मनोबल की प्रचण्ड शक्ति एवं उसकी परिणति

July 1989

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घटना सन 1981 की है। इंग्लैण्ड की एक पैट्रिकमेरी नामक महिला के सीने में कैन्सर हुआ। पता तब चला जब डाक्टरों ने जाँच पड़ताल के उपरान्त यह बताया कि उसका कैन्सर सीने से बढ़कर सारे धड़ में फैल चुका है। इलाज तो चिन्ह पूजा है पर वह जीवित अधिक से अधिक छः महीने और रह सकेगी। महिला चिन्तित हुई। उसने पूछा “ क्या इसका उपचार नहीं हो सकता?” डाक्टरों ने सीधा सा उत्तर दिया कि “आपकी जाँच पड़ताल कुछ महीने पहले हो सकी होती और समय रहते वस्तु स्थिति का पता चल गया होता तो यह संभव था कि समय रहते इलाज हुआ होता और आपके प्राण बच सके होते” पहले जाँच पड़ताल क्यों नहीं हो सकी? इसका कारण एक ही था। इंग्लैण्ड में उस समय ऐसी परीक्षा मशीन जिसे “कैटस्कैनर” नाम से जाना जाता है मात्र एक ही थी, जिस पर जाँच करने के लिए अपनी पारी के लिए मरीजों को लम्बी प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। तब तक बात बढ़कर कहीं से कहीं जा पहुँचती थी। पैट्रिकमेरी भी इसी प्रतीक्षा में असाध्य स्तर तक जा पहुँची।

महिला ने विचार किया कि जब मात्र छः महीने ही जीना है तो इस समय का श्रेष्ठतम उपयोग क्यों न कर लिया जाय। सोचते सोचते वह इस निष्कर्ष पर पहुंची कि मेरी हैसियत तो ऐसी नहीं है कि ऐसी अनेकों मशीनें देश में लगा सकूँ पर इतना तो हो ही सकता है कि यदि पूरी शक्ति इसी कार्य में झोंक दी जाय तो एक के स्थान पर दो तो हो ही जायँ और आधे रोगियों के तो प्राण बच ही जायँ। उन दिनों ऐसी एक मशीन प्रायः ढ़ाई करोड़ रुपयों में बनती थी।

पैट्रिक ने एक साँगोपाँग योजना बनाई। उस देश के टेलीविजन पर अपनी स्थिति, दुर्दशा और संभावना प्रसारित की और साथ ही वह भी कहा कि यदि पाँच करोड़ का प्रबंध हो जाय तो दूसरी मशीन कुछ ही दिनों में लग सकती है और मेरे जैसे आधी से अधिक संख्या के रोगियों के प्राण बच सकते हैं। उस प्रसारण को सुनकर बहुत से उदारचेता प्रभावित हुए और उनने अपनी श्रद्धानुसार राशि भेजना शुरू कर दी। महिला का हौंसला बढ़ा और उसने और भी उपकरणों का सरंजाम जुटाने में अपना सारा समय और मनोयोग लगा दिया। नियत अवधि में दूसरी मशीन बनने, चालू होने के लिए स्थान की जाँच कर्त्ताओं की सारी व्यवस्था जुट गई। कार्य आरंभ हो गया। इस बीच उसकी तत्परता और तन्मयता ऐसी रही जिसमें उसे अपनी बीमारी और चिकित्सा की चिन्ता ही न रही और अपने लिए जो सोचना-करना था उसे भुलाये ही रही।

संकल्पित कामों से निबटने के बाद साथियों के याद दिलाये जाने पर वह फिर डाक्टरों के पास अपनी जाँच पड़ताल कराने गई कि अब उसकी छः महीने की शेष वाली जिंदगी किस स्थिति में है? समय तो दो वर्ष से अधिक बीत चुका था। डाक्टरों ने उसके सारे शरीर की जाँच कर डाली, पर उसमें कही कैन्सर, का कोई नामों-निशान न था। हर दृष्टि से भली चंगी थी। इस आश्चर्यजनक कायाकल्प का कारण खोजने के लिए विभिन्न स्तर के विशेषज्ञों की समिति बनाई बिठाई गई। उसने लम्बे अन्वेषण के बाद एक ही प्रतिवेदन प्रस्तुत किया कि यदि मनुष्य का मनोबल मौत, बुढ़ापा, बीमारी आदि को भुलाकर उसके स्थान पर किसी उच्चस्तरीय परमार्थ में लगा दे तो ऐसी अद्भुत शक्ति भीतर से ही उपज सकती है जो भयंकर रोगों से भी निबट सके और उसके स्थान पर स्वस्थता सम्पन्न करने वाली सामर्थ्यों को उभार सके।

यह घटना एक उदाहरण है। उसके आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि रोग निरोधक शक्ति जितनी औषधियों में, शल्य-क्रियाओं और चिकित्सकों के कौशल में समाहित है, उससे अनेक गुनी सामर्थ्य व्यक्ति के अपने मनोबल में सन्निहित है, बशर्ते कि उसे उभारा जा सके।

ऐसी घटनाएँ एक नहीं अनेक हैं। फ्लोरेंस की एक महिला उन दिनों नवयुवती थी। उसकी मँगनी हो चुकी थी। विवाह होने ही वाला था कि पति परदेश चला गया और उसे लौटने में बीस वर्ष लग गये। फिर भी वह निराश न हुई और सोचती यही रही कि जब विवाह हो तो उसका शरीर नवयुवती जैसा ही दृष्टिगोचर होना चाहिए। वह दिन में कई कई बार अपना मुँह दर्पण में देखती और विश्वास करती कि उसका यौवन घट नहीं रहा वरन दिन दिन अधिक निखर रहा है। बलवती आशा ने उसे सजधज का श्रृंगार करते रहने के लिए और भी अधिक उकसाया। बीस वर्ष बीत गये। तब वह चालीस वर्ष की हो चुकी थी, जबकि उसका मंगेतर बीस वर्ष बाद लौटा। उसे मिलने पर अत्यधिक प्रसन्नता हुई कि उसकी प्रेमिका का रूप लावण्य जाते समय जैसा था, उससे बढ़ा ही है, घटा नहीं। विवाह हो गया और वे सुखपूर्वक जिये। इस घटना में संकल्प शक्ति का ही चमत्कार है।

पुराणों में ऐसी घटनाओं का विस्तारपूर्वक बढ़ी चढ़ी संख्या में वर्णन है। हनुमान सुग्रीव के एक साधारण कर्मचारी थे। उनके सामने सीता की वापसी वाले संदर्भ में समुद्र पार करने का प्रश्न आया। वे अपनी सीमित शक्ति को देखते हुए वैसा कर सकने में अपने को असमर्थ पा रहे थे, पर जामवन्त ने जब उन्हें प्रोत्साहित किया और प्रसुप्त शक्तियों को जाग्रत होने पर कुछ भी कर सकने का स्मरण दिलाया तो वे असंभव को संभव कर दिखाने के लिए तत्पर हो गये और इसके उपरान्त वे जीवनभर क्या क्या करते रहे, इसके सुविस्तृत वर्णन से प्रायः सभी अवगत हैं।

भारत का अध्यात्म तत्वदर्शन और योगसाधना विश्व भर में विख्यात है और उसे मनुष्य में देवत्व उदय करने में सर्वथा समर्थ माना जाता है। वैसे अगणित प्रमाण उदाहरण भी हैं। शाप वरदान देने की शक्तियाँ ऋद्धि−सिद्धियों का परिचय देने का प्रसंग अगणित उदाहरणों समेत इतिहास प्रसिद्ध है। पिछली शताब्दियों में भौतिक विज्ञान के आविष्कारों ने संसार भर को चमत्कृत एवं लाभान्वित किया है। भारत की अपनी विशेषता चिर अतीत से विख्यात रही है। उसके आधार पर ऋषि मुनियों और महामानवों का इतना बड़ा परिकर उभरता रहा है, जिसने न केवल अपने देश को वरन् संपर्क में आने वाले सुविस्तृत परिकर को इतना समुन्नत बनाया, जिसे धरती पर स्वर्ग के अवतरण की संज्ञा दी जा सके। प्रगतिशीलता का इतिहास भारत के महामनीषियों की मनस्विता के आधार पर बन पड़े महान सृजनात्मक पुरुषार्थों के साथ जुड़ा हुआ है। उन्हीं का पराक्रम था, जो धरती पर स्वर्ग के अवतरण वाला सतयुग चिरकाल से संसार के अधिकांश भू भाग में अपनी गरिमा का परिचय देता रहा।

मनस्वी कौडिन्य ने मध्यपूर्व के सुविस्तृत क्षेत्र में ऐसा प्रचलन, प्रवाह उत्पन्न किया कि वह समूचा विशालकाय क्षेत्र न केवल हर दृष्टि से समुन्नत हुआ वरन् भारत का एक प्रकार से साँस्कृतिक उपनिवेश ही बन गया। कुमार जीव की कथा गाथा हर किसी के लिए अभी भी प्रकाश स्तम्भ का काम करती है। बिहार प्रान्त के एक निर्धन परिवार में वह जन्मा और पैदल चलकर काश्मीर के उत्तरी छोर पर बसे तक्षशिला के विश्व विद्यालय में पढ़ा। इस बीच उसकी दृष्टि चीन के विशालकाय क्षेत्र पर गई और उसने चीन को हिन्दू धर्म की बौद्ध शाखा का अनुयायी बनाने की ठानी। साधनों का अभाव रहते हुए भी वह गोबी के दलदल तिब्बत एवं खोखान के सुविस्तृत हिम रेगिस्तान को पार करते हुए प्राणों की बाजी लगाकर चीन जा पहुँचा। भाषा और संस्कृति के अपरिचय की कठिनाई को पार किया और वहाँ ऐसा मूर्धन्य प्रचारक बना कि न केवल चीन वरन् उसके समीपवर्ती साइबेरिया, कोरिया, जापान आदि को भी अपनी महान संस्कृति का अनुयायी बनाने में सफलता प्राप्त कर ली।

चाणक्य एक साधारण ब्राह्मण मात्रा था पर उसने अपने अपमान के प्रतिशोध में नन्द वंश की ईंट से बजा दी। एक मोर्चा पूरा हुआ तो भी वह चैन से न बैठा और निश्चय किया कि भारत पर आये दिन होते रहने वाले आक्रमण को यहाँ से उखाड़ फेंकना है, जहाँ से उनकी जड़े बार बार हरी होती है और अपने चमत्कार दिखाती हैं। उसने अपनी दिव्य दृष्टि से प्रतिभा के पुज चन्द्रगुप्त को चूना और इस बात के लिए तैयार किया कि वह निरन्तर युद्धरत रहकर आक्रांताओं के आतंकवाद की जड़ मूल से उखाड़ फेंके। चन्द्रगुप्त अचकचा रहा था और इस प्रयास में आने वाली असंख्यों कठिनाइयों को विस्तारपूर्वक सुना और गिना रहा था। सुनने वाले चाणक्य ने व्यंगोवित के साथ हँसते हुए बांहें तान कर कहा-”तुम दासी पुत्र हो। अपनी सहज भीरुता और दीनता की अभिव्यक्ति कर रहे हो। तुम्हें समझना चाहिए कि चाणक्य जो सोचता हैं, वही क्रियान्वित भी होता है ओर इतना ही नहीं वह फलित होकर भी रहता है। तुम बकवास मत करों। जो कहा जा रहा है, उसे करो और गाँठ बाँध लो कि चाणक्य निरर्थक योजनाएँ नहीं बनाता और न उनके कभी असफल रहने की आशंका आड़े आती है”। चन्द्रगुप्त नत मस्तक हो गया। उसने अक्षरशः अनुशासन पाला और वह कर दिखाया जिसे उसके पूर्णवर्ती असंभव मानकर चुप बैठे रहे थे और मन ही मन कुड़ कुड़ाते रहते थे।

मनोबल क्या नहीं कर सकता? इसका रहस्य जिनने भी समझा, वे व्यवधानों को चीरते हुए पर्वतों के ऊँचे शिखरों पर चढ़ दौड़ने में सफल हुए हैं। भारत का पुरातन विज्ञान “चेतना विज्ञान” है, जिसे तपश्चर्या-योग साधना आदि के नाम से जाना जाता है। उसके फलस्वरूप उपलब्ध हो सकने वाली ऋद्धि सिद्धियों से पुराण गाथाओं का पन्ना-पन्ना भरा पड़ा है। यह योगाभ्यास आखिर है क्या? इसकी गहराई तक उतरने वाले बताते हैं कि यह तितिक्षाओं के साथ जुड़ी हुई कर्मकाण्डों की प्रत्यक्ष फलश्रुति प्रतीत होते हुए भी वस्तुतः मनोबल को उभारने और प्रसुप्त प्राणाग्नि को प्रज्वलित करने की प्रक्रिया मात्र है देव शक्तियों का केन्द्र बिन्दु यही है। वृक्ष पर फल−फूल आकाश से टपककर चिपकते रहने की बात सोचने वाले वस्तुतः गलती पर होते हैं। जड़ों के द्वारा खींचा गया धरती का रस ही तने को मजबूत करता है। पल्लवों को हरितमा और वृक्षों से सुविस्तृत छायादार बनाकर उन्हें फल फूलों से लाद बैठा है। उसी जड़ के आधार पर वे आधी तूफानों से लड़ते है। वे अपनी जगह अकड़ कर चिरकाल तक खड़े रहते है। सिद्ध पुरुष अडिग प्रवृत्ति के उच्च शिखर पर पहुँचते हे। महापुरुषों की सफलताएँ का पुरुषों को पुचकारती और विजय श्री वरण कर सकने की शिक्षा प्रत्यक्ष प्रमाण बन कर देती है। उनसे उत्साहित होकर कभी कभी तो अर्धमृत और अर्ध मूर्छित भी देवदानवों जैसे पुरुषार्थ करके दिखाने लगते है।

शरीर इन सभी आराध्य देवों द्वारा बना हुआ है किन्तु उसे बलिष्ठ और सुंदर बनाने में मनुष्य की तीन चौथाई क्षमता का नियोजन होता रहता है। इतने पर भी सज्जा, उपकरण, बहुमूल्य आहार, औषधियों के पिटारे कुछ काम नहीं आते। अमीर, गरीबों की अपेक्षा अधिक दुर्बल, बीमार और अल्पजीवी पाये जाते है। चिकित्सा के व्यवसायी अपने परिवार समेत स्वयं तक बीमारियों के शिकार बने रहते हुए तथाकथित आहार विज्ञान से लेकर औषधि विडम्बना को प्रत्यक्ष न सही, मन मन तो कोसते ही रहते है।

मनोबल इससे सर्वथा भिन्न प्रकार की राह दिखाता है। अफ्रीका के मसाई मात्र भाले के सहारे बबर शेरों से भिड़ते और उन्हें मार कर अपनी शादी के लिए निश्चित शर्त को पीढ़ी दर पीढ़ी पूरी करते रहते है। विश्वविख्यात सेण्डो पहलवान जवानी की दहलीज तक पहुँचने तक हड्डियों का ढाँचा और जुकाम के जाल में पूरी तरह जकड़ा हुआ मरण की प्रतीक्षा में दिन गिनते रहने वाला मरीज था, पर जब उसके मार्ग दर्शक ने जीवन की नई विधा सुझाई तो वह दिन दिन स्वस्थ-बलिष्ठ होता गया और एक दिन वह संसार का माना हुआ पहलवान बन गया। भारत का हिन्द केशरी उपाधि वाला चन्दगीराम, अध्यापक की नौकरी करने वाला कई दिनों का तपेदिक का मरीज था और उसकी छूत न लग जाने के भय से हर कोई दूर रहता था। पर जब उसने अपना मानसिक कायाकल्प साहसपूर्वक कर डाला। आदतों को पूरी तरह उलट दिया तो प्रकृति देवी ने उस पर अजस्र वरदान बरसाया और हिंदुस्तान का जाना माना पहलवान बना दिया।

प्राचीनकाल में कायाकल्पों की कथा−गाथाएं च्यवन ऋषि से लेकर ययाति के बूढ़े से जवान हो जाने के रूप में प्रसिद्ध है। हनुमान बचपन से ही पवनपुत्र-प्राणपुँज कहलाने लगे थे और उनके पाहन पर गिरने से विशालकाय शिला चूर चूर हो गई थी। पार्वती की युगों तक तप करने से क्षीण हुई काया शिव का वरण करते ही त्रैलोक्य मोहिनी बन गई थी। अर्जुन के बाणों ने पाताल से जल धारा उभार कर मरणासन भीष्म-पितामह को ताजा जल पिलाया था। टिटहरी का समुद्र को सुखाकर अण्डे वापस लेने का संकल्प भले ही ऋषि अगस्त्य के माध्यम से पूरा हुआ हो पर वह अधूरा तो नहीं ही रहा।

जमदग्नि के पुत्र परशुराम जब पिता के साथ हुए अनाचार का बदला लेने के लिए उतारू हो गए तो उनने महाबली सहस्रबाहु की हजारों भुजाएँ हलके से फरसे से मूली की तरह काट कर रख दीं और मचले तो उनके सहयोगियों तक का सफाया करके रख दिया। हारी-हारी बातें करने वाले अर्जुन को महाभारत का विजेता बनाने का श्रेय कृष्ण के उस उद्बोधन को था जिसने उसे भर्त्सना की लताड़ और प्रोत्साहन भरी पुचकार देकर उसे वह बना दिया जिनका वह अधिकारी था।

इन दिनों मनुष्य को वैभव, स्वास्थ्य, और यश के अतिरिक्त और किसी की कामना दीख नहीं पड़ती। इसके लिए जो कुछ भी उचित-अनुचित बन पड़ता है उसे कमाने में औसत आदमी दिन रात जुटा रहता है। कुछ मिलता भी है प वह कम दीखता है और असंतोष पहले की अपेक्षा अधिक भड़का देता है। इस घोर असमंजस की बेला में हर किसी को यह समझना और समझाना चाहिए कि अगणित वैभवों का उद्गम प्राणाग्नि केन्द्र है, जिसको उभारना परम पुरुषार्थ और ईश्वर का एक मात्र अनुग्रह कहा जा रहा है। आज इसी के आवश्यकता है कि वैभव स्थिर रहे और दिन-दिन बढ़ता रहे और अन्ततः उस श्रेष्ठतम सदुपयोग में काम आ सके तो नन्हे से बीज से बढ़ कर अन्ततः विशालकाय वटवृक्ष के रूप में परिणत होता है।

वैभव किसका है? पराक्रम किसका है? विभूतियाँ किसकी हैं? इस सबका उत्तर देते समय नाम भगवान का ही लिया जा सकता है। पर भगवान क निकटतम और सुनिश्चित स्थान एक ही है-अन्तराल में विद्यमान प्राणाग्नि। उसी को जानने उभारने से वह सब कुछ मिल सकता है जिसे धारण कर सकने का पात्रता मनुष्य अर्जित करते हैं। मेघ-माला समय जलधारा बरसाती रहती हैं, पर वह जल राशि उन्हीं जलाशयों में एकत्र होती है जो उस संचय के लिए समुचित गहराई और पात्रता अर्जित कर सकने में समर्थ हो सकें। आकांक्षा ऋद्धि-सिद्धियों की हो या स्वर्ग-मुक्ति की, इन्हें प्राप्त करने के लिए उस प्राणाग्नि को प्रज्वलित किया जाना अनिवार्य है, जो दैवी शक्तियों का प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व करती हैं।


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