किंकर्तव्य विमूढ़ता जैसी परिस्थितियां,जो सँभल नहीं रहीं!

July 1989

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विज्ञान और बुद्धिवाद पिछली शताब्दियों की बड़ी उपलब्धियाँ हैं। उनसे सुविधा-साधनों के नये भी खुले, वस्तु-स्थिति समझने में सहायक स्तर की बुद्धि का विकास भी हुआ, पर साथ ही दुरुपयोग का क्रम चल पड़ने से, इन दोनों ही युग चमत्कारों ने लाभ के स्थान पर नई हानियाँ, समस्याएँ और विपत्तियाँ उत्पन्न करनी आरम्भ कर दी उत्पादनों को खपाने के लिए आर्थिक उपनिवेशवाद का सिलसिला चल पड़ा। युद्ध उकसाये गये, ताकि उनमें अतिरिक्त उत्पादनों को झोका-खपाया जा सके। कुशल कारीगरों ने कारखानों में स्थान तो पाया, पर गृह उद्योगों के सहारे जीवनयापन करने वाली जनता की रोटी छिन गयी। काम के अभाव में आज बड़ी संख्या में लोग बेकार-बेरोजगार हैं। परिस्थितियाँ गरीबी की रेखा से दिनोंदिन नीचे गिरती जा रही हैं। यों बढ़ तो अमीरों की अमीरी भी रही है।

कारखाने और द्रुतगामी वाहन निरन्तर विषैला धुआं उगल कर वायु मण्डल को जहर से भर रहे हैं। उनमें जलने वाले खनिज ईंधन का इतनी तेजी से दोहन हुआ है कि समूचा खनिज भण्डार एक शताब्दी तक भी और काम देता नहीं दीख पड़ता। धातुओं और रसायनों के उत्खनन से भी पृथ्वी उन सम्पदाओं से रिक्त हो रही हैं। उन्हें गँवाने के साथ-साथ धरातल की महत्त्वपूर्ण क्षमता घट रही है और उसका प्रभाव धरती के उत्पादन से गुजारा करने वाले प्राणियों पर पड़ रहा है। जलाशयों में बढ़ते शहरों का कारखानों का कचरा, उसे अपेय बना रहा है। साँस लेते एवं पानी पीते समय यह आशंका सामने खड़ी रहती है, कि उसके साथ कहीं मंद विषों की भरमार शरीरों में न हो रही हो? उद्योगों-वाहनों द्वारा छोड़ा गया प्रदूषण, ग्रीन हाउस इफेक्ट के कारण अन्तरिक्ष में अतिरिक्त तापमान बढ़ा रहा है, जिससे हिम-प्रदेशों की बर्फ पिघल जाने और समुद्रों में बाढ़ आ जाने का खतरा निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। ब्रह्माण्डीय किरणों की बौछार से पृथ्वी की रक्षा करने वाला ओजोन कवच, विषाक्तता का दबाव न सह सकने के कारण, फटता जा रहा है। क्रम वही जारी रहा, तो जिन सूर्य किरणों से पृथ्वी पर जीवन का विकास हुआ है, वे ही छलनी के अभाव में अत्यधिक मात्रा में आ धमकने के कारण विनाश भी उत्पन्न कर सकती है।

अणु-ऊर्जा विकसित करने का जो नया उपक्रम चल पड़ा है, उसने विकिरण फैलाना तो आरम्भ किया ही है, यह समस्या भी उत्पन्न कर दी है कि उनके द्वारा उत्पन्न राख को कहाँ पटका जायेगा? जहाँ भी वह रखी जायेगी, वहाँ संकट खड़े करेगी।

यह विज्ञान के उत्कर्ष के साथ ही उसके दुरुपयोग, की कहानी है, जिसमें कि सुखद अंश कम और दुखद भाग अधिक हैं। वह उपक्रम अभी भी रुका नहीं है, वरन् दिन-दिन उसका विस्तार ही हो रहा है। अब तक जो हानियाँ सामने आयी हैं-जो समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं, उन्हीं का समाधान हाथ नहीं लग रहा हैं, फिर इस सबका अधिकाधिक संवर्धन अगले ही दिनों न जाने क्या दुर्गति उत्पन्न करेगा? इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि कुछ ही समय के वैज्ञानिक दुरुपयोग का क्या नतीजा और अगले दिनों उसकी अभिवृद्धि से और भी क्या अनर्थ हो सकने की आशंका है?

विज्ञान का दर्शन प्रत्यक्षवाद पर अवलम्बित है। उसने दर्शन को भी प्रभावित किया है और मान्यता विकसित की है कि जो कुछ सामने है, उसी को सब कुछ माना जाय। इसका निष्कर्ष आज के प्रत्यक्ष लाभ को प्रधानता देना है। परोक्ष का अंकुश अस्वीकार कर देने पर ईश्वर, धर्म और उसके साथ जुड़े हुए संयम, सदाचार और पुण्य-परमार्थ के लिए भी कोई स्थान नहीं रह जाता। मर्यादाओं और वर्जनाओं को अन्धविश्वास कह कर, उनसे पीछा छुड़ाने पर इसलिए जोर दिया गया है, कि इससे व्यक्ति की निजी सुविधाओं में कमी आती है। पूर्ति का सिद्धांत यही कहता है कि जिस प्रकार भी जितना भी लाभ उठाया जा सके-उठाना चाहिए, उसमें सिद्धांतवाद को आड़े नहीं आने देना चाहिए। इसी मान्यता ने पशु-पक्षियों के वध को स्वाभाविक प्रक्रिया बना कर असंख्य गुना बढ़ा दिया है। अन्य प्राणियों के प्रति निष्ठुरता बरतने के उपरान्त जो बाँध टूटता हैं, वह मनुष्यों के साथ निष्ठुरता न बरतने का का कोई सैद्धांतिक कारण शेष नहीं रहने देता। मनुष्य को पशु-प्रवृत्तियों का वहनकर्ता ठहरा देने के उपरान्त, यौन स्वेच्छाचार न बरतने के पक्ष में भी कोई ठोस दलील नहीं रह जाती।

विज्ञान और बुद्धिवाद की नई धाराएँ खोजने के लिए और उनके आधार पर तात्कालिक लाभ के जादू-चमत्कार प्रस्तुत करने वाली आधुनिकता, नीति और सदाचार का एक सिरे से दूसरे सिरे तक उन्मूलन करती, मनुष्य को स्वेच्छाचारी बनाती जा रही है।

यह सब बातें कामुकता को प्राकृतिक मनोरंजन मानने और उसे उन्मुक्त रूप से अपनाने के पक्ष में जाती हैं। फलतः बन्धनमुक्त यौनाचार जनसंख्या वृद्धि की नयी विभीषिका खड़ी कर रहा हैं। गर्भ निरोध से लेकर भ्रूण हत्याओं तक को प्रोत्साहन मिलने के बाद भी जनसंख्या वृद्धि में तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही है। पूरी पृथ्वी पर जन संख्या चक्रवृद्धि ब्याज के हिसाब से बढ़ रही है। एक के चार, चार के सोलह, सोलह के चौसठ बनते-बनते संख्या न जाने कहाँ से कहाँ तक जा पहुँचेगी। तीन हजार वर्ष पहले मात्रा तीस करोड़ व्यक्ति सारे संसार में थे, पर अब तो वे छः सौ करोड़ हो गये हैं। लगता है कि अगले बीस वर्षों में कम से कम दूने होकर ऐसा संकट उत्पन्न करेंगे, जिसमें मकान का, आहार का संकट तो रहेगा ही, रास्तों पर चलना भी मुश्किल हो जाएगा।

पृथ्वी पर सीमित संख्या में ही प्राणियों को निर्वाह देने की क्षमता है। वह असीम प्राणियों को पोषण नहीं दे सकती। बढ़ता हुआ जन समुदाय अभी भी अगणित संकट खड़े कर रहा है। खाद्य उत्पादन के लिए भूमि कम पड़ती जा रही है। आवास के लिए बहुमंजिले मकान बन रहे हैं, फिर भी खेती के अतिरिक्त अन्य कार्यों के लिए भी भूमि की बड़ी मात्रा में आवश्यकता पड़ रही है। जंगल बुरी तरह कट रहे हैं। उससे घिरी हुई जमीन को खालीकर लेने की आवश्यकता, कानूनी रोकथाम के होते हुए भी किसी न किसी तरह पूरी हो रही है। बन कटते जा रहे हैं। फलस्वरूप वायु प्रदूषण की रोक थाम का रास्ता बन्द हो रहा है। जमीन में जड़ों की पकड़ न रहने से हर साल बाढ़ें आती हैं, भूमि कटती है, रेगिस्तान बनते हैं। नदियों की गहराई कम होते जाने से पानी का संकट सामने आता है। फर्नीचर, मकान, और जलावन तक के लिए लकड़ी मुश्किल हो रही है। वन कटते की अनेक हानियों को जानते हुए भी, आवास के लिए, खाद्य के लिए सड़कों, स्कूलों और बाँधों के लिए जमीन तो चाहिए। यह सब जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणाम ही तो हैं। इन्हीं में एक अनर्थ और जुड़ जाता है, शहरों की आबादी का बढ़ना। बढ़ते हुए शहर, घिचपिच की गंदगी के कारण नरक तुल्य बनते जा रहे हैं।

कोलाहल, प्रदूषण, गंदगी, बीमारी आदि विपत्तियों से घिरा हुआ मनुष्य, दिनोंदिन जीवनी शक्ति खोता चला जाता है। शारीरिक और मानसिक व्याधियाँ उसे जर्जर किये दे रही हैं। दुर्बलता जन्य कुरूपता को छिपाने के लिए सजधज ही एक मात्र उपाय दीखता हैं।

शरीर और मन की विकृतियों को छिपाने के लिए बढ़ते श्रृंगार की आँधी, आदमी को विलासी, आलसी, अपव्ययी और अहंकारी बना कर एक नये किस्म का संकट खड़ा कर रही है।

चमकीले आवरणों का छद्म उघाड़ कर देखा जाय, तो प्रतीत होता है कि इन शताब्दियों में मनुष्य ने जो पाया है, उसकी तुलना में खोया कहीं अधिक है। सुविधायें तो निःसंदेह बढ़ती जाती हैं, पर उसके बदले जीवनीशक्ति से लेकर शालीनता तक का क्षरण-अपहरण बुरी तरह हुआ है। आदमी ऐसी स्थिति में रह सका है, जिसे उन-भूत-पलीतों के सदृश कह सकते हैं, जो मरघट जैसी नीरवता के बीच रहते और डरती-डराती जिन्दगी जीते हैं।

समृद्धि बटोरने के लिए इन दिनों हर कोई बेचैन है, किन्तु इसके लिए योग्यता, प्रमाणिकता और पुरुषार्थ परायणता-सम्पन्न बनने की आवश्यकता पड़ती है पर लोग मुफ्त में घर बैठे जल्दी जल्दी अनाप-शनाप पाना चाहते हैं।

इसके लिए अनाचार के अतिरिक्त और कोई दूसरा मार्ग शेष रह नहीं जाता। इन दिनों प्रगति के नाम पर सम्पन्न बनने की ललक ही आकाश चूमने लगी है। उसी का परिणाम है कि तृष्णा भी आकाश छूने लगी है। लोगों में अपव्यय और दुर्व्यसन अपनाने की लगन लगी रहती है इस मानसिकता की परिणति एक ही होती है, कि मनुष्य अनेकानेक दुर्गुणों से ग्रस्त होता जाता है। पारस्परिक विश्वास और स्नेह सद्भाव और सहयोग की जिन्दगी जी सकेगा, इसमें संदेह ही बना रहेगा।

अस्त-व्यस्तता और अनगढ़ता ने उभर कर, प्रगतिशील उपलब्धियों पर कब्जा कर लिया लगता है अथवा अभिनव उपलब्धियों के नाम पर उभरे हुए अति उत्साह ने, अहंकार बनकर शाश्वत मूल्यों का तिरस्कार कर दिया है। दोनों में से जो भी कारण हों, वे सर्वथा चिन्ताजनक।

समस्त विश्व के आधे प्रतिभाशाली लोग युद्ध उद्देश्यों के निमित्त किये जाने वाले उद्योगों में प्रकारान्तर से लगे हैं। पूँजी और इमारतें भी इसी प्रयोजन के लिए घिरी हुई हैं। बड़ों के चिंतन और कौशल भी इसी का ताना बुनने में उलझे रहते हैं। इस समूचे तंत्र का उपयोग यदि युद्ध में ही हुआ, तो समझना चाहिए कि परमाणु आयुध धरती का महा विनाश करके रख देंगे। तब यहाँ जीवन नाम की कोई वस्तुतः शेष नहीं रहेगी। यदि युद्ध नहीं होता है, तो दूसरे तरह का नया संकट खड़ा होगा, कि जो उत्पादन हो चुका है उसका क्या किया जाय? जन-शक्ति, धन-शक्ति और साधन-शक्ति इस प्रयोजन में लगी हैं उसे उलट कर नये क्रम में लगाने की विकट समस्या को असम्भव से सम्भव कैसे बनाया जाय?

किसी ने नियति से इस भेद भाव का कारण पूछा। उसने उतर दिया “अपनी-अपनी स्थिति के अनुरूप सभी लाभ हानि प्राप्त करते है।”

इन सबमें भयंकर है मनुष्य का उल्टा चिंतन, संकीर्ण स्वार्थ-परता से बेतरह भरा हुआ मानस, आलसी, विलासी और अनाचारी स्वभाव। इन सबसे मिलकर वह प्रेत पिशाच स्तर का बन गया हैं। भले ही ऊपर से आवरण वह देवताओं का, संतों जैसा ही क्यों न ओढ़े फिरता हो? स्थिति ने जन समुदाय को शारीरिक दृष्टि से रोगी, अभावग्रस्त, चिन्तित, असहिष्णु एवं कातर-आतुर बनाकर रख दिया है। इस सबका समापन किस प्रकार बन पड़ेगा? इन्हीं परिस्थितियों में रहते, अगले दिनों क्या कुछ बन पड़ेगा? इस चिन्ता से हर विचारशील का किंकर्तव्यविमूढ़ होना स्वाभाविक है। सूझ नहीं पड़ता कि भविष्य में क्या घटित होकर रहेगा?


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