अभ्युदय का आधार और उद्भव!

July 1989

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प्रतिभा मनुष्य जीवन की मौलिक सम्पदा है। जिन्हें दृश्यमान भौतिक सम्पदा समझा जाता है वे सभी संसार के बाजार में प्रतिभा की कीमत पर खरीदी जाती हैं। अनेकों सुविधा सामग्रियाँ पैसों के मोल पर खरीदी जाती हैं। बिना मूल्य चुकाए यहाँ किसी को कुछ भी उपलब्ध नहीं होता। यहाँ तक कि चोर उचक्के तक अपनी सूझबूझ, फुर्ती और चतुरता के बदले ही कुछ बटोर पाते हैं। उत्तराधिकार में मिली सम्पदा अपनी निजी की न सही, पूर्वजों के पुरुषार्थ द्वारा उपार्जित की गई होती है। प्रतिभा के अभाव में तो मनुष्य छूँछ रह जाते हैं। असहाय अपंगों की तरह दिन गुजारते हैं। दूसरों की सहायता से भी यदि किसी से कुछ मिले भी, तो भी समझा यही जाय कि उदार चेता के हाथ में जो दान देने योग्य था वह उसने पुरुषार्थ से ही कमाया होगा।

मनुष्य जन्म से ही प्रायः सभी एक जैसी स्थिति के होते हैं। कुछ अपवाद इससे भिन्न भी होते हैं व उनके बीच आरम्भ से ही असाधारणता पाई जाती है। ऐसे प्रसंगों के सम्बन्ध में भी यही कहा जाता है कि यह उनके पूर्व जन्मों का उपार्जन है। यदि वंश परम्परा की बात मानी जाय तो भी श्रेय पूर्वजों को ही जाता है।

शरीर और मस्तिष्क की बनावट में छोटे मोटे उतार चढ़ावों के अतिरिक्त कोई विशेष अन्तर नहीं पाया जाता। फिर भी उनकी फलश्रुतियों के बीच जमीन आसमान जितना अन्तर पाया जाता है। कई अपनी योग्यता की ऊँची कीमत वसूल करते देखे जाते हैं। तो किन्हीं के दिनभर काम में जुटे रहने पर भी आधे पेट भूखे सोना पड़ता है। कोई प्रतिष्ठित, प्रख्यात, यशस्वी और गण्यमान्य श्रेणी में गिने जाते हैं, तो कोई उपहास, तिरस्कार सहते दर दर से दुत्कारे जाते हैं। इस अन्तर को काई चाहे तो विधि का विधान, समय का चक्र, भाग्य का फेर आदि भी कह सकते हैं। अथवा दूसरे किन्हीं के बाधक या सहायक होने की बात भी कह सकते हैं। पर यह आत्म प्रवंचना के अतिरिक्त और कुछ है नहीं। मनुष्य का अपना स्तर ही जाँचा परखा जाता है और नियति का व्यापारी उसी के आधार पर वह थमा देता है, जिसका वह पात्र था। मूल्याँकन में गड़बड़ी हो सकती है। समाज व्यवस्था पर अन्याय बरते जाने का दोष भी लगाया जा सकता है। पर सामान्य प्रचलन यही है कि यहाँ पात्रता के अनुसार ही काई कुछ हस्तगत कर सकता है।

बीज अपनी ही मौलिक क्षमता से अंकुरित होकर पौधा बनता और क्रमशः परिपक्व वृक्ष बनकर फूल फलों से लदकर शोभायमान होता है। दूसरे उसके इस अभिवर्धन प्रयास में सहायक भर होते हैं। अपेक्षा के अनुरूप सहायता की व्यवस्था इस प्रकृति का नियम है। वह मक्खी, मच्छर, साँप, बिच्छू, जीवाणु, विषाणु तक को मिलती रहती है। फिर जिसमें प्रगति की उमंगें उभार रही हों उसका कार्य अवरुद्ध बना पड़ा रहे ऐसा हो ही नहीं सकता। पुरातन और आधुनिक समय के ऐसे अगणित उदाहरण अपने इर्द−गिर्द ही प्रचुर परिणाम में बिखरे पाये जा सकते हैं, जिनमें साधनहीन, अभावग्रस्त परिस्थितियों में उत्पन्न हुए लोग अपने बलबूते आगे बढ़े और असुविधाओं से टकराते ठुकराते हुए अपने लिए उपयुक्त मार्ग खोज निकालने में सफल हुए। उन्नति के उस उच्च शिखर पर जा पहुँचे, जहाँ से पुराने साथी अपनी जगह पर जमे रहने के कारण बौने जैसे दीख पड़ेंगे। इसके ठीक विपरीत ऐसा भी होता है कि जिन्हें पूर्वजों की छोड़ी सम्पदा अथवा आकस्मिक लाभ-अवसर मिले, पर उनका सदुपयोग न बन पड़ने पर दुरुपयोग किये जाने पर दुर्व्यसनों की लानत सिर पटक-पटक कर न जाने कहाँ से कहाँ तिरोहित हो गई। धनिकों की सन्तानों में से अधिकांश दौलत को चिरस्थाई समझकर उसका दुर्व्यसनों में अपव्यय करते रहते हैं। फलतः थोड़े ही दिनों में उस गई गुजरी स्थिति में जा पहुँचते हैं, जिसे दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या नाम दिया जाय यह सूझ नहीं पड़ता।

बात साधनों की हो या सहयोगियों की। अपना निजी व्यवहार ही सामान्य जनों को अपनी आदत के अनुरूप ढालता रहता है। किसी को शत्रु बढ़ते जाने की शिकायत बनी रहती है जबकि किसी के मित्र इतने अधिक बढ़ते रहते हैं मानो शक्कर की गंध पाकर कहीं से चींटियां, मक्खियाँ बिना बुलाए ही दौड़ी चली आ रही हों। आश्चर्य है कि वे ही व्यक्ति जो कुछ के साथ सद्व्यवहार करते हैं, वे ही दूसरों के प्रति कठोरता और शत्रुता का व्यवहार करते पाए जाते हैं। यह हो सकता है कि उसमें उनके निजी स्वार्थ की कोई भूमिका रही हो। किन्तु आमतौर से देखा यह गया है कि कटु कर्कश, अशिष्ट, अहंकारी व्यक्ति अपने विरुद्ध स्वयं ही वातावरण बनाता है और मकड़ी के जाले की तरह अपने बुने ही जंजाल में स्वयं ही फँस जाता है।

सोचने का साधारण प्रचलन यह है कि “हम हर बात में हर तरह निर्दोष हैं जबकि दूसरे ही दुष्टता की खदान हैं और अकारण उलझते हैं।” कई बार बात ऐसी भी होती है जिसमें दुर्जनों को दुष्टता बरते बिना चैन ही नहीं मिलता। फिर भी ऐसे लोग शक्ति विहीन होते हैं और बड़बड़ाते रहने, लाँछन लगाते रहने के अतिरिक्त और कुछ कर नहीं पाते। हानि तो अपने आप ही अनुपयुक्त होने पर इतनी पहुँचाता रहता है जिसकी क्षति पूर्ति करना कई बार तो असंभव न सही कठिन तो अवश्य ही हो जाता है। फिर भी आश्चर्य इस बात का है कि इस पग पर कार्यान्वित होते रहने वाले तथ्य को लोग देखते हुए भी अनदेखा करते रहते हैं। जानते हुए भी अनजान बने रहते हैं। ऐसी दशा में उन्हें अपने को निर्दोष और दूसरे को दोषी ठहराने में ही अपना समय और प्रयास खर्च करते देखा जाता है।

बाहर के लोग या घटनाक्रम नुकसान नहीं पहुँचाते हैं, यहाँ ऐसा कुछ नहीं कहा जा रहा। इस गुण दोष से भरे संसार में उचित या अनुचित सभी कुछ हानिरहित है। फिर अपना बचाव कैसे हो। इसका उत्तर इतना ही दे सकना सरल है कि पैरों में मजबूत जूते पहन लेने पर कँटीले और पथरीले रास्ते पर चलते जाना भी सरल हो जाता है लम्बी राह पर से काँटे बीनना और कंकड़ हटाना कठिन है। योजनों लम्बी सड़क को हर दिन बुहार कर निष्कंटक बनाते रहना कठिन है। सरलता इसी में है कि अपने पैरों में मजबूत जूते पहने जाँय तो ऊबड़ खाबड़ रास्ते को भी बिना किसी कठिनाई के पार कर लिया जायेगा।

पुरानी मान्यता थी कि पृथ्वी स्थिर है। और सूर्य ही उसकी परिक्रमा करता है पर अब खोजने पर पता चला है कि पृथ्वी भी चुप नहीं बैठती। वह धुरी पर भी घूमती है और सूर्य के आसपास चक्कर भी लगाती है। दिन रात की परस्पर विरोधी परिस्थितियाँ उसके अपनी धुरी पर घूमने के कारण बन पड़ती हैं। ऋतुओं का परिवर्तन कोई देव दानव नहीं करता वरन् उसकी परिक्रमा परिधि ही इसके लिए जिम्मेदार है। दिन और रात जैसे आश्चर्यजनक परिवर्तन और ऋतुओं का अद्भुत हेरफेर करते रहने का कोई और जिम्मेदार नहीं। धरती की अपनी ही दौड़धूप इस विचित्र लगने वाले संयोग को बनाती बुलाती और भगाती रहती है। ठीक सही बात मनुष्य की अपनी परिस्थितियों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। उसके लिए व्यक्ति की मनःस्थिति ही पूरी तरह जिम्मेदार है। यदि ऐसा न होता तो प्रायः एक जैसा खान, पान, शयन, जागरण की रीति नीति का निर्वाह करने वाले लोग एक जैसी परिस्थितियों में रहते पाए जाते। असाधारण भिन्नताओं का कारण अप्रत्याशित परिस्थितियों में नहीं खोजना चाहिए, वरन् यह देखना चाहिए अपने आपने कहीं चुंबक की तरह सजातीय धातु कणों को खींच बढ़ाकर इकट्ठा तो नहीं कर लिया है? इस तरह की ढूँढ़ खोज आरम्भ हो जाना ही आध्यात्म के स्वर्ग सोपान में प्रवेश करना है। इसके अभाव में प्रतिकूलताओं के सारे दोष किन्हीं ज्ञात या अविज्ञातों पर थोपने को मन चलता रहेगा। इस प्रयास में कदाचित ही किसी को कोई उपयोगी मिली हो। तानाशाह ही अपने हर प्रतिपक्षी का देखते देखते सिर कलम करा दिया करते थे। पर अब वह जमाना नहीं रहा। कानून भी आड़े आता है और समाज में उभरी चेतना भी वैसी मनमानी बरतने की छूट नहीं देती। अन्तःकरण भी अब अपेक्षाकृत अधिक बलिष्ठ हो गया है। इस कारण अनौचित्य बरतने वाले के मित्र भी शत्रु बन जाते हैं। कम से कम असहयोग करने और मतभेद जताने का साहस तो दर्शाने ही लगते हैं।

किसी जमाने में शत्रुओं से अपने को घिरे हुए समझे जाने का मानस था और सारा चिन्तन प्रायः इसी में लगा रहता था कि विरोधियों का सफाया करते न बन पड़े तो कम से कम उन्हें नीचा तो दिखा ही दिया जाय। सामर्थ्य का अधिकाँश भाग इसी उधेड़बुन और उठक पटक में लग जाता था। पर वैसी बात नहीं रही। प्राथमिकता इसको मिलने लगी है कि अपने उत्कर्ष, अभ्युदय, सुधार परिष्कार के निमित्त क्या किया जाय? ताकि योग्यता की, पात्रता की अभिवृद्धि के साथ अधिक अनुकूलता अर्जित करने, अधिक तेजी से प्रगति पथ पर बढ़ चलने का अवसर मिले। यही बुद्धिमत्तापूर्ण भी है। किसी रेखा को छोटी करना है तो उसे काटे बिना ही वह काम अधिक सरलता के साथ हो सकता है। इसी के बराबर बड़ी लम्बाई की लकीर खींच दी जाय। दोनों की तुलना करने वाले सहज ही बता देंगे कि छोटी कौन−सी है। दूसरों को गिराकर प्रतिशोध लेने की अपेक्षा यह कहीं अच्छा है कि यह सोचा जाय कि अपना अभ्युदय किस प्रकार संभव हो सकता है? इस गौरवपूर्ण प्रयास में किस प्रकार सफल हुआ जा सकता है यह ढूँढ़ लेना और पा लेना भी संभव है साथ ही सरल भी। उपाय सीधा साफ-सा है और व्यवहार में बिना किसी अतिरिक्त प्रयास का भी। उसे अपनाने के लिए दूसरों की किसी बड़ी सहायता की भी आवश्यकता नहीं है। होना इतना भर चाहिए कि अन्तराल में ऐसी हुक भर उठने लगे कि हमें सही दिशा में ऊर्जा उठना है। इस संकल्प शक्ति के उभरते ही उस मार्ग पर चलने का साहस मिलता है जो यदि पानी के बबूले की तरह की तरह क्षण भंगुर न हो और बीज की तरह उपजाऊ भूमि में जड़े जमाले तो समझना चाहिए कि तिल से ताड़ और राई से पहाड़ बनने की सम्भावना बन गई।

मनुष्य शरीर का बाह्य कलेवर कितना ही बढ़ा बुद्धिमान और सम्भावनाओं से भरा क्यों न दीख पड़े, पर वस्तुतः उसकी समस्त गतिविधियाँ प्राण चेतना पर अवलम्बित हैं। यदि वह विलग हो जाय तो अच्छी भली दीखने वाली काया अस्पृश्य बन जाती है। उसे जल्दी से जल्दी ठिकाने लगा देने की उतावली काम करने लगती है। इस प्राण का अपना सुविस्तृत तत्वदर्शन है। उसे समझने का सुविधान है तो भी इतना तो समझ लेना चाहिए कि संकल्प ही उत्कर्ष का मूल मंत्र है। इसकी शक्ति के सहारे जब आततायी तक अपनी करामात कुछ क्षण के लिए दिखा देते हैं तो कोई कारण नहीं कि सत्य प्रयोजन के लिए सन्मार्ग पर चलने का निश्चय कर लेने पर उस दिशा में बढ़ चलने का सुयोग संयोग न मिले। उत्कृष्ट आदर्शवादिता एक ऐसी सच्चाई है जिससे हजार हाथी की बराबर बल होता है। उद्देश्यपूर्ण संकल्पों के सफल होने की संभावना इसलिए भी अधिक रहती है कि उनके पीछे दैवी सहयोग का सुनिश्चित तारतम्य जुड़ा होता है।


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