प्रतिभा-संवर्धन की दो महानतम उपलब्धियाँ

July 1989

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एक कहावत है कि “ईश्वर मात्र उनकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता आप करते हैं। “ इसी से जुड़ती हुई एक और उक्ति है-”जिसमें दैव पर दुर्बल का घातक” होने का आरोप लगाया गया है। गीताकार का कथन है “मनुष्य अपना शत्रु आप है और स्वयं अपना मित्र भी, वह उसकी इच्छा पर निर्भर है कि अस्तव्यस्तता अपना कर अपने को दुर्गति के गर्त में धकेले अथवा चुस्त दुरुस्त रहकर प्रगति के शिखर पर निर्बाध गति से आगे बढ़ता चला जाय। गीता में आगे चल कर श्रीकृष्ण ने अर्जुन के बहाने हर विचारशील से आग्रह किया है कि “अपने को उठाने में लगो, गिराते चलने की धृष्टता मत करों।”

संसार कितना सुखद, सुन्दर, सुविधाजनक क्यों न हो, पर अपने में त्रुटियाँ रहने पर वह सारा पसारा निरर्थक बन कर रहेगा। अपनी आंखें बाँध कर रखें तो संसार भर का दृश्य और सौंदर्य समाप्त हुआ ही समझा जाना चाहिए। श्रोताओं की श्रवण शक्ति चली जाय तो प्रवचनकर्ता, परामर्शदाता और गायक-वादक निरर्थक बन गये ही समझे जा सकते हैं। दिमाग खराब हो चले, तो समझना चाहिए कि संसार का मनुष्य उतावली चाल चल रहा है। पेट खराब हो जाय या रक्त में विषाक्तता घुस पड़े, तो दुर्बलता-रुग्णता से लेकर अकाल मृत्यु तक का भयंकर आक्रमण अब तब में होने ही जा रहा है, ऐसा समझ लेना चाहिए।

प्रगति का इतिहास सुनियोजित तन्मयता और तत्परता के आधार पर ही बन पड़ा है। इनके अभाव में किसी को पूर्वजों की कमाई या सुविधाजनक परिस्थितियों का अम्बार ही हाथ क्यों न लग जाय, वह सारे वैभव को फुलझड़ी की तरह जला कर क्षण भर का मनोरंजन कर लेगा और फिर सदा-सर्वदा पश्चाताप से सिर धुनता रहेगा, भले ही उसके पास वैभव की मात्रा कितनी ही बढ़ी-चढ़ी क्यों न हो। आवेशग्रस्तों की आतुरता उनके सामने ऐसे घटनाक्रम उपस्थित करती हैं, जिसे मूर्खता का अभिशाप ही कहा जा सकता है। मात्र समझदार दूरदर्शी ही ऐसे होते हैं, जो वस्तुस्थिति का सही मूल्याँकन कर सकें। और अपनी हैसियत के अनुरूप कदम उठा सकें।

शरीर का भारी, लम्बा-तगड़ा होना एक बात है और हिम्मत का होना सर्वथा दूसरी। तगड़ापन कुछ अच्छा और आश्चर्यजनक तो लगता है, पर उसमें इच्छाशक्ति संकल्पशक्ति, हिम्मत ओर प्राण ऊर्जा की कमी हो, तो उसे कायरता और भीरुता के कारण चिन्तित, शंकाशंकित, खिन्न, उद्विग्न ही देखा जायेगा। तनिक−सी कठिनाई आ जाने पर राई को पर्वत की तरह बखानेगा और किसी प्रकार बचने-बचाने की ही कामना छाई रहेंगी। पर यह समझ ही नहीं सकता कि कठिनाइयाँ कागज के बने हाथी की तरह बड़ी और डरावनी तो होती हैं, पर मनस्वी के प्रतिरोध की एक ठोकर खाने की भी उसमें सामर्थ्य नहीं होती। इसके ठीक विपरीत यह भी देखा गया है कि चींटी, दीमक, आदि अपने लघु कलेवर के होते हुए इस स्तर के सुविधा-साधन जुटा लेते हैं कि आनन्द भरा जीवन जिया जा सकें।

हर रेतकण के छोटे परमाणु में अजस्र शक्ति भरी होती है। यदि उसके विस्फोट का नियोजन किया जा सके, तो प्रतीत होगा, न कुछ दीखने वाला सब कुछ स्तर की सशक्तता से भरा हुआ है, आवश्यकता मात्र प्रसुप्ति के जागरण भर की है। औसत आदमी का मात्र इतना ही नगण्यता स्तर जाग्रत रहता है, जिसमें कि वह घर, पेट, परिवार को किसी प्रकार गाड़ी धकेलता रहे, पर जिनके अन्तराल में सुनियोजित उच्चस्तर की महत्वाकांक्षाएं अपना ताना-बाना बुनती रहती हैं, वे इतने बड़े कार्य सम्पन्न कर लेते हैं, जिन्हें देख कर साथियों को आश्चर्यचकित रह जाना पड़े। बाह्य दृष्टि से एक जैसे लगने वाले व्यक्तियों के बीच भी जमीन-आसमान जितना अन्तर पाया जाता है। यह अन्तर कहीं बाहर से आ धमका हुआ नहीं होता, वरन् व्यक्ति ने उसकी संरचना अपने हाथों स्वयं ही की होती है।

झाड़ी अन्धेरे में भूत बन कर दिल दहला देती है। रस्सी को साँप समझने वाले को अँधेरे के माहौल में घिग्घी बँध जाती हे। “शंका डायन, मनसा भूत” की कहावत सोलहों आने सच है। हिम्मत वाले लम्बी दुर्गम यात्राएँ एकाकी पूरी करते हैं, कायरों को रात के समय पेशाब करने बाहर जाना पड़े, तो किसी साथी को जगाना पड़ता है। भीष्म पितामह का शरीर घुसे हुए वाणों के ऊपर टँगा हुआ था। थोड़ी बहुत चेतना थी, पर उनने मौत से स्पष्ट कह दिया कि उत्तरायण सूर्य आने में अभी बहुत देर है, तब मृत्यु को वापस लौट जाना चाहिए और फिर तब लौटना चाहिए, जब इच्छित मुहूर्त आ जायें। मौत को मनस्वी का कहना मानना ही पड़ा किसी ने सच ही कहा है- बहादुर जिन्दगी में एक बार मरते हैं, पर कायरों को तो पग-पग पर मरना पड़ता है। वे आत्महत्या वाला प्रपंच रचते रहने के अतिरिक्त और कुछ कर ही नहीं पाते। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि मनुष्य अपनी मानसिक क्षमता का मात्र सात प्रतिशत ही शरीर यात्रा के साधन जुटाने भर में गँवाता खपाता रहता है, जबकि उसकी 93 प्रतिशत सामर्थ्य सोई, खोई, मरी, मूर्च्छित और अविज्ञात स्थिति में ही पड़ी रहती है। अपनी दौलत भरी तिजोरी की चाबी खो देने पर कोई दरिद्रों की तरह दुर्गतिग्रस्त फिरे, तो उसके लिए कोई क्या कुछ कहे?

यदि आत्मनिर्माण में जुटा जा सके, बुरी आदतों को कूड़ा-करकट की तरह बुहारा जा सके, दृष्टिकोण में मानवी गरिमा के अनुरूप मान्यताओं का संस्थापन किया जा सकें, तो समझना चाहिए कि वनमानुष के नर-नारायण में बदल जाने जैसा काया कल्प उपलब्ध होगा। यह शत प्रतिशत अपने हाथ की बात है। जो दूसरों को सुधारने और काबू में लाने की डींगें हाँकते हैं, यदि वह अपनी कुटेवों तक को कड़ाई के साथ धकेल न सकें, तो समझना चाहिए मनुष्य की आकृति में ढला कोई गोबर का खिलौना मात्र ही अपने अस्तित्व का परिचय दे रहा हैं आत्मनिरीक्षण, आत्म सुधार आत्मनिर्माण, आत्म विकास का उपक्रम अपनाये रहने पर वह आज नहीं तो कल-परसों अपनी सफलता घोषित ही करके रहेगा।

प्रबंध कर सकना यों एक बहुत मामूली विशेषता पड़ती हैं, पर सही बात यह है कि उससे बढ़ कर और कोई गौरवास्पद वैभव-वरदान है नहीं।

सेनापति भी आरंभ में मामूली सिपाही की तरह भर्ती होता है, पर अधिकारी देखते रहते है कि इनमें से किसमें व्यवस्था बुद्धि है। वह अनुपात जिनमें जितना बढ़-चढ़ा पाया जाता है, वह उतनी ही भारी जिम्मेदारियाँ उठाता और अपने कौशल के बल पर असंभव को संभव कर दिखा देता है। विजयी सेनाध्यक्षों में से प्रत्येक को इसी कसौटी पर खरा सिद्ध होना पड़ा है। वे गौरवान्वित इसी आधार पर होते रहे है। मिलों, फैक्ट्रियों, कारखानों, उद्योगों की प्राणशक्ति कुशल प्रबन्ध संचालकों पर केन्द्रित रहती है। उन्हीं की दूरदर्शिता से छोटे कारोबार बढ़ कर आशातीत प्रगति का श्रेय पाते और अपने कौशल से हर किसी को अचंभे में डालते हैं। शानदार संस्थाओं और आन्दोलनों को छोटे शुभारंभ से आगे बढ़ाते हुए आशातीत सफलता अर्जित करके दिखाते हैं। वस्तुतः वे ही हैं, जो सम्पदा, यशस्विता, वरिष्ठता और सफलता के ढेर जमा करते हैं और दूसरों को यह बताते हैं कि यदि ऐसी ही प्रबन्ध शक्ति अर्जित की जा सके, तो अभावों और कठिनाइयों के बीच भी बहुत कुछ किया जा सकता है।

अंग्रेजी जमाने में प्रान्तों के शासनाध्यक्ष “गवर्नर” कहलाते थे। केन्द्रीय सरकार का सूत्र संचालक गवर्नर जनरल (वायसराय) कहलाता था। ‘गवर्न’ शब्द का सीधा अर्थ है प्रबन्धक अपनी इसी विशेषता के कारण इंजीनियर बड़े-बड़े निर्माण कार्य सम्पन्न करते है। व्यवसायी छोटा-सा उद्योग खड़ा करके देखते-देखते धनकुबेर बनते हैं। विकृतियों से जूझने वाले और प्रगति के महत्वपूर्ण आधार खड़े करने में जो भी सफल हुए हैं वे अपनी निजी साहसिकता और सुसंबद्ध प्रबन्धशक्ति का विकास करके ही ऐसा कुछ कर सके हैं, जिसे सराहनीय, अनुकरणीय, अभिनन्दनीय कहा जा सकें।

शक्ति, शक्ति है। उसे भले काम की तरह बुरे काम में भी लगाया जाता है। दैत्य-दानव, आततायी, आतंकवादी, और अनाचारी तक इसी विशेषता के आधार पर रोमाँच खड़े कर सकने वाले दुष्कर्म कर सके हैं। अनीति का आचरण करते हुए भी अपने आतंक से दूर-दूर तक विपन्नता खड़ी कर देने वाले दस्यु और तस्कर तक अपनी सफलता का ढिंढोरा पीटते समय कारण एक ही बताते हैं। कि उनने अपने आप को अपने ढाँचे में अपने हाथों ढाला और व्यवस्था क्षेत्र में ऐसा कौशल दिखाया कि शान्ति और सुरक्षा के मजबूत आधारों तक को लड़खड़ा कर रख दिया। -दुर्बल व्यक्तित्व और व्यवस्था बुद्धि से रहित मस्तिष्क तो मात्र अनुचर रह कर ही अपना श्रम बेच कर किसी प्रकार रोटी कमाते हैं।

सद्गुणों में अनेक धर्म-धारणाओं और व्रत-अनुशासनों का वर्णन किया जाता है। उनके कारण स्वर्ग-मोक्ष की, ऋद्धि-सिद्धि की विभूतियां हस्तगत होने की बात कही जाती हैं ऐसे प्रतिपादन प्रायः संयम और परमार्थ की महत्ता ही ठीक बताते हैं। इन समस्त उपचारों का उद्देश्य एक ही है- व्यक्ति हर दृष्टि से स्फूर्तिवान श्रमशील, एवं मनोयोगपूर्वक कार्य में संलग्न होने में अपनी प्रतिष्ठा वरिष्ठता एवं सफलता-समर्थता की अनुभूति करें। काम से जी चुराने वाली आवारागर्दी में दिन गुजारने वाले ज्यों-त्यों करके धीमी गति से आधे-अधूरे काम निबटाने वालों की आदतें ऐसी दुष्प्रवृत्तियाँ हैं, जिन्हें कोई चाहे तो युग के परिप्रेक्ष्य में बढ़ा-चढ़ा पाप भी कह सकता है। पुराने जमाने में पाप’-पुण्य की परिभाषा में अन्तर था। उन दिनों तपश्चर्या और परमार्थ से जुड़े हुए काम ही पुण्य में गिने जाते थे, पर अब उसे सुव्यवस्था कह कर युगधर्म के अनुरूप उचित परिभाषा की जा सकती है।

कहा यह भी जाता रहा है कि “अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है।” अपने की सुधार लेना संसार को सुधार लेने की क्षमता का परिचय देता हैं। जो दूसरों को जीते वह वीर, जो अपने को जीते वह महावीर। मानवी गरिमा के अनुरूप अपने गुण, कर्म, स्वभाव को विनिर्मित कर लेना संसार में एक नये देवता की अभिवृद्धि करना है। व्यक्ति के बहिरंग पर जो कुछ आच्छादित है, उसका अनेकानेक अनुकरण करते और प्रभाव से अनुप्राणित होते हैं। यहाँ तक कि उनके मरने के उपरान्त भी हरिश्चन्द्र-भागीरथ जैसों की कथा-गाथा अक्षुण्ण बनी रहती और अनेकानेकों को प्रकाश देती रहती है। यही बात अंतरंग के संबंध में भी है। चिन्तन, चरित्र, व्यवस्था, आस्था, विश्वास श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा की यदि उच्चस्तरीय स्थिति हो तो उसका प्रभाव-परिणाम धारणकर्ता तक ही सीमित नहीं रहता, वह उड़ते बादलों की तरह अपने कार्यक्षेत्र में अन्न-जल से लेकर प्राण ऊर्जा तक न जाने क्या-क्या बरसाते रहने में लगा रहता है। उसका तेजोवलय न जाने कितनों पर विशेषतया संपर्क क्षेत्र वालों पर शक्ति पात की, उठाने-उछालने की क्रिया-प्रक्रिया सम्पन्न करता है। तेजोवलय अन्तरिक्ष में उड़ता और जहाँ भी पहुंचता है, वही अपने अनुरूप चेतना-वसन्त खिलाता चलता है। पारस को छूकर लोहा सोना बनता है या नहीं, इसमें अभी संदेह है, पर यह सुनिश्चित है, प्रतापी व्यक्ति असंख्यों को अपना अनुयायी-सहयोगी बना लेते हैं। महामानवों में से अधिकाँश की जीवनगाथा यही बताती है कि अपनी प्रामाणिकता और प्रखरता के बल पर हर दिशा से संग्रह करते हुए न जाने कहाँ से चल कर कहाँ जा पहुँचे। मात्र अपने प्रभाव से दूसरों द्वारा ऐसे-ऐसे कृत्य करा लेने में सफल हुए, जिन्हें वे कदाचित् स्वयं हाथ में लेते, तो न कर पाते। दिव्य क्षमताओं को अर्जित कर लेना और उनसे अनेकों की अस्तव्यस्तता को सुयोग्यता में बदल देना, यही पुण्य-परमार्थ है। दान देने की तरह दान दिलाना भी पुण्य माना जाना चाहिए। साहसिकता और सुव्यवस्था के ही दो गुणों से जिस किसी को भी अभ्यस्त-अनुशासित किया जाय, समझना चाहिए कि उसकी सर्वतोमुखी प्रगति का द्वार किसी ने खोल दिया। भले ही उस अविज्ञात शक्ति पुँज का जय−जयकार कहीं न होता हो।

मनुष्यों में से अधिकाँश की आकृति-प्रकृति लगभग मिलती-जुलती है। उनका खाना-पीना, सोना-जागना आदि भी एक-सा ही होता है, फिर भी कोई जहाँ का तहाँ पड़ा रहता है, उल्टा गुणों की दृष्टि से घिसता-घटता देखा जाता है, किन्तु साथ ही यह भी देखा गया है कि किसी की प्रतिभा उन्हीं साधन-अवसरों के रहते चौगुना-सौगुना अभिवृद्धि करती रहीं। वह उनका यश, प्रभाव और कौशल इतना बढ़ा देती है कि देखने वाले तक आश्चर्य-चकित रह जाते हैं, साथ ही सहयोगियों की सेना भी अनायास ही खिंचती-घिसटती चली आती है। रीछ−वानरों की, ग्वाल-बालों की, भिक्षु-परिव्राजकों की, सत्याग्रहियों की टोलियों को नियंत्रित या गठित करने कौन वहाँ गया था? फूलों पर तितलियाँ और मधु-मक्खियाँ न जाने कहाँ कहाँ से दौड़ती चली आती हैं। महामानवों के असुविधा भरे जीवन भी ऐसे ही आकर्षक होते हैं। उसी कष्टसाध्य परिपाटी को अपनाने के लिए अनेकानेक आतुर होते और कदम-से कदम मिलाते आदर्शवादी संरचना के लिए प्रयाण करते देखे गये हैं।

समय को देखते हुए अगणित पतन-पराभवों के निमित्त कारण आलस्य, विलास अनुत्साह जैसे दुर्गुणों को प्रधानता दी जाती रही है। सौभाग्य के चमकते तारे की-तरह निर्धारित कार्यक्रमों में तत्परता-तन्मयता के साथ जुट पड़ने की प्रवृत्ति को दैवी वरदान माना जा सकता है और उसका भविष्य बिना हस्तरेखा देखे या ग्रह गणित किये निस्संदेह उज्ज्वल होना घोषित किया जा सकता है। यह किसी के भी भाग्योदय की प्रथम किरण हैं। दूसरा सोपान यह है कि उसकी व्यवस्था-बुद्धि काम करें। अपने समय, श्रम, चिन्तन एवं कौशल को उपयोगी कार्य में निरन्तर लगाये रहे, तो कहा जा सकता है कि रुग्णता और दरिद्रता में से एक भी उसके पास फटकने न पायेगा। दीर्घजीवी प्राय वहीं हुए हैं, जिनने अपने आप को प्रचण्ड पुरुषार्थ के साथ सर्वदा नियोजित रखा। आलसी और प्रमादी तो जीवित रहते हुए भी मृतकों में गिने जाते हैं।

संसार में जितनी भव्यताएँ दीख पड़ती हैं, वे मात्र साधनों के सहारे ही खड़ी नहीं हो गई उनके पीछे किन्हीं सृजनशिल्पियों की मेधा ने ऐसा जादू-चमत्कार दिखाया है कि प्रकट होने से पहले ही उसकी योजना बना ढाँचा खड़ा किया, उसमें प्रयुक्त होने वाले तारतम्य को बिठाया और फिर स्वप्नों को साकार बनाने में अपने आपे को पूरी तरह खपा दिया। इसी प्रक्रिया का नाम सफलता है। उसे वरण करने के लिए किन्हीं दूसरों की मनुहार करने की जरूरत नहीं है। यदि व्यक्ति अपनी समझ को क्रमशः तेज करता चले, क्रमशः अधिक बड़ी जिम्मेदारियाँ कंधों पर उठाता और उन्हें पूरी करता चले, तो समझना चाहिए कि इसी विकसित प्रबन्ध शक्ति के आधार पर वह जहाँ भी जाएगा, सरताज बन कर रहेगा।


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