आत्मबल ही सर्वोपरि है!

July 1989

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भारत इस समस्त धरातल के हर क्षेत्र में अपने ढंग की अनोखी प्रतिष्ठा प्राप्त करता रहा है। उसकी महानता, समृद्धि, उदारता, उपलब्धियाँ विचित्रता जन-जन के लिए आश्चर्य का विषय रही हैं और भावभरी श्रद्धांजलि अनेकों प्रकार से प्रस्तुत करती रही हैं। ज्ञान और मार्गदर्शन का प्रकाश दे सकने की विशेषता के अनुरूप उसे जगद्गुरु कहा जाता है। शासन, सुव्यवस्था और प्रगति का व्यापक सरंजाम जुटा सकने की विशेषता के कारण उसके नेतृत्व को चक्रवर्ती की संज्ञा दी गई। जो दरिद्रों को संपन्न बना सके, उसकी सम्पन्नता पर कौन संदेह करेगा? यही कारण है कि उसे सोने की चिड़िया और रत्नों की खदान के नाम से पहचाना जाता रहा। स्वर्ण-सम्पदाओं का स्वामी समझे जाने की, यह साधनों के सदुपयोग से उत्पन्न होने वाली सुसम्पन्नता ही उसकी समृद्धि समझी गई, भले ही यहाँ के लोग व्यवहारतः औसत नागरिक स्तर का जीवन यापन ही क्यों न करते रहे हों?

भारत की अपनी साँस्कृतिक परम्परा इतनी उत्कृष्ट और इतनी सशक्त रही है कि नर-वानर का जीवन जीने वाले अनगढ़ लोग यह कल्पना तक न सके कि कोई अपनी निजी प्रतिभा को परिष्कृत करके दूसरों की तुलना में असंख्यगुना वजनदार भी बन सकता है। बात समझ में न आने से यह मान कर संतोष करना पड़ा कि यह लोग किसी असामान्य वर्ग के हैं इनमें कोई चमत्कारी देव आवेश प्रदेश कर गया जो हम जैसों में नहीं हो सकता। इस मान्यता ने संसार भर के लोगों के मनों में यह मान्यता जतादी कि भारत भूमि पर रहने वाले देव मानव हैं। इसी धारणा का दूसरा चरण यह है कि जहाँ देवता बसते हैं वह स्वर्ग होता है। यह कसौटी भी खरी उतरती रही कि देव मानवों में सौजन्य, सहयोग और सेवा साधना में निरत होने के कारण वैयक्तिक सम्बन्धों, सामाजिक प्रचलनों और स्नेह-सौहार्द के आधार पर उभरते-बिखरते आनन्द उल्लास की भी यहाँ कमी नहीं है। तब यह मान्यता सहज ही बनती है कि भारत की भूमि पर ही स्वर्ग का अवतरण हुआ है और धरित्री ही “स्वर्गादपि गरीयसी” है। भगवान के अवतार जितने भी हुए हैं वे 10 या 24 जन्मे इसी धरित्री पर हैं। आकाश में उड़ने और अदृश्य रहने वाले अजर अमर, देवताओं को पकड़ पाना तो मुश्किल था, पर ऋषियों, मुनियों और मनीषियों की प्रज्ञा और आश्चर्यजनक पुरुषार्थ परायणता, कर्तव्यनिष्ठ तत्परता को देखते हुए मान्यता बना ली गई कि देवता संदेह भारत भूमि पर विचरण करते हैं और उनने ही किसी अविज्ञात लोक में अवस्थित धरती पर स्वर्ग को उतार कर ठीक वैसी ही अनुकृति यहाँ तैयार कर ली है।

संसार भर के मनुष्य समुदाय ने भारतीय देव मानवों को कुछ भी कर सकने में समर्थ पाया और उनके नेतृत्व का भर पूर लाभ उठाया।

युग निर्माण योजना द्वारा प्रकाशित-”समस्त विश्व को भारत के अजस्र अनुदान” ग्रन्थ में अगणित और ऐतिहासिक साक्षियों समेत यह सिद्ध किया है कि इस देश के निवासी अपने अपने निवास क्षेत्र तक ही अपनी महान गतिविधियों को सीमित नहीं करते रहे। वरन् उनने भूमण्डल के समस्त खण्डों, उपखण्डों, क्षेत्रों देशों की अतिकष्ट साध्य बाधाएँ करके इस बात का प्रबल प्रयास किया कि पिछड़ापन किसी भी क्षेत्र में अपनी जड़ जमाये न बैठा रहे। उसे आवश्यक उत्साह और पुरुषार्थ के लिए उभार कर उस तरह खदेड़ दिया जिस प्रकार कि सत्ता को अनायास ही तिरोहित कर देता है। जिन्हें इस संदर्भ में विस्तृत जानकारी की अपेक्षा हो वे उपरोक्त पुस्तक प्रथम श्रृंखला को ध्यानपूर्वक पढ़ लें। यही है भारतीय संस्कृति की महान परम्परा, जिसे अपनाने वाले को स्वयं देवोपम, चरित्रवान और आदर्शवादिता के पक्षधर पुरुषार्थ के लिए समर्पित होना पड़ता है

कोलम्बस ने यही यश गाथा अपने देश स्पेन-में जन-जन से सुन रखी थी। वह इस सोने की खदान में कुछ पाने-बटोरने के लिए आकुल-व्याकुल होकर एक जलयान में बैठकर खोजने निकल पड़ा। सही दिशा ज्ञान न होने से भारत तो न पहुँच सका, पर अमेरिका के तट पर जा पहुँचने पर उसे ही भारत समझ लिया और वहाँ के निवासियों की लाल चमड़ी देखकर उन्हें ‘‘रेकड इंडियन’’ नाम दे दिया। यह घटना बताती है कि यहाँ की प्रगतिशीलता को धरती के हर कोने पर किस दृष्टि से देखा जाता था।

दूसरे यात्री भी संभवतः इसी टोट में लम्बी कष्ट साध्य यात्राएँ करते हुए वहाँ जा पहुँचे और जो कुछ देखा उसका आँखों देखा परिचय बताने के लिए सुविस्तृत ग्रन्थ लिखे। ऐसे यात्रियों में फाह्मान, ह्वेनसाँग, मैकबर्नर आदि के नाम से प्रसिद्ध हैं। महाप्रभु कहे जाने वाले ईसा ने अपनी जिन्दगी की लम्बी अवधि इसी देश में रह कर बितायी और जो प्रकाश पाया, उसे अपनी भाषा में अपने ढंग से कहा और फैलाया। ईसाई धर्म को बौद्ध धर्म की अनुकृति के रूप में पर्यवेक्षकों ने माना और कहा है।

यह सिलसिला लम्बी अवधि से चलता रहा हैं पाल ब्रण्टन भारत के माध्यम से चमत्कारों की खोज में आये। उनने अपने अनुभवों के रूप में आश्चर्य चकित करने वाला साहित्य प्रकाशित किया है। फ्रांस की श्री माँ, इसी उद्देश्य से भारत आई और वे अरविंद आश्रम की अविच्छिन्न सदस्य बन कर यहीं रह गयी। एनीबेसेन्ट, गान्धी आश्रम की मिस स्लेड और “संरक्षण या विनाश” की सुप्रसिद्ध लेखिका सरला बेन जो ब्रिटिशमूल की थीं जीवन के अंत तक यहीं रहीं। विवेकानन्द की सहायिका के रूप में यहीं निवास करने वाली, सिस्टर निवेदिता का नाम हर किसी ने सुना है। पादरी सी.एफ.एन्ड्रयूज की भारत व प्रवासी भारतीयों के लिये की गई सेवाओं को कोई भुला नहीं सकेगा। इस आकर्षण का अन्त कुछ व्यक्तियों का उल्लेख करने भर से देखा नहीं जा सकता। इस देश की आबादी का पर्यवेक्षण करने पर पता चलता है कि यहाँ पारसी, मुस्लिम, ईसाई आदि अन्यान्य धर्मावलम्बी किस उत्साह के साथ आये और वातावरण को देखते हुए सदा सर्वदा के लिए यहीं बस गये। कल्पवृक्ष की छाया में बैठने के बाद उससे वापस लौटने का मन भला किसका होगा? और क्यों होगा? इस संदर्भ में आश्चर्यचकित होने वालों ने यहाँ विशेष रूप से अपनाई गई ‘योग विद्या’ को महत्व दिया है और उसे चमत्कारों की जन्मदात्री कहा है। बात सच भी है पर भ्रान्तियों, अत्युक्तियों और निहित स्वार्थ के जाल-जंजाल ने उसका स्वरूप ऐसा विचित्र बना दिया जादूगरी, बाजीगरी के आधार पर अजूबे दिखाने और शिगूफे छोड़ने के स्तर की ठग विद्या के अतिरिक्त और कुछ कहा नहीं जा सकता है। पर बात वस्तुतः ऐसी है नहीं। योग एक अत्यंत उच्चकोटि की विज्ञान सम्मत विद्या है। जिसे दो तथ्यों पर आधारित माना जा सकता है। इनमें से एक है-तपश्चर्या, जिसका बोलचाल की भाषा में अर्थ होता है-संयम अपनाना, अनुशासित रहना और लक्ष्य प्राप्ति के लिए तितीक्षा के रूप में कष्ट साध्य परिस्थितियों का सामना करने के लिए अपने को अभ्यस्त बनाना। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कई प्रकार के साधना विधान, कर्म काण्ड, व्रत, उपवास, पदयात्रा आदि करने के विधान हैं। पर उन्हें साधन मात्र ही माना जा सकता हैं, साध्य नहीं। साध्य नहीं। साध्य तो व्यक्तित्व में परिपक्वता, प्रखरता और शालीनता का ऐसा समावेश करना है जो आकर्षणों और दबावों के आगे डगमगाये नहीं। आन पर अड़ा रहे। अनीति में सहगामी या सहयोगी बने से स्पष्ट इन्कार कर दे भले ही इसके बदले आततायियों का कितना रोष, आक्रमण, आतंक सहन करना पड़े। ऐसी मनःस्थिति को परिपक्व किये बिना ही तपश्चर्या के नाम से जाने वाले काय कष्टों की गणना होती रहती है। आश्चर्य इसी बात का है कि लोग लक्ष्य को भुला कर कर्मकाण्डों की पूर्ति भर से और अर्थ लगाने लगते हैं कि उन्हें इन कसरतों के सहारे ही सिद्ध पुरुष बनने का अवसर मिल जायगा।

तपश्चर्या का दूसरा पक्ष है योग साधना। तपश्चर्याएं शरीर प्रधान होती हैं और योग मन को अवांछनियताओं से मुक्ति दिला कर आत्म विस्तार की परिधि में प्रवेश करने को कहते हैं। इस और भी अधिक स्पष्ट एवं सरल रूप में समझना हो तो यों कहा जा सकता है कि अपने कार्यक्षेत्र को ऐसा बनाया जाय जिसमें सुनियोजित व्यवस्था उपक्रम के अतिरिक्त और कुछ दीख न पड़े। मनीषियों को यही सोचना और यही करना होता है। वे अव्यवस्था जन्य दुष्प्रवृत्तियों को लुहार की तरह घन बजाकर सीधी करती हैं और अपेक्षित धातु खण्ड की गलाई-ढलाई करके उन्हें अति महत्वपूर्ण उपकरण का स्वरूप प्रदान करते हैं। इसके लिए प्राणायाम, जप, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि आदि कई प्रकार के मार्ग अपनाये जाते हैं। ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग की त्रिपदा विद्या भी इसी निमित्त विनिर्मित हुई। अनुष्ठान, पुरश्चरण, व्रतधारण आदि का निर्धारण भी इसी निमित्त हुआ है। इतने पर भी यदि इन सब चित्र-विचित्र कर्मकाण्डों के पीछे अन्तःकरण का विस्तृतीकरण ध्यान में नहीं है तो समझना चाहिए कि उसे बच्चों के खिलवाड़ से और अधिक कुछ भी नहीं कहा जा सकेगा।

जिस योगविद्या के कारण भारत को स्वर्ग की उपमा दी जाती थी, वह वस्तुतः व्यक्तित्व में सन्निहित प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष क्षमताओं का ऐसा विकास ही है जो अपने कण-कण को प्रतिभा से सुसम्पन्न कर शरीर को ओजस्वी, मन को तेजस्वी और अन्तःकरण को ब्रह्मवर्चस् से अभिभूत करने में अपनी यथार्थता का प्रत्यक्ष प्रमाण नकद धर्म की तरह हाथों हाथ प्रस्तुत कर सकें। ऐसे योगी साधारण रहन-सहन छोड़कर चित्र-विचित्र वेष धारण करें, यह बिलकुल ही आवश्यक नहीं है।

गान्धी को इंग्लैण्ड की सरकार के आदेश पर वायसराय ने मिलने बुलाया। वे गये थे। उपयोगी वार्तालाप भी हुआ। पर वायसराय ने इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री की यह बात पूरी तरह ध्यान में रखी कि गान्धी से आँख में आँख डालकर बात न करें। वे जादूगर हैं, जिस पर नजर डालते हैं उसी को वशीभूत कर लेते हैं। मान्यता सर्वथा झूठी भी नहीं थी। जब असहयोग आन्दोलन शुरू हुआ तो इंग्लैण्ड यही कहता कि दमन उसी सीमा तक किया जाय जिससे गान्धी फट न पड़े। यह 16 पौण्ड का बमगोला यदि फट पड़ा तो ब्रिटिश शासन का कही अता पता भी न चलेगा। गोलमेज कान्फ्रेंस में गान्धी जी इंग्लैण्ड गये और अनेक लोग उस सम्मेलन में थे पर शासक पक्ष के हर वरिष्ठ अधिकारी की आँखें गान्धी पर ही टिकी थीं और यही उत्सुकतापूर्वक जाना जा रहा था कि यह व्यक्ति आखिर कहता क्या है। उनके एक एक शब्द का वजन तौला गया और उन दिनों तो कम से कम यही लग रहा था कि गान्धी जी पूरी तरह जीत कर वापस लौट हैं।

योगी वर्ग में एक नाम विनोबा का भी हे जिनने-’आराम हराम है’ का मंत्र अपनी जीवन चर्या के हर कण में समा और बसा लिया था। उन्होंने बड़ी योजनाएँ बनाई और उनकी व्यावहारिकता अभीष्ट सफलता के सहारे सिद्ध करके दिखाई। भू-दान, श्रमदान, सर्वोदय आदि की प्रवृत्तियाँ उन दिनों इतने जादुई क्रम से सफलता के शिखर पर पहुँची कि लोग हतप्रभ और आश्चर्यचकित होकर रह गये। इसे कहते है अध्यात्म शक्ति जिसके कारण गान्धी जी ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाकर व्यक्तिगत सत्याग्रह का प्रमुख बनाया था।

महान आन्दोलनों के जन्मदाता किस प्रकार कोटि-कोटि लोगों पर हावी हो गये इसकी गाथाएँ भी इन्हीं दशाब्दियों के इतिहास के पृष्ठों पर नजर डाल कर उदाहरणों का ढेर सामने खड़ा देखा जा सकता है। लेनिन के आरंभिक निजी जीवन को समझने वाला कोई भी व्यक्ति यह आशा नहीं कर सकता था कि यह व्यक्ति अपने देश को इतने आश्चर्यजनक ढंग से कुशासन से मुक्त करा लेगा और आधी दुनिया के विचारों पर हावी हो जायेगा। कितने ही देशों में साम्यवादी शासन का प्रचलन कर सकने में सफल होगा।

वेडैनपावेल का स्काउटिंग आन्दोलन अपने समय की महत्वपूर्ण देन है। दास-दासी प्रथा से लेकर जमींदारों की तानाशाही के अभेद्य दीखने वाले किले मनस्वियों की प्रबल चेतना के आधार पर ही ढह सके जिनके बारे में कुछ दिन पूर्व तक कोई यह कल्पना तक नहीं करता था कि वह सब संभव हो सकेगा।

यदि किसी को पुरातन भारत की सशक्त महानता का आधार अध्यात्म योग मानने का शब्द मोह है तो उसके साथ इतना और जोड़ना चाहिए कि उसका भव्य भवन दो आधार पर ईंट चूने की तरह विनिर्मित हुआ था। उनमें से एक था तप अर्थात् व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय साहसिकता से भरा-पूरा प्रतिभा सम्पन्न बनाना और दूसरा सुव्यवस्था बना सकने की प्रवीणता का प्रतिनिधित्व कर सकने वाले कौशल का पक्षधर दृष्टिकोण परिमार्जित करना। इन दोनों के लिए यदि चरमस्तर का प्रयत्न बन पड़े तो समझना चाहिए कि अध्यात्म योग का वास्तविक अर्थ समझ लिया गया। उस स्तर की प्राप्ति ही उन सफलताओं को प्रस्तुत करती है जिन्हें ऋद्धि-सिद्धियों के नाम से जाना जाता है। वे किसी पर आसमान से पुष्प वर्षा होने की तरह बरसती नहीं है।

दक्षिणमुखी गंगाप्रवाह को मोड़ते मरोड़ते गंगा को पूर्व की ओर बहने के लिए बाधित करने वाले तपस्वी भागीरथ की कथा-गाथा प्रसिद्ध है। उन्हीं को भागीरथी का पिता कहलाने का श्रेय प्राप्त है। ऐसा ही एक प्रयास अनुसुइया ने चित्रकूट के समीप मंदाकिनी को अभीष्ट दिशा में ले जाने का किया था। कहते तो यहाँ तक हैं कि उनके तेजस् से प्रभावित होकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश तक बालक बनकर अनुशासन पालने के लिए विवश हुए थे। पाण्डवों के छोटे से समुदाय ने कौरवों की विशाल सेना को परास्त करके रख दिया था। इस अद्भुत सफलता के पीछे योगेश्वर कृष्ण की योजना बद्ध रणनीति काम कर रही थी। वे ही रथ के घोड़े चला रहे थे। हनुमान के पर्वत उखाड़ लाने जैसे पराक्रम के पीछे उनकी प्रत्यक्ष नहीं परोक्ष शक्ति ही काम कर रही थी। वही जामवन्त के उद्बोधन पर जगी और लंका दहन में महत्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न करने में सफल हुई थी। परशुराम के कुल्हाड़े और अर्जुन के गांडीव की शक्ति सुनने वालों तक को रोमाँचित करती है।

राजा छत्रसाल जब आक्रमणकारियों से लड़ने में भारी आर्थिक कठिनाइयों में पहुँच गये थे, तब उनके गुरु प्राणनाथ ने वरदान दिया था कि पहाड़ी पर रातभर घोड़े दौड़ाते रहो। जहाँ भी टाप पड़ेगी वहीं हीरे-पन्नों के भण्डार निकलेंगे। बात सच निकली और उनकी आर्थिक कठिनाई दूर हो गई। आज का पन्ना छतरपुर वही क्षेत्र है। विवेकानन्द को संसार भर में भारतीय संस्कृति की पताका फहराने में उनके समर्थक सहायक रामकृष्ण परमहंस की दिव्य क्षमता काम करती रही। ऐसे अगणित प्रसंग हैं जिनसे प्रतीत होता है कि अद्भुत शक्तियों और सफलताओं का उद्भव मनुष्य के अन्तराल से होता है। योग-तप जैसे उपचारों से उसे अपने भीतर से ही जगाया एवं उभारा जाता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118