विशिष्टता का सुनियोजन हो संचय नहीं!

July 1989

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अभावग्रस्तों को कठिनाइयों का सामना करना पड़े तो बात समझ में आती है। पर आश्चर्य तब होता है जब विपुल साधन अपने अधिकार में होने पर भी जानकारी के अभाव में लोग हैरान फिरते पाये जाते हैं। ऐसी घटनाएँ जब सुनने को मिलती हैं तो उस अनजानेपन को दुर्भाग्य का प्रतीक मान कर खेद व्यक्त किया जाता है।

कहते हैं कि किसी अनाड़ी ने बाप के छोड़े हीरों को काँच समझ कर व्यापारियों के हाथों बेच दिया था और खुद जीवन भर महा-दरिद्री बना रहा। लाल मणियों की एक माला पड़ी मिलने पर एक भीलनी उन्हें कौड़ियों के मोल बेच आई थी। हिरन की नाभि में कस्तूरी रहती है, पर वह सुगंधि की तलाश में निरंतर दौड़-धूप करता और थक कर प्राण गँवा देता है। माचिस जेब में होने की बात याद न रहने पर ढेरों घास फूस पास रहने पर भी एक व्यक्ति ठंड में सिकुड़ कर मर गया था। घर के आँगन में खजाना गढ़े होने की बात विदित न होने पर उस झोपड़ी के निवासी को जब तब मजदूरी मिलने पर आधे पेट सोना पड़ता था। ऐसी घटनाएँ प्रायः कौतूहलपूर्वक सुनी जाती हैं। तो सुनने वालों तक को हैरानी होती है।

दिशा भूल जाने पर बनजारे रात भर चलते रहने पर भी बेकार भटकते रहते हैं और भूल का पता चलने पर वापस लौटते हैं। खण्डहरों में भूल भुलैया बनी पाई जाती हैं। उनमें घुस जाने के बाद यह ख्याल नहीं रहता कि वापस लौटने का दरवाजा कौनसा है। हड़बड़ी उस मानसिकता को और भी अधिक बेकार कर देती हैं सुना है कि कई तो इस भटकाव में कई दिन घिरे रहने पर मर तक जाते हैं कोलम्बस भारत की तलाश में निकला था पर दिशा चूक हो जाने पर वह अमेरिका के समीप उजाड़खंड वेस्ट इंडीज में जा निकला। बालू को पानी समझ भटकने वाले हिरनों की मृग-तृष्णा का उदाहरण वक्ता लोग प्रायः दिया करते हैं। वह कहानी प्रसिद्ध है कि सिंह का बच्चा भेड़ों के समूह में मिलने पर अपने को भेड़ ही समझने लगा था बाद में जब उसे आत्म-बोध कराया गया तो वहाँ से हट कर सिंहों के समूह में चला गया। सपने की स्थिति में भी लोग बेतुके स्वप्न देखते रहते हैं। नशेबाजों की खुमारी भी ऐसी ही होती है, जिसमें ऐसा सूझता-समझ में आता है जिसकी वास्तविकता के साथ दूर की भी संगति नहीं बैठती।

इस प्रकार की घटनाएँ वस्तुस्थिति की सही जानकारी न होने के कारण होती हैं। पर अचंभा तब, होता है जब आम आदमी ऐसी ही विसंगतियों भरे भटकाव में कुछ दिन ही नहीं गँवाता, वरन सारी जिन्दगी ही दांव पर लगा देता है। आम आदमी अपने-अपने ढंग की उलझने कठिनाइयाँ-समस्याएँ चिन्ताएँ-व्यथाएँ, सिर पर लादे रहता है और उनके समाधान के लिए भी जिस तिस का आसरा ताकता है। स्पष्ट है कि कभी-कभार किसी की छोटी मोटी सहायता हाथ लग भी जाती है पर जब पूरा जीवन ही उलझन भरा है तो कौन, किसकी, कब तब, कितनी सहायता कर सका है? विशेषतया तब जबकि हर किसी को अपनी-अपनी समस्याओं में ही इतना उलझा रहना पड़ता है कि दूसरों की सहायता करने जैसी न तो स्थिति ही रह जाती है और न वैसी अभिरुचि दिखाने की फुरसत ही मिलती है।

अपनी गलती ढूँढ़ने या खोजने की किसी को आदत नहीं है। भ्रमों में से एक बड़ा भ्रम हर आदमी में यह भी पाया जाता है। अपनी अकल और दूसरों की दौलत चौगुनी-सौगुनी समझ पड़ती है। बल्कि वस्तुतः सर्वथा निभ्रान्त व्यक्ति कदाचित कोई भी नहीं, होता। पर अपनी गलती कोई सोचे कैसे? इसमें हेठी जो जोती है, नाक जो कटती है, अपनी सर्वज्ञता पर आँच जो आती है? इसलिए काम बिगड़ने पर उसका लाँछन अपने ऊपर न लगने देने के लिए यही सस्ता हाथ लगता है कि दोष किसी दूसरे पर थोप दिया जायं

तथाकथित पढ़े लिखे लोग भी दुर्भाग्य आदि पर दोषारोपण के उतने ही शिकार पाये जाते हैं जितना कि नितान्त पिछड़े समझे जाने वाले लोग। भूतों की करतूत के संबंध में मान्यता बहुतों को हैरान करती है। शकुन विचार करने वाले छिपकली, बिल्ली आदि की हलचलों के मनमाने अर्थ लगा लेते हैं। कई तो रोज के स्वप्नों की ही व्याख्या करते रहते हैं और उनमें भक्तिब्धता के छिपे संकेतों के समाधान खोजते रहते हैं। अभिभावकों की समुचित सहायता न मिलना भी अपना हलका करने का ऐसा बहाना है जिसे कोई भी लगा सकता है। मित्रों की रुखाई, संबंधियों की उपेक्षा का दोषारोपण कोई भी आसानी से लगा सकता है। बच्चे का जन्म अशुभ घड़ी में होना, पत्नी का गृह प्रवेश भारी पड़ना आदि कुछ भी मनगढ़ंत कहा जा सकता है। इसके लिए अपने संदेह की पुष्टि में कुछ सबूत देने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। जब अपने को निर्दोष मानने के लिए अशुभ का दोष किसी न किसी पर मढ़ने की बात ठान ली गयी तो कल्पना भर की आशंका तक सीमित न रहने देकर किसी को भी कितना ही दोषी ठहरा देना अपने हाथ की बात है। कुकल्पना को भी बहुत लोग सच्चाई मान बैठते हैं और निर्दोषों पर भी बरस पड़ते हैं।

ऐसा अनौचित्य अनेकों द्वारा अनेकों बार अपनाया गया देखा जाता है। पर एक कुकल्पना से ग्रसित अधिकाँश लोग पाये जाते हैं कि अपनी निजी सामर्थ्य अकिंचन हैं उसे बढ़ाने के लिए हम क्या कर सकते हैं? उत्कर्ष के लिए सुयोग मिलना अपने हाथ में कहाँ है? जितना प्रयत्न अच्छे के लिए किया जा चुका है, उससे अधिक और कुछ करने का अवसर ही कहाँ था? आदि-आदि बातें सोच कर आत्म समीक्षा आत्म सुधार आत्म संवर्धन और आत्म विकास का अवसर ही गँवा दिया जाता है। उपाय न सूझ पड़ने पर कुड़-कुड़ाते खीझते, झल्लाते, उद्विग्न रहने और चिंतातुर रहने के अतिरिक्त और कुछ बाना भी तो नहीं बन पड़ता अपने को तनावग्रस्त मान लेना तो कुकल्पनाओं के आधार पर भी सरल संभव हो जाता है। सो ही लोग करते भी रहते हैं।

इसे व्यापक भ्रान्ति का महामारी जैसा प्रकोप कहा जाय तो इसमें तनिक भी अत्युक्ति नहीं मानी जा सकती। जब साधारण को यह समझने और समझाने का सुयोग ही नहीं मिल पाता कि मनुष्य की अन्तर्निहित शक्तियाँ इतनी अधिक हैं कि यदि उन्हें प्रसुप्ति से विरत करके जाग्रत एवं क्रियाशील बनाया जा सके तो हर सामान्य समझा जाने वाला व्यक्ति अपने को असामान्य सिद्ध करके दिखा सकता है। उसमें कोई रहस्यवाद नहीं है। न कुछ ऐसा है जिसे अमान्य ठहराया जा सके। पुरातन इतिहास के पृष्ठ पलटने या अर्वाचीन के इर्द-गिर्द की गतिविधियों पर तनिक गंभीरता पूर्वक नजर डालने से ऐसे असंख्यों उदाहरण आँखों देखे और कानों सुने जा सकते हैं जिनमें आत्मविश्वास और प्रचण्ड साहस के बलबूते प्रगति की दिशा में चलने की सूझ के साथ प्रयत्न किया और वे क्रमशः अधिक उपयुक्त अवसर पाते चले गये। अन्ततः इतनी ऊँचाई पार कर सके जिसे देखते हुए आश्चर्य लगता रहा और किसी दैवी वरदान का भ्रम होता रहा। इसके विपरीत ऐसे उदाहरण भी कम नहीं देखे जा सकते, जिनमें अपार साधन और अवसर होते हुए भी व्यक्ति दुर्गुणों के शिकार रह कर दिन-दिन पतन पराभव की और लुढ़कते चले जाते रहे ओर अन्त में वहाँ पहुंच गए जिसे दुर्गति या दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है।

साधारण समझ से अपनी पृथ्वी जहाँ की तहाँ स्थिर खड़ी दीखती है। पर जिनने कुछ अधिक जानकारी प्राप्त की है, वे विश्वास पूर्वक कह सकते हैं कि वह अपनी धुरी पर लट्टू की तरह घूमती रहती है। सूर्य की परिक्रमा के लिए तीर की तरह सनसनाती हुई दौड़ती है। मनुष्य के संबंध में भी यही बात है। उसकी जीवन चर्या के लिए अग्रगमन की प्रगति संभावनाएँ कूट-कूट कर भरी हुई हैं। कमी केवल इस बात की है कि वस्तु स्थिति समझने और उस पर विश्वास करने का विवेक जगा ही नहीं। जब-तब दीनता और हीनता की परतें इतनी मोटी जमा होती रहती हैं कि वे ही अपना वास्तविक स्वरूप प्रतीत होती हैं। जैसा भी कुछ कट रहा है, वह कटते रहने दिया जाय, इस स्त्र का मानस बन जाने पर तो विद्यमान क्षमताएँ और गहरे गर्त्त में चली जाती हैं। जब उमंगे ही मर गई तो फिर अग्रगमन का-अभ्युदय का अवसर छप्पर फाड़कर आकाश से आँगन में क्योंकर आ धमके? संसार में पैसे की चमक-दमक बहुत देखी जा सकती है और उसके आधार पर जो खरीदा जा सकता है उसकी सज-धज भी अपनी चमक दमक दिखाती, आँखों में चकाचौंध उत्पन्न करती देखी जा सकती है। किन्हीं किन्हीं का रूप लावण्य भी मन मोहक दीख पड़ता है। कलाकार व्यवसायी गुणी भी कई देखे जाते हैं, पर ऐसे कम ही दीख पड़ते है जिन्होंने अपने साहस और पौरुष के सहारे अवरोधों से टकराते हुए प्रगति का पथ प्रशस्त किया हों। जिन्होंने गिरों को उठाया, उठों को चलाया, चलतों को दौड़ाया और दौड़तों को उछाला हो। अपनी राह तो सभी चल लेते हैं। पर सराहना उनकी है जो अपनी नाव पर बिठा कर कईयों को खेते हुए उन्हें इस पार से उस पार पहुँचा सकें। मल्लाह की भूमिका सबसे बड़ी भूमिका है।

इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि ऐसी प्रचण्ड सामर्थ्य हर किसी के भीतर होते हुए भी उसका सदुपयोग कर सकना तो दूर पहचानना तक नहीं बन पड़ता यह ‘आत्म विस्मृति’ ह वह अभिशाप है जिसे लोग जाने अनजाने में स्वयं अपनाते हैं और कंधे पर लाद कर चलते हैं। इसी को कहते हैं प्रतिभा का अभाव, जो कभी कभी तो मोटे पहलवानों को भी ग्रस्त कर लेता हैं। उन्हें आन्तरिक दृष्टि से खोखला देख कर आश्चर्य किया जाता है। शारीरिक बल का प्रदर्शन करते हुए तो मेंढ़ों और भैंसों को भी आपस में टक्करें मार कर दर्ज जताते देखा गया है। तीतरों और मुर्गों को भी चोंचे लड़ाते और अहंता में अग्रणी होने का दर्ज जताते हम देखते हैं। यह वास्तविक बलिष्ठता का प्रयोग नहीं है। उस गहराई तक जाना हो तो देखना पड़ेगा कि मन की क्या दिशाधारा उस बल का प्रयोग कर रही है। गुण्डे, आतंकवादी, आततायी, अनाचारी, अपनी अकड़ दिखाते और रौब जमाते देखे गये हैं। दूसरों पर धाक जमाना और उन्हें डर दिखा कर उचित-अनुचित करा लेना, यही उनका प्रयास व्यवसाय रहता है। ऐसे लोगों की शारीरिक बलिष्ठता कैसे सराही जा सकेगी? यही बात बुद्धि बल, धन बल आदि के संबंध में है। उसका दुरुपयोग करने वाले अपने लिए भर्त्सना और दूसरों के लिए विपत्ति ही खड़ी करते हैं। कला का दुरुपयोग भी कम नहीं हुआ है। शृंगारिकता, विलासिता अनैतिकता जैसी दुष्प्रवृत्तियों को भड़काने में संगीत, चित्रकला, सिनेमा, साहित्य आदि का कम सहारा नहीं लिया गया है। ऐसी दशा में उस कला को किस प्रकार सराहा जाय? जो आकर्षित और प्रभावित तो अनेकों को करती है, बदले में पूरी कीमत बटोर लेने में भी सफल रहती हैं परंतु उसके परिणामों को देखा जाय तो यही कहना पड़ता है कि यदि ऐसे प्रख्यात कलाकार अव्यवस्थित अनजान लोगों की तरह साधारण स्थिति में रह रहे होते तो कहीं अच्छे थे। तब वे चमत्कृत करके कुमार्ग पर चलने के लिए ललचाने वाला कुकृत्य तो न कर सके होते?

उपलब्धि क्या हस्तगत हुई? यही देखना भर पर्याप्त नहीं है। जाँचा यही जाना चाहिए कि उसका उपयोग लोकहित के लिए किस प्रकार और कितना बन पड़? यदि इस कसौटी को छोड़ दिया तो सर्प बिच्छुओं की शारीरिक संरचना भी प्रशंसा की पात्र बनेगी। चीते और भेड़िये भी दूसरों की तुलना में अधिक बलिष्ठ होने के कारण प्रशंसा पाने के अधिकारी समझे जायेंगे तब मार से डरने और बचने की क्या आवश्यकता रहेगी? सराहनीय वही बल कौशल है जिसका उपयोग सदुद्देश्य के लिए बन पड़े। अन्यथा बढ़ी हुई प्रतिभा बारहसिंगों के बढ़े हुए सींगों की तरह है, जो देखने में कौतूहलवर्धक तो लगते हैं पर अपना पराया प्रयोजन कुछ भी साध सकने में समर्थ नहीं होते।

जिस प्रकार पड़ी हुई वस्तु खराब हो जाती है, लोहे में जंग लग जाती हे, लकड़ी नमी व धुन का शिकार होकर किसी काम की नहीं रहती, मानवी कौशल-प्रतिभा भी आत्म विस्मृति की विडम्बना एवं सुनियोजन के अभाव में कुछ भी सार्थकता सिद्ध नहीं कर पाते। एक बुद्धिमान प्रतिभाशाली प्रशंसा के योग्य है कि उसने इतना कुछ पढ़ प्रखरता अर्जित की किन्तु यदि वह ज्ञान-सम्पदा स्वयं तक सीमित रही, किसी के काम नहीं आयी तो व्यर्थ है। उसका लाभ यदि समाज को नहीं मिला तो फिर उसके होने का क्या प्रयोजन? संगीतकार कई धुन बजाना जानता है पर वह अभ्यास भर तक ही सीमित रहता है किन्तु दूसरों को न तो सुनाता है, न ही सिखाता है तो उस प्रतिभा का क्या लाभ?

जो भी विभूतियाँ अपने पास हैं, उन्हें यदि अपने चहुं और बिखेर दिया जाय, समाज परिकर को उनका लाभ लेने दिया जाय तो उनकी उपयोगिता भी है एवं उस व्यक्ति के जीवन की सार्थकता भी। प्रतिभा को न तो जंग लगनी चाहिए, नहीं वह संकीर्ण परिधि में बँधी रहनी चाहिए।


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