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June 1984

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यदि आपको किसी दुष्ट व्यक्ति के साथ व्यवहार करना पड़े, तो उसे माता करने की केवल एक ही विधि है, वह यह कि उसके साथ ऐसे व्यवहार कीजिए, मानो वह कोई माननीय सज्जन है। यह जताइये कि आप उसे अपने ही समान निष्कपट अनुभव कर रहे हैं।

इस समर्थ समुदाय के अतिरिक्त एक वर्ग छोटे बालकों और असमर्थों का है। इन्हें सहज करुणा से प्रेरित हो उनकी सहायता करनी पड़ती है। बच्चे गोदी में चढ़ते, मिठाई पान, खिलौने लेने के लिए मचलते हैं। बदले में वे कुछ दे सकने की स्थिति में नहीं होते। बड़े इस बाल वर्ग का भी ध्यान रखते हैं और कुछ प्रकार कुछ दे दिला कर हँसाते चुपाते हैं। अपंग असमर्थों के सम्बन्ध में भी यही बात है। इच्छा होते हुए वे कुछ अनुदान पाक प्रतिदान दे सकने की स्थिति में नहीं होते। इन वर्गों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। मुँह मोड़ लेने में निष्ठुरता का पातक चढ़ता है। हमारी जीवनचर्या में इन वर्गों को भी समुचित प्रश्रय मिलता रहा है। करुणा का परित्याग करके हम जीवित नहीं रह सकते। मात्र वेचना ही नहीं डडडडडबाँअना भी हमारा कार्य रहा है। प्रयत्न यह किया है कि अपनी प्याऊ पर से कोई प्यास न जाने पाये। भोजन के समय आ पहुँचे अतिथि को जो रूखा सूखा है, उसमें भागीदार बनाया जाये। घायलों की पट्टी बाँधे बिना अस्पताल से कैसे वापस लौटाया जाय। निराश को आशा बँधाते और रोता आने वाले को हँसाते लौटाने की अपनी आदत रही। लम्बा जीवन इन कृत्यों में रस लेते बीत गया। इसमें किसका कितना भला हुआ यह ईश्वर जाने, पर हमने ईमानदारी के साथ अपनी जिम्मेदारी निभाई और करुणा मिलाई है। बदले में जो आत्म सन्तोष मिलता रहा है उसकी पुण्य पूँजी भी धीरे-धीरे करके जमा होती और पर्वत जितनी ऊँची उठती रही है।

एकान्तवास में न मिलने के कार्यक्रम से इस वर्ग को अपनी व्यथाऐं हलकी करने से वंचित रहना पड़े ऐसा न होगा। शरीर कही किसी भी स्थिति में क्यों न हो, हमारी आत्मा अब की अपेक्षा ओर भी अधिक सूक्ष्म और सक्रिय रहेगी। सुनने वाले कान और देखने वाले नेत्र अधिक सूक्ष्म ओर अधिक व्यापक होते जा रहे हैं। तब कोई बिना हरिद्वार आये, बिना भेंट दर्शन किये, बिना पत्र लिखे, भी अपना हृदय खोलकर रखने और समुचित उत्तर पाने में घर बैठे भी सफल होगा। सूक्ष्म शरीरों के जागरण की शृंखला में एक को विशेष रूप से इसी के लिए सुरक्षित रखा और नियुक्त किया गया कि आँसू पोंछता, सिर दबाता, मरहम लगाता और दुलार-पुचकार सहित गोदी में बिठाता रहे। देने को भी कुछ तो पास रहेगा। सर्वथा कंगाल कभी भी रहना नहीं पड़ा है। अतिथि सत्कार का लाँछन अभी तक नहीं लगा है। फिर होश-हवास दुरुस्त रहते भविष्य में भी उस पर पटाक्षेप हो, ऐसा नहीं होगा। जो कमाने का अवसर मिलेगा, उसका एक भाग पिछड़ों को बढ़ाने और गिरतों को उठाने में भी निश्चित रूप से लगता रहेगा।


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