प्रिय शिष्य नचिकेता था (kahani)

June 1984

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यमाचार्य का परम प्रिय शिष्य नचिकेता था। वे उसके गुणों पर मुग्ध थे। चाहते थे कि इस वरिष्ठ शिष्य की प्रतिभा अधिक उभरे और उसकी गरिमा अमर-अमर बन कर रहे। सो उन्होंने नचिकेता की उन सुविधाओं में कटौती करनी आरम्भ कर दी, जो गुरुकुल के अन्य छात्रों को सहज उपलब्ध होती रहती थी। एक वर्ष तक नचिकेता को मात्र जो के सत्तू पर निर्वाह करने के लिए कहा गया जब कि विद्यालय के अन्य छात्रों को सामान्य गृहस्थों जैसा भोजन मिलता था।

गुरु पत्नी भी इस वरिष्ठ छात्र से अधिक स्नेह करती थी सो उन्होंने अपनी पति को यह अतिरिक्त कष्ट देने से रोका भी और कारण भी पूछा।

यम ने कहा- भद्रे! सोना तपाने पर ही निखरता है रसायनें अग्नि संस्कार से ही बनती है बर्तन आवे में ही पकते हैं। बादल सूर्य ताप के कारण ही आकाश तक पहुंचते और परिभ्रमण करते हैं मनुष्य तप की अग्नि से प्रखरता अर्जित करते हैं सो तुम मोहवश नचिकेता की काया की सुविधा प्रदान करने की बात न सोचो। उसकी आत्मा को तेजस्वी बनाने वाले तप का समर्थन करो।

गुरु पत्नी का समाधान हो गया। दूसरे वर्ष अन्य इन्द्रियों का- तीसरा वर्ष मन का- चौथे वर्ष बुद्धि का और पाँचवें वर्ष अहंता अन्तरात्मा का संयम कराया गया। एक के बाद दूसरा अग्नि संस्कार होते चलने से वे क्रमशः अधिक ओजस्वी, मनस्वी, तेजस्वी, यशस्वी और तपस्वी होते चले गये। उनका वर्चस् उच्च शिखर पर जा पहुँचा। पाँचों अग्नियों का अनुग्रह उन पर बरसा और वैसे ही सिद्ध पुरुष बन गये जैसा कि उनका मनोरथ और गुरु का अनुग्रह था।

नचिकेता ने ऋषि संगम से अपनी सफलता का रहस्य बताते हुये कहा- “आत्म प्राप्ति का मार्ग छुरे की धार पर चलने के समान है। जो उनका साहस सँजोते हैं वे ही सफल होते और लक्ष्य तक पहुँचते हैं।

जैमिनीय ब्राह्मण का एक कथानक है- असुरों से देवताओं के परास्त होने डडडडड डडडडड पराजित देवता भागे और अपने प्राण बचाने के लिए जहाँ-तहाँ छिपते फिरे।

उन में से अधिकाँश ने पर्वत कन्दराओं की शरण ली। इतने से भी काम चला नहीं। असुरों के मृत्यु दूतों ने पता पा लिया और वे नये अस्त्र-शास्त्रों से सज्जित होकर उस क्षेत्र पर भी आक्रमण की तैयारी करने लगे।

देवता असमंजस में थे। कहाँ जायं? कहाँ छिपें? सुरक्षित स्थान ढूंढ़ने के लिए प्रजापति से परामर्श लेने पहुँचे।

बहुत देर सोचने के उपरान्त प्रजापति ने कहा “तुम स्वर बनकर शब्दों में समा जाओ। जिसे वाणी का सदुपयोग करना आता हो, उसे अपना अनुचर मानना और परस्पर सहयोग करते हुए सहयोगपूर्वक रहना।”

वह आश्रय देवताओं के बहुत पसन्द आया असुरों का आतंक दूर हो जाने पर ही वे उस सुरम्य क्षेत्र को छोड़ने के लिए अभी तक सहमत नहीं हुए हैं।


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