प्रतिभा बनाम तेजस्विता बनाम तपश्चर्या

July 1989

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दुर्भाग्यों में बुरे किस्म का अनिष्ट है-”भटकाव”। रास्ता भूलकर बनजारा कहीं से कहीं जा पहुँचता है रात भर चलता है थकान सहता है .... चलता है कि दिशा भूल जाने की भारी गलती हुई। वापस लौटना पड़ेगा और वहीं वापस जाना पड़ेगा जहाँ से कि चलना आरंभ किया था। यदि वह भूल न की गयी होती तो गलत दिशा में चलने और फिर लम्बी परिक्रमा लगाने का दुहरा घाटा न उठाना पड़ता। जितनी देर तक भटकाव में शक्ति का अपव्यय हुआ, उतनी देर में अभीष्ट मार्ग पर बहुत दूर तक चलकर लगभग मंजिल तक पहुँचना संभव हुआ होता। पर उस भटकाव को क्या कहा जाय जिसे पहले से ही बुद्धिमानीजन बुरे किस्म का दुर्भाग्य कह गये हैं। मृगतृष्णा का इसी प्रसंग में उल्लेख होता है। प्यासा हिरन चमकीली बालू को जल सरोवर समझ कर उस और दौड़ लगाता रहता है और उस कभी प्राप्त न होने वाले लक्ष्य तक पहुँचने से पहले ही प्यास दम तोड़ देता है। कस्तूरी की गंध को पाने के लिए आकुल व्याकुल हिरन भी सभी दिशाओं में दौड़ लगाता है पर वह मिले कहाँ? वह तो उसकी अपनी नाभि में विद्यमान है, जबकि समझा यह जा रहा है कि वह कही बाहर है। ऐसी दशा में अभीष्ट की उपलब्धि कैसे हो? भेड़ के झुँड में पले हुए सिंह शावक की कहानी भी ऐसी ही है। जब तक वस्तुस्थिति समझ में न आई तब तक उसी झुँड में रमकर दिन बिताता रहा और घास खाकर जीता रहा। परिस्थिति तो तब बदली जब उसने परछाई में अपना वास्तविक स्वरूप देखा और अपने स्तर से अवगत होकर अपना रवैया बदला। मनुष्य के संबंध में भी ऐसा ही कुछ कहा जाना अत्युक्ति न होगी। आत्म विस्मृति का घटाटोप हम सब पर छाया रहता है।

यह पृथ्वी अनादि काल से ऊबड़-खाबड़ खाई खड्डों से भरी हुई अनगढ़ जीव−जंतुओं की क्रीड़ास्थली रही होगी। उसे आज की स्थिति में लाने और “स्वर्गादपि गरीयसी” बनाने में मनुष्य की कलाकारिता की ही प्रधान भूमिका रही है। वन मानुष या नर वानर के आदिम स्थिति से ऊँचा उठकर उसने अपने को क्या से क्या बना लिया इसे देखकर हैरत में रह जाना पड़ता है। प्रकृति की रहस्यमयी शक्तियाँ कभी अविकसित रही होगी पर आज तो उसने परमाणु में विद्यमान शक्ति स्रोतों को हस्तगत कर लेने से लेकर अन्तरिक्ष पर साम्राज्य स्थापित करने की ठान ठानी है। दर्प इतना सँजोया है कि अणु आयुधों के प्रहार से इस धरती को धूलि बनाकर अन्तरिक्ष में उड़ा देने तक की दबंग चुनौती उसने दी है। इस वर्ष के पीछे तथ्य भी है। मनुष्य सचमुच वही है, जो कुछ इस ब्रह्माण्ड में महान से महानतम हो सकता है।

आश्चर्य इस बात का है कि उसे भटकाव ने इस बुरी तरह जकड़ा कि अपने अस्तित्व, महत्व और स्तर के संबंध में इतना अधिक दिग्भ्रांत हो गया है कि उसे भटकाव की चरम सीमा कहा जा सकता है।

भटकाव का पहला सोपान वहाँ से आरंभ होता है जहाँ मनुष्य अपनी सत्ता महिमा, गरिमा और क्षमता के संबंध में लगभग पूरी तरह विस्मृति की खुमारी में चला जाता है। और अपनी आकृति प्रकृति की भिन्नता को तो देखता है, पर यह नहीं सोच पाता कि वह पशु स्तर के प्राणियों से चेतना के क्षेत्र में कुछ विशिष्ट है। प्राणी पेट भरने और प्रजनन के कौतुक का रसास्वादन करने के लिए जीवित रहते हैं। उन्हें न मर्यादाओं के प्रति श्रद्धा होती है और न वर्जनाओं से बचने की आस्था। बंधनों, प्रताड़नाओं और अवरोधों से बाधित होकर ही वे अनुचित को अपनाने से रुक पाते हैं। स्वच्छन्दता और क्षमता रहने की स्थिति में उन्हें मर्यादा पालन में कोई उत्साह नहीं रहता। आवश्यकता और मनमर्जी ही उनकी प्रेरणा के स्रोत होते हैं। मनुष्य की भावना और धारणा भी ऐसी ही हो तो उसे नर पशु से अधिक और कुछ नहीं कहा जा सकता। जिनने लोभ, मोह और अहंकार की लिप्सा लालसा को ही अपना लक्ष्य मान लिया है, वे उचित अनुचित का कोई अन्तर किस प्रकार कर पायेंगे? संकीर्ण स्वार्थपरता से, भवबंधनों से छुटकारा पा सकना उससे कैसे बन पड़ेगा? जिन्हें सम्पन्नता की तृष्णा और बड़े कहलाने की महत्वाकांक्षायें जकड़े रहती हैं उनके लिए विचारशीलता के स्वच्छन्द-आकाश में पंख फड़फड़ाना कैसे संभव हो? आम आदमी साधनों और क्षमताओं की दृष्टि से वैसा ही क्यों न दीख पड़े, पर उसे आदर्शों की उमंगे प्रभावित ही नहीं करतीं। उत्कृष्टता की गरिमा अपनाने के लिए उमंगें ही नहीं उठती। पुण्य और परमार्थ का प्रसंग तो एक प्रकार से छूट ही जाता है, जिसके लिए स्रष्टा ने मानवी उत्कृष्टता का लगभग देवोपम स्तर का सृजन विशेष रूप से किया है। उसे पूरी तरह छूट जाने के उपरान्त व्यक्ति क्षुद्र कृमि कीटकों की गई-गुजरी श्रेणी में ही गिने जाने योग्य रह जाता है। भले ही वह परोपकारी, पदवीधारी, सम्पन्न, कुशल एवं विभूतिवान ही क्यों न समझा जाता हो?

धर्मचर्चा तो कई लोग करते और सुनते रहते हैं, पर होता वह सब कुछ खोखला ही है। लोग पूजा-पाठ के कर्मकाण्डों, तीर्थ पर्यटनों, दान प्रदर्शनों जैसी विडम्बनाओं से मन बहलाते और अपने को धर्मध्वजी मानते देखे गये हैं पर बात वस्तुतः वैसी है नहीं। कर्मकाण्डों का एक मात्र मन्तव्य यह है कि चिन्तन चरित्र और व्यवहार में अधिकाधिक शालीनता का समावेश करे। जिन्हें धर्म में वस्तुतः कुछ रुचि है उन्हें देवोपम स्तर का जीवन यापन करते देखा जाना चाहिए। उनका अंतरंग और बहिरंग दोनों ही प्रमाणिकता एवं प्रखरता से भरे होने चाहिए। अनौचित्य को अपना कर भी लोग सुविधाओं का संग्रह और चारण चाटुकारों के माध्यम से मिल सकने वाली प्रशंसा बटोर लेते हैं, पर उनमें न तो गहराई होती है और न स्थिरता। धुएँ में बने बादल कितने ही घने क्यों न हों, हवा के एक झोंके से जिधर तिधर बिखर जाते हैं। छलावा पानी के बबूले की तरह कुछ ही क्षण में अपना अस्तित्व गँवा बैठता है।

प्रतिभा के विपुल भण्डार मनुष्य की अन्तःसत्ता में भरे पड़े हैं, पर उन्हें उभरने प्रकट होने का अवसर उन दबावों के कारण आने ही नहीं पाता, जो कषाय−कल्मषों के रूप में आत्मसत्ता के ऊपर स्वेच्छापूर्वक लाद लिये गये हैं। लकड़ी को पानी पर तैरते रहना चाहिए पर यदि उस पर भारी चट्टानें बाँध दी जायँ तो अपना स्वाभाविक गुण तैरना भी दबकर रह जाता है। विभूतिवान होते हुए भी मनुष्य निकृष्टता की चट्टान सिर पर लाद लेने के उपरान्त तैरने और अपना वास्तविक स्वरूप दिखा पाने की स्थिति में रह ही नहीं जाता।

प्रसुप्त प्रतिभा को जगापाने का अवसर मिले, इसके लिए आवश्यक है कि भ्रष्ट चिन्तन से अन्तराल को और दुष्ट आचरण से कायकलेवर को बचाये रहने का प्रयत्न किया जाय। यह तभी बन पड़ेगा जब अवाँछनीय महत्वाकाँक्षाओं की हथकड़ी बेड़ी से हाथ पैर खुल रहें। लोगों की उत्सुकता और उत्कंठा धनवान बनने में रहती है ताकि विलासिता के विपुल साधन जुटाये जा सकें। साथ ही अभावग्रस्तों की बिरादरी से अपने को बढ़ा-चढ़ा सिद्ध करने की मूंछें मरोड़ी जा सकें। इतनी छोटी सीमा में जिनका अन्तराल केन्द्रीभूत होकर रह गया है, वे महान कार्यों के प्रति उन्मुख हो ही, नहीं सकते, जो मानवी गरिमा चार चाँद लगाते हों। खूँटे से बँधी हुए नाव चप्पू चलाते रहने पर भी आगे कहाँ बढ़ पाती है? संकीर्ण स्वार्थपरता से ग्रसित व्यक्ति न तो आदर्शवादिता अपना सकता है और न ऐसा कुछ कर सकता है जिसे उत्कृष्ट कहा जा सके। सज्जा को विडम्बना कहें तो कुरूप और रुग्ण वैश्याएँ भी अपने को परी जैसी सुन्दर दिखाने की विडम्बना रचती है।

प्रतिभा कही बाहर से बटोरनी नहीं पड़ती उसे सदैव भीतर से ही उभारा गया है। इसके लिए उन आवरणों को हटाना अनिवार्य है, जो भारी चट्टान की तरह उत्कृष्टता के मार्ग में भयानक अवरोध बनकर अड़े होते है। इस संदर्भ में स्मरण रखने योग्य तथ्य यही है कि औसत नागरिक स्तर का निर्वाह अंगीकार किया जाय अन्यथा तृष्णा और वासना की लिप्सा इतनी सघनता के साथ छायी रहेगी कि अपनी सामर्थ्य की तुलना में अकिंचन औसत पुरुषार्थ भी करते न बन सकेगा। यह खाइयाँ इतनी चौड़ी और इतनी गहरी हैं कि छोटे से जीवन का समूचा समय, श्रम, कौशल खपा देने पर भी उन्हें भरा नहीं जा सकता। फिर वह बन ही कैसे पड़ें, जो उत्कृष्टता के साथ अति सघनतापूर्वक जुड़े हुए प्रतिभा परिष्कार का पुण्य प्रयोजन सन्तोष जनक मात्रा में उपलब्ध कर सके।

लालसा जन्य भौतिक महत्वाकांक्षाओं में कटौती किये बिना किसी के पास भी इतना समय,श्रम, साधन बच नहीं सकता जिसके सहारे से आत्मकल्याण और लोककल्याण की दिशा में कुछ कहने लायक कदम उठ सकें। साधु और ब्राह्मणों को भूसुर की-पृथ्वी के देवता की उपमा दी जाती रही है। वह इसलिए कि उनने संयम, अपरिग्रह, सन्तोष की राह अपनायी। अपने निजी बड़प्पन में जिसकी जितनी अभिरुचि होगी, वह उतना ही अपने को व्यस्त और अभावग्रस्त अनुभव करेगा। सदा यही कहता रहेगा कि अपनी समस्याओं से ही घिरा हुआ हूँ। जब कि वास्तविक समस्याएँ मनुष्य के सामने होती ही कितनी हैं? फिर यदि उन्हें व्यावहारिक बुद्धि द्वारा समझदारी के साथ सुलझाया जाय तो सब कुछ इतनी सरलता पूर्वक निबट जाता है, मानो इनका अस्तित्व था ही नहीं,। भ्रान्तियों के कारण वे गढ़ी भर गयीं थीं।

संयम नियम के कितने ही अनुबन्ध हैं। जिसमें आहार विहार की शुद्धि सज्जनता, सद्भावना श्रमशीलता, मितव्ययता, स्वच्छता, सहकारिता, अनुशासन प्रियता आदि प्रमुख हैं। यह सब देखने सुनने में बहुत ही नगण्य सा लगता हे। पर वस्तुतः है संकीर्ण स्वार्थपरता और स्वेच्छाचार की पैदा की हुई औलाद ही। इनमें से एक एक को गिनना और रोकथाम करना मेंढक तौलने के समान है। बिस्तर को धूप में डाल देने के उपरान्त खटमल और उनके अण्डे-बच्चे सभी मर जाते हैं। इसी प्रकार दृष्टिकोण को उदात्त बना लेने के उपरान्त अपना स्वरूप, लक्ष्य और कर्तव्य तीनों ही सूझ पड़ते हैं। उस प्रकाश के जलते ही उन डरावने भूत-पलीतों से छुटकारा मिल जाता है जो अँधेरे के कारण डरावने बन कर डराते और त्रास देते थे। दृष्टिकोण में विशालता का समावेश होते ही परमार्थ ही परमस्वार्थ है। इसके बराबर लाभ और किसी व्यवसाय में नहीं, इस तथ्य को इतिहास प्रसिद्ध सभी महामानवों से लेकर सामयिक श्रद्धा-भाजन व्यक्तियों के ऊपर बरसती हुई सद्भावना को देखकर सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि व्यक्तिगत लाभ की बात सोचने वाले भी यदि दूरदर्शी हों तो उन्हें परमार्थ प्रयोजनों में अपना समस्त लगाने के उपरान्त बदले में कई गुना अधिक मिलता है। एक बीज बोया जाता है, पर हजार गुना होकर लौटता है। यही नीति महामानवों की रहती है। वे समाज के खेत में पुण्य परमार्थ के बीज बखेर देते हैं और उस फसल को अपने लिए ही नहीं, समाज के लिए भी काटते व विश्व वसुधा को लाभान्वित करते हैं। यही प्रतिभा का चिन्ह है।

प्रतिभा, तेजस्विता को कहते हैं। यह चेहरे की चमक या चतुरता नहीं वरन् मनोबल पर आधारित ऊर्जा है। गान्धीजी 16 पौण्ड वजन और 5 फुट दो इंच के थे। रंग काले और कुरूप भी। पर उनका तेजस् ऐसा था कि जन साधारण से लेकर देश के वरिष्ठ मूर्धन्यों को उनका आदेश शिरोधार्य करते देखा जाता था। वहाँ तक कि विशाल साम्राज्य के अधिपति अँग्रेज भी उनकी हुंकार से प्रभावित होकर बिस्तर गोल करके चले ही गये। यह तेजस् निजी और सामूहिक जीवन के हर पक्ष को जगमगाता है। उसे प्रखरता भरी ऊर्जा से जाज्वल्यमान बना दिया है।

तेजस्विता तपश्चर्या की उपलब्धि है, जो निजी जीवन में संयम साधना और सामाजिक जीवन में परमार्थ परायणता के फलस्वरूप उद्भूत होती है। संयम-अर्थात् अनुशासन का, नीति मर्यादाओं का कठोरतापूर्वक परिपालन। इसके लिए मनुष्य को तृष्णा, वासना और अहंता के त्रिविधि नागपाशों से छूटना पड़ता है। “सादा जीवन-उच्च विचार” का ब्राह्मणोचित, औसत नागरिक स्तर का जीवन यापन करना पड़ता है। जो इतना कर सके, उसी से परमार्थ सधता है और योगियों में पाई जाने वाली सिद्धियों, शक्तियों, और विभूतियों का अन्तराल में उद्भव और अखिल अन्तरिक्ष से अभिवर्धन होता है। अनुग्रह या वरदान भी इसी को कहते हैं।

कर्मकाण्ड परक इसके साधना विधान अनेक हैं। पर सर्वसुलभ प्रक्रिया यही है कि निजी जीवन इतना हलका-फुलका रखा जाय कि उसका निर्वाह न्यूनतम श्रम और समय में ही संभव होता रहे। इसके उपरान्त ही श्रम, समय और साधन इतनी मात्रा में बच पाते हैं कि उनके आधार पर परमार्थ में निरत रहकर ब्रह्म के साथ आत्मसात् होने का रसास्वादन किया जा सके। देवोपम जीवन जीने का आनन्द लाभ उठाया जा सके।

किस प्रयोजन के लिए किस अवसर पर, किस प्रकार क्या संयम बरता जाय, यह व्यक्ति विशेष की परिस्थिति और मनःस्थिति को देखते हुए निर्णय निर्धारण करना पड़ता है। जिसके जीवन का जो पक्ष उद्धत हो चला हो, उसे सरकस के जानवरों की तरह बल चातुर्य प्रयोग करते हुए कला कौशल दिखा सकने के लिए प्रशिक्षित करना पड़ता है। शरीर और मन दोनों को ही शालीनता अपनाये रहने के लिए अभ्यस्त करना पड़ता है। संयम योग यही है। जो इतना कर सका वही पुण्य परमार्थ अर्जित करने का भी अधिकारी है। उद्धत आचरण वाला व्यक्ति कीचड़ से कीचड़ धोने के प्रयत्न से क्या कुछ सफलता प्राप्त कर सकेगा? शालीनता और परमार्थ परायणता मिल कर ही तपश्कर्ता बनते हैं और उन्हीं के आधार पर प्रतिभा की ऊर्जा अपनी प्रचण्डता का परिचय देती है।

इतिहास साक्षी है कि सफलताएँ उन्हीं को हस्तगत हुई जिनने निजी जीवन में कठोरता अपनायी, स्वयं पर कड़ा अंकुश लगाकर आत्मानुशासन का अभ्यास किया एवं फिर अपनी बचायी हुई ऊर्जा को सुनियोजित किया। जो प्रतिभाशाली होते हुए भी जीवन सम्पदा को कौड़ी के मोल गँवाते रहे; उनके बारे में इतिहास में यही लिखा पाया जाता है कि सब कुछ होते हुए भी यह व्यक्ति सफलता के शिखर तक नहीं पहुंच पाया, नहीं किसी को कुछ मार्ग दर्शन दे पाने में सक्षम हुआ। ऐसों को अभागा कहकर संबोधित किया जाता रहा हैं व मात्र कौतुक के लिए उनके वृत्तान्त पढ़े जाते हैं। यदि अनुकरणीय, अभिनन्दनीय बनना है तो मार्ग एक ही है-तपश्चर्या से स्वयं को अनुशासित कर ऊर्ध्वगामी बनाना, व्यवहार में सज्जनता-शालीनता को समन्वित करना एवं उदारता को अपनाते हुए बाँटने में संतोष अनुभव करना। शताब्दियों से जनमनीषा ऐसे ही युग नेतृत्व करने वालों के सम्मुख अपना सिर झुकाती आयी है। आज इन्हीं प्रतिभावानों का उद्भव होना है। इन्हीं से युग परिवर्तन की भूमिका बनेगी।


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