एक सन्त मरने पर परलोक पहुंचे। चित्रगुप्त ने उनके कर्मों का लेखा जोखा पूछा ताकि उनके अनुरूप उन्हें स्थान दिया जा सके।
सन्त ने कहा वे आधे जीवन गृहस्थ रहे। आधे जीवन विरक्त। गृहस्थ में परिवार को विकसित किया। दूसरों को सहायता भी की और सम्बन्धियों के बीच प्यार दुलार भी मिलता रहा। पर विरक्त होने पर तो उदासीन रह, भिक्षा माँगने और अपने ही भविष्य की कामनायें करते रहने में समय गुजारा। भजन पूजन भी इसी लिए किया कि परलोक में अच्छा स्थान मिले। चित्रगुप्त ने यही खाते देखकर कहा आधे जीवन की आपकी सेवा साधना पिछले आधे जीवन की विडम्बना में खप गई। अब आपका कोई पुण्य शेष नहीं है जिसके कारण स्वर्ग की सद्गति मिल सके उन्हें वापस मनुष्य लोक में आना पड़ा। और साधारण स्थिति का जीवन अपनाना पड़ा।
एक साधु के संबंध में मान्यता थी कि वह सोना बनाने की विद्या जानता है। पर यह विधि को गुप्त रखता है। सीखने के लिए कितने ही व्यक्ति भक्त बनकर आते और रहस्य पूछने का प्रयत्न करते। साधु सबको एक ही बात कहता, दस वर्ष साथ रहो। सेवा करो। तब रहस्य बताया जायगा। इस शर्त को पूरा करने के लिए कोई तैयार न होता सभी निराश वापस लौट जाते।
एक व्यक्ति ऐसा आया जो इस शर्त का पालन करने के लिए तैयार हो गया। उसने डेरा डाल दिया और साथ रहने लगा। सत्संग का प्रभाव ऐसा पड़ा कि वह सच्चा अपरिग्रही संत बन गया।
दस वर्ष पुरे हुए साधु ने उसे एकान्त में बुलाया और सोना बनाने की विधा का रहस्य सीख लेने के लिए कहा, अपरिग्रही शिष्य ने उत्तर दिया “अब में स्वयं ही सोना बन गया। व्यसनों और संकटों में फँसाने वाले सोने का क्या करूंगा”।