सदुपयोग बन पड़े, तो ही परिवर्तन संभव

July 1989

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मनुष्य अनन्त शक्तियों का भण्डार है। उसमें से बहुत थोड़ा अंश ही शरीर व्यवसाय में खर्च हो पाता है। शेष शक्ति प्रसुप्त मूर्छित स्थिति में पड़ी रहती है। काम में न आने पर पैने औजारों को भी जंग खा जाती है। प्रतिभा के अंग-प्रत्यंगों का प्रयोग न होने पर मनुष्य भी मात्र कोल्हू के बैल की तरह किसी प्रकार जिन्दगी के दिन काटता रहता है। पर जब भी उसका उत्साह उभरता है, तभी तत्परता लगन, स्फूर्ति और गहराई तक उतरने, खाने-पाने की ललक, अपने जादू भरे चमत्कार दिखने लगती है। व्यक्ति कहीं से कहीं जा पहुँचता है और साधारण परिस्थितियों में भी ऐसा कुछ कर दिखाने लगता है जिनसे आश्चर्य चकित हुआ जा सकें।

पिछली तीन सदियों को आत्म जाग्रति का समय कहना चाहिए भले ही वह भौतिक प्रयोजनों के पक्ष में ही सीमित क्यों न रही हों। शक्ति का जहाँ भी प्रयोग होता है, वहाँ वह अपना काम करती है उसने किया भी। भौतिक प्रगति की दिशा में उसका रुझान जुड़ा, अन्वेषण चले और उसने प्रत्यक्षवाद के पुराने ढाँचे को एक नये दर्शन रूप में गढ़कर तैयार कर दिया। नयी स्फूर्ति के साथ जब नवीनता उभरती है, तो उसका परिणाम भी असाधारण होता हैं प्रगति के नाम पर बढ़ा-चढ़ा भौतिकवाद और प्रत्यक्षवाद संसार के सामने आया और उसने जन-जन को प्रभावित किया। आविष्कारों ने सुविधा-साधनों के अम्बार जमा किए। बुद्धिमत्ता के नाम पर इतनी अधिक जानकारियाँ एकत्रित कर ली गयीं, जो किसी को भी अहंकारी बनाने के लिए पर्याप्त हो सकती थीं-हुई भी। वैसे जानकारियाँ बढ़ना सराहना के योग्य कार्य है, इसलिए प्रगतिशीलता का श्रेय भी उन सबको मिला है, जिनने यह उत्साह और पुरुषार्थ दिखाया।

बात इतने पर ही समाप्त नहीं होती, वरन इससे भी बड़े रूप में सामने आती है। वह है सदुपयोग और दुरुपयोग में से एक के चयन की। स्वार्थपरता और अदूरदर्शिता का समन्वय जब भी होता है, तब एक ही बात सूझ पड़ती है, कि जो कुछ-जितना जल्दी बटोरा और उससे जितना भी कुछ मजा-मौज उठा सकना संभव हो वैसा कर लिया जाय। उतावले, बचकाने व्यक्ति यही करते हैं। वे उपलब्धियों को धैर्यपूर्वक सत्प्रयोजनों में खर्च कर सकने की स्थिति में ही नहीं होते। ऐसा कुछ करते हैं जैसा कि सोने का एक अण्डा रोज देने वाली मुर्गी का पेट चीरकर सारे अण्डे एक ही दिन में निकाल लेने की दृष्टि से आतुर व्यक्ति ने किया था।

सदुपयोग से, किसी भी वस्तु से अपना और दूसरों का हित साधन किया जा सकता है, पर जब उसी का दुरुपयोग होने लगता है, तो एक माचिस की तीली से सारा गाँव जल जाने जैसा अनर्थ उत्पन्न होता है। प्रगतिशील शताब्दियों में पाया तो बहुत कुछ, पर दूरदर्शिता के अभाव में उसका सदुपयोग न बन पड़ा और उपयोग ऐसा हुआ, जिससे आज हर दिशा में संकटों के घटाटोप घहरा रहे हैं।

शासकों और धनाढ्यों के हित को प्राथमिकता न मिली होती तो वैज्ञानिक उपलब्धियों ने जन साधारण का स्तर कहीं से कहीं पहुँचा दिया होता। जब मशीनें मनुष्य के काम-काज में हाथ बँटाने लगी थी, तो उन्हें छोटे आकार का बनाया गया होता। कम परिश्रम में, क्रम समय में निर्वाह साधन जुटा लेने का अवसर मिला होता और बचे समय को कला-कौशल में, व्यक्तियों को अधिक सुयोग्य बनाने में लगाया गया होता। परिणाम यह होता कि हर कहीं खुशहाली होती। कोई बेकार न रहा होता और किसी को यह कहने का अवसर न मिला होता, कि निजी व्यक्तित्व के विकास एवं समाज के बहुमुखी उत्कर्ष में योगदान तो दुरुपयोग है, उसके कारण अमृत भी विष बन जाता है।

बड़े शहर बसाने और बढ़ाने में लगी हुई बुद्धिमता यदि अपनी योजनाओं को ग्रामोन्मुखी बना देने की दिशा में मुड़ गयी होती, तो अब तक सर्वत्र मात्र छोटे-छोटे स्वावलम्बी और फलते-फूलते कस्बे ही दिखाई पड़ते। न शहरों को घिचपिच, गंदगी तथा विकृतियों का भार वहन करना पड़ता और न गाँवों से प्रतिभा पलायन होते जाने के कारण, उन्हें गई गुजरी स्थिति में रहने के लिए बाधित होना पड़ता।

युद्धों को निजी या सार्वजनिक क्षेत्रों में समान रूप से अपराध घोषित किया जाता। छोटी पंचायतों की तरह अन्तर्राष्ट्रीय पंचायतें भी विवादों को सुलझाया करतीं। आयुध सीमित मात्रा में पुलिस या अन्तर्राष्ट्रीय पंचायतों के पास ही रहते, तो युद्ध सामग्री बनाने में विशाल धन शक्ति और जन शक्ति लगाने के लिए वैसा कुछ न बन पड़ता, जैसा कि इन दिनों हो रहा है। यह जन शक्ति और धनशक्ति यदि शाखा संवर्धन, उद्योगों के संचालन, वृक्षारोपण आदि उपयोगी कामों में लगी होतीं, तो युद्ध के निमित्त लगी हुई शक्ति को सृजन कार्य में नियोजित करके इतना कुछ प्राप्त कर लिया गया होता, जो अद्भुत और असाधारण होता।

शिक्षा का प्रयोजन अफसर या क्लर्क न रहा होता और उसे जन-जीवन तथा समाज व्यवस्था के व्यावहारिक पक्षों के समाधान में प्रयुक्त किया गया होता, तो सभी शिक्षित, सभ्य, सुसंस्कृत होते और अपनी समर्थता का ऐसा उपयोग करते, जिससे सर्वत्र विकास और उल्लास का वातावरण बिखरा-बिखरा फिरता। हर शिक्षित को दो अशिक्षितों को साक्षर बनाने के उपरान्त ही यदि किसी बड़ी नियुक्ति के योग्य होने का प्रमाण पत्र मिलता तो अब तक अशिक्षा की समस्या का समाधान कब का हो गया होता। उद्योगों का प्रशिक्षण भी विद्यालयों के साथ अनिवार्यतः जुड़ा होता तो बेकारी गरीबी की कहीं किसी को शिकायत न करनी पड़ती।

प्रेस और फिल्म, यह दो उद्योग जन मानस को प्रभावित करने में असाधारण भूमिका निभाते हैं। विज्ञान की इन दिनों उपलब्धियों के लिए यह अनुशासन रहा होता, कि उनके द्वारा उपयोगी मान्यता प्राप्त विचारधारा को ही छपाया फिल्माया जायेगा, तो इनसे मनुष्य की बहुमुखी शिक्षा की आवश्यकता की पूर्ति होती, जन साधारण को सुविज्ञ और सुसंस्कृत बना सकने में सफलता मिल गयी होती।

दुनियाभर में बुद्धि के धनी भी एक प्रकार के वैज्ञानिक हैं। शासन और समाज के विभिन्न तंत्र उन्हीं के संकेतों तथा दबाव से चलते हैं। यदि सामाजिक, कुरीतियों और वैयक्तिक अनाचारों के विरुद्ध ऐसी बाड़ बनायी गयी होती, जो इनके लिए अवसर ही न छोड़ती, तो जो शक्ति बरबादी में लगी हुई है, उसे सत्प्रयोजनों में नियोजित देखा जाता। अपराधों का-अनाचारों का कही दृश्य भी देखने को न मिलता। सर्वसाधारण को यदि औसत नागरिक स्तर का जीवन-यापन करने की ही छूट रही होती, तो बढ़ी हुई गरीबी में से एक भी दृष्टिगोचर न होती। सब समानता और एकता का जीवन जी रहे होते। फिर न खाइयां खुदी दीखतीं और न टीले उठे होते। समतल भूमि में समुचित लाभ उठा सकने का अवसर हर किसी को मिला होता। तब इन शताब्दियों में हुई बौद्धिक और वैज्ञानिक प्रगति को हर कोई सराहता और उसके सदुपयोग से धरती का कण-कण धन्य हो गया होता।

नशेबाजी,-दुर्व्यसनों के लिए छूट मिली होने के कारण ही लोग उन्हें अपनाते हैं। उनका उत्पादन ही निषिद्ध रहा होता, पीने वालों को प्रताड़ित किया जाता, तो आज धीमी आत्म हत्या करने के लिए किसी को भी उत्साहित न देखा जाता। इस लानत से बच जाने पर लोग शारीरिक और मानसिक दृष्टि से संतुलित रहे होते और हर प्रकार की बरबादी-बदनामी से बच जाते। अन्यान्य दुर्व्यसनों से संबंधित इसी प्रकार के और भी अनेकों ऐसे प्रचलन हैं, जो सामान्य जीवन में घुल मिल गये हैं। कामुकता भड़काने वाली दुष्प्रवृत्तियाँ फैशन का अंग बन गई हैं। बनाव श्रृंगार, सज-धज के अनेकों स्वरूप शान बनाने जैसे लगते हैं। आभूषणों में ढेरों धन बरबाद हो जाता है। बढ़ा हुआ बुद्धिवाद यदि इन अपव्ययों का विरोध करता, उनकी हानियाँ गले उतारता, तो खर्चीली शादियाँ जो हमें दरिद्र और बेईमान बनाने का प्रमुख कारण बनी हुई हैं इस प्रकार अड़ी और खड़ी न रहतीं।

ऊपर चढ़ना धीमी गति से ही संभव हो पाता है, पर यदि पतन के गर्त में गिरना हो तो कुछ ही क्षणों में बहुत नीचे पहुँचा जा सकता हैं पिछले दिनों हुआ यही है। चतुरता के नाम पर मूर्खता अपनाई गई है। इसका प्रमाण यह है कि ठाट-बाट की चकाचौंध सब और दीखते हुए भी मनुष्य बेतरह खोखला हो गया है। चिन्ता, उद्विग्नता, आशंका, अशान्ति का माहौल भीतर और बाहर सब और बना हुआ है। किसी को चैन नहीं। कोई संतुष्ट नहीं दीखता। मानसिक दरिद्रता के रहते विस्तृत वैभव भी बेचैनी बढ़ने का निमित्त कारण बना हुआ है।

सामयिक परिस्थितियों में से यह कुछ की चर्चा भर है। यहाँ यह समीक्षा की गई है कि यदि भविष्य को सही बनाने की दिशा में प्रयास-पुरुषार्थ संभव होता, तो ही भला था। निराश मनःस्थिति ऐसे में बनना स्वाभाविक हैं, किन्तु निराशा की मानसिकता स्वयं में बड़ा संकट है। इससे मनोबल टूटता है, उत्साह में अवरोध आता है।

सृजन प्रयास सर्वथा बन्द हो गये हैं, यह बात नहीं। वर्तमान सुधारने व भविष्य को उज्ज्वल सम्भावनाओं से भरा बनाने हेतु किए जा रहे प्रयासों में शिथिलता भले ही हो, अभाव उनका भी नहीं है। यदि मनुष्य का हौंसला बुलन्द हो, तो प्रतिकूलताएँ होते हुए भी ऐसा कुछ किया जा सकता है, जिसे देखकर आश्चर्य होता रह सके। मिश्र के पिरामिड, पनामा की नहर, स्वेज कैनाल, चीन की विशाल दीवार जैसे प्रबल प्रयास आशावादी, साहस भरे वातावरण में ही संपन्न हुए हैं। जब कई व्यक्ति मिलकर एक साथ वजन धकेलते हैं तो उनकी संयुक्त शक्ति व मुँह से निकली “हेईशा” जैसी जादू भरी हुंकार वह उद्देश्य सम्पन्न कर दिखाती है।

ब्रिटिश प्रधानमंत्री सर विंस्टन चर्चित ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दिनों में, हारते हुए ब्रिटेन वासियों का मनोबल बढ़ाने के लिए एक नारा दिया- ‘बी’ फाँर विकट्री। अर्थात् जीतना हमें ही है, चाहे शत्रु कितना ही क्यों न हो? इस संकेत सूत्र का इतना प्रचार हुआ कि यह सुनिश्चित विश्वास का-विजय का एक प्रतीक बन गया। इस हुंकार ने जादुई परिवर्तन कर दिखाया एवं युद्ध से विस्मार हो रहा यूरोप जागकर उठ खड़ा हुआ। टूटा हुआ जापान हिरोशिमा की विभीषिका के बावजूद भी सृजन प्रयोजनों में निरत रहा, मनोबल नहीं टूटने दिया व आज आर्थिक मण्डी सारे विश्व की उसी के हाथ में है। यह सुनिश्चित है कि लोगों की आस्थाओं को युग के अनुरूप विचार धारा को स्वीकारने हेतु उचित मोड़ दिया जा सके, तो कोई कारण नहीं कि सुखद भविष्य का, उज्ज्वल परिस्थितियों का प्रादुर्भाव संभव न हो सके? यह प्रवाह बदल कर उलटे को उलटकर सीधा बनाने की तरह का भागीरथी कार्य है, किन्तु असम्भव नहीं, पूर्णतः संभव है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118