दैनिक उपासना नित्यकर्म में सम्मिलित रही। उसका लेखा-जोखा व्यर्थ है। शौच, स्नान, शयन, भोजन जैसे कार्य सभी की दिनचर्या में सम्मिलित रहते हैं। न उसका कोई लेखा-जोखा रखता है और न निन्दा परक मूल्यांकन करते हुए कोई उन पर ध्यान देता है। हमने अपनी उपासना को नित्य कर्म में सम्मिलित रखा है। सूर्योदय से पूर्व उसे निपटा दिया है। क्योंकि उसे आत्मा का स्वच्छ और समर्थ रखने का आवश्यक दैनिक क्रिया-कलाप माना है। उसकी अतिरिक्त गणना क्या रखी जाय, उसकी शेखी क्या बघारी जाय?
पन्द्रह वर्ष की आयु से लेकर चौबीस वर्ष तक चौबीस महा-पुरश्चरणों का लेखा-जोखा रखा गया। क्योंकि वह प्रारंभिक अवस्था में मनोबल को सुदृढ़ और सुनिश्चित रखने के लिए था। नियत समय पर, नियत संख्या में नियत विधि से किसी क्रिया-कृत्य को करते रहने, व्यवधानों को आड़े न आने देने की सुनिश्चित परिणति एक ही होती है- संकल्प बल का- मनोबल का परिपक्व होना। यही है अध्यात्म शक्ति के- उद्भव का केन्द्र एवं स्रोत। किसी मन्त्र विशेष में जादू नहीं है। उसके पीछे काम करने वाले संकल्प और उसके सुनिश्चित निर्वाह से जो आस्था परिपक्व होती है, वही मन्त्र विशेष के साथ जुड़कर चमत्कार दिखाती है। यदि इस सम्बन्ध में साधक कच्चा हो तो समझना चाहिए कि कुछ भी पल्ले पड़ने वाला नहीं हैं। आज पाँच माला, कल दो, परसों एक, तरसों एक भी नहीं। कभी सवेरे, कभी शाम, कभी रास्ता चलते, कभी गैर हाजिरी- इस प्रकार की अस्त-व्यस्तता अश्रद्धा या अन्यमनस्कता की परिचायक है। जहाँ श्रद्धा होगी वहाँ संकल्प निभेगा। निश्चय पूरा न हो तो भोजन न करने या सोने से रुके रहने का नियम बना लेने पर कभी किसी की नागा नहीं हो सकता। परिस्थितिवश आगा-पीछा हो सकता है। पुरश्चरण का तात्पर्य व्रत पूर्वक उपासना क्रम को कड़ाई के साथ निबाहना है। संकल्प इसी बात का लिया जाता है। इसका प्रत्यक्ष प्रतिफल मनोबल की परिपक्वता है। इसी को आत्मशक्ति सम्पादन प्रक्रिया का प्राण कहना चाहिए।
सच्ची उपासना के फलस्वरूप सही दिशाधारा मिलती है, वही मुझे भी मिली। दिशा एक ऋषि कल्प जीवन। देव मानव जैसा दृष्टिकोण। इसके लिए मात्र आदर्शवादी महामानवों के जीवनक्रम पर दृष्टि रखना और उसी से प्रेरणा लेनी पड़ती है। इन महाभागों में समीपवर्ती, संपर्क क्षेत्र को बहुत कम मिलते हैं। उनमें से अधिकाँश दिवंगत हो चुके होते हैं पर थोड़ी-सी भाव सम्वेदना जोड़ते ही ऐसा लगता है मानो वे साथ रहते हैं। अपने देश में इस स्तर के नर-नारी अगणित हुए हैं, जो आदर्शों के लिए जिये, जिन्हें न प्रलोभन विचलित कर सका न भय। ऐसा लोगों की जीवन गाथाएँ उपलब्ध हैं। उन्हें पढ़ने से यह अभाव नहीं खटकता कि वे कहीं दूर हैं। समीप लगते हैं और साथी जैसे प्रतीत होते हैं। यही अपना परिवार- यही अपना मित्र मण्डली। प्रत्यक्ष न सही- परोक्ष सही। अन्तर कुछ नहीं पड़ा। यह अभाव कभी खटका नहीं कि आदर्शवादी समुदाय कही ईद-गिर्द है नहीं, हमें अकेले ही- एकाकी उस स्तर का जीवन जीना पड़ रहा है। इनका अनुकरण अनुसरण करने का यथा सम्भव प्रयत्न चला तो उसमें क्रमिक प्रगति ही हुई।
इसी देव संपर्क का एक निषेध पक्ष भी है- लोक प्रवाह की उपेक्षा करना। लोक प्रवाह से तात्पर्य है- मात्र पेट और प्रजनन के लिए कोल्हू के बैल की तरह पिलता, पेलता हुआ जन-समुदाय, जो मुश्किल से शरीर निर्वाह भर प्राप्त करता है पर वासना, तृष्णा, अहंता की कामनाएं असीम होने के कारण पाप को पोटली दिन-दिन भारी करता जाता है। बहुमत इन्हीं का है। इनमें से कुछ शिक्षित- कुछ अशिक्षित, कुछ प्रतिभावान- कुछ अनपढ़ होते हैं। पर सभी की दृष्टि एक ही रहती है। विलास, संग्रह, अपव्यय और उद्धत अहंकार का प्रदर्शन। यह लोग दूसरों को भी अपने ही मार्ग पर घसीटते हैं। परामर्श- दबाव इसी स्तर का देते हैं। न मानने पर असहयोग, उपहास विरोध और झंझट करते हैं। इनमें से अधिकाँश कुटुम्बी, सम्बन्धी, मित्र और शुभ चिन्तक कहे जाते हैं पर उन सबकी खींच-तान एक ही दिशा में होती है।
ऋषि दृष्टिकोण की दिशा जिस दिन मिली, उसी दिन यह भी कह दिया गया कि यह परिवार सम्बद्ध तो है पर विजातीय द्रव्य की तरह है- बचने योग्य। इसके तर्क, प्रमाणों की ओर से कान बन्द किये रहना ही उचित रहेगा। इसलिए सुननी तो सबकी चाहिए पर करनी मन की। उनके परामर्श को- आग्रह को वजन या महत्व दिया गया और उन्हें स्वीकारने का मन बनाया गया तो फिर लक्ष्य तक पहुँचना कठिन है। श्रेय और प्रेस की दोनों दिशाएँ एक दूसरे के प्रतिकूल जाती हैं। दोनों में से एक ही अपनाई जा सकती है। संसार प्रसन्न होगा तो आत्मा रूठेगी। आत्मा को सन्तुष्ट किया जायेगा तो संसार की- निकटस्थों की नाराजगी सहनी पड़ेगी। आमतौर से यही हुआ है, यही होता रहेगा। कदाचित् ही कभी कहीं ऐसे सौभाग्य बने हैं, जब सम्बन्धियों ने आदर्शवादिता अपनाने का अनुमोदन दिया हो। आत्मा को तो अनेकों बार संसार के सामने झुकना पड़ा है। ऊँचे निश्चय बदलने पड़े हैं और पुराने ढर्रे पर आना पड़ा है।
यह कठिनाई अपने सामने पहले दिन से ही आई। वसन्त पर्व को जिस दिन नया जन्म मिला, उसी दिन नया कार्यक्रम भी। पुरश्चरणों की शृंखला के साथ-साथ आहार-बिहार के तपस्वी स्तर के अनुबन्ध भी। तहलका मचा जिसने सुना अपने-अपने ढंग से समझाने लगा। मीठे और कडुए शब्दों की वर्षा होने लगी। मन्तव्य एक ही था कि जिस तरह सामान्य जन जीवन-यापन करते हैं, कमाते-खाते हैं, वही राह उचित है। ऐसे कदम न उठाये जायें जिनसे इन दोनों में व्यवधान पड़ता हो। यद्यपि पैतृक सम्पदा इतनी थी कि उसके सहारे तीन पीढ़ी तक घर बैठकर गुजारा हो सकता था। पर उस तर्क को कोई सुनने तक के लिए तैयार न हुआ। नया कमाओ, नया खाओ, जो पुराना है, उसे भविष्य के लिए कुटुम्बियों के लिए जमा रखो। सब लोग अपने-अपने शब्दों में एक ही बात कहते थे। अपना एक मुँह- सामने वालों के सौ। किस किस को कहाँ तक जवाब दिया जाय? अन्त में हारकर गाँधीजी के तीन गुरुओं में से एक की अपमा भी गुरु बना लिया। मौन रहने से राहत मिली। “भगवान की प्रेरणा” कह देने से थोड़ा काम चल पाता क्योंकि उसे काटने के लिए उन सबके पास बहुत पैने तर्क नहीं थे। नास्तिकवाद तक उतर आने या अन्तःप्रेरणा का खण्डन करने लायक तर्क उनमें से किसी ने भी सीखे समझे नहीं थे। इसलिए बात ठण्डी पड़ गई। मैंने अपना संकल्पित व्रत इस प्रकार चालू कर दिया मानो किसी को जवाब देना ही नहीं था। किसी का परामर्श लेना ही नहीं था। अब सोचता हूँ कि उतनी दृढ़ता न अपनाई गई होती तो नाव दो चार झकझोरे खाने के उपरान्त ही डूब जाती। जिस साधना बल के सहारे आज अपना और दूसरों का कुछ भला बन पड़ा उसका सुयोग ही न आता। ईश्वर के साथ वह नाता जुड़ता ही नहीं जो पवित्रता ओर प्रखरता से कम में जड़ें जमाने की स्थिति में होता ही नहीं।
इसके बाद दूसरी परीक्षा बचपन में ही तब सामने आई जब काँग्रेस का असहयोग आन्दोलन आरम्भ हुआ। गाँधी जी ने सत्याग्रह आन्दोलन का बिगुल बजाया। देशभक्तों का आह्वान किया और जेल जाने- गोली खाने के लिए घर से निकल पड़ने के लिए कहा।
मैंने अन्तरात्मा की पुकार सुनी और समझा कि यह ऐतिहासिक अवसर है। इसे किसी भी कारण चुकाया नहीं जाना चाहिए। मुझे सत्याग्रहियों की सेना में भर्ती होना ही चाहिए। अपनी मर्जी से उन क्षेत्र के भर्ती केन्द्र में नाम लिखा दिया। साधन सम्पन्न घर छोड़कर नमक सत्याग्रह के लिए निर्धारित मोर्चे पर जाना था। उन दिनों गोली चलने की चर्चा बहुत जोरों से थी। लम्बी सजाऐं- कला पाना होने की भी। ऐसी अफवाहें सरकारी पक्ष के- किराये के प्रचारक जोरों से फैला रहे थे ताकि कोई सत्याग्रही बने नहीं। घर वाले उनकी पूरी पूरी रोकथाम करें। मेरे सम्बन्ध में भी यही हुआ। समाचार विदित होने पर मित्र, पड़ोसी, कुटुम्बी, सम्बन्धी एक भी न बचा जो इस विपत्ति से बचाने के लिए जोर लगाने न आया हो। उनकी दृष्टि से यह आत्म-हत्या जैसा प्रयास था।
बात बढ़ते-बढ़ते जवाबी आक्रमण तक की आई। किसी ने अनशन की, धमकी दी तो किसी ने आत्म-हत्या। हमारी माताजी अभिभावक थी। उन्हें यह पट्टी पढ़ाई गई कि लाखों की पैतृक सम्पत्ति से वे मेरा नाम खारिज कराकर अन्य भाइयों के नाम कर देंगी। भाइयों ने कहा- घर से कोई रिश्ता न रहेगा और उसमें प्रवेश भी न मिलेगा। इसके अतिरिक्त भी और कई प्रकार की धमकियां दीं। उठाकर ले जाया जायेगा और डाकुओं के नियन्त्रण में रहने के लिए बाधित कर दिया जायेगा।
इन मीठी-कड़वी धमकियों को मैं शान्तिपूर्वक सुनता रहा। अन्तरात्मा के सामने एक ही प्रश्न रहा कि समय की पुकार बड़ी है या परिवार का दबाव। अन्तरात्मा की प्रेरणा बड़ी है या मन को इधर-उधर डुलाने वाले असमंजस की स्थिति। अन्तिम निर्णय किससे कराता? आत्मा और परमात्मा दो को ही साक्षी बनाया और उनके निर्णय को ही अन्तिम मानने का फैसला किया।
इस संदर्भ में प्रहलाद का फिल्म चित्र आंखों के आगे तैरने लगा। वह समाप्त न होने पाया था कि ध्रुव की कहानी मस्तिष्क में तैरने लगी। इसका अन्त न होने पाया कि पार्वती का निश्चय उछलकर आगे आ गया। इस आरम्भ के उपरान्त महामानवों की वीर बलिदानियों की- सन्त, सुधारक और शहीदों की अगणित कथा गाथाएँ सामने तैरने लगीं। उनमें से किसी के भी घर परिवार वालों ने मित्र संबंधियों ने समर्थन नहीं किया था। वे अपने एकाकी आत्मबल के सहारे कर्त्तव्य की पुकार पर आरूढ हुए और दृढ़ रहे। फिर यह सोचना व्यर्थ है कि इस समय अपने इर्द-गिर्द के लोग क्या करते और क्या कहते हैं? उनकी बात सुनने से आदर्श नहीं निभेंगे। आदर्श निभाने हैं तो अपने मन की ललक लिप्साओं से जूझना पड़ेगा। इतना ही नहीं इर्द-गिर्द जुड़े हुए उन लोगों की भी अपेक्षा करनी पड़ेगी जो मात्र पेट प्रजनन के कुचक्र में ही घूमते और घुमाते रहे हैं।
निर्णय आत्मा के पक्ष में गया। मैं अनेकों विरोध और प्रतिबंधों को तोड़ता- लुक-छिपकर निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा और सत्याग्रही की भूमिका निभाता हुआ जेल चला गया। जो भय का काल्पनिक आतंक बनाया गया था उसमें से एक भी चरितार्थ नहीं हुआ।
छुटपन की एक घटना इन दोनों प्रयोजनों में और भी साहस देती रही। गाँव में एक बुढ़िया महतरानी घावों से पीड़ित थी। दस्त भी हो रहे थे। घावों में कीड़े पड़ गये थे। बेतरह चिल्लाती थी पर कोई छूत के कारण उसके घर में घुसता न था। मैंने एक चिकित्सक से उपचार पूछा। दवाओं का एकाकी प्रबन्ध किया। उसके घर नियमित रूप से जाने लगा। चिकित्सा के लिए भी परिचर्या के लिए भी- भोजन व्यवस्था के लिए भी। यह सारे काम मैंने अपने जिम्मे ले लिये। मेहतरानी के घर में घुसना, उसके मल-मूत्र से सने कपड़े धोना आज से 65 वर्ष पूर्व पूरा गुनाह था। जाति बहिष्कार कर दिया गया। घर वालों तक ने प्रवेश न करने दिया। चबूतरे पर पड़ा रहता और जो कुछ घर वाले दे जाते, उसी को खाकर गुजारा करता। इतने पर भी मेहतरानी की सेवा छोड़ी नहीं। यह पन्द्रह दिन चली और वह अच्छी हो गई। वह जब तक जियी मुझे भगवान कहती रही। उन दिनों 13 वर्ष की आयु में भी मैं अकेला था। सारा घर और सारा गाँव एक ओर। लड़ता रहा हारा नहीं। अब तो उम्र कई वर्ष और अधिक बड़ी हो गई थी, अब क्यों हारता?
स्वतन्त्रता संग्राम की कई बार जेलयात्रा- 23 महापुरश्चरणों का व्रत धारण- इसके साथ ही मेहतरानी की सेवा साधना यह तीन परीक्षाएँ, मुझे छोटी उम्र में ही पास करनी पड़ीं। आन्तरिक दुर्बलताएँ और सम्बद्ध परिजनों के दुहरे मोर्चे पर एक साथ लड़ा। उस आत्मविजय का ही परिणाम है कि आत्मबल संग्रह में अधिक लाभ से लाभान्वित होने का अवसर मिला। यदि दूसरों की तरह पूंजी-पत्री के छुटपुट ताने-बाने बुनते हुए आकाश-पाताल जैसे लाभ उठाने के सपने देखता रहता तो कदाचित् अपने हाथ भी विडम्बना के अतिरिक्त और कुछ न लगा होता।