बड़े कामों के लिए वरिष्ठ प्रतिभाएँ

July 1989

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मजबूत किलों का विस्मार करने के लिए अष्टधातु तोपों की गोलाबारी ही काम आती है। पहाड़ों को समतल बनाने के लिए डायनामाइटों की सुरंगों का प्रयोग करना पड़ता है। रेल के डिब्बे पटरी पर से उतर जाने पर उन्हें उठाने के लिए बड़ी ताकत वाली क्रेन ही अभीष्ट उद्देश्य पूरा करती हैं। कठिन मोर्चे जीतने के लिए प्रवीण पारंगत दुस्साहसी सेनापति ही विजय श्री वरण करता है। ऐसे बड़े कामों के लिए छिटपुट साधनों का उपयोग निरर्थक सिद्ध होता है।

बड़े कामों का दायित्व उठाने और उन्हें पूरा करने की जिम्मेदारी असाधारण क्षमता सम्पन्नों को ही सौंपी जाती है। यों महत्व गधों और बकरों का भी है, पर उनकी पीठ पर हाथी वाली अम्बारी नहीं कसी जा सकती। सौ खरगोश मिल कर भी एक चीते से दौड़ में आगे नहीं निकल सकते। बड़े कामों के लिए बड़ों की ही तलाश करनी पड़ती है।

इन दिनों बड़ी उथल-पुथल होने जा रही है। शताब्दियों से संचित सड़ाँध भरे कचरे को हटाया और ठिकाने लगाया जाना है। कँटीली झाड़ियों वाले जंगल के स्थान पर सुरम्य उद्यान खड़े करना सहज काम नहीं है। धुल भरे तवे के समान जलते रेगिस्तान को भी लोगों ने लहलहाती हरियाली से सुरम्य बनाया है, पर इसके लिए पैनी सूझबूझ का परिचय देने और विपुल साधन जुटाने की आवश्यकता पड़ी हैं। समुद्र को छलाँगने और संजीवनी बूटी वाला पर्वत उखाड़ कर लाने का चमत्कार हनुमान ही प्रस्तुत कर सके थे। हर बन्दर ऐसा दुस्साहस कर दिखाने की हिम्मत नहीं कर सकता। असुरता का व्यापक साम्राज्य ध्वस्त करने और उसके स्थान पर सतयुगी रामराज्य का वातावरण बनाने के लिए बड़ी योजना और उपयुक्त साधन जुटाने की क्षमता ही अभीष्ट उद्देश्य पूरा कर सकी थी। ऐसी आशा हर साधारण से नहीं की जा सकती। समुद्र सोखने की चुनौती ऋषि अगस्त्य ही स्वीकार कर सके थे।

इन दिनों अनौचित्य की बाढ़ को रोकने और दलदल को मरुस्थल बनाने जैसी समय की चुनौती सामने है। विनाश के ताण्डव को रोकना और विकास का उल्लास भरा सरंजाम जुटाना ऐसा ही है, जैसे खाई को पाटने के साथ साथ उस स्थान पर ऊँची मीनार खड़ी करने जैसे दुहरे पराक्रम का काम करना। इस प्रवाह को उलटना ही नहीं, उल्टे का उलट कर सीधा करना भी कह सकते हैं। यों मनुष्य ही असंभव को संभव कर दिखाते रहे हैं, पर उसके लिए कटिबद्ध होना ही नहीं, अपने को क्षमता सम्पन्न सिद्ध करके दिखाना दुहरे पराक्रम का काम है। युग परिवर्तन की इस विषम बेला में ऐसा ही कुछ बन पड़ने की आवश्यकता है जैसा कि घोर अंधकार से भरी तमिस्रा का स्वर्णिम आभा वाले अरुणोदय के साथ जुड़ना। इति और अथ का समन्वित संधिकाल यदा कदा ही आता है। इसकी प्रतीक्षा युग-युगान्तरों तक करनी पड़ती है। इन दिनों ऐसा ही कुछ होने जा रहा है।

विभीषिकाओं का घटाटोप हर दिशा में गर्जन-तर्जन करता देखा जा सकता है। जो चल रहा है, उससे विपत्तियों का संकेत ही मिलता हे। दुर्बुद्धि ने चरमसीमा तक पहुंच कर ऐसी संभावना प्रस्तुत कर दी है, जिसे बुरी किस्म की दुर्गति ही कह सकते हैं। अधोगामी प्रवाह को और अधिक उत्तेजित कर देना सरल है, पर उसे उलट कर सृजन की दिशा में योजनाबद्ध रूप से नियोजित कर सकना ऐसा है, जिसकी विश्वकर्माओं से ही आशा की जा सकती है। उन्हीं की पुकार दसों दिशाओं में है। समय की गुहार उन्हीं को खोज निकालने या नये सिरे से ढालने की मची हुई है। बड़े काम आखिर बड़ों के बिना कर कौन पायेगा?

प्रश्न क्षेत्र विशेष की परिस्थितियों से निबटने का नहीं है और न समुदाय विशेष से निबटने का। अभावों को दूर करने का भी नहीं है। और न साधन जुटाने की अनिवार्यता जैसा। अति कठिन कार्य सामने यह है कि संसार भर के मानव समुदाय पर छाई हुई विचार-विकृति का परिशोधन किस प्रकार किया जाय? यह कार्य लेखनी, वाणी एवं प्रचार माध्यमों से भी एक सीमा तक ही हो सकता है, सो भी बड़ी मंदगति से, जबकि आवश्यकता इस बात की है कि लोक चिन्तन में गहराई तक घुसी हुई भ्रष्टता से कैसे निबटा जाय और उसके फलस्वरूप जो दृष्ट आचरण का सिलसिला चल पड़ा है, उसके उद्गम को बन्द कैसे किया जाय? धूर्तता इन दिनों इस कदर बढ़ी हुई है कि वह कानूनी दण्ड-व्यवस्था से लेकर धर्मावेश स्तर की नीति-मर्यादा को भी अंगूठा दिखाती है। सदाशयता का जोर-शोर से समर्थन करने वाले ही जब नये-नये मुखौटे बदल कर कृत्य-कुकृत्य करने की दुरभिसंधियाँ रचते रहें, तो उन्हें कौन किस प्रकार समझाये? जागते हुए को क्या कह कर सोते से जग पड़ने की आवश्यकता समझाये?

उपाय एक ही शेष रह जाता है कि ऐसी प्रतिभाएँ नये सिरे से उभरें जो अपना निज का आदर्श प्रस्तुत करते हुए यह सिद्ध करें कि सही मार्ग पर चलना न तो घाटे का सौदा है, न असंभव और अव्यावहारिक। खरा उदाहरण प्रस्तुत करना ही एकमात्र ऐसा उपाय अभी भी शेष है, जिसके आधार पर आदर्श अपनाने के लिए भी लोगों को सहमत एवं प्रोत्साहित किया जा सकता है। विशेषतः तब, जब चोर जुआरी, लबार, व्यभिचारी, नशेबाज, अनाचारी अपनी कथनी और करनी में एकता दिखा कर अनेकों को अपने साथ चलने के लिए सहमत कर सकें।

प्रतिभाओं को दुहरे मोर्चे पर लड़ने का अभ्यास करना चाहिए। उनमें से एक है दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन और दूसरा सत्प्रवृत्ति−संवर्धन। इन प्रयासों का शुभारंभ अपने निज के जीवन क्रम से आरंभ करके परिवार में प्रचलित किया जा सकता है। इसके बाद पड़ोसियों, स्वजन-संबंधियों, परिचितों, घनिष्ठों और उन सब को आलोक वितरण से लाभान्वित किया जा सकता है, जो अपने प्रभाव परिचय क्षेत्र में आते हैं।

अपनी आदतों में ऐसी अनेकों हो सकती हैं, जिनके स्वभाव में समाहित हो जाने के कारण अखरने की नौबत तो नहीं आती, पर लकड़ी में लगे घुन की तरह निरन्तर खोखला करने में वे अनवरत रूप से लगी रहती हैं। निबटने के लिए मोर्चेबंदी यही से आरंभ करनी चाहिए। सबसे बुरी किन्तु सर्वाधिक प्रचलित कुटेव एक ही है, वह है-आलस्य। चोरी अनेक तरह की होती हे, किन्तु अपने आप को और संगे संबंधियों को सबसे अधिक हानि पहुँचाने वाली है “कामचोरी”। इसमें प्रतीत भर ऐसा होता है कि आराम से रह रहे हैं, मजे के दिन कट रहे हैं, पर सच बात तो यह है कि इस कुटेव के कारण आदमी दिन-दिन अनुपयोगी, अनगढ़, अयोग्य, अक्षम, अशक्त होता जाता है। प्रगति की समस्त संभावनाएँ आलसी को दूर से ही नमस्कार करके उल्टे पैरों लौट जाती हैं। पड़े रहने पर चाकू को जंग खा जाता है, बीज अपनी उपजाने की शक्ति गँवा बैठता है। पान सड़ जाना और घोड़े का बँधे-बँधे अड़ियल हो जाना प्रसिद्ध हे। शरीर परिश्रम से जी चुरायेगा, तो मस्तिष्क भी अपनी बौद्धिक तीक्ष्णता गँवा बैठेगा। आलसी क्रमशः अधिकाधिक प्रभावी बनते चले जाते हैं। उन्हें दरिद्रता लिपटती चली जाती है। न स्वच्छता रह पाती है और न सुधार स्तर की, किसी विधि-व्यवस्था को कार्यान्वित करने की गुंजाइश रह जाती है। निकम्मे व्यक्ति का सम्मान न अपनी आँख में रहता है और न स्वजन-संबंधी ऐसों की इज्जत करते हैं। इन्हें अर्ध मृतक नहीं तो जागते हुए भी सोते रहने वाले मूर्छित कहना चाहिए। इनकी योग्यताएँ क्रमशः पलायन करती जाती हैं और आत्महीनता छाई रहने पर जवानी में ही बूढ़ों से गई-गुजरी स्थिति बन जाती हे।

समय ही धन है। उसे श्रम के साथ नियोजित करके भी दिशा में अग्रसर हुआ जा सकता है। आलसी को भी तो निर्वाह खर्च तो चाहिए ही, पर श्रम के अभाव में उत्पादन घटता जाता है। इसमें आर्थिक, शारीरिक, मानसिक हानि-ही हानि है। जो परिश्रम से जितना जी चुराता है, उसे अभागा कहना चाहिए। न उसका भाग्य जगता है और न भविष्य बनता है। इन्हें अपने लिए अन्यों के लिए, समाज के लिए, राष्ट्र के लिए और विश्व के लिए भारभूत ही कहा जा सकता है, भले ही वे अपनी आरामतलबी को सौभाग्य का चिन्ह मानते रहें सड़ी कीचड़ में अनेकों घिनौने कृमि-कीटक उपजते और दुर्गन्ध से लेकर बिमारियों तक के निमित्त कारण बनते हैं। इसी प्रकार आलसी प्रमादी की अस्तव्यस्तता उसे अन्यान्य दुर्व्यसनों का अभ्यस्त बना देती है।

पसीने की हर बूँद मोती है। जीवन की बहुमूल्य श्रृंखला क्षणों के छोटे-छोटे कणों से मिल कर बनी है। समुन्नत वे रहे हैं, जिन्होंने समय का मूल्य समझा और उसकी हर इकाई का श्रेष्ठतम एवं क्रमबद्ध व्यस्त उपयोग करने का तारतम्य बिठाया। जो आलस-प्रमाद में उसे गँवाते रहते हैं, धीमी गति और तारतम्य में उसे ज्यों-त्यों करके काटते रहते हैं, वे किसी प्रकार अपनी मौत के दिन पूरे भर कर पाते हैं और तो कुछ मिलना ही उन्हें क्या था, प्रतिभा परिवर्धन के सहज लाभ तक से वे वंचित रह जाते हैं। यह दुर्घटना अपने या अपने किसी प्रिय पात्र के जीवन घटने न पाये, इसका विशेष सतर्कतापूर्वक ध्यान रखे जाने की आवश्यकता है। लम्बे समय के भारी और कठिन काम करने वालों को बीच-बीच में थोड़ा सुस्ताने की आवश्यकता अवश्य पड़ती है, पर उसकी क्षतिपूर्ति थोड़ी देर के लिए काम या मन बदलने भर से पूरी हो जाती है। हृदय जन्म के दिन से लेकर मरण पर्यन्त धड़कता रहता है इसी अवधि में वह कुछ मिली सेकेंड का विश्राम भी ले लेता है। हमारे भी काम और विश्राम के बीच इसी प्रकार का तालमेल बिठाया जाना चाहिए।

दार्शनिक पाप-पुण्य की और स्वर्ग नरक की परिभाषा दूसरी तथा उच्च स्तर की है, पर व्यावहारिक धर्म विज्ञान में आलस को पाप और सुनियोजन को पुण्य माना जाय, तो ही ठीक रहेगा, क्योंकि इनका प्रतिफल नकद धर्म की तरह हाथों-हाथ मिलता है। सुनियोजन का अर्थ है-सुव्यवस्था। यह ऐसा गुण है, जिस पर अन्य सभी गुण निछावर किये जा सकते हैं। अपनी, अपनों की, अपने दायित्वों की क्रमबद्ध व्यवस्था बना लेना इस बात का प्रमाण है कि व्यक्ति की दूरदर्शिता, विवेकशीलता और कार्यकुशलता उच्चस्तर की है। कारखानों दफ्तरों में मैनेजरों की योग्यता पर उनका संभलना-बिगड़ना निर्भर रहता है। शासन में गवर्नर प्रान्तों के संरक्षक माने जाते हैं। अंग्रेजी शासन के जमाने में भारत के प्रधान व्यवस्थापक को गवर्नर जनरल कहते थे। वह पद सबसे ऊँचा माना जाता था।

“सुपरिण्टेण्डेण्ट” शब्द भी प्रायः इसी अर्थ का बोधक है।

महत्वपूर्ण सफलताएँ जब भी जहाँ भी, जिन्हें भी, मिली हैं, उसमें व्यवस्था तंत्र की प्रमुख भूमिका रही है। सेनापतियों का कौशल उनकी रणनीति के आधार पर आँका जाता है। योजनाबद्ध उपक्रम बनाकर ही विशालकाय निर्माण कार्य बन पड़ते है। श्रमिकों को-साधनों को पर्याप्त मात्रा में जुटा लेने पर भी इस बात की गारण्टी नहीं होती कि जितनी जिस स्तर की सफलता अभीष्ट थी, वह मिल ही जायेगी। वह संभावना इस बात पर निर्भर रहती है कि आज के उपलब्ध साधनों का किस प्रकार श्रेष्ठतम उपयोग करते बन पड़ा। यह इस बात पर निर्भर रहता है कि हाथ के नीचे जो काम है, उसके अनुकूल और प्रतिकूल पक्ष की हर हलचल और समस्या को कितनी गंभीरता और यथार्थता के साथ आँका गया, समय रहते उनसे निबटने का किस प्रकार जुगाड़ बिठाया गया। सफलता ऐसे ही लोगों को वरण करती हे। श्रेयाधिकारी वे ही बनते हैं, जो मात्र अपने जिम्मे के काम को किसी प्रकार बेकार भुगत लेते हैं उन्हें श्रमिक भर कहा जा सकता है। व्यवस्थापक का श्रेय तो उन्हें मिल ही नहीं पाता।

परिपूर्ण दिलचस्पी, एकाग्र मनोयोग, समुचित उत्साह और आगे बढ़ने का अदम्य साहस मिलकर ही ऐसी स्थिति विनिर्मित करते हैं, जिसमें बड़े काम सध सकें, भले ही प्रयत्न कर्त्ता साधारण साधनों, साधारण योग्यताओं वाला ही क्यों न हो। ऐसे लोग परिस्थितियों की प्रतिकूलता से भयभीत नहीं होते। उन्हें अनुकूल बनाने में अपनी समग्र क्षमता को दांव पर लगाते हैं। ऐसे ही लोग नेतृत्व करने के अधिकारी होते हैं। यों ऊँची कुर्सी पर बैठने और ऊँची पदवी पाने के लिए तो नर वानर भी लालायित रहते है।

निजी जीवन में प्रतिभा परिष्कार का शुभारंभ आलस्य और प्रमाद से निबटने का लक्ष्य सामने रखकर करना चाहिए। छोटे काम सहायकों से कराते हुए बड़े, कठिन और वजनदार कार्यों का दायित्व अपने कँधे पर ओढ़ना चाहिए। हलके काम तलाश करने और किसी प्रकार मौज-मजे में समय काटने की आदत मनुष्य को आजीवन अनगढ़ ही बनाये रहती है। जो अपने हिस्से के काम के साथ-साथ समूचे सम्बद्ध क्षेत्र के हर पक्ष के उतार-चढ़ावों का ध्यान रखते हैं और सम्बद्ध व्यक्तियों को उसमें सुधार के आवश्यक परामर्श, प्रस्ताव के रूप में नम्रतापूर्वक देते रहते हैं, वस्तुतः उन्हीं को सूत्र संचालक समझा जाता है और उन्हीं की अवस्था बुद्धि प्रस्तुत योजना को अनेक भँवरों में से पार निकालती हुई किनारे तक ले जाती है। पर ऐसे लोग अहंकारी और आग्रही नहीं होते। आदेश भी नहीं देते। अपने प्रस्ताव इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं जिसमें अपने अहंकार के, विशेषज्ञ होने की गंध न आती हो और दूसरों पर आक्षेप या दोषारोपण न लदता हो। सत्परामर्श की नहीं, तिरस्कार पूर्ण आदेश की ही अवहेलना होती है, कारण कि इससे दूसरों के स्वाभिमान को चोट जो लगती है।

कोल्हू का बैल भी अपने नियत काम में लगा रहता है। विशेषता उसकी है जो सम्बद्ध परिकर के हर पक्ष पर ध्यान रखता है। संभावनाओं की कल्पना करता है और शतरंज की गोटियों की तरह सतर्कता पूर्वक बाजी जीतने वाली चाल चलता रहता है व्यवस्थापक ऐसे ही लोग बन पाते हैं और वे न केवल काम का वरन समूचे सम्बद्ध परिकर की सुनियोजन कर सकने की क्षमता सिद्ध करते हुए अगले दिनों अधिक ऊँची श्रेणी का दायित्व सौंपे जाने का श्रेय उपलब्ध करते हैं। व्यावहारिक क्षेत्र का धर्मात्मा ऐसे ही लोगों को कहना चाहिए। अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य आदि।

दार्शनिक सद्गुण तो प्रथम डिवीजन में उत्तीर्ण होने के उपरान्त की सफलतापूर्वक संचित किये जा सकते हैं। आरंभ तो निजी जीवन में उत्साह भरी व्यस्तता अपनाने से होता है और परिवार क्षेत्र में व्यवस्था सम्बन्धी प्रगति-प्रयोग करना सरल पड़ता है। परिवार के सदस्यों से निरन्तर संपर्क रहता है उनके साथ आत्मीयता भरा बन्धन भी रहता है इसलिए अनुशासन पालने के लिए उन्हें अनुरोध एवं आग्रह के आधार पर अधिक अच्छी तरह सुनियोजित किया जा सकता है। इसी अभ्यास को जब व्यवसाय या समाज क्षेत्र में प्रयुक्त किया जाता है तो उस बड़े क्षेत्र की बड़ी सफलता का श्रेय भी अधिक मिलता है और व्यक्तित्व में प्रतिभा-परिवर्धन का लाभ भी अनवरत रूप से मिलता चला जाता है।


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