अनुपलब्धि की शिकायत न करनी पड़ेगी

July 1989

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प्रतिभा किसी पर आसमान से नहीं दमकती। उसे पुरुषार्थ पूर्वक मनोबल के सहारे अर्जित करना पड़ता है। अब तक के प्रतिभाशालियों के प्रगति क्रम पर दृष्टिपात करने से एक ही निष्कर्ष निकलता है कि अपनाये गये काम में उल्लास भरी उमंगों का उभार उमगता रहा मानसिक एकाग्रता के साथ तन्मयता जुटाई गयी और पुरुषार्थ को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर अवरोधों से जूझा गया। प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदल कर अपनी प्रखरता का परिचय दिया गया। सफलतायें हमेशा इसी आधार पर मिलती हैं। सफलता मिलने पर हौंसले बुलंद होते हैं। दूने उत्साह से काम करने को जी करता है। इस प्रयास में प्रतिभा विकसित भी होती है, परिपक्व भी बनती है। उत्कर्ष यही है। अभ्युदय का श्रेय सौभाग्य इसी आधार पर आँका जाता है। इक्कीसवीं सदी प्रतिभावानों की क्रीड़ा स्थली होगी। उन्हीं के द्वारा वह कर दिखाया जायगा जो असंभव नहीं तो कष्टसाध्य तो कहा ही जाता रहा है

हवा का रुख पीठ पीछे हो तो गति में अनायास ही तेजी आ जाती हैं। वर्षा के दिनों में बोया गया बीज सहज ही अंकुरित होता है और उस अंकुर को पौधे के रूप में लहलहाते देर नहीं लगती। बसन्त में मादाएँ गर्भधारण का कीर्तिमान बनाती हैं।

किशोरावस्था बीतते-बीतते जोड़ा बनाने की उमंग अनायास ही उभरने लगती है। वातावरण की अनुकूलता में उस प्रकार के प्रयास गति पकड़ते हैं और प्रायः सफल भी होते है।

दिव्यदर्शी अंतःस्फुरणा के आधार पर यह अनुभव करते हैं कि समग्र के परिवर्तन की ठीक यही बेला ह। नवयुग के अरुणोदय में अब अधिक विलम्ब नहीं है। जनमानस वर्तमान अवांछनियताओं से खीज और ऊब उठा है। उसकी आकुलता-चतुरता के साथ वह दिशा अपना रही है, जिस पर चलने से मुक्ति मिल सके और चैन की साँस लेने का अवसर मिल सके। साथ ही विश्व वातावरण ने भी ऐसा ही निश्चय बनाया है कि अनौचित्य को उलटकर औचित्य को प्रतिष्ठित करने में अब अनावश्यक विलम्ब न किया जाय।

निकटतम भविष्य की कुछ सुनिश्चित संभावनाएँ ऐसी हैं जिनमें हाथ डालने वाले सफल होकर ही रहेंगे। अर्जुन की तरह नियति द्वारा पहले से ही मारे गये विपक्षियों-अनीति के पक्षधर कौरवों का हनन करके अनायास ही श्रेय और प्रेय का दुहरा लाभ प्राप्त करेंगे। इसी माहौल में उन्हें प्रतिभा परिवर्धन का यह लाभ भी मिल जायगा जिसके आधार पर मूर्धन्य युगशिल्पियों में गणना हो सके।

अगले दिनों प्रचलित दुष्प्रवृत्तियों में से अधिकाँश अपनी मौत उसी प्रकार मरेंगी जिस प्रकार शीतऋतु में मक्खी-मच्छरों का प्रकृति परम्परा के अनुसार अन्त हो जाता है। अन्ध-विश्वास, मूढ़मान्यताएं, रूढ़ियों, अन्ध परम्पराएँ आदि दूरदर्शी विवेकशीलता का उषाकाल प्रकट होते ही उल्लू चमगादड़ों की तरह अपने कोंतरों में जा घुसेंगे। संग्रही और अपव्ययी जिस प्रकार अपना दर्प दिखाते हैं, उसके लिए तब कोई गुंजाइश न रहेगी। संग्रही, लालची और आलसी तब भाग्यवान होने की दुहाई न दे सकेंगे। एक और भी बड़ी बात यह होगी कि चिरकाल से उपेक्षित नारी−वर्ग न केवल अपनी गरिमा को उपलब्ध करेगा, वरन् उसे नर का मार्गदर्शन, नेतृत्व करने का गौरव भी मिलेगा। पिसे हुए, पिछड़े हुए ग्राम उभरेंगे और उन सभी सुविधाओं से सम्पन्न होंगे, जिनके लिए उस क्षेत्र के निवासियों को आज शहरों की ओर भागते देखा जाता है। समता और एकता के मार्ग में अड़े हुए अवरोध एक-एक करके स्वयमेव हटेंगे और औचित्य के विकसित होने का मार्ग साफ करते जायेंगे। सम्मान वैभव को नहीं, उस वर्चस्व को मिलेगा जो आदर्शों के लिए उत्सर्ग करने का साहस संजोया है। पाखण्ड का कुचक्र पिछले दिनों कितना ही सघन क्यों न रहा हो, अगले दिनों उसके लम्बे समय तक पैर टिकाये रहने की कोई संभावना नहीं है।

इन तथ्यों के प्रकटीकरण पर विश्वास करते हुए जो तदनुरूप अपनी गतिविधियों में परिवर्तन करेंगे, वे हार दृष्टि से नफे ही नफे में रहेंगे। आज का दृष्टिकोण जिसे घाटा बताता है, उपहासास्पद बताता है, कल वैसी स्थिति न रहेगी। लोग वास्तविकता को अनुभव करेंगे और समय रहते अपनी भ्रान्त-मान्यताओं को बदल लेंगे।

जीवन्तों और जाग्रतों को इन दिनों युगचेतना अनुप्राणित किये बिना रह नहीं सकती। उनमें ढर्रे का जीवन जीते रहने से ऊब उत्पन्न करेगी और अन्तराल में ऐसी हलचलों का समुद्र मंथन खड़ा करेगी जिसके दबाव में वे ऐसा कुछ करने को आगे आवेंगे, जो समय को बदलने के लिए अभीष्ट एवं आवश्यक है। साँप नियत समय पर केंचुल बदलता है। अब ठीक यही समय है कि प्राणवान, प्रज्ञावान, अपना केंचुल बदल डालें। अपना समग्र पुरुषार्थ सँजोकर दृष्टिकोण का कायाकल्प कर डालें।

अब तक जो मान्यताएं दृष्टिकोण में समाई रहीं, आदतों में सम्मिलित रहकर क्रिया-कलापों का निर्धारण करती रहीं। उनको इन दिनों नये सिरे से परखें नई कसौटी पर कसें और देखें कि समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, बहादुरी का कितना पुट उनमें रहा है। जो खोट दीख पड़े, उन्हें बदल लेने के लिए आज का समय ही सर्वोत्तम मुहूर्त है। आदर्शों को प्रमुखता देनी है। यह न सोचे कि संचित आदतें किस ओर घसीटती हैं और तथा कथित सगे संबंधी क्या परामर्श देते हैं? प्रहलाद, विभीषण, भरत आदि को कुटुम्बियों का नहीं आदर्शों का अनुशासन अपनाना पड़ा था। उच्च स्तरीय साहस के प्रकटीकरण का वही केन्द्र बिन्दु है कि जीवन को श्रेय साधन से ओतप्रोत करके दिखाया जायं यह प्रयोजन संयम और अनुशासन अपनाये जाने की अपेक्षा करता है। प्रचलन तो ढलान की ओर लुढ़कने का है। पानी नीचे की ओर बहता है। ढेला ऊपर से नीचे गिरता है। उत्कृष्टता की ऊँचाई तक उछलने के लिए शूरवीरों जैसा साहस दिखाना पड़ता है। इस प्रदर्शन को अभी टाल दिया गया तो संभव है वैसा अवसर फिर कभी आवे ही नहीं।

मेघ मंडल जब घटाटोप बन कर उमड़ते-गरजते हैं, तो कृषि कर्मियों के मन आशा उत्साह से भर कर बल्लियों उछलने लगते हैं। इन्द्र बज्र सौ-सौ बार झुककर उनकी सलामी देता है। अँधेरा आकाश प्रकाश से भर जाता है। मोर नाचते और पपीहे कूकते हैं। हरीतिमा उनकी प्रतीक्षा में मखमली चादर ओढ़े मुस्कराती पड़ी रहती है। यह मनुहार मेघों की ही क्यों? खोजने पर पता चलता है कि वे संचित जलराशि समेत अपने आपको अति विनम्र होकर धरती पर बिखेर देते हैं।

प्रतिभा परिवर्धन के उद्दण्ड उपाय तो अनेकों हैं। उन्हें आतंकवादी-अनाचारी तक अपनाते और प्रेत पिशाचों की तरह अनेकों को भयभीत कर देते हैं। किन्तु स्थिरता और सराहना उसी प्रतिभा के साथ जुड़ी रहती है जो शालीनता अपनाती और आदर्शों के प्रति अपने वैभव का उत्सर्ग करने से चूकती नहीं। ऐसे लोग शबरी, गिलहरी एवं केवट स्तर के ही क्यों न हों, अपने को अजर अमर बना लेते हैं और अनुकरण के लिए अनेकानेकों को आकर्षित करते रहते हैं। उनकी चुम्बकीय विलक्षणता न जाने क्या-क्या कहाँ से बटोर लाती है और तिल को ताड़ बना कर खड़ा कर देती है।

प्रतिभा परिष्कार का अजस्र लाभ उठाने के लिए इन दिनों स्वर्ण सुयोग आया है। युग संधि की बेला में जीवट वाले प्राणवानों की आवश्यकता अनुभव की गई है। अवांछनियताओं से ऐसे ही जूझते हैं और हनुमान-अंगद जैसे अनगढ़ होते हुए भी लंका को धराशायी बनाने के राम राज्य का सतयुगी वातावरण विनिर्मित करने के दोनों मोर्चों पर अपनी समर्थ क्षमता का परिचय देते है। ऐसी परीक्षा की घड़ियाँ सदा नहीं आती। जो समय को पहचानते और बिना अवसर चूके अपने साहस का परिचय देते हैं, उन्हें प्रतिभा का धनी बनने में किसी अतिरिक्त अनुष्ठान करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। संयम और साहस का मिलन ही वरिष्ठता के लक्ष्य तक पहुँचा देता है। पुण्य और परमार्थ का राज-मार्ग ऐसा है, जिसे अपनाने पर वरिष्ठता का लक्ष्य हर किसी को मिल सकता है। आत्म साधना और लोक साधना दोनों एक ही तथ्य के दो पहलू हैं। जहाँ एक को सही रीति से अपनाया जायेगा, वहाँ दूसरा उसके साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ जायेगा।

लक्ष्य और उपक्रम निर्धारित कर लेने के उपरान्त यह निर्णय करना अति-सरल पड़ता है कि कौन अपनी मनःस्थिति और परिस्थिति के अनुसार संपर्क परिकर की आवश्यकताओं को देखते हुए किन क्रियाकलापों में हाथ डाले और प्रगति का एक एक चरण उठाते हुए अन्ततः बड़े से बड़े स्तर का क्या कुछ कर गुजरे? यहाँ पर भी ध्यान रखने योग्य यह है कि व्यक्ति अपन प्रभामण्डल-संपर्क क्षेत्र के साथ जुड़ कर ही पूर्ण बनता है। अकेला चना तो कभी भी भाड़ फोड़ सकने में समर्थ नहीं होता। अपने जैसे विचारों के अनेक घनिष्ठों को साथ लेना और सहयोगपूर्वक बड़े कदम उठाना ही वह रीति नीति है, जिसके सहारे अपनी और साथियों के प्रतिभा समुच्चय में साथ-साथ चार चाँद लगते हैं।

समस्याओं और संकटों के जाल जंजाल में यह खोजने की आवश्यकता नहीं है कि उलझनों में से किसको प्रमुख मानें और उनको सुलझाने का सिलसिला कहाँ से आरंभ करें। स्पष्ट है कि न यहाँ साधनों की कमी है और न परिस्थितियों की विपन्नता। विपत्ति मात्र एक है विचारणाओं की विकृति। चिन्तन से चरित्र प्रभावित होता है और चरित्र के अनुरूप व्यवहार बन पड़ता है। विकृति इसी क्षेत्र घुस पड़े तो रंगीन चश्मा पहनने पर सब कुछ उसी रंग का दीख पड़ने की तरह कुछ का कुछ समझ पड़ने की स्थिति बन जाती है। तथ्य को समझते हुए इसी निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि अपनी और अपने परिकर की मनःस्थिति को सुधारा जा सके तो प्रतिकूलताओं को अनुकूलताओं में बदलने में देर न लगे। विचार क्रान्ति के अंचल में नैतिक क्रान्ति बौद्धिक क्रान्ति और सामाजिक क्रान्ति तीनों ही महान परिवर्तन समाहित हैं। यदि वैसा कुछ बन पड़े तो समझना चाहिए कि विपन्नताओं के उन्मूलन का राज मार्ग मिल गया और वह सब कुछ हाथ लग गया जिसकी कि इन दिनों जन-जन को आवश्यकता है।

सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय परब्रह्म परमात्मा प्रतिभाओं का पुँज है। उसके साथ संबंध जोड़ने पर संकीर्ण स्वार्थपरता में तो कटौती करनी पड़ती है, पर साथ ही यह भी तथ्य है कि अग्नि के साथ संबंध जोड़ने वाला ईंधन का ढेर ज्योतिर्मय ज्वाल-माल की तरह धधकने लगता है। उत्कृष्टता के साथ जुड़ने वालों में से किसी को भी यह नहीं कहना पड़ता कि उसे प्रतिभा परिकर के भाण्डागार में से किसी प्रकार की कुछ कम उपलब्धि ही हस्तगत हुई।

दिशा निर्धारित कर लेने पर मार्ग दर्शक तो पग पग पर मिल जाते हैं। कोई न भी मिले तो अपनी ही अन्तरात्मा उसकी आवश्यकता की पूर्ति कर देती है।

प्रतिभा का धनी न कभी हारता है और न कभी अभावग्रस्त रहने की शिकायत करता है। उसे किसी पर दोषारोपण करने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती कि उन्हें अमुक सहयोग नहीं दिया या प्रगति पथ को रोके रहने वाला अवरोध अटकाया। प्रतिभावान ही तो शालीनता और प्रगतिशीलता का अधिष्ठाता सिद्धपुरुष होता है।


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