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June 1984

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गुणग्राहिता हृदय से निकलती है और चापलूसी दाँतों से। गुण ग्राहिता निःस्वार्थ होती है और चापलूसी स्वार्थमय।

हमें यह काम सौंपा गया है तो उसे करने में आनाकानी कैसी? दिव्य सत्ता के संकेतों पर चिरकाल से चलते आ रहे हैं और जब तक आत्मबोध जागृत रहेगा तब तक यही स्थिति बनी रहेगी। यही गतिविधि चलेगी। यह विषम बेला है, इन दिनों दृश्य और अदृश्य क्षेत्र में जो विषाक्तता भरी हुई है उसका परिशोधन प्रयास अविलम्ब आवश्यक हो गया है। तो संजीवनी बूटी लाने के लिए पर्वत उखाड़ लाने और सुषैन वैद्य की खोज में जाने के लिए जो भी करना पड़े, करना ही चाहिए। यह कार्य स्थूल शरीर से बनता न देखकर सूक्ष्म शरीर को प्रसुप्त से जागृत स्थिति में लाने के लिए हमें अविलम्ब जुटना पड़ रहा है।


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