जीवन साधना जो असफल नहीं हुई

June 1984

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बालक की तरह मनुष्य सीमित है। उसे असीम क्षमता उसके सुसम्पन्न सृजेता भगवान से उपलब्ध होती है पर यह सशर्त है। छोटे बच्चे वस्तुओं का सही उपयोग नहीं जानते, न उसकी संभाल रख सकते हैं। इसलिए उन्हें दुलार में जो मिलता है, हलके दर्जे का होता है, गुब्बारे, झुनझुने, सीटी, लेमनचूस स्तर की विनोद वाली वस्तुएँ ही माँगी और पाई जाती हैं। प्रौढ़ होने पर लड़का घर की जिम्मेदारियाँ समझता और निबाहता है। फलतः बिना माँगे उत्तराधिकार का हस्तान्तरण होता जाता है। इसके लिए प्रार्थना याचना नहीं करनी पड़ती। न दाँत निपोरने पड़ते हैं और न नाक रगड़नी पड़ती है। जितना हमें माँगने में उत्साह है, उससे हजार गुना देने में उत्साह भगवान को और महामानवों को होता है। कठिनाई एक अड़ती है “सदुपयोग कर सकने की पात्रता विकसित हुई या नहीं?”

इस संदर्भ में भविष्य के लिए झूठे वायदे करने से कुछ काम नहीं चलता। प्रमाण यह देना पड़ता है कि अब तक जो हाथ में था उसका उपयोग वैसा होता रहा है। “हिस्ट्रीशीट” इसी से बनती है और प्रमोशन में यह पिछला विवरण ही काम आता है। हमें पिछले कई जन्मों तक अपनी पात्रता और प्रामाणिकता सिद्ध करनी पड़ती है। जब बात पक्की हो गई तो ऊँचे क्षेत्र से अनुग्रह का सिलसिला अपने आप ही चल पड़ा।

सुग्रीव, विभीषण, सुदामा, अर्जुन आदि ने जो पाया- जो कर दिखाया वह उनके अपने पराक्रम का फल नहीं था, उसमें ईश्वर की सत्ता और महत्ता काम करती रही है। बड़ी नदी के साथ जुड़ी रहने पर नहरें और नहरों के साथ जुड़े हुए रजवाहे खेतों को पानी देते रहते हैं। यदि एक सूत्र में कहीं गड़बड़ी उत्पन्न होगी तो अवरोध खड़ा होगा और सिलसिला टूटेगा। भगवान के साथ मनुष्य अपने सुदृढ़ सम्बन्ध सुनिश्चित आधारों पर ही बनाये जा सकता। उसमें चापलूसी जैसी कोई गुंजाइश नहीं है। भगवान को किसी से न निजी मित्रता है न शत्रुता वे नियमों से बँधे हैं। समदर्शी हैं।

हमारी व्यक्तिगत क्षमता सर्वथा नगण्य है। प्रायः जन साधारण के समान ही उसे समझा जा सकता है। जो कुछ अतिरिक्त दीखता है या बन पड़ता है, उसे विशुद्ध दैवी अनुग्रह समझा जाना चाहिए। वह सीधा कम और मार्ग दर्शक के माध्यम से अधिक आता रहा है। पर इससे कुछ अन्तर नहीं आता। धन बैंक का है। भले ही वह नकदी के रूप में, चैक, ड्राफ्ट आदि के माध्यम से मिला हो।

यह दैवी उपलब्धि किस प्रकार सम्भव हुई। इसका एक ही उत्तर है- पात्रता का अभिवर्धन। उसी का नाम जीवन साधना है। उपासना के साथ उसका अनन्य एवं घनिष्ठ सम्बन्ध है। बिजली धातु में दौड़ती है, लकड़ी में नहीं। आग सूखे को जलाती है गीले को नहीं। माता बच्चे को गोदी तब लेती है जब वह साफ सुथरा हो। मल, मूत्र से सना हो तो पहले उसे धोएगी, पोंछेगी। इसके बाद ही गोदी में लेने और दूध पिलाने की बात करेगी।

भगवान की समीपता के लिए शुद्ध चरित्र आवश्यक है। कई व्यक्ति पिछले जीवन में तो मलीन रहे हैं, पर जिस दिन से भक्ति की साधना अपनाई, उस दिन से अपना कायाकल्प कर दिया। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, विल्व मंगल, अजामिल आदि पिछले जीवन में कैसे ही क्यों न रहे हों, जिस दिन से भगवान की शरण में आये, उस दिन से सच्चे अर्थों में सन्त बन गये। हम लोग “राम-नाम जपना पराया माल अपना की नीति अपनाते हैं। कुकर्म भी करते रहते हैं, पर साथ ही भजन-पूजन के सहारे उनके दण्ड से छूट मिल जायेगी, ऐसा भी सोचते रहते हैं। यह कैसी विडम्बना है।

कपड़े को रंगने से पूर्व धोना पड़ता है। बीज बोने से पूर्व जमीन जोतनी पड़ती है। भगवान का अनुग्रह अर्जित करने के लिए भी शुद्ध जीवन की आवश्यकता है। साधक ही सच्चे अर्थों में उपासक हो सकता है। जिससे जीवन साधना नहीं बन पड़ी, उसका चिन्तन, चरित्र, आहार, विहार मस्तिष्क अवाँछनीयताओं से भरा रहेगा। फलतः मन लगेगा ही नहीं। लिप्साएं और तृष्णायें जिसके मन को हर घड़ी उद्विग्न किये रहती हैं, उससे न एकाग्रता सधेगी और न चित्त की तन्मयता आयेगी। कर्मकाण्ड की चिन्ह पूजा भर से कुछ बात बनती नहीं। भजन का भावनाओं से सीधा सम्बन्ध है। जहाँ भावनाएं होंगी, वहाँ मनुष्य अपने गुण, कर्म, स्वभाव में सात्विकता का समावेश अवश्य करेगा।

सम्भ्रान्त मेहमान घर में आते हैं, कोई उत्सव होते हैं तो घर की सफाई पुताई करनी पड़ती है। जिस हृदय में भगवान को स्थान देना है, उसे कषाय-कल्मषों से स्वच्छ किया जाना चाहिए। इसके लिये आत्म-निरीक्षण, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास की चारों ही दशा धाराओं में बढ़ना आवश्यक है। इन तथ्यों को हमें भली प्रकार समझाया गया। सच्चे मन से उसे हृदयंगम भी किया गया। सोचा गया कि आखिर गर्हित जीवन बनता क्यों है? निष्कर्ष निकाला कि इन सभी के उद्गम केन्द्र तीन हैं- लोभ, मोह ओर अहंकार। जिसमें इनकी जितनी ज्यादा मात्रा होगी, वह उतना ही अवगति की ओर घिसटता चला जाएगा।

क्रियाएँ वृत्तियों से उत्पन्न होती हैं। शरीर मन के द्वारा संचालित होता है। मन में जैसी उमंगें उठती हैं, शरीर वैसी ही गतिविधियां अपनाने लगता है। इसलिए अवाँछनीय कृत्यों- दुष्कृत्यों के लिए शरीर को नहीं मन को उत्तरदायी समझा जाना चाहिए। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए विष वृक्ष की जड़ काटना उपयुक्त समझा गया और जीवन साधना को आधार भूत क्षेत्र मन से ही आरम्भ किया गया।

देखा गया है कि अपराध प्रायः आर्थिक प्रलोभनों या आवश्यकताओं के कारण होते हैं। इसलिए इनकी जड़ें काटने के लिए औसत भारतीय स्तर का जीवन-यापन अपनाने का व्रत लिया गया। अपनी निज की कमाई ही क्यों न हो, भले ही वह ईमानदारी या परिश्रम की क्यों न हो पर उसमें से अपने लिए परिवार के लिए खर्च देशी हिसाब से किया जाय, जिससे कि औसत भारतीय गुजारा करना सम्भव हो। यह सौदा जीवन उच्च विचार का व्यावहारिक निर्धारण है। सिद्धांततः कई लोग इसे पसन्द करते हैं और उसका समर्थन भी। पर जब अपने निज के जीवन में इसका प्रयोग करने का प्रश्न आता है तो उसे असम्भव कहने लगते हैं। ऐसा निर्वाह व्रतशील होकर ही निवाहा जा सकता है। साथ ही परिवार वालों को इसके लिए सिद्धांततः और व्यवहारतः तैयार करना पड़ता है। इस संदर्भ में सबसे बड़ी कठिनाई लोक प्रचलन की आती है। जब सभी लोग ईमानदारी-बेईमानी की कमाई से गुलछर्रे उड़ाते हैं तो हम लोग ही अपने ऊपर ऐसा अंकुश क्यों लगायें? इस प्रश्न पर परिजनों और उनके पक्षधर रिश्तेदारों को सहमत करना बहुत कठिन पड़ता है। फिर भी यदि अपनी बात तर्क, तथ्य और परिणामों के सबूत देते हुए ठीक तरह प्रस्तुत की जा सके, और अपने निज का मन दृढ़ हो तो फिर अपने समीपवर्ती लोगों पर कुछ भी असर न पड़े, ऐसा नहीं हो सकता। आर्थिक अनाचारों की जड़ काटनी है तो यह कार्य इसी स्तर के लोक शिक्षण एवं प्रचलन से सम्भव होगा। उस विश्वास के साथ अपनी बात पर दृढ़ रहा गया। “अखण्ड-ज्योति” घीया मण्डी में अपना परिवार पाँच सदस्यों का था। तब उसका औसत खर्च 200 रु. मासिक बनाये रखा गया। मिल-जुलकर, मितव्ययितापूर्वक लोगों से भिन्न अपना अलग स्तर बना लेने के कारण यह सब मजे में चलता रहा। यों आजीविका अधिक थी। पैतृक संपत्ति से पैसा आता था। पर उसका व्यय घर में अन्य सम्बन्धी परिजनों के बच्चे बुलाकर उन्हें पढ़ाते रहने का नया दायित्व ओढ़कर पूरा किया जाता रहा। दुर्गुणों-दुर्व्यसनों के पनपने लायक पैसा बचने ही नहीं दिया गया और जीवन साधना का एक महत्वपूर्ण पक्ष सरलतापूर्वक निभता रहा।

मोह परिवार को सजाने, सुसम्पन्न बनाने, उत्तराधिकार में सम्पदा छोड़ मरने का होता है। लोग स्वयं विलासी जीवन जीते हैं और वैसी ही आदतें बच्चों को भी डालते हैं। फलतः अपव्यय का सिलसिला चल पड़ता है और अनीति कमाई के लिए अनाचारों के विषयों में सोचना और प्रयास करना होता है। दूसरों के पतन अनुभव से लाभ उठाया गया और उस चिन्तन तथा प्रचलन का घर में प्रवेश नहीं होने दिया गया। इस प्रकार अपव्यय भी नहीं हुआ, दुर्गुण भी नहीं बढ़े- कुप्रचलन भी नहीं चला, सुसंस्कारी परिवार विकसित होता चला गया।

तीसरा पक्ष अहंता का है। शेखीखोरी, बड़प्पन ठाठ-वाट, राजधन फैशन आदि में लोग ढेरों समय और धन खर्च करते हैं। निजी जीवन तथा परिवार में नम्रता और सादगी का ऐसा ब्राह्मणोचित माहौल बनाये रखा गया कि अहंकार के प्रदर्शन की कोई गुँजाइश नहीं थी। हाथ से घरेलू काम करने की- आदत अपनाई गई। माताजी ने मुद्दतों हाथ से चक्की पीसी है। घर का तथा अतिथियों का भोजन तो वे मुद्दतों बनाती रही हैं। घरेलू नौकर की आवश्यकता तो तब पड़ी जब बाहरी कामों का असाधारण विस्तार होने लगा और उनमें व्यस्त रहने के कारण माताजी का उनमें समय दे सकना सम्भव नहीं रह गया।

यह अनुमान गलत निकला कि ठाठ-वाट से रहने वालों को बड़ा आदमी समझा जाता है और गरीबी से गुजारा करने वाले उद्विग्न, अभागे, पिछड़े पाए जाते हैं। हमारे सम्बन्ध में यह बात कभी लागू नहीं हुई। आलस्य ओर अयोग्यतावश गरीबी अपनाई गई होती तो अवश्य वैसा होता पर स्तर उपार्जन योग्य होते हुए भी यदि सादगी का हर पक्ष स्वेच्छापूर्वक अपनाया गया है तो उसमें सिद्धान्तों का परिपालन ही लक्षित होता है। जो भी अतिथि आये- जिन भी मित्र सम्बन्धियों को रहन सहन का पता चलता रहा उनमें से किसी ने भी इसे दरिद्रता नहीं कहा वरन् ब्राह्मण परम्परा का निर्वाह ही माना। मिर्च न खाने, खड़ाऊ पहनने जैसे एकाध उपकरण सादगी के नाम पर अपनाकर लोग सात्विकता का विज्ञापन भर करते हैं। वस्तुतः आध्यात्मिकता निभती है सर्वतोमुखी संयम और अनुशासन से। उसमें समग्र जीवनचर्या को ब्राह्मण जैसी बनाना पड़ता है और उसके लिए मन को आदर्शों के प्रति निष्ठावान बनाने एवं अभ्यास में उतारने के लिये सहमत करना होता है। यह लम्बे समय की और क्रमिक साधना है। हमने इसके लिए अपने को साधा और जो भी अपने साथ जुड़े रहे उन्हें यथा सम्भव सधाया।

संचित कुसंस्कारों का दौर हर किसी पर चढ़ता रहता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर अपनी उपस्थिति का परिचय देते रहे पर उन्हें उभरते ही दबोच दिया गया। बेखबर रहने, दर-गुजर करने से ही वे पनपने और कब्जा जमाने में सफल होते हैं। वैसा अवसर जब-जब आया उन्हें खदेड़ दिया गया। गुण, कर्म, स्वभाव तीनों का ध्यान रखा गया कि इनमें साधक के अनुरूप सात्विकता का समावेश है या नहीं। सन्तोष की बात है कि इस आंतरिक महाभारत को जीवन भर लड़ते रहने का करण अब चलते समय अपने को विजयी घोषित कर सकें।

जन्मतः भी अनगढ़ होते हैं। जन्म-जन्मान्तरों के कुसंस्कार सभी पर न्यूनाधिक मात्रा में लदे होते। वे अनायास ही हट या भग नहीं जाते। गुरु कृपा या पूजा पाठ से भी वह प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। उनके समाधान का एक ही उपाय है- जूझना। जैसे ही कुविचार उठें उनके प्रतिपक्षी सद्विचारों की सेना को पहले से ही प्रशिक्षित कटिबद्ध रखा जाय और विरोधियों से लड़ने के लिए छोड़ दिया। जड़ जमाने का अवसर न मिले तो कुविचार या कुसंस्कार बहुत समय तक ठहरते नहीं। उनकी सामर्थ्य स्वल्प होती है। वे आदतें और प्रचलनों पर निर्भर रहते हैं, जबकि सद्विचारों के पीछे तर्क, तथ्य प्रमाण, विवेक आदि अनेकों का मजबूत समर्थन रहता है। इसलिए शास्त्रकार की उक्ति ऐसे अवसरों पर सर्वथा खरी उतरती है जिसमें कहा गया है कि “सत्य ही जीतता है असत्य नहीं।” इसी बात को यों भी कहा जाता है कि परिपक्व किए गए सुसंस्कार ही जीतते हैं, आधार रहित कुसंस्कार नहीं। जब सरकस के रीछ वानरों को आश्चर्य जनक कौतुक, कौतूहल दिखाने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है तो कोई कारण नहीं कि अनगढ़ मन और जीवन क्रम को संकल्पवान साधना के हण्टर से सुसंस्कारी न बनाया जा सके।


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