महाकाल की संकल्पित संभावना

July 1989

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मनुष्य की अपनी विचारणा, क्षमता, लगन, हिम्मत, उमंग और पुरुषार्थपरायणता की महत्ता भी कम नहीं। इन मानसिक विभूतियों के जुड़ जाने पर उसकी सामान्य दीखने वाली क्रिया प्रक्रिया भी असामान्य स्तर की बन जाती है। और दैवी विभूतियों की पटतर करने लगती है। फिर भी उनकी समय सीमा निर्धारित है और सफलता का भी एक मापदण्ड है। किन्तु यदि अदृश्य प्रगति प्रवाह की इच्छाशक्ति उसके साथ जुड़ जाय तो परिवर्तन इतनी तेजी से होता है कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। सहस्राब्दियों में बन पड़ने वाला काम दशाब्दियों में वर्षों महीनों में सम्पन्न होने लगता है। यह अदृश्य उपक्रम अनायास ही नहीं किसी विशेष योजना एवं प्रेरणा के अंतर्गत होता है। उसके पीछे अव्यवस्था को हटाकर व्यवस्था बनाने का लक्ष्य सन्निहित रहता है।

आँधी तूफान आते हैं तो उड़ती हुई धूल के साथ मुद्दतों का जमा कचरा कहीं से कहीं पहुँच जाता है। खंदक भर जाते हैं और भूमि समतल बनने में इतनी फुर्ती दिखाती है, मानों जो करना है उसे कुछ ही क्षणों में कर गुजरे। रेगिस्तानी टीले पर्वत आज यहाँ, तो कल वहाँ उड़कर पहुँचते प्रतीत होते हैं। घटाटोप बरसते हैं, तो सुविस्तृत थल क्षेत्र जल ही से आपूरित दीख पड़ता है। अस्तव्यस्त झोपड़ों का पता भी नहीं चलता और बूढ़े वृक्ष तेजी से धराशायी होते चले जाते हैं और भी न जाने क्या क्या अजूबे सामने आ खड़े होते हैं, जिनकी कुछ समय पहले तक कल्पना भी न थी। मनुष्य की समाज चेतना जब कभी कुछ विशेष आवश्यकता अनुभव करती है और उसके लिए व्यग्र आतुर होती हे, तो देखा गया है कि नियति भी उसके औचित्य को ध्यान में रखते हुए अपना रुख बदल लेती है और ऐसा कुछ विनिर्मित करने में सहायता करती है, जिसका कि औचित्य समर्थन करता है।

विज्ञान की उमंग उभरी तो दो तीन शताब्दियों में ही रेल, मोटर, जलयान, वायुयान बिजली आदि ने धरती के कोने कोने में अपनी प्रभुता का परिचय देना आरंभ कर दिया। अन्तरिक्ष में उपग्रह चक्कर काटने लगे। रेडियो, टेली-विजन एक अच्छा खासा अजूबा है। राकेटों ने इतनी गति पकड़ ली है कि वे धरती के एक कोने से दूसरे पर जा पहुंचते हैं। रोबोटों ने मानवी श्रम का स्थानापन्न होने की घोषणा की है और कम्प्यूटर मानव मस्तिष्क की उपयोगिता को मुँह बिचका कर चिढ़ाने लगे हैं।

अब वर्तमान पर दृष्टि डालें तो प्रतीत होता हे कि इक्कीसवीं सदी की शुभ संभावनाएँ हरी दूब की तरह अपनी उगती पत्तियों में दीख पड़ने के स्तर तक पहुँच रही है। प्रतिभा परिष्कार की सामयिक आवश्यकता लोगों द्वारा स्वेच्छापूर्वक अपनाये जाने में आनाकानी करने पर भी बसन्त ऋतु के पुष्प पल्लवों की तरह अनायास ही अपने वैभव का परिचय देती दीखती हैं। नस नस में भरी हुई कृपणता और लोभ लिप्सा पर न जाने कौन ऐसा अंकुश लग रहा है जैसे कि उन्नत हाथी पर कुशल महावतों द्वारा काबू पाया जाता है। भागीरथ की, सप्तऋषियों की बुद्ध, शंकर, दयानन्द, विवेकानन्द, गाँधी, विनोबा, की कथाएँ अब कभी प्रत्यक्ष बनकर सामने आ सकेंगी या नहीं, इस शंका आशंका से ग्रसित होते हुए भी नियति की परिवर्तन प्रत्यावर्तन की क्षमता का समापन हो जाने जैसा विश्वास नहीं किया जा सकता। महाकाल की हुँकारें जो दिशाओं को प्रतिध्वनित कर रही हैं, उन्हें अनसुना कैसे किया जाय? युग चेतना के प्रभात पर्व पर उदीयमान सविता के आलोक को किस प्रकार भुलाया जाय? युग अवतरण की संभावना गंगावतरण की तरह अद्भुत तो है, पर साथ ही इस तथ्य से भी इनकार कैसे किया जाय कि जो कभी चरितार्थ हो चुका है, वह फिर अपनी पुनरावृत्ति करने में असमर्थ ही रह जायगा? युग संधि की वर्तमान बेला ऐसी ही उथल पुथल से भरी हुई है। इसमें ज्वार भाटों के उतार चढ़ाव अपने कीर्तिमान स्थापित करने के लिए आतुर हो रहे हैं। इस पर अविश्वासियों को भी विश्वास करने हेतु बाधित होना पड़ेगा। प्रत्यक्ष को असंभव मानते रहने की हठ धर्मिता कितने दिन टिक सकेगी?

अभी दो माह पूर्व के घटनाक्रम पर गौर किया जाय। गाँवों में सत्ता का विकेंद्रीकरण महात्मा गाँधी के आरंभिक दिनों का सपना था। उस पर चर्चाएँ होती-परियोजनाएँ भी समय-समय पर बनती रही हैं। पर यह किसी को भी भरोसा न था कि 1989 के कुछ महीने ही इस संदर्भ में क्रांतिकारी परिवर्तन इतनी सरलता से कर गुजरेंगे। राज्य परिवर्तन खून खराबी के बिना आक्रोश विद्रोह उभरे बिना कहाँ होते हैं? पर समर्थ हाथों से छिनकर सत्ता निर्धनों के -पिछड़ों के हाथों इतनी आसानी से चली जायेगी? यह बात गले के नीचे उतरती नहीं। फिर भी जो प्रत्यक्ष है, उससे इन्कार कैसे किया जाय?

पिछड़ों का सत्ता के स्तर तक पहुँचना असाधारण रूप से समय साध्य और कष्ट साध्य माना जाता है पर पिछड़ों को अशिक्षितों को दमित महिलाओं को इतना आरक्षण मिलना के उन्हीं का बहुमत बन पड़ें इस तथ्य के सही होते हुए भी समझ यह स्वीकार नहीं करती कि यह सब इतनी जल्दी और इतनी सरलता के साथ सम्पन्न हो जायेगा? इसे मानवी अन्तराल का उफान या महाकाल का विधान कुछ भी कहा जाय, तो असंभव लगते हुए भी संभव होने जा रहा है।

इस एक उफान के बाद परिवर्तन की घुड़दौड़ समाप्त हो जायगी, ऐसा कुछ किसी को भी नहीं सोचना चाहिए। नई उमंगे नई घटा की तरह दूरदर्शी आँखें देख सकती हैं कि इसके बाद ही सहकारी आन्दोलन पनपेगा और भ्रष्टाचार की ठेकेदारी अपना रास्ता नापती दीखेगी।

कहा जाता रहा है कि बिचौलिये 94 प्रतिशत डकार जाते है और उपभोक्ता के पल्ले मात्र छै प्रतिशत पड़ पाता है। इतने बड़े व्यवधान से निबटना किस बलबूते पर संभव हो? जिनकी दाढ़ में खून का चस्का लगा है उन्हें किस प्रकार विरत होने के लिए सहमत किया जा सकेगा? इसका उत्तर एक ही है घोड़े के मुँह में लगाई जाने वाली लगाम, ऊँट की नाक में डाली जाने वाली नकेल, बैल को बाधित करने वाली नथ हाथी को सीधी राह चलाने वाले अंकुश की तरह जब सहकारिता के आधार पर अर्थ नियोजन चल पड़ेगा तो वह अँधेरे-गर्दी कहाँ पैर टिकाये रह सकेगी जो प्रगति योजनाओं को निगल-निगल कर मगर की तरह मोटी होती जाती हैं।

राज्यक्रान्ति में पंचायत राज्य के दूरगामी परिणामों को देखते हुए उसे अभूतपूर्व कहा जा सकता है। इसके पीछे-पीछे सट कर चली आ रही सहकारिता क्रान्ति है जिसके सही रूप में चरितार्थ होते ही धन की मध्यस्थों द्वारा हड़प लिये जाने की संभावना लुँजपुँज होकर रह जायगी। भले ही उसका अस्तित्व पूरी तरह समाप्त होने में कुछ देर लगे।

शिक्षा के क्षेत्र में प्रौढ़ शिक्षा गले की हड्डी की तरह अटकी हुई है। जिनके हाथ में इन दिनों समाज की बागडोर है वे .... पेन्शन उपभोक्ता ढेरों हैं। समय की माँग और शर्म विद्यार्थी बालको से लेकर अध्यापकों तक को बाधित करेगी कि वे अपने संपर्क क्षेत्र में किसी को अशिक्षित रहने देने में अपने ऊपर सीधा कलंक अनुभव करेंगे।

हराम की कमाई खाने वालों को जब अपराधी माना जायगा और तिरस्कृत किया जायगा और दूसरी और श्रमशीलों को पुण्यात्मा मान कर उन्हें मान महत्व दिया जायगा तो उस माहौल में उन अपराधियों का पत्ता साफ हो जायगा जो जिस-तिस बहाने समय तो काटते हैं, पर उपार्जन में, अभिवर्धन में योगदान तनिक भी नहीं देते। पाखंडी, अनाचारी, निठल्ले प्रायः इन्हीं लबादों को ओढ़े अपनी चमड़ी बचाये रहते हैं।

परिश्रम की कमाई को ही ब्रह्म समझा जायगा तो फिर दहेज प्रथा, प्रदर्शन, अपव्यय, अहंकार जैसी अनेकों अव्यवस्थाओं की जड़ कट जायगी। कुर्सी में शान ढूंढ़ने वाले तब हथौड़ा और फावड़ा चला रहे होंगे। बूढ़े भी अपने ढंग से इतना कुछ करने लगेंगे जिससे उन्हें अवशा न सहनी पड़े, वरन् किसी न किसी उपयोगी उत्पादन में अपने को खपाकर अधिक स्वस्थ अधिक प्रसन्न और अधिक सम्मानित अनुभव कर सकें। चोरों में कामचोर जब सबसे बुरी श्रेणी में गिने जाने लगेंगे तो श्रम की जो बरबादी आज होती है वह कल न होगी। वैभव बढ़ेगा, स्वास्थ्य, ज्ञान और संतोष भी।

यह क्रान्तियाँ रेलगाड़ी के डिब्बे की तरह एक के पीछे एक दौड़ती चली आ रही हैं। उनका द्रुतगति से पटरी पर दौड़ना हर आँख वाले का दृष्टिगोचर होगा। अवाँछनीय लालच से छुटकारा पाकर औसत नागरिक स्तर का निर्वाह स्वीकार करने वालों के पास इतना श्रम, समय मानस और वैभव बच रहेगा जिसे नवसृजन के लिए नियोजित करने पर इक्कीसवीं सदी के साथ जुड़ी हुई सुखद संभावनाओं की फलित होते इन्हीं दिनों इन्हीं आँखों से प्रत्यक्ष देखो जा सकें। नियति की अभिलाषा है कि मनुष्यों में से अधिकाँश प्रतिभावान उभरें। अपने चरित्र और कर्तव्य से अनेकों को अनुकरण की प्रबल प्रेरणाएं प्रदान करें। प्रतिभा वह नहीं जो दस्युओं, तस्करों और नृशंसों के ऊपर असुरता की तरह चढ़ी रहती है। प्रतिभा परिष्कार का तात्पर्य उस सृजन क्षमता से है जो अग्रिम पंक्ति में रहकर आदर्श की प्रतिष्ठापना के लिए उपहास, व्यंग, लांछन, विरोध जैसे अवरोधों से टकराकर अपनी उत्कृष्टता का पग-पग पर प्रमाण परिचय प्रस्तुत कर सकें।

यह कुछ संकेत हैं, जो युग संधि के इन बारह वर्षों में अंकुर से बढ़कर छायादार वृक्ष की तरह शोभायमान दीख सकेंगे। यह आरंभिक और अनिवार्य संभावनाओं के संकेत हैं। इनके सहारे उन समस्याओं का भार अगले ही दिनों हलका हो जायगा जो विनाशकारी विभीषिकाओं की तरह गर्जन तर्जन करती दीख पड़ती हैं। इतना बन पड़ने से भी उस उद्यान को पल्लवित होने का अवसर मिल जायगा जिस पर अगले दिनों ब्रह्मकमल जैसे पुष्प खिलने और अमरफल जैसे वरदान उभरने वाले हैं।

हममें से प्रत्येक को गिरह बाँध कर रखना चाहिए कि नया भवन बन रहा है। नवयुग की आधार शिला रखी जा रही है। यह होकर रहेगा, भले ही कृपणों का सहयोग उस निमित्त नियोजित न भी हो। स्मरण रखा जाना चाहिए कि अगला समय उज्ज्वल भविष्य के साथ जुड़ा हुआ है। जो इसमें अवरोध बनकर अड़ेंगे, वे मात्र दुर्गति ही सहन करेंगे।

विश्वात्मा ने, परमात्मा ने नवसृजन के संकल्प कर लिए हैं। इसके पूर्ण होकर रहने में संदेह नहीं किया जाना चाहिए। इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य का उद्घोष थोथा नारा नहीं है। इसके पीछे महाकाल का प्रबल संकल्प सन्निहित हैं। इसको चरितार्थ होते हुए प्रतिभा परिष्कार के रूप में देखा जा सकेगा। अगले दिनों इस धरित्री रूपी कोयले की खदान में से ही बहुमूल्य मणिमुक्तक उभरते और चमकते दिखाई देंगे।


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