विश्व की सबसे बड़ी शक्ति प्रतिभा

July 1989

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संसार के सुविस्तृत इतिहास का भूतकालीन पर्यवेक्षण करने पर इसी एक निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि लालसा, वासना और आकाँक्षाओं से पीड़ित तो अनेकानेक रहते चले आये, पर उनमें से सफल थोड़े से ही हुए। कारण कि मूल्य चुकाने के लिए जेब में कुछ न होने के कारण उस सजीधजी दुकान को देखते हुए भी निराश होकर उन्हें वापस लौटना पड़ा। इस हाट में बिकता तो एक-से-एक बड़ा आकर्षण है, पर सभी तो बदले की नीति चाहते हैं। यदि वह अपने पास न हो तो फिर मृगतृष्णा में भटकने पर थकने और निराश भरे निःश्वास छोड़ते रहने के अतिरिक्त और क्या कुछ हाथ लगने वाला है? दूसरी ओर वे हैं, जो लाखों का माल-असवाव कुछ ही देर में खरीद-बेच कर मुनाफे से थैली भर लाते हैं।

संसार में निर्माण एक-से-एक बढ़ कर हुए। पनामा और स्वेज की नहरें, पीसा की हिलती मीनार, चीन की दीवार, अंगकोरवाट के खण्डहर, मिश्र के पिरामिड, आगरा का ताजमहल, हावडा, का पुल जैसे महान निर्माणों को देख कर लोग आश्चर्य तो बहुत करते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि इन्हीं साधनों का ढेर भर बनाकर पीछा नहीं छुटेगा। देखना यह भी होगा कि इनके पीछे कितनों की कल्पना ने योजना बन कर प्रत्यक्ष ढाँचा खड़ा करने में कितनी कुशलता और एकाग्रता निभाई है। सार-संक्षेप में, मनुष्य का वर्चस्व जो जहाँ भी चमकता है, वहाँ आकाश की बिजली की तरह कड़कता और अपनी क्षमता से अवगत भी करता हैं।

डार्विन के कथनानुसार औसत आदमी को बन्दर की औलाद या वनमानुष मानने में कोई आपत्ति न होनी चाहिए। प्राणि विकास के विज्ञानी एक ही बात कहते हैं कि सृष्टि के आदि में मात्र अमीबा स्तर के एककोशीय प्राणि उत्पन्न हुए, पर उनमें प्रचण्ड इच्छाशक्ति विद्यमान थी, वही हलचल बनी और मनोबल युक्त क्रियाकलाप के बल पर उचित स्तर के काय-कलेवर बनते चले गये। अंग प्रत्यंग बने, स्वभाव अभ्यास बनें, और उन्हें अपने-अपने निर्वाह साधना जुटाने के अवसर मिलते चले गये। वे यह भी कहते हैं कि जड़ माने जाने वाले पदार्थों पर भी प्राणि समुदाय की प्रचण्ड इच्छाशक्ति काम करती है और प्रतिकूलताओं के बीच भी अनुकूलता उत्पन्न कर लेती है। समुद्र की गहराई में उगे उद्यान और पर्वत शिखरों पर दौड़ते पाषाण-कच्छप, यह बताते हैं कि अस्तित्व में कितने आश्चर्य जनक परिवर्तन हो सकते हैं। इसे सम्पन्न करने में एक ही शक्ति विभिन्न प्रकार से अपने रूप दिखाती और चमत्कार उत्पन्न करती है।

लोगों को पैसे का, रूप का, सौंदर्य का, शिक्षा का, पद का, सम्पन्नता-सहयोग का मूल्य तो मालूम है और उनके लिए ललचाते हुए सिर पर पैर रखकर दौड़ने जैसी भागदौड़ भी मचाते हैं, पर कहने लायक उपलब्धि उन्हीं के हाथ आती है, जो अपने को अर्धमूर्छित, अर्धमृतक, आलसी, प्रमादी, निराश-हताश स्तर की कीचड़ में फँसे रहने से इन्कार कर देते हैं। भीतर से उभरी शक्ति बाहर के हर क्षेत्र में अपने वर्चस्व का प्रमाण-परिचय पग-पग पर प्रस्तुत करती है। सभी प्रजातियाँ सभी संरचनाएँ यह प्रमाण परिचय देती हैं कि वे अपने संकल्प बल से उभरीं और वर्तमान सामुदायिक रूप धारण करने में समर्थ हुई हैं। उसने अपने निर्वाह साधन इसी आधार पर जुटाये हैं और प्रकृति की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किसी अज्ञात प्रेरणा से बाधित होकर अपने आपको ढाला है। यह संकल्प शक्ति ही हैं, जो प्राणियों और पदार्थों में विद्यमान रह कर अपनी अद्भुत शक्ति का परिचय देती है। प्राणियों में मनुष्य सचमुच महान है। सृष्टि को ईश्वर की संरचना माना जाता है, पर ईश्वर को वर्तमान स्वरूप में किसने गढ़ा, इसका उत्तर खोजने समय इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि उसे मनुष्य ने बनाया, अन्यथा अन्य जीवधारी क्यों उसकी सत्ता-सहायता को मान्यता दे देते?

इतिहास साक्षी है कि जब-जब जिन वर्गों ने जिस क्षेत्र में पराक्रम सँजोया है, उसने उसी क्षेत्र में आशातीत सफलताएँ पाई हैं।-अग्नि प्रज्वलन से लेकर पहिये के आविष्कार तक इसका परिचय मिलता है, जिसने अनेकानेक साधनों, नमूनों, उदाहरणों को जन्म दिया व आज की प्रगति की रूपरेखा बनाई। कभी उसने कृषि, पशुपालन, वस्त्र निर्माण भवन निर्माण, व्यवसाय आदि के सहारे प्रगति के नये आयाम खोले होंगे। भाषा और लिपि का आविष्कार अपने समय में अति क्रान्तिकारी माध्यम माना गया होगा। धर्म, समाज और शासन के गठन में उन लोगों की यही भारी सफलता थी, उनकी जो वनवासी की तरह यायावर जीवन बिताते आदि काल की उपहासास्पद स्थिति में रहते थे? वैज्ञानिक आविष्कारों से सुसज्जित दुनिया जब गढ़ी जाने लगी, तब तो मानों प्रकृति पर विजय पाने का नगाड़ा ही बजने लगा। अब तो उन अणु आयुधों के जखीरे भी जमा हो गये हैं कि सृष्टा की इस सुन्दर संरचना धरती को देखते-देखते धूलि बना कर अंतरिक्ष में उड़ा दिया जाय। इस प्रकार मनुष्य ईश्वर का समर्थ सहायक भी सिद्ध होता है और दुर्धर्ष प्रतिद्वंद्वी भी। यह चेतना के नाम से जाने जाने वाली सत्ता वस्तुतः किसी प्रचण्ड संकल्प शक्ति की वशवर्ती है और इसी के इशारे पर कठपुतली की तरह नाचती रहती है। इसी की न्यूनाधिकता से मनुष्य क्षुद्र और महान बनता है। उसके उच्चस्तरीय होने पर देव और निकृष्टता अपनाने पर दैत्य का उद्भव होता है। देवी शक्तियों से सम्पन्न ही सिद्धपुरुष या देवमानव कहलाता है। वस्तुतः मनुष्य एक भटका हुआ देवता है। यदि उसे भ्रम जंजालों में न भटकना पड़े तो निस्संदेह किसी भी लक्ष्य को शब्दबेधी बाण की तरह वेध सकता है। जो कुछ भी यहाँ आश्चर्यजनक देखा, सुना जाता है, उसका उद्गम मनुष्य का संकल्प ही है। जिसे दूसरे शब्दों में प्राण या प्राणाग्नि भी कहा जा सकता है। जिसने उसे जिस अनुपात से जिस क्षेत्र में अर्जित कर लिया, समझना चाहिए कि उस स्तर तक कृतकृत्य हो गया।

बुद्धिमत्ता, प्रतिभा, व्यवस्था, संरचना, परिवर्तन आदि के अनेक प्रयोग जहाँ तहाँ होते रहते हैं और उनके प्रयोक्ता महाबली कहलाते हैं। पर यह भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि समस्त कला-कौशलों, निर्माणों और सफलताओं की जन्मदात्री वह संकल्प शक्ति रूप प्राणाग्नि ही है जो चिनगारी से बढ़ते-बढ़ते दावानल का रूप धारण करती देखी जाती है। उत्थान और पतन उसी के दो चित्र विचित्र खिलौने है।

जिन दिनों इंग्लैण्ड पर जर्मनी द्वारा दिन रात भयंकर वर्षा अणुबम के रूप में हो रही थी तब सर्व साधारण को यही सोचते-कहते देखा जाता था कि इंग्लैण्ड का पतन अब हुआ, तब हुआ। इन घोर निराशा के दिनों में भी उस देश के प्रधानमंत्री चर्चित ने यही कहा कि इंग्लैण्ड हार नहीं सकता। यह आज नहीं तो कल जीतकर रहेगा। उनने एक नये उद्घोष के रूप में ‘बी’ शब्द घर-घर और हर सामान पर अंकित कराने के निर्देश दिये जिसका अर्थ होता था-विजय। ‘बी’ फार विक्ट्री।

जब द्वितीय महायुद्ध के समय विनाश के घटाटोप छाये हुए थे और मित्र देशों की हार अत्यंत निकट थी। तब सायप्रस द्वीप (माल्आ) में स्टालिन रूजवेल्ट एक जलयान पर गुप्त योजना बनाने निकले। दोनों साथी पराजय का दबाव हलका करने वाली योजनाएँ बना रहे थे। चर्चित अकेले ही असहमत थे। उनने कहा-आपके देशों का जो भी हो पर हमारा इंग्लैण्ड तो जीत कर ही रहेगा। इतने प्रगाढ़ आत्म विश्वास को देख कर दोनों साथी दंग रह गये और फिर अन्तिम पराजय से निबटने के स्थान पर विजय के उपरान्त उठाये जाने वाले कदमों का निर्णय करके लौटें। पावसी पर उनने ऐसी योजना कार्यान्वित की कि देखते-देखते पासा पलट गया और मित्र राष्ट्र विजयी होकर रहे।

स्मृति की तरह विस्मृति भी मनुष्य के स्वभाव में सम्मिलित है। पर उस दुर्गुण के इस सीमा तक पहुँच जाने को क्या कहा जाय? उससे क्या अपने-अपने आत्म गौरव को, ओजस् तेजस् बर्धस् को ही भुला दिया जाय? आज कुछ ऐसा ही सम्मोहन-व्यामोह किसी शैतान द्वारा बिखेरा दीखता है, जिससे हतप्रभ होकर हम अपने को दीन-दुर्बल, अशक्त, असहाय, अभागे आदि समझने लगे हैं। यदि उन्हें अपनी जीवट पर विश्वास हुआ होता तो कठिन से कठिन विघ्न-बाधाओं को चुनौती देते हुए अब तक न जाने कहाँ से कहाँ पहुँचे होते।

कुछ समय पहले की ही खबर है। साइबेरिया के हिम प्रदेश में बन्दी बनाये गये कुछ कैदी उस दुर्गम क्षेत्र से भाग निकले। प्रायः चार हजार मील के अति दुर्गम, आहार सामग्री से रहित क्षेत्र को पार करते हुए किसी प्रकार भारत आ पहुँचे। इसके बाद उन्हें उनके देश पोलैण्ड सम्मान सहित पहुँचाया गया। वह असाधारण स्थिति का असामान्य पराक्रम है।

अनगिनत आन्दोलनों के योजनाकार अपनी लगन को साकार-बना कर रहे है। इसके पीछे सुयोग और सहयोग का भी एक भाग हो सकता है पर प्रधानता उस प्रचंड आत्म विश्वास की ही रही है। प्रगति का ढाँचा उसी पर खड़ा होता है। साधन अनायास नहीं जुट जाते उनके लिए अपने आपको इतना प्रामाणिक और प्रखर सिद्ध करना होता हे कि स्वेच्छा सहयोग बरसने में कहीं कोई कमी न रहे।

आत्म विस्मृति के दल-दल में से उबार कर मनुष्य समुदाय के एक वर्ग को इन्हीं दिनों प्रबल प्रतिभा का धनी बनाना है। इस प्रयास को सर्वोच्च प्राथमिकता मिलनी है। कारण कि अत्यधिक महत्वपूर्ण इन्हीं दिनों किये जाने के लिए किन्हीं समर्थों की प्रतीक्षा परोक्ष चेतना कर रहीं है। मनुष्य स्वभाव में प्रचलन में, समर्थता के क्षेत्र में इतनी अधिक अवांछनियताएं एकत्रित हो गई है। उस नरक जैसे दुर्गन्धित कचरे को हटाने के लिए ऐसी जुझारू प्रवृत्ति चाहिए जो तूफान बन कर बरसे और जो हटाया मिटाया जाना ही है, उसे स्थानान्तरित करके ही रहे। यह कार्य विकसित प्रतिभाएँ ही कर सकती हैं।

सृजन इतना, इस स्तर का होना है, मानों खण्डहरों को बटोर कर उस स्थान पर नये सिरे से भव्य भवन खड़े किये जा रहे हों। इसके लिए बादलों जैसे सशक्त समुदाय की आवश्यकता है। जो तपते धरातल को अपनी वर्षा से जलमग्न कर दें। धरित्री पर हरी घास उगा कर उसे मखमली हरीतिमा से महिमा मंडित कर दें।

सैन्य, शिक्षण, व्यवसाय-विद्यालयों व्यायामशालाओं, विद्यालयों, कलाकेन्द्रों की कमी नहीं। पर दुर्भाग्य इसी एक बात का है कि प्रतिभा परिष्कार की साँगोपाँग व्यवस्था कहीं पर नहीं है। कठिनाई इस मार्ग में कहीं अधिक है कि प्राण चेतना अन्तःकरण में अन्तराल में से उभरती है किन्तु उस गहन गह्वर तक पहुँचने, कुरेदने, उभारने वाले उपकरणों का एक प्रकार से सर्वथा अभाव ही हो गया। इसी कमी के रहते अन्य किसी क्षेत्र का विकास भले ही हो जाय, पर प्रचण्ड प्रतिभा सम्पन्न ऐसे व्यक्तित्वों का दर्शन हो नहीं सकेगा, जो नवयुग की महती आवश्यकताओं को देखते हुए ध्वंस से जूझने और सृजन को साकार बनाने में अपनी अतिरिक्त जीवट का परिचय दे सकें।


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