उपासना की दिशा में बढ़ते चरण

June 1984

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जीवन धारण के लिए अन्न, वस्त्र और निवास की आवश्यकता पड़ती है। साहित्य सृजन के लिए कलम, स्याही और कागज चाहिए। फसल उगाने के लिए बीज और खाद-पानी का प्रबन्ध करना है। यह तीनों ही अपने-अपने स्थान पर महत्वपूर्ण हैं। उनमें एक की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। आत्मिक प्रगति के लिए उपासना, साधन और आराधना इन दोनों के समान समन्वय की आवश्यकता पड़ती है। इनमें से किसी अकेले के सहारे लक्ष्य तक नहीं पहुँचा जा सकता। कोई एक भी ऐसा नहीं है जिसे छोड़ा जा सके।

भूल यह होती रही है कि जो पक्ष इनमें सबसे गौण है से “पूजापाठ” की उपासना मान लिया गया और उतने पर ही आदि अन्त कर लिया गया। पूजा का अर्थ है हाथों तथा वस्तुओं द्वारा की गई मनुहार, दिये गये छुटपुट उपचार उपहार। पाठ का अर्थ है- प्रशंसा परक ऐसे गुणगान जिसमें अत्युक्तियाँ ही भरी पड़ी है। समझा जाता है कि ईश्वर या देवता कोई बहुत छोटे स्तर के हैं, उन्हें प्रसाद, नैवेद्य, नारियल, इलायची जैसी वस्तुएँ कभी मिलती नहीं। पावेंगे तो फूलकर कुप्पा हो जायेंगे। जागीरदारों की तरह प्रशंसा सुनकर चरणों को निहाल कर देने की उनकी आदत है। ऐसी मान्यता बनाने वाले देवताओं के स्तर एवं बड़प्पन के संबंध में सर्वथा बेखबर होते और बच्चों जैसा नासमझ समझते हैं, जिन्हें इन्हीं खिलवाड़ों में फुसलाया, बरगलाया जा सकता है। मनोकामना पूरी करने के लिए उन्हें लुभाया जा सकता है। भले ही वे उचित हों अथवा अनुचित। न्याय संगत हो या अन्याय पूर्ण। आम आदमी इसी भ्रान्ति का शिकार है। तथाकथित भक्तजनों में से कुछ सम्पदा पाना या सफलता माँगते हैं, कुछ स्वर्ग, मुक्ति और सिद्धि की फिराक में रहते हैं। कइयों पर ईश्वर दर्शन का भूत चढ़ा रहता है। माला घुमाने ओर अगरबत्ती जलाने वालों में से अधिकतर संख्या ऐसे ही लोगों की है। मोटे अर्थों में उपासना उतने तक ही सीमित समझी जाती है। जो इस विडंबना में से जितना अंश पूरा कर लेते हैं। वे अपने को भक्तजन समझने का नखरा करते हैं और बदले में भगवान ने उनकी मनोकामनाओं की पूर्ति नहीं की तो हजार गालियाँ सुनाते हैं। कई इससे भी सस्ता नुस्खा ढूँढ़ते हैं। वे प्रतिमाओं की सन्तों की दर्शक झाँकी करने भर से ही यह मानने लगते हैं कि इस अहसान के बदले यह लोग झकमार कर अपना मनोरथ पूरा करेंगे।

बुद्धिहीन स्तर की कितनी ही मान्यताएँ समाज में प्रचलित हैं। लोग उन पर विश्वास भी करते और अपनाते भी हैं। उन्हीं में से एक यह भी है कि आत्मिक क्षेत्र की उपलब्धियों के लिए दर्शन-झाँकी या पूजा पाठ जैसा नुस्खा अपना लेने भर से काम चल जाना चाहिए। पर वस्तुतः ऐसा है नहीं। यदि होता तो मन्दिरों वाली भीड़ और पूजापाठ वाली मण्डली अब तक कब की आसमान के तारे तोड़ लाने में सफल हो गई होती।

समझा जाना चाहिए कि जो वस्तु जितनी महत्वपूर्ण है, उसका मूल्य भी उतना ही अधिक होना चाहिए। प्रधानमन्त्री के दरबार का सदस्य बनने के लिए पार्लियामेंट का चुनाव जीतना चाहिए। उपासना का अर्थ है पास बैठना। यह वैसा नहीं है जैसा कि रेलगाड़ी के मुसाफिर एक-दूसरे पर चढ़ बैठते हैं। वरन् वैसा है जो कि दो घनिष्ठ मित्रों को दो शरीर एक प्राण होकर रहना पड़ता है। सही समीपता ऐसे ही गम्भीर अर्थों में ली जानी चाहिए। समझा जाना चाहिए कि इसमें किसी को किसी के लिए समर्पण करना होगा। चाहे तो भगवान अपने नियम, विधान, मर्यादा, अनुशासन छोड़कर किसी भजनानन्दी के पीछे-पीछे नाक में नकेल डालकर फिरें और जो कुछ भला-बुरा वह निर्देश करे, उसकी पूर्ति करता रहे। अन्यथा दूसरा उपाय यही है कि भक्त को अपना जीवन भगवान की मर्जी के अनुरूप बनाने के लिए आत्मसमर्पण करना होगा।

हमें हमारे मार्गदर्शक ने जीवनचर्या को आत्मोत्कर्ष के त्रिविधि कार्यक्रमों में नियोजित करने के लिए सर्वप्रथम उपासना का तत्वदर्शन और स्वरूप समझाया। कह- “भगवान तुम्हारी मर्जी पर नहीं नाचेगा। तुम्हें भी भगवान का भक्त बनना और उसके संकेतों पर चलना पड़ेगा। ऐसा कर सकोगे तो तद्रूप होने का लाभ प्राप्त करोगे।”

उदाहरण देते हुए उनने समझाया कि “ईश्वर की हस्ती दो कौड़ी की होती है। पर जब वह अग्नि के साथ जुड़ जाता है तो उसमें सारे गुण अग्नि के आ जाते हैं। आग ईंधन नहीं बनती ईंधन को आग बनना पड़ता है। नाला नदी में मिलकर वैसा ही पवित्र और महान बन जाता है पर ऐसा नहीं होता कि नदी उलट कर नाले में मिले और वैसी ही गन्दी बन जाये। पारस को छूकर लोहा सोना होता है। लोहा पारस नहीं बनता। किसी भक्त का यह आशा करना कि भगवान उसके इशारों पर नाचने के लिए सहमत हो जाएगा। आत्म प्रवंचना भर है। भक्त को ही भगवान के संकेतों पर कठपुतली की तरह नाचना पड़ता है। भक्त की इच्छायें भगवान पूरी नहीं करते। वरन् भगवान की इच्छा पूरी करने के लिए भक्त को आत्म-समर्पण करना पड़ता है। बूँद को समुद्र में घुलना पड़ता है। समुद्र बूँद में नहीं बनता। यही है उपासना का एकमात्र तत्वदर्शन। जो भगवान के समीप बैठना चाहे, वह उसी का निर्देशन अनुशासन स्वीकार करे। उसी का अनुयायी सहयोगी बने।”

हमें ऐसा ही करना पड़ा है। भगवान की उपासना गायत्री माता की जप और सविता पिता का ध्यान करते हुए करते रहे। भावना एक ही रखी है कि श्रवणकुमार की तरह आप दोनों को तीर्थ यात्रा कराने के आदर्श का परिपालन करेंगे। आपसे कुछ माँगेंगे नहीं। आपके सच्चे पुत्र कहला सकें, ऐसा व्यक्तित्व ढालेंगे। आपकी निकृष्ट सन्तान जैसी बदनामी न होने देंगे।

ध्यान की सुविधा के लिए गायत्री को माता और सविता को पिता माना तो सही पर साथ ही यह भी अनुभव किया कि वे सर्वव्यापक ओर सूक्ष्म हैं। इसी मान्यता के कारण उनको अपने रोम में और अपनी उनकी हर तरंग में घुल सकना सम्भव हो सका। मिलन का आनन्द इससे कम में आता ही नहीं। यदि उन्हें व्यक्ति विशेष माना होता तो दोनों के मध्य अन्तर बना ही रहता ओर घुलकर आत्मसात होने की अनुभूति होने में बाधा ही बनी रहती।

अभ्यास के लिए आरम्भिक चरणों में अपने को बेल भगवान को वृक्ष मानकर उनके साथ लिपटते हुए उतनी ही ऊँचाई तक जा पहुँचने की मान्यता ठीक है। इसी प्रकार अपने को वंशी और भगवान को वादक मानकर उनके द्वारा अनुशासित अनुप्राणित किये जाने का ध्यान भी सुविधाजनक पड़ता है। बच्चे के हाथ में डोरी और उसके इशारे पर पतंग के आकाश तक उड़ते जाने का ध्यान भी उत्साहवर्धक है। यह तीनों ही ध्यान हमने समय-समय पर किये हैं और उनसे उत्साहवर्धक अनुभूतियाँ प्राप्त की हैं पर सबसे सुखद ओर प्राणवान अनुभूति एकाकार अनुभव में हुई है। पतंगे का दीपक पर आत्म-समर्पण करना- पत्नी का पति के हाथों अपना शरीर, मन और धन वैभव सौंप देना भक्त को भगवान के साथ तादात्म्य मिलाने का एक अच्छा अनुभव है। उपासना काल में इन्हीं कृत्यों को अपनाते हुए जप ओर ध्यान की प्रक्रिया पूरी करते रहा गया है।

हमारी उपासना क्रिया प्रधान नहीं, श्रद्धा प्रधान रही है। निर्धारित जप संख्या को पूरा करने का अनुशासन कठोरतापूर्वक पाला गया है। प्रातः एक बजे उठ बैठने और निर्धारित संकल्प को पूरा करने में कभी कदाचित ही आपत्तिकाल में भूल हुई हो। जो कमी पड़ी है उसकी अगले दिनों पूर्ति कर ली गई। उपेक्षा में नहीं डाला गया इतने पर भी उस अवधि में भावनाओं से ओत-प्रोत रहने की मनःस्थिति बनाये रहने का अभ्यास किया गा है ओर वह सफल भी होता रहा है। समर्पण, एकता, एकात्मता, अद्वैत की भावनाओं का अभ्यास आरम्भ में कल्पना के रूप में किया गया था। पीछे वह मान्यता बन गई और अन्त में अनुभूति प्रतीत होने लगी।

गायत्री माता की सत्ता कारण शरीर में श्रद्धा- सूक्ष्म शरीर में प्रज्ञा और स्थूल शरीर में निष्ठा बनकर प्रकट होने लगी। यह मात्र कल्पना ही तो नहीं है। इसके लिए बार-बार कठोर आत्म-परीक्षण किया जाता रहा। देखा कि आदर्श जीवन के प्रति- समष्टि के प्रति अपनी श्रद्धा बढ़ रही है या नहीं। इनके लिये प्रलोभनों और दबावों से इन्कार कर सकने की स्थिति है या नहीं। समय-समय पर घटनाओं के साथ जोड़कर भी परख की गई और पाया गया कि भावना परिपक्व हो गई है। उसने अपनी स्वस्थ साधन श्रद्धा का वैसा ही बना लिया जैसा कि ऋषि कल्प साधक बनाया करते थे।

गायत्री माता मात्र स्त्री शक्ति के रूप में छवि दिखाती हैं। अब प्रज्ञा बनकर विचार संस्थान पर आच्छादित हो चलीं। इसका जितना बन पड़ा विश्लेषण किया जाता रहा। अनेक प्रसंगों पर हमने परखा भी है कि समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, बहादुरी के रूप में प्रज्ञा का समन्वय आत्म चेतना की गहराई तक हुआ या नहीं। यदि पक्षपात की चूक न हुई हो तो प्रतीत होता रहा है कि भाव चेतना में प्रज्ञा के रूप में गायत्री माता का अवतरण हुआ है और उनकी उपासना, ध्यान धारणा फलवती हो चली है। मान्यता का गुण, कर्म, स्वभाव में परिवर्तित होना यही तो उपासनात्मक धारणा की परख है।

त्रिपदा गायत्री का तीसरा स्वरूप है- निष्ठा। निष्ठा अर्थात् धैर्य, साहस, पराक्रम, तप, कष्ट सहन। जिस प्रकार आंवे से निकले बर्तन को उँगली से ठोंक-ठोंक कर देखा जाता है कि यह फूटा तो नहीं है, उसी प्रकार प्रलोभन और मय के प्रसंगों पर दृढ़ता डगमगाई तो नहीं, यह क्रिया और भावना की दृष्टि से जाँच-पड़ताल की जाती रही। पाया कि प्रगति रुकी नहीं है। हर कदम क्रमशः आगे ही बढ़ता रहा है।

सविता का तेजस्- ब्रह्मवर्चस् कहलाता है। उसी को ओजस्, तेजस्, मनस् वर्चस् कहते हैं। पवित्रता, प्रखरता और प्रतिभा के रूप में इसका प्रत्यक्ष परिचय मिलता है। सविता के आलोक के स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर प्रवेश की विधि पहले ही ऐसा अनुभव कराती रही कि शरीर में बल, मस्तिष्क में ज्ञान और हृदय में भाव साहस भर रही है। पीछे अनुभव होने लगा कि अपनी समूची सत्ता ही अग्नि पिण्ड के- ज्योति पिण्ड के समान बन गई है। नस-नस में कण-कण में अमृत संव्याप्त हो रहा है। सोमरस पान जैसी तृप्ति, तुष्टि, शान्ति का आनन्द मिल रहा है।

संक्षेप में यही है- हमारी चार घण्टा नित्य की नियमित उपासना का उपक्रम। यह समय ऐसी अच्छी तरह कटता रहा है, मानों आधे घण्टे में ही समाप्त हो गया, कभी न ऊब आई, न थकान, न जम्हाई। हर घड़ी नसों में आनन्द का संचार होता रहा और ब्रह्म सान्निध्य का अनुभव होता रहा। यह सहज सरल स्वाभाविक प्रक्रिया चलती रही है। न कहीं गणना करनी पड़ी, न कभी गर्व हुआ, न प्रमाण की अपेक्षा मन में उठी। जिस प्रकार दिनचर्या के अन्य कार्य सहज सरल हो जाते हैं, उसी प्रकार भगवान के पास बैठना भी एक ऐसा कार्य है, जिसे किये बिना अब हमारे लिए एक दिन बिताना तक सम्भव नहीं है। नियत घन्टे तो उपासना के ऐसे हैं जैसे नशा पीने, ताड़ी खाने में जाने का, जो पिया है, उसकी खुमारी तो चौबीस घन्टे बनी रहती है। अपने को भगवान में और भगवान को अपने में अनुभव करते हुए क्षण गुजरते रहते हैं।

इस मनःस्थिति में अब उतार-चढ़ाव की परिस्थितियाँ भी सरल स्वाभाविक लगती हैं। न हर्ष होता है- न शोक। चारों ओर आनन्द का समुद्र जैसा लहराता दीखता है।

जिधर भी देखते हैं- भगवान दीखता है। आगे भी- पीछे भी- जिधर चलते हैं, वह साथ ही चलता है। बाडीगार्ड की तरह पायलट की तरह उसकी उपस्थिति हर घड़ी परिलक्षित होती रहती है। समुद्र तो बूँद नहीं बन सकता। हर बूँद के समुद्र बन जाने की अनुभूति में अब कोई सन्देह भी नहीं रह गया है। उसकी उपस्थिति में न निश्चिंतता की कमी है न निर्भयता की।

आत्मा को परमात्मा से मिला देने वाली जिस श्रद्धा को लम्बे जीवन काल में संजोया गया है, वह अब साक्षात भगवती की तरह अपनी उपस्थिति और अनुभूति का परिचय देती रहती है।


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