गलत कदम नहीं उठा, उसके पीछे तथ्य और औचित्य हैं।

June 1984

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निर्दोष और निभ्रान्त तो केवल परमेश्वर है, पर सौभाग्य से अभी इसी जीवन में ऐसे अवसर नहीं आये जिसमें प्रतिपादित आदर्शों के विपरीत आचरण करने पड़े हों। आमतौर से लोग लोभ और मोहवश ही कुमार्ग अपनाते और कुकृत्य करते हैं। इन दोनों में निरन्तर कुश्ती होती रहती है। ऐसा दुर्दिन अभी नहीं आया जिससे उसने हमें पछाड़ पाया हो। फिर जो एकान्तवास जैसे कदम उठे हैं। उनमें कष्ट ही कष्ट और कठिनाइयां ही कठिनाईयाँ हैं। बुढ़ापे की काया अब आराम चाहती और सहारा तकती है। इसके स्थान पर सपरिश्रम आजीवन कारावास जैसी कठोर यातनाएँ सहनी पड़ें और ऊपर से पलायनवादी निष्ठुर होने का लाँछन सहना हो तो उसे अंगीकार करने में कोई वज्र मूर्ख ही तैयार हो सकता है। हमारी विवेक बुद्धि और औचित्य दृष्टि से अभी राई रत्ती भी अन्तर नहीं आया है, इसलिए यह सोचना उचित न होगा कि अकारण कोई सनक उठ खड़ी हुई है और वह किया जा रहा है जिसे प्रियजन नहीं चाहते। इस गुत्थी को सुलझाने के लिए उन कारणों को समझना पड़ेगा, जिससे प्रस्तुत कटु प्रयोग को अपनाने की मजबूरी लद गई।

सूक्ष्मीकरण का अपना नया कदम यों लोक-मंगल और उच्च उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपेक्षाकृत और भी अधिक महत्वपूर्ण है फिर भी उसके सम्बन्ध में गहराई तक उतरकर सोच न पाने के कारण ऐसा प्रतीत हो सकता है कि निर्णय गलत हुआ। इससे हर किसी के लिए असुविधा उत्पन्न होगी और युग सन्धि की इस ऐतिहासिक बेला में जो होना चाहिए था वैसा बन नहीं पड़ेगा। उल्टे अवरोध उत्पन्न होगा। आवश्यक समझा गया कि इसका समय रहते निराकरण करने का प्रयत्न किया जाय।

समय की विपन्नता दिन-दिन बढ़ती जा रही है इसमें सन्देह नहीं। दृश्यमान और अदृश्य क्षेत्रों में सर्वनाशी विभीषिकाएँ जिस क्रम में गहरा रहीं हैं उसे देखते हुए कभी भी ऐसा अनिष्ट हो सकता है। जिसके कारण पृथ्वी को ऐसे ही चूरे में बदलना पड़ा जैसा कि मंगल और बृहस्पति के बीच निरंतर एक अंधड़ की तरह घूमता रहता है। अणु आयुधों की- रासायनिक अस्त्रों को घातक किरणों की संख्या एवं विचित्रता इतनी बढ़ गयी है कि उनके द्वारा बिना आमने-सामने का युद्ध छिड़े भी ऐसा हो सकता है कि रात को अच्छे-खासे सोये हुए आदमी मृतक या अर्ध-मृतक जैसी स्थिति में मिलें। समर्थ राष्ट्र विनाश की क्षमता बढ़ाने में इस कदर लगे हैं और उस स्तर के पराक्रम को इस प्रकार प्रतिष्ठा का प्रश्न बना रहे हैं कि कदाचित पीछे कदम हटाने की हेटी कराने को कोई भी तैयार नहीं। मृत्यु के साधन जब चरम सीमा पर पहुंचेंगे तो कोई भी पगला इस बारूद के ढेर में एक तीली फेंक कर उस प्रलय को क्षण भर में प्रत्यक्ष कर सकता है जिसके आने में पौराणिक प्रतिपादनों के अनुसार अभी लाखों वर्ष की देर है। महायुद्ध न भी हो तो भी वायु प्रदूषण, विकिरण, जनसंख्या विस्फोट, खनिज सम्पदा का समापन, पृथ्वी की उर्वरता का घटना, वृक्ष काटना, पशुओं का मिटना जैसे अनेकों ऐसे कारण विद्यमान हैं जो शीतयुद्ध बनकर वही काम करें जो शहतीर में लगने वाला घुन धीरे-धीरे किन्तु निश्चित रूप से करता है। विषाणु कितने छोटे होते हैं किन्तु वह अच्छे-खासे पहलवान को क्षय, कैन्सर जैसे रोगों से ग्रसित करके देखते-देखते मौत के मुँह में धकेल देते हैं।

कुविचारों और कुकर्मों से चरम सीमा तक पहुँच जाने पर अब मर्यादा और वर्जनाएँ लगभग समाप्त होती जा रही हैं। उच्छृंखलता, उद्दण्डता, अपराध, अनाचार अति की सीमा लाँघ रहे हैं। छल-प्रपंच कौशल के रूप में मान्यता प्राप्त कर चला है। परिवार बुरी तरह टूट और बिखर रहें है। चरित्र कहने-सुनने भर की वस्तु रह गई है। आदर्शों का अस्तित्व इसलिए है कि वे कथन प्रवचन को लच्छेदार बनाने के काम आते हैं। लिखते समय भी उनका पुट जमाने की आवश्यकता पड़ती है। मूर्धन्यों ने इस विग्रह को अपने लिए तो अपनाया ही है।, छुटभइयों को भी अनुगमन की प्रेरणा देकर वैसा ही अभ्यस्त कर दिया है। प्रचलन और आन्दोलन उस दिशा में चल रहे हैं जिनका अन्त सर्वनाशी परिणतियों के अतिरिक्त और कहीं कुछ हो ही नहीं सकता। न व्यक्ति को चैन है, न समाज में शान्ति। पीढ़ियां अपने जन्मकाल से ही ऐसे दुर्गुण साथ लेकर जन्मती हैं कि अपना परिवार का और समाज का सर्वनाश करके ही रहें।

गरम युद्ध से मरना पड़े या शीतयुद्ध से, अन्तर कुछ नहीं पड़ता। “सरदार जी का झटका” ठीक कि “कसाई का हलाल”। अन्तर क्या पड़े। बकरे की परिणति तो एक ही हुई। अपने इस जन-समुदाय का- इस विश्व उद्यान का विनाश तो होना ही ठहरा। लू में झुलसने पर या पाला मारने पर फसल का बंटाढार ही होना है। अविश्वास आशंका, अनिश्चितता, असुरक्षा और आतंक के घुटन भरे वातावरण में मानवी गरिमा देर तक सुरक्षित नहीं रह सकती। भेड़िये और कुत्ते जब पागल होते हैं तो आपस में ही एक-दूसरे को नोंच खाते हैं। मनुष्य जब पागल होते हैं, तो मरघट भूत पिशाचों जैसा आचरण करते हैं। जलने और जलाने- डरने और डराने के अतिरिक्त और कुछ उन्हें सूझता ही नहीं। ऐसी दशा में व्यक्ति और समाज को पतन पराभव के किस गर्त में गिरना पड़ेगा इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। जो तथ्य सामने हैं वे किसी भी विचारशील का दिल दहलाने के लिए काफी है।

यह कल्पनाएँ नहीं, मान्यताएँ या आकाँक्षाएं नहीं, ऐसी परिस्थितियाँ हैं जो दर्पण की तरह सामने हैं। उन्हें ज्योतिषियों, भविष्य वक्ताओं की अटकलें भी नहीं कहा जा सकता। प्रस्तुत तथ्यों पर गम्भीरतापूर्वक विचार कर सकने में समर्थ राजनेता, अर्थशास्त्री, समाज विज्ञानी, विज्ञानवेत्ता, अपनी-अपनी कसौटी पर कसकर एक स्तर से यही कहते पाये जाते हैं कि मनुष्य सामूहिक आत्महत्या की राह पर बदहवास होकर सरपट दौड़ता चला जा रहा है। कुछ समय बाद ही स्थिति ऐसी उत्पन्न हो जायगी जिसमें पीछे लौट सकना भी सम्भव न रहेगा। वापसी की भी एक सीमा होती है। सुधार की गुंजाइश भी एक सीमा तक रहती है। वह निकल चले तो फिर पछताने के अतिरिक्त और कुछ हाथ रहता नहीं।

हम निश्चित रूप से इन दिनों ऐसी ही विषम परिस्थितियों के बीच रह रहें हैं। पौराणिक विवेचन के अनुसार इसे असुरता के हाथों देवत्व का पराभव होना कहा जा सकता है। कभी हिरणाक्ष्य, हिरण्यकश्यपु, वृत्तासुर, भस्मासुर आदि ने आतंक उत्पन्न किये थे और देवताओं को खदेड़ दिया था। अलंकारिक रूप से किया गया वह वर्णन आज की परिस्थितियों के साथ पूरी तरह तालमेल खाता है। रावण और कंस कल की परिस्थितियों के साथ आज के वातावरण की तुलना करते हैं तो पुनरावृत्ति स्पष्ट परिलक्षित होती है। उन दिनों शासक वर्ग का ही आतंक था पर आज तो राजा-रंक, धनी-निर्धन, शिक्षित अशिक्षित, वक्ता-श्रोता, सभी एक राह पर चल रहे हैं। छद्म और अनाचार ही सबका इष्टदेव बन चला है। नीति और मर्यादा का पक्ष दिनों-दिन दुर्बल होता जाता है।

उपाय दो ही हैं। एक वह कि शुतुरमुर्ग की तरह आँखें बन्द करके भवितव्यता के सामने सिर झुका दिया जाय। जो होना है, उसे होने दिया जाय। दूसरा यह कि जो सामर्थ्य के अंतर्गत है, उसे करने में कुछ उठा न रखा जाय। टिटहरी समुद्र से लड़कर अण्डे वापस ले सकती है तो अपने से कुछ न बन पड़े, ऐसा नहीं होना चाहिए।

अनिष्ट का प्रतिकार करने के लिए हर कोई अपनी सूझ-बूझ और सामर्थ्य के अनुरूप काम करता है पर स्थिर समाधान के लिए ताला खोलने वाली ताली ही तलाश करनी पड़ती है। लोग प्रयत्नशील न हों सो बात नहीं है। सरकारें धन खर्चने, वैज्ञानिक दिन-रात प्रयोगशालाओं में तत्पर रहने, अर्थशास्त्री संपन्नता बढ़ाने और विज्ञान सोचने, खोजने में संलग्न हैं। संकट को निरस्त करने के लिए बरते जा रहे उपाय कुछ भी कारगर सिद्ध नहीं हो रहे हैं। रस्सी दो गज जुड़ पाती नहीं कि चार गज टूट जाती है। “अन्धी पीसे कुत्ता खाये” वाली उक्ति लागू हो रही है। राजनैतिक मोर्चे पर न धमकी काम दे रही है न काना-फूसी। विग्रह के बादल सघन ही होते चले जा रहे हैं। क्षेत्रीय समस्याओं में भाषावाद, सम्प्रदायवाद, उग्रवाद, यूनियनवाद, हड़ताल, तोड़-फोड़ के उपद्रव आये दिन खड़े रहते हैं। अस्पतालों और डाक्टरों की संख्या वृद्धि के साथ बीमारों और बीमारियों की संख्या और भी बड़े अनुपात के साथ बढ़ रही है। पुलिस बढ़ रही है पर अपराधों की वृद्धि पर तनिक भी अंकुश नहीं लग रहा है। महंगाई के साथ-साथ मिलावट, भ्रष्टाचार का भी पूरा जोर और दौर है। नशेबाजी जैसे दुर्व्यसन, दहेज जैसे कुप्रचलन, दिन-दूने रात चौगुने वेग से उभर रहे हैं। प्रचार प्रस्तावों का उन पर कोई असर नहीं। व्यक्ति खोखला हुआ जा रहा है और समाज जर्जर। विपत्तियों और समस्याओं का ओर-छोर नहीं।

कुछ कुचक्री और स्वेच्छाचारी दोनों हाथों से दौलत भी बटोर रहे हैं किन्तु वे भी ईर्ष्यालुओं अपराधियों और रिश्वत माँगने वालों से हैरान ही बने रहते हैं। खोटी कमाई इस हाथ आकर दुर्व्यसनों में उस हाथ फुलझड़ी की तरह जल जाती है।

यह अत्युक्तिवादी कल्पना चित्र नहीं है। आँख उठा कर इर्द-गिर्द देखने पर ही दृष्टिगोचर होने वाला वातावरण है। इसके प्रमाण परिचय कहीं भी कभी भी मिल सकते हैं। चिन्ता की बात अनर्थों का- संकटों का बढ़ना तो है ही, पर उससे भी अधिक हैरानी की बात यह है कि किसी क्षेत्र में कोई समाधान निकल नहीं रहें हैं। सुधारवादी प्रयास जलते तवे पर कुछ बूँदें पानी पड़ने की तरह अपने अस्तित्व का परिचय देकर समाप्त हो जाते हैं। सर्वोदय जैसे उत्साहवर्धक आन्दोलन दम तोड़ गये। कुरीति निवारण में आर्य समाज को कितनी सफलता मिली? नशा निवारण और भ्रष्टाचार उन्मूलन के काम करने वाले संगठन कितने सफल हो रहे हैं, यह उन्हीं से उन्हीं के मुँह से कच्चा चिट्ठा पूछकर भली भाँति जाना जा सकता है। धर्मोपदेशक और कथा-कीर्तन कारों के बूते भी एक प्रकार का विनोद मनोरंजन ही बन पड़ता है। अनाथालयों, नारी ग्रहों, भिक्षुक ग्रहों, अपंग आश्रमों, गौशाला में कितनों की, कितनों को, किनको, कितनी राहत मिली, इसका पर्यवेक्षण बताता है कि सारा अवाँ ही बिगड़ गया। पूरे कुएँ में भाँग पड़ गई। जो सुधार का जिम्मा उठाते हैं, वे अधिकारी भी दूध के धुलें कहाँ हैं? पक्षपात और भ्रष्टाचार को कहाँ प्रश्रय नहीं मिल रहा है? ऐसी दशा में हर विचारशील को आँखों के आगे अन्धेरा छाता है और लगता है बुरे दिन तेजी से बढ़ते आ रहे हैं। रोकथाम करने वाले प्रयत्न दूसरों को उत्साह दिलाते हैं पर स्वयं निराशा से ही ग्रसित रहते हैं।

इस अन्धकार भरी निविड़ निशा प्रभात की आशा किरण यदि जीवित है तो एक ही है कि अदृश्य जगत से कोई सृजन प्रवाह उमंग और वर्षा के बादलों की तरह तपते धरातल को शीतल और हरीतिमा से भर दें। ऐसे अवसरों पर दैवी चमत्कार ही काम आते हैं। हेमन्त में जब शीताधिक्य से जंगलों के जंगल पत्ते रहित होकर ठूँठ बन जाते हैं। पाले के दबाव से पौधे मुस्कांत और मृतक जैसे दीखते हैं तब बसन्त का मौसम ही उत्साह वर्धक परिवर्तन का माहौल बनाता है। यह कार्य कोई व्यक्ति या संगठन करना चाहे तो कठिन है। पतझड़ ग्रस्त पेड़-पौधों के पुष्प पल्लवों से लादने में मानवी प्रयत्नों की पहुँच कहाँ तक हो सकती है? सूखी जमीन को हरा भरा बनाने में सिंचाई प्रयत्न कितने क्षेत्र में सफल हो सकते हैं, इसका अनुमान सहज लगाया जा सकता है। वर्षा और वसन्त ही हैं, जो हरीतिमा उगाने और उसे फलने फूलने की स्थिति तक पहुँचाने की जिम्मेदारी उठा सकते हैं।

मानवी पुरुषार्थ को यहाँ न तो नगण्य ठहराया जा रहा है और न उसका उपहास उड़ाया जा रहा है। कहा इतना ही जा रहा है कि बड़ी समस्याओं का समाधान, बड़े संकटों का निराकरण और बड़े अभावों की पूर्ति के लिए प्रायः दैवी अनुकूलता ही काम देती है। पहाड़ों पर बर्फ जमाना और उसे पिघलाकर नदियों को जलधारा से भरी-पूरी रखना मानवी पुरुषार्थ के बाहर की बात है। इसके द्वारा समुद्र के जल को बादल के रूप में परिणत करना और दूर तक बरसने के लिए खदेड़ देना भी सम्भव नहीं। सूर्य जैसा ताप और चन्द्रमा जैसा शीत बरसाने में मनुष्य कहीं सफल हो सकेगा? उपग्रहों का निर्माण करने पर भी अभी नया ग्रह बना देना या पुरानों को हटा देना किसके लिए कब तक सम्भव हो सकेगा कुछ कहा नहीं जा सकता।

इतिहास साक्षी है कि मनुष्य वातावरण को बिगाड़ने में तो अनेकों बार सफल हुआ है, पर जब-जब परिस्थितियाँ बेकाबू हुई हैं, तब-तब नियन्ता ने ही उलटे को उलटकर सीधा किया है। पर यह दैवी अनुग्रह भी अनायास ही उपलब्ध नहीं होता उसके पीछे भी ऋषि-कल्प देवताओं का दबाव काम करता है।

जल के लिए सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची थी। आर्यावर्त ब्रह्मवर्त, से लेकर मगध बंगाल तक का इलाका प्यास से मर रहा था। उपयोगी उपाय गंगावतरण समझा गया। इसके लिए तपस्वी की प्रार्थना ही सुनी जा सकती थी। यह कार्य भागीरथ ने अपने जिम्मे लिया। उद्देश्य की पवित्रता को देखकर शिवजी सहायक बने और जाह्नवी स्वर्गलोक से धरती पर उतरी। अभाव दूर हो गया।

ऐसे-ऐसे असंख्यों उदाहरणों का इतिहास पुराणों में वर्णन है। दैवी अनुकम्पा अन्धविश्वास नहीं है। दैवी प्रकोपों का कुचक्र जब मानवी प्रगति प्रयत्नों को मटियामेट कर सकता है तो दैवी अनुग्रह से अनुकूलता क्यों उत्पन्न न होगी? बाढ़, भूकम्प, दुर्भिक्ष, महामारी, अतिवृष्टि, इति-भीति आदि विनाशकारी घटनाक्रम दैवी प्रकोप से ही उत्पन्न होते हैं। उसी क्षेत्र की, अनुकम्पा से समृद्धि प्रगति और शान्ति के अप्रत्याशित द्वार भी खुल सकते हैं।

दैवी प्रकोप या अनुग्रह अकारण नहीं बरसते। सृष्टि की सुव्यवस्था में व्यतिरेक उत्पन्न करने पर सुयोग संजोने में मनुष्य की बहुत बड़ी भूमिका होती है। कुकृत्य ही अदृश्य वातावरण को दूषित करते और प्रकृति प्रकोपों को टूट पड़ने के लिए आमन्त्रित करते हैं। इसके साथ ही यह भी एक सुनिश्चित तथ्य है कि ऋषि स्तर के व्यक्ति जब उच्च प्रयोजनों के निमित्त तपश्चर्या करते और वातावरण में उपयोगी ऊर्जा उत्पन्न करते हैं तो दैवी अनुकम्पा का भी सुयोग बनता है। देवता न किसी पर कुपित होते हैं व दयालु। स्थिति का पर्यवेक्षण करते हुए वे तद्नुरूप दण्ड पुरस्कार का तालमेल बिठाते रहते हैं। जिस प्रकार दुरात्माओं का बाहुल्य संसार में विपत्ति बरसने का सरंजाम जुटाता है उसी प्रकार देव मानवों की तपश्चर्या प्रत्यक्ष और परोक्ष क्षेत्र के सुयोग जुटाती है। सन्त अपनी सेवा साधना से जहाँ धर्मधारणा और पुण्य प्रक्रिया को प्रोत्साहित करते हैं वहाँ उनकी विशिष्ट साधनाओं से अदृश्य जगत का परिशोधन भी होता चलता है। यही कारण है कि अध्यात्म-वेत्ता लोक-साधना और अध्यात्म साधना को समान महत्व देते हैं। दोनों के लिए समान प्रयत्न करते हैं।

इन दिनों अदृश्य वातावरण की विषाक्तता ही अनेकानेक संकटों को जन्म दे रही है। विज्ञान-वेत्ताओं के अनुसार बढ़ते प्रदूषण और तापमान ने ध्रुव पिघलने, समुद्र उफनने और हिमयुग लौट आने जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी हैं। अदृश्य-वेत्ताओं के अनुसार दुर्भावनाओं, उद्दण्डताओं और कुकर्मों ने देव जगत को रुष्ट कर दिया है और वे सामूहिक दण्ड व्यवस्था करके मनुष्य समुदाय को कडुआ पाठ पढ़ाने- करारे चपत लगाने के लिए आमादा हो गये हैं। प्रस्तुत समस्याओं का कारण चाहे वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाय चाहे अध्यात्म दृष्टि से उसमें अदृश्य जगत में संव्याप्त वातावरण की विषाक्तता प्रमुख कारण है। इसका समाधान भी उतने ही वजनदार पुरुषार्थ चाहता है जिससे खोदी हुई खाई पट सके और लगी हुई कलंक कालिमा धुल सके।

समस्या भावनात्मक है। मनुष्य ने दुर्गति अपनाई और दुर्गति न्योत बुलाई है। इसके लिए परिमार्जन प्रयत्न ऐसे चाहिए जो प्रत्यक्ष रूप से लोक-मानस का परिष्कार कर सकने वाले सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन प्रयासों को अग्रगामी बना सकें। साथ ही अदृश्य जगत से देवत्व की शक्तियों की अनुकंपाएं भी अर्जित कर सकें। द्रौपदी की पुकार पर भगवान दौड़े आये थे। प्रह्लाद कारुदन भगवान तक पहुँचा था। सशक्त आत्माओं का दबाव भगवान को भी बाधित कर सकता है। शबरी को दर्शन देने और यश बढ़ाने वे स्वयं ही पहुंचे थे। उदाहरणों में भक्त की पात्रता ही सब कुछ थी। उसी में दैव अनुकम्पा उत्पन्न करने की क्षमता होती है। प्रस्तुत एकान्तवास के नाम से समझा गया कदम वस्तुतः ऐसी विशिष्ट तपश्चर्या का एक स्वरूप है, जो ऋद्धि सिद्धियों की प्राप्ति के लिए उलटे प्रवाह को उलटकर सीधा करने के लिए उठाया गया है।


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