्वारा बागी रियासतों को भी भारत में विलय के लिए सहमत कर लिया जाना-ऐसा कार्य है जिसमें उनके महान व्यक्तित्व की झलक झाँकी मिलती है। बारडोली सत्याग्रह में भी वे अपना कमाल दिखा चुके थे। जापान के गान्धी कागाबा ने एक गँदे मुहल्ले से सेवा कार्य आरंभ करते हुए अन्ततः जापान के पतितोद्धारक के रूप में अद्भुत प्रतिष्ठा अर्जित की थी। बिहार का हजारी किसान अपनी लगन के बल पर उस क्षेत्र में एक हजार आम्र उद्यान लगाने में सफल हुआ था।

ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं। वे भूतकाल में भी असंख्यों थे और अब भी जहाँ-तहाँ एक से एक बढ़ी-चढ़ी सफलताएँ अर्जित कर रहे हैं। इसमें व्यक्ति विशेष का नहीं वरन् उसी परिष्कृत प्रतिभा का ही चमत्कार दृष्टिगोचर होता है। यह हर किसी के लिए संभव है। आवश्यकता इतनी भर है कि लगन सच्ची हो और उसके लिए योजनाबद्ध रूप से पुरुषार्थ करने में कुछ उठा न रखा जाय।


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