आत्मीय जनों के नाम वसीयत और विरासत

June 1984

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सूक्ष्मीकरण से उपलब्ध अतिरिक्त सामर्थ्य को विश्व के मूर्धन्य वर्गों को हिलाने उलटने में लगाने का हमारा मन है। अच्छा हाता सुई और धागे को आपस में पिरो देने वाले कोई सूत्र मिल जाते। अन्यथा सर्वथा अपरिचित रहने की स्थिति में तारतम्य बैठने में कठिनाई होगी। मूर्धन्यों में सत्ताधीश, धनाध्यक्ष, वैज्ञानिक, और मनीषी वर्ग का उल्लेख है। यह सर्वोच्च स्तर के भी होंगे और सामान्य स्तर के भी। सर्वोच्च स्तर वालों की सूक्ष्मता जहाँ पैनी होती है वहाँ वे अहंकारी और आग्रही भी कम नहीं होते। इसलिए मात्र उच्च वर्ग तक ही अपने को सीमित न रखकर हम माध्यम वृत्ति के इन चारों को भी अपनी पकड़ में लेंगे ताकि बात नीचे से उठते-उठते ऊपर तक पहुँचने का भी कोई सिलसिला बने।

दूसरा वर्ग जागृत आत्माओं का है। इसका उत्पादन सदा से भारत भूमि में अधिक होता रहा है। महामानव, ऋषि, मनीषी, देवता यहाँ कितने जन्मे हैं उतने अन्यत्र कहीं नहीं। हमारे लिए समीप भी पड़ता है। अस्तु प्रयत्न यह करेंगे कि जहाँ कहीं भी पूर्व संचित संस्कारों वाली आत्माएँ दृष्टिगोचर हों, उन्हें समय का सन्देश सुनायें, युग-धर्म बताएँ और समझाएँ कि यह समय व्यामोह में कटौती करके, किसी प्रकार निर्वाह भर में सन्तोष करने का है। जो हस्तगत है उसे बोया, उगाया और हजार गुना बनाया जाना चाहिए। हम अकेले ही उगे, बढ़े और गलकर समाप्त हो गए तो यह एक दुर्घटना होगी। एक से हजार वाली बात सोची और कही जा रही है तो उसकी प्रत्यक्ष परिणति भी वैसी ही होनी चाहिए। प्रज्ञा परिवार बड़ा है। फिर भारत भूमि की उर्वरता कम नहीं है। इसके अतिरिक्त अपनी योजना विश्वव्यापी है। उसकी परिधि में अकेला भारत ही नहीं समूचा संसार भी आता है। अस्तु प्रयत्न यह चलेगा कि विचार-क्रान्ति की प्रक्रिया को परिस्थितियों के अनुरूप व्यापक बनाने के लिए जागृत आत्माओं का समुदाय हर क्षेत्र में, हर देश में मिले। कार्य पद्धतियाँ क्षेत्रीय वातावरण के अनुरूप बनती रहेंगी पर लक्ष्य एक ही रहेगा- “ब्रेन वाशिंग”- विचार परिवर्तन- प्रज्ञा अभियान। हम सब तीर की तरह सनसनाते हुए एक ही लक्ष्य तक पहुँचने का प्रयत्न करेंगे। जिनमें इस प्रकार की जीवट होगी वे अनुभव करेंगे कि उन्हें कोई कोंचता, कुरेदता, झकझोरता, घसीटता और बाधित करता है। यों ऐसे लोग समय की पुकार पर अन्तरात्मा की प्रेरणा से भी जग पड़ते हैं। ब्राह्ममुहूर्त में मुर्गा तक बाँग लगाने के लिए उठ खड़ा होता है तो कोई कारण नहीं कि जिनमें प्राण चेतना विद्यमान है वे महाकाल का आमन्त्रण न सूनें और पेट-प्रजनन की आड़ में व्यस्तता और अभाव-ग्रस्तता की ही बहानेबाजी करते रहें। समय की पुकार और हमारी मनुहार का संयुक्त प्रभाव कुछ भी न पड़े ऐसा हो ही नहीं सकता। विश्वास किया गया है कि इस स्तर का एक शानदार वर्ग उभर कर ऊपर आयेगा और सामने ही कटिबद्ध खड़ा दृष्टिगोचर होगा।

तीसरा वर्ग प्रज्ञा परिवार का है। इसमें हमारा व्यक्तिगत लगाव है। लम्बे समय से जिस-तिस बहाने साथ-साथ रहने के कारण घनिष्ठता ऐसी और इतनी बढ़ गई है कि उसका समापन किसी के कारण हो सकना सम्भव नहीं। इसके कई कारण हैं। प्रथम यह है कि हमें अनेक जन्मों का स्मरण है। लोगों को नहीं। जिनके साथ पूर्वजन्मों से सघन सम्बन्ध रहे हैं उन्हें संयोगवश या प्रयत्न पूर्वक हमने परिजनों के रूप में एकत्रित कर लिया है और वे जिस-तिस कारण हमारे इर्द-गिर्द जमा हो गए हैं। इन्हें अखण्ड-ज्योति अपने अंचल में समेटे बटोरे रही है। संगठन के नाम पर चलने वाले रचनात्मक कार्यक्रम भी इसी संदर्भ में आकर्षण उत्पन्न करते रहे हैं। इसके अतिरिक्त बच्चों और अभिभावकों के बीच जो सहज वात्सल्य भरा आदान-प्रदान रहता है वह भी चलता रहा है। बच्चे सहज स्वभाव अभिभावकों से कुछ चाहते रहते हैं। भले ही उसे मुँह खोलकर मांगें अथवा भाव भंगिमा से प्रकट करते रहें। बच्चों की आकाँक्षा बढ़ी-चढ़ी होती है। भले ही यह उपयोगी हो या अनुपयोगी। आवश्यक हो या अनावश्यक। दे-दिलाकर ही उन्हें चुपाया जाता है। इतनी समझ होती नहीं कि पैसा व्यर्थ जाने और वस्तु किसी काम न आने का तर्क उनके गले उतारा जा सके। बच्चों और अभिभावकों के बीच यह दुलार भरी खींचतान तब तक चलती रहती है जब तक वे परिपक्व बुद्धि के नहीं हो जाते और उपयोगिता-अनुपयोगिता का अन्तर नहीं समझने लगते। हमारे साथ एक रिश्ता परिजनों का यह भी चलता रहा है।

मान्यता सो मान्यता। आदत सो आदत। प्रत्यक्ष रिश्तेदारी न सही पूर्व संचित सघनता का दबाव सही। एक ऐसा सघन सूत्र हम लोगों के बीच विद्यमान है जो विचार विनिमय, संपर्क सान्निध्य- तक ही सीमित नहीं रहता, कुछ ऐसा ही चाहता हे कि अधिक प्रसन्नता का कोई साधन कोई अवसर हाथ लगे। कइयों के सामने कठिनाइयाँ होती हैं। कई भ्रमवश जंजाल में फँसे होते हैं। कइयों को अधिक अच्छी स्थिति चाहिए। कारण कई हो सकते हैं पर देखा यह जाता रहा है कि अधिकाँश लोग इच्छा आकाँक्षा लेकर आते हैं। वाणी से या बिना वाणी के व्यक्त करते हैं। साथ ही सोचते हैं कि हमारी बात यथास्थान पहुँच गई। उसका विश्वास उन्हें तब होता है जो पूरा न सही आधा-अधूरा उपलब्ध भी हो जाता है।

याचक और दानी का रिश्ता दूसरा है। पर बच्चों और अभिभावकों के बीच यह बात लागू नहीं होती। बछड़ा दूध न पिये तो गाय का बुरा हाल होता है। मात्र गाय ही बछड़े को नहीं देती। बछड़ा भी गाय को कुछ देता है। यदि ऐसा न होता तो कोई अभिभावक बच्चे जनने और उनके लालन-पालन में समय लगाने, पैसा खर्च करने का झंझट मोल न लेते।

कहने को गायत्री परिवार, प्रज्ञा परिवार आदि नाम रखे गए हैं और उनकी सदस्यता का रजिस्टर तथा समयदान, अंशदान का अनुबन्ध भी है। पर वास्तविकता दूसरी ही है जिसे हम सब भली-भाँति अनुभव करते हैं। वह है जन्म-जन्मान्तरों से संग्रहित आत्मीयता। जिसके पीछे जुड़ी हुई अनेकानेक गुदगुदी उत्पन्न करने वाली घटनाएँ हमें स्मरण हैं। परिजन उन्हें स्मरण न रख सके होंगे। फिर भी वे विश्वास करते हैं कि परस्पर आत्मीयता की कोई ऐसी मजबूत डोरी बंधी है तो कई बार तो हिलाकर रख देती है। एक दूसरे के अधिक निकट आने, परस्पर कुछ अधिक कर गुजरने के लिए आतुर होते हैं। यह कल्पना नहीं वास्तविकता है जिसकी दोनों पक्षों को निरन्तर अथवा समय-समय पर अनुभूति होती रहती है।

यही तीसरा वर्ग है- बालकों का। इनकी सहायता से मिशन का कुछ काम भी चला है पर वह बात गौण है। प्रमुख प्रश्न एक ही है कि इन्हें हँसता-हँसाता खिलता-खिलाता देखने का आनन्द कैसे मिले? अब तक भेंट, परामर्श, सत्संग, सान्निध्य से भी इस भाव सम्वेदना की तुष्टि होती थी। पर अब तो नियति ने यह सुविधा भी हाथ से छीन ली। अब परस्पर भेंट मिलन का अभ्यास समाप्त होता है। इसमें समय की कमी या कोई व्यवस्था सम्बन्धी कठिनाई कारण नहीं है। बात इतनी भर है कि इससे सूक्ष्मीकरण में बाधा पड़ती है। चित्त भटकता है और जिस स्तर का दबाव अन्तराल पर पड़ना चाहिए वह बिखर जाता है। फलतः उस लक्ष्य की पूर्ति में बाधा पड़ती है जिसके साथ समस्त मनुष्य समुदाय का भाग्य-भविष्य जुड़ा हुआ है। अपनी निज की मुक्ति, सिद्धि या स्वर्ग उत्कर्ष जैसा कारण रहा होता तो उसे आगे कभी के लिए टहलाया जा सकता था। पर समय तो ऐसा विकट है जो एक क्षण की भी छूट नहीं देता। ईमानदार सिपाही की तरह मोर्चा सम्भालने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं। इसलिए सूक्ष्मीकरण के संदर्भ में मिलने-जुलने में चलती रही पिछले दिनों वाली सुविधा का अब अन्त ही समझना चाहिए। हमें अपनी ओर से किसी को प्रयोजन विशेष के लिए बुलाना पड़े तो बात दूसरी है।

बच्चों के प्रज्ञा परिजनों के- सम्बन्ध में चलते-चलाते हमारा इतना ही आश्वासन है कि वे यदि अपने भाव सम्वेदना क्षेत्र को थोड़ा और परिष्कृत कर लें तो निकटता अब की अपेक्षा भी अधिक गहरी अनुभव करने लगेंगे। कारण कि हमारी सूक्ष्म शरीर सन् 2000 तक और भी अधिक प्रखर होकर जियेगा। जहाँ उसकी आवश्यकता होगी, बिना विलम्ब लगाए पहुँचेगा। इतना ही नहीं, स्नेह-सहयोग, परामर्श-मार्गदर्शन जैसे प्रयोजनों की पूर्ति भी करता रहेगा। कठिनाइयों में सहायता करने और बालकों को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने की हमारी प्रकृति में राई-रत्ती भी अन्दर नहीं होने जा रहा है। वह लाभ पहले की अपेक्षा और भी अधिक मिलता रहा सकता है।

हमारे गुरुदेव सूक्ष्म शरीर से हिमालय रहते हैं। विगत 60 वर्षों में हमने निरन्तर उनका सान्निध्य अनुभव किया है। यो आँखों से देखने की बात मात्र जीवन भर में तीन वार ही, तीन-तीन दिन के लिए सम्भव हुई है। भाव सान्निध्य में श्रद्धा की उत्कटता रहने से उसकी परिणति एकलव्य के द्रोणाचार्य, मीरा के कृष्ण और रामकृष्ण परमहंस के कालीदर्शन जैसी होती है। हमें भी यह लाभ निरन्तर मिलता रहा है। जो अपनी भाव सम्वेदना बड़ा सके, भविष्य में हमारी निकटता अपेक्षाकृत और भी अच्छी तरह अनुभव करते रहेंगे।

बच्चे बड़ों से कुछ चाहते हैं, सो ठीक है। पर बड़े बदले में कुछ न चाहते हों ऐसी बात भी नहीं है। नियत स्थान पर मल-मूत्र त्यागने, शिष्टाचार समझने, हँसने-हँसाने, वस्तुएँ न बिखेरने, पढ़ने जाने जैसी अपेक्षाएँ वे भी करते हैं। जितना सम्भव है उतना तो उन्हें भी करना चाहिए। हमारी अपेक्षाएँ भी ऐसी ही हैं। गोवर्धन उठाने वाले ने अपने अनगढ़ ग्वाल-बालों के सहारे ही गोवर्धन उठाकर दिखाया था। हनुमान की बात किसी ने नहीं सुनी तो अपने सहचर रीछ-वानरों को ही समेट लाए। नव-निमार्ण के कन्धे पर लदे उत्तरदायित्व को वहन करने में हम अकेले समर्थ नहीं हो सकते थे। यह मिल-जुलकर सम्पन्न हो सकने वाला कार्य था। सो, समझदारों में से कोई हाथ न लगा तो अपने इसी बाल परिवार को लेकर जुट पड़े और जो कुछ, जितना कुछ सम्भव हो सका करते रहे। अब तक की प्रगति का यही सार संक्षेप है।

बात अगले दिनों की आती है। हमें अपने बच्चों के लिए क्या करना चाहिए इस कर्त्तव्य-उत्तरदायित्व का सदा ध्यान रहा है और जब तक चेतना का अस्तित्व है उसका स्मरण बना भी रहेगा। इस सम्बन्ध में स्मरण दिलाने योग्य बात एक ही है कि हमारी आकाँक्षा और आवश्यकता को भुला न दिया जाए। समय निकट है। इसमें प्रत्येक परिजन का समयदान और अंशदान हमें चाहिए। जितना मिलता रहा है उससे भी अधिक मात्रा में। क्योंकि जो करना है उसके लिए तत्काल कदम उठाने हैं। सो भी बड़े। बड़े कामों के लिए बड़े-बड़े लोग चाहिए। बड़े साधन भी। हमारे परिवार का हर व्यक्ति बड़ा है। छोटेपन का तो उसने मुखौटा भर पहन रखा है। उतारने भर की देर है कि उसका असली चेहरा दृष्टिगोचर होगा। भेड़ों के समूह में पले सिंह-शावक की कथा अपने प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक के ऊपर लागू होती है या हो सकती है।

हमें हमारे मार्गदर्शक ने एक पल में क्षुद्रता का लबादा झटककर महानता का परिधान पहना दिया था। इस काया-कल्प में मात्र इतना ही हुआ था कि लोभ, मोह की कीचड़ से उबरना पड़ा। जिस-तिस के परामर्शों-आग्रहों की उपेक्षा करनी पड़ी और आत्मा-परमात्मा के संयुक्त निर्णय को शिरोधार्य करने का साहस जुटाना पड़ा। एकाकी चलने का आत्म-विश्वास जागा और आदर्शों को भगवान मानकर कदम बढ़े। इसके बाद एकाकी नहीं रहना पड़ा और न साधनहीन उपेक्षित स्थिति का कभी आभास हुआ। सत्य का अवलम्बन अपनाने भर की देर थी कि असत्य का कुहासा अनायास ही हटता चला गया।

अपने अनन्य आत्मीय प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक के नाम हमारी यही वसीयत और विरासत है कि हमारे जीवन से कुछ सीखें। कदमों की यथार्थता खोजें। सफलता जाँचे और जिससे जितना बन पड़े अनुकरण का, अनुगमन का प्रयास करें। यह नफे का सौदा है घाटे का नहीं।


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