आराधना जिसे निरन्तर अपनाये रहा गया

June 1984

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गंगा, यमुना, सरस्वती के मिलने से त्रिवेणी संगम बनने और उसमें स्नान करने वाले का काया-कल्प होने की बात कही गई है। बगुले का हंस और कौए का कोयल आकृति में बदल जाना तो सम्भव नहीं पर इस आधार पर विनिर्मित हई अध्यात्म धारा का अवगाहन करने से मनुष्य का अन्तरंग और बहिरंग जीवन असाधारण रूप से बदल सकता है, यह निश्चित है। यह त्रिवेणी उपासना साधना और आराधना के समन्वय से बनती है। यह तीनों कोई क्रियाकाण्ड नहीं है, जिन्हें इतने समय में, इस विधि से इस प्रकार बैठकर सम्पन्न करते रहा जा सके। यह चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में होने वाले उच्च स्तरीय परिवर्तन हैं। जिनके लिए अपनी शारीरिक और मानसिक गतिविधियों पर निरन्तर ध्यान देना पड़ता है। दुरितों के संशोधन में प्रखरता का उपयोग करना पड़ता है और नई दिशाधारा में अपने गुण कर्म, स्वभाव को इस प्रकार अभ्यस्त करना पड़ता है जैसे अनगढ़ पशु−पक्षियों को सरकस के करतब दिखाने के लिए जिस-तिस प्रकार प्रशिक्षित किया जाता है। पूजा कुछ थोड़े समय की हो सकती है, पर साधना तो ऐसी है जिसके लिए गोदी के बच्चे को पालने के लिए निरन्तर ध्यान रखना पड़ता है। फलवती भी वही होती है। जो लोग पूजा को बाजीगरी समझते हैं और जिस-तिस प्रकार क्रिया-कृत्य करने भर के बदले ऋद्धि-सिद्धियों के दिवास्वप्न देखते हैं, वे भूल करते हैं।

हमारे मार्गदर्शक ने प्रथम दिन ही त्रिपदा गायत्री का व्यवहार स्वरूप, उपासना, साधना, आराधना के रूप में भली प्रकार बता दिया था। नियमित जप-ध्यान करने का अनुबंधों समेत पालन करने के निर्देशन के अतिरिक्त यह भी बताया था कि चिन्तन में उपासना- चरित्र में साधना और व्यवहार में आराधना का समावेश करने में पूरी-पूरी सतर्कता और तत्परता बरती जाय। उस निर्देशन का अद्यावधि यथासम्भव ठीक तरह ही परिपालन हुआ है। उसी के कारण अध्यात्म अवलम्बन का प्रतिफल इस रूप में सामने आया है कि उसका सहज उपहास नहीं उड़ाया जा सकता।

आराधना का अर्थ है- लोक मंगल में निरत रहना। जीवन साधना प्रकारांतर से संयम साधना है। उसके द्वारा न्यूनतम में निर्वाह चलाया और अधिकतम बचाया जाता है। समय, श्रम, धन और मन मात्र इतनी ही मात्रा में शरीर तथा परिवार के लिए खर्च करना पड़ता है जिसके बिना काम न चले। काम न चलने की कसौटी है- औसत देशवासियों का स्तर। इस कसौटी पर कसने के उपरान्त किसी भी श्रमशील और शिक्षित व्यक्ति का उपार्जन इतना हो जाता है कि काम चलाने के अतिरिक्त भी बहुत कुछ बच सके। इसी के सदुपयोग को आराधना कहते हैं। आमतौर से लोग इस बचत को विलास में- अपव्यय में अथवा कुटुम्बियों में बिखेर देते हैं। उन्हें सूझ नहीं पड़ता कि इस संसार में और भी कोई अपने हैं- औरों की भी कुछ जरूरतें हैं। यदि दृष्टि में इतनी विशालता आयी होती तो उस बचत को ऐसे कार्यों में खर्च किया गया होता जिससे अनेकों का वास्तविक हित साधन होता और समय की माँग पूरी होने में सहायता मिलती।

ईश्वर का एक रूप साकार है जो ध्यान धारण के लिए अपनी-अपनी रुचि और मान्यता के अनुरूप गढ़ा जाता है। यह मनुष्य से मिलती-जुलती आकृति-प्रकृति का होता है। यह गठन उस प्रयोजन के लिए है तो उपयोगी, आवश्यक, किन्तु साथ ही यह ध्यान रखने योग्य भी है कि वास्तविक नहीं, काल्पनिक है। ईश्वर एक है उसकी इतनी आकृतियाँ नहीं हो सकती जितनी कि भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में गढ़ी गई हैं। इनका उपयोग मन की एकाग्रता का अभ्यास करने तक ही सीमित रखा जाना चाहिए। प्रतिमा पूजन के पीछे आद्योपान्त प्रतिपादन इतना ही है कि दृश्य प्रतीकों का माध्यम से अदृश्य दर्शन और प्रतिपादन को समझने, हृदयंगम करने का प्रयत्न किया जाय।

सर्वव्यापी ईश्वर निराकार ही हो सकता है। उसे परमात्मा कहा गया है। परमात्मा अर्थात् आत्माओं का परम समुच्चय। इसे आदर्शों का एकाकार कहने में भी हर्ज नहीं। यही विराट् ब्रह्म या विराट् विश्व है। कृष्ण ने अर्जुन और यशोदा को अपने इसी रूप का दर्शन कराया था। राम ने कौशल्या तथा काकभुसुण्डि को इसी रूप में झलक झाँकी दिखाई थी। तत्वदर्शी इस विश्वव्यापी चेतना के रूप में देखते हैं और प्राणियों से उनका दृश्य स्वरूप। इस मान्यता के अनुसार यह लोक सेवा ही विराट् ब्रह्म की आराधना बन जाती है। विश्व उद्यान को सुखी समुन्नत बनाने के लिए ही परमात्मा ने यह बहुमूल्य जीवन देकर अपने युवराज की तरह यहाँ भेजा है उसकी पूर्ति में ही जीवन की सार्थकता है। इसी मार्ग का अधिक श्रद्धापूर्वक अवलम्बन करने से अध्यात्म उत्कर्ष का वह प्रयोजन सधता है, जिसे आराधना कहा गया है।

हम यही करते रहे हैं। सामान्य दिनचर्या के अनुसार रात्रि में शयन, नित्य कर्म के अतिरिक्त दैनिक उपासना भी उन्हीं बारह घण्टों में भली प्रकार सम्पन्न होती रही है। बारह घण्टे इन तीनों कर्मों के लिए पर्याप्त रहे हैं। चार घंटा प्रातःकाल का भजन इसी अवधि में होता रहा है। शेष आठ घन्टे में नित्य कर्म और शयन- इसमें समय की कोताही कहीं नहीं पड़ी। आलस्य-प्रमाद बरतने पर तो पूरा समय ही ऐंड-बेंड में चला जाता है पर एक-एक मिनट पर घोड़े की तरह सवार रहा जाय तो प्रतीत होता है कि जागरुक व्यक्तियों ने इसी में तत्परता बरतते हुए वे कार्य कर लिये होते जितने के लिए साथियों को आश्चर्यचकित रहना पड़ता है।

यह रात्रि का प्रसंग हुआ। अब दिन आता है। उसे भी मोटे रूप में बारह घन्टे का माना जा सकता है। इसमें से दो घन्टे भोजन विश्राम के लिए कट जाने पर दस घन्टे विशुद्ध बचत के रह जाते हैं। इनका उपयोग परमार्थ प्रयोजनों की लोक-मंगल आराधना में नियमित रूप से होता रहा है। संक्षेप में इन्हें इस प्रकार कहा जा सकता है- (1) जनमानस के परिष्कार के लिए युग चेतना के अनुरूप विचारणा का निर्धारण- साहित्य सृजन (2) संगठन प्राणवान जागृत आत्माओं को युग धर्म के अनुरूप गतिविधियाँ अपनाने के लिए उत्तेजन मार्गदर्शन (3) व्यक्तिगत कठिनाइयों में से निकालने तथा सुखी भविष्य विनिर्मित करने वाला परामर्श योगदान। हमारी सेवा साधना इन तीन विभागों में बंटी रही है। इनमें दूसरी और तीसरी धारा के लिए असंख्यों व्यक्तियों से संपर्क साधना और पाना चलता रहा है। इनमें से अधिकाँश को प्रकाश और परिवर्तन का अवसर मिला है।

इनके नामोल्लेख और घटनाक्रमों का विवरण सम्भव नहीं। क्योंकि एक तो जिनकी सहायता की जाय, उनका स्मरण भी रखा जाय। यह अपनी आदत नहीं, फिर उनकी संख्या और विनिर्मित उतनी है कि जितने स्मरण हैं उनके वर्णन से ही एक महापुराण लिखा जा सकता है। फिर इसमें उनको आपत्ति भी हो सकती है। इन दिनों कृतज्ञता व्यक्त करने का प्रचलन समाप्त हो गया। दूसरों की सहायता को महत्व कम दिया जाय। अपने भाग्य या पुरुषार्थ का ही बखान किया जाय। दूसरों की सहायता के उल्लेख में हेटी लगती है। ऐसी दशा में अपनी ओर से उन घटनाओं का उल्लेख करना जिसमें लोगों के कष्ट घटें या प्रगति के अवसर मिलें, उचित न होगा। फिर एक और बात भी है कि बखान करने के बाद पुण्य घट जाता है। इतने व्यवधानों क रहते उस प्रकार की घटनाओं के सम्बन्ध में मौन धारण करना ही उपयुक्त समझा जा रहा है और कुछ न कह कर ही प्रसंग समाप्त किया जा रहा है।

इतने पर भी वे सेवाएँ महत्वपूर्ण हैं। अब तक प्रज्ञा परिवार से प्रायः बीस लाख व्यक्ति सम्बन्धित हैं। उनमें से जो मात्र सिद्धान्तों आदर्शों से प्रभावित होकर इस ओर आकर्षित हुए हैं, वे कम हैं। संख्या उनकी ज्यादा है जिनने व्यक्तिगत जीवन में प्रकाश, दुलार, सहयोग, परामर्श एवं अनुदान प्राप्त किया है। ऐसे प्रसंग मनुष्य के अन्तराल में स्थान बनाते हैं। विशेषतया तब जब सहायता करने वाला अपनी प्रामाणिकता एवं निस्वार्थता की दृष्टि से हर कसौटी पर खरा उतरता हो। संपर्क परिकर में मुश्किल से आधे तिहाई ऐसे होंगे जिन्हें मिशन के आदर्शों और हमारे प्रतिपादनों का गम्भीरतापूर्वक बोध है। शेष तो हैरानियों में दौड़ते और जलती परिस्थितियों में शान्तिदायक अनुभूतियां लेकर वापस लौटते रहे हैं। यही कारण है जिससे इतना बड़ा परिवार बनकर खड़ा हो गया। अन्यथा मात्र सिद्धान्त परक ही सब कुछ रहा होता तो आर्यसमाज सर्वोदय की तरह सीमित सदस्य होते और व्यक्तिगत आत्मीयता घनिष्ठता का जो वातावरण दीखता है, वह न दीखता। आगंतुकों की संख्या अधिक- समय कुसमय आगमन, ठहराने, भोजन कराने जैसी व्यवस्थाओं का अभाव जैसे कारणों से इस दबाव का सर्वाधिक भार माता जी को सहन करना पड़ा है पर उस असुविधा के बदले जितनों की जितनी आत्मीयता अर्जित की है उसे देखते हुए हम लोग अन्य हो गये हैं। लगता है जो किया गया वह ब्याज समेत वसूल होता रहा है। पैसे की दृष्टि से न सही भावना की दृष्टि से भी यदि कोई कुछ कम ले तो वह उसके लिए घाटे का सौदा नहीं समझा जाना चाहिए।

आराधना के लिए- लोक साधना के लिए- गिरह की पूँजी चाहिए। उसके बिना भूखा क्या खाये? क्या बाँटे? यह पूँजी कहाँ से आई? कहाँ से जुटाई? इसके लिए मार्गदर्शक ने पहले ही दिन कहा था- जो पास में है, उसे बीज की तरह भगवान के खेत में बोना सीखा? उसे जितनी बार बोया था सौ गुना होता चला गया। अभीष्ट प्रयोजन में कभी किसी बात की कमी न पड़ेगी। उनने बाबा जलाराम का उदाहरण दिया था, जो किसान थे, अपनी पेट से बचने वाली सारी आमदनी जरूरत मंदों को खिलाते रहते थे। भगवान इस सच्ची साधना से अतिशय प्रसन्न हुए और एक ऐसी अक्षय झोली दे गये, जिसका अन्न कभी निपटा ही नहीं और अभी भी वीरपुर (गुजरात) में उनका अन्न सत्र चलता रहता है, जिसमें हजारों भक्तजन प्रतिदिन भोजन करते हैं। जो अपना लगा देता है उसे बाहर का सहयोग बिना माँगे मिलता है। पर जो अपनी पूँजी सुरक्षित रखता है, दूसरों से मांगता फिरता है, उस चन्दा उगाहने वाले पर लोग व्यंग्य ही करते रहते हैं और यत्किंचित् देकर पल्ला छुड़ाते रहे हैं।

गुरुदेव के निर्देशन में अपनी चारों ही सम्पदाओं को भगवान के चरणों में अर्पित करने का निश्चय किया। (1) शारीरिक श्रम (2) मानसिक श्रम (3) भाव संवेदनाएं (4) पूर्वजों का उपार्जित धन। अपना कमाया तो कुछ था नहीं। चारों को अनन्य निष्ठा के साथ निर्धारित लक्ष्य के लिए लगाते चले आये हैं। फलतः सचमुच ही वे सौगुने होकर वापस लौटते रहे हैं। शरीर से बाहर घण्टा नित्य श्रम किया है। इससे थकान नहीं आई। वरन् कार्य क्षमता बढ़ी ही है। इन दिनों इस बुढ़ापे में भी जवानों जैसी कार्य क्षमता है। मानसिक श्रम भी शारीरिक श्रम के साथ संजोये रखा। उसकी परिणति यह है कि मनोबल में मस्तिष्कीय क्षमता में कहीं कोई ऐसे लक्षण प्रकट नहीं हुए जैसे कि आमतौर से बुढ़ापे में प्रकट होते हैं। हमने खोलकर प्यार बाँटा और बिखेरा है। फलस्वरूप दूसरी और से भी कमी न रही है। व्यक्तिगत स्नेह, सम्मान, सद्भाव ही नहीं- मिशन के लिए जब-जब जो अपील अनुरोध प्रस्तुत किये जाते रहे हैं, उसमें कमी नहीं पड़ती रही है। 2400 प्रज्ञापीठों का दो वर्ष में बनकर खड़े हो जाना इसका एक जीवन्त उदाहरण है। आरम्भ में मात्र अपना ही धन था। पैतृक सम्पत्ति से ही गायत्री तपोभूमि का निर्माण हुआ। जन्मभूमि में हाईस्कूल खड़ा किया गया। आशा कम ही थी कि लोग बिना माँगे भी देंगे और निर्माण का इतना बड़ा स्वरूप खड़ा हो जायेगा। आज गायत्री तपोभूमि, शान्ति कुँज, गायत्री तीर्थ, ब्रह्मवर्चस् की इमारतों को देखकर भी यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बोया हुआ बीज सौ गुना होकर फलता है या नहीं। यह श्रद्धा का अभाव ही है जिसमें लोग अपनी संचय बगल में दबाये रहना चाहते हैं, भगवान से लाटरी अथवा लोगों से चन्दा माँगते हैं। यदि बात आत्मसमर्पण से आरम्भ की जा सके तो उसका आश्चर्यजनक परिणाम हो। विनिर्मित गायत्री शक्ति पीठों में से जूनागढ़ के निर्माता ने अपने बर्तन बेचकर कार्य आरम्भ किया था और आज वही अब तक विनिर्मित, सभी इमारतों में मूर्धन्यों में से एक है।

बाजरे का- मक्का का एक दाना सौ दाने हो सकता है। यह उदाहरण हमने अपनी एवं संचित सम्पदा के उत्सर्ग करने जैसा दुस्साहस करने में देखा। जो था, वह परिवार के लिए उतनी ही मात्रा में- उतनी ही अवधि तक दिया जाये जब तक कि वे लोग हाथ-पैरों से कमाने खाने लायक नहीं बन गये। उत्तराधिकार में समर्थ सन्तान हेतु सम्पदा छोड़ भरना- अपना श्रम मनोयोग उन्हीं के लिए खपाते रहना, हमने सदा अनैतिक माना ओर विरोध किया है। फिर स्वयं तो वैसा करते ही कैसे? मुफ्त की कमाई हराम की होती है, भले ही वह पूर्वजों की खड़ी की हुई हो। हराम की कमाई न बचती है न फलती है। इस आदर्श पर परिपूर्ण विश्वास रखते हुए हमने शारीरिक श्रम, मनोयोग, भाव संवेदन और संग्रहित धन की चारों सम्पदाओं में से किसी को भी कुपात्रों के हाथ नहीं जाने दिया है। उसका एक-एक कण सज्जनता के संवर्धन में- भगवान के आराधन में लगाया है। परिणाम सामने है। जो पास में था उससे अगणित लाभ उठा चुके। यदि कृपणों की तरह उन उपलब्धियों को विलास में, लालच में, संग्रह में परिवार वालों को धन-कुबेर बनाने में खर्च किया होता तो वह सब कुछ बेकार चला जाता। कोई महत्वपूर्ण काम न बनता वरन् जो भी उस मुफ्त के श्रम साधन का उपयोग करते वे दुर्गुणी, दुर्व्यसनी बनकर नफे में नहीं घाटे में ही रहते।

कितने ही पुण्य फल ऐसे हैं जिनके सत्परिणाम प्राप्त करने के लिए अगले जन्म की प्रतीक्षा करनी पड़ती है पर लोक साधना का परमार्थ ऐसा है जिसका प्रतिफल हाथों हाथ मिलता है। किसी दुःखी के आँसू पौंछते समय असाधारण आत्म सन्तोष होता है। कोई बदला न चुका सके तो भी उपकारी का मन ही मन सम्मान करता है। आशीर्वाद कहता है। इसके अतिरिक्त एक ऐसा दैवी विधान है जिसके अनुसार उपकारी का भण्डार खाली नहीं होता, उस पर ईश्वरीय अनुग्रह बरसता रहता है और जो खर्चा गया है उसकी भरपाई करता रहा है।

भेड़ ऊन कटाती रहती है। हर वर्ष उसे नई ऊन मिलती है। पेड़ फल देते हैं, अगली बार टहनियां फिर उसी तरह लद जाती हैं। बादल बरसते हैं पर खाली नहीं होते। अगले दिनों वे फिर उतनी ही जल सम्पदा बरसाने के लिए समुद्र से प्राप्त कर लेते हैं। उदारचेताओं के भण्डार कभी खाली नहीं हुए। किसी ने कुपात्रों को अपना श्रम-समय देकर भ्रमवश दुष्प्रवृत्तियों का पोषण किया हो और उसे भी पुण्य समझा हो तो फिर बात दूसरी है। अन्यथा लोक साधना के परमार्थ का प्रतिफल ऐसा है जो हाथों हाथ मिलता है। आत्मसन्तोष, लोक सम्मान, देवी अनुग्रह के रूप में तीन गुना सत्परिणाम प्रदान करने वाला यह व्यवसाय ऐसा है जिसमें जिसने भी हाथ डाला कृतकृत्य होकर रहा है। कृपण ही हैं जो चतुरता में दम भरते किन्तु हर दृष्टि से घाटा ही घाटा उठाते हैं।

लोक साधना का महत्व तब घटता है जब उसके बदले नामवरी लूटने की ललक होती है। यह तो अखबारों में इश्तहार छपा कर विज्ञापन बाजी करने जैसा व्यवसाय है। एहसान जताने और बदला चाहने से भी पुण्यफल नष्ट होता है। दोस्तों के दबाव से किसी भी काम के लिए चंदा दे बैठने से भी दान की भावनापूर्ण नहीं होती। देखा यह जाना चाहिए कि इस प्रयास के फलस्वरूप सद्भावनाओं का संवर्धन होता है या नहीं, सत्प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने का सुयोग बनता है या नहीं। संकटग्रस्तों को विपत्ति से निकालने और सत्प्रवृत्तियों को आगे बढ़ाने में जो कार्य सहायक हों उन्हीं की सार्थकता है। अन्यथा मुफ्तखोरी बढ़ाने और छल प्रपंच से भोले भाले लोगों को लूटते खाने रहने के लिए इन दिनों अगणित आडम्बर चल पड़े हैं। उनमें धन या समय देने से पूर्व हजार बार यह विचार करना चाहिए कि अपने प्रयत्नों की अन्तिम परिणति क्या होगी? इस दूरदर्शी विवेकशीलता का अपनाया जाना इन दिनों विशेष रूप से आवश्यक है। हमने ऐसे प्रसंगों में स्पष्ट इनकार भी व्यक्त किया है। औचित्य-सनी उदारता के साथ-साथ अनौचित्य की गन्ध अपनाने पर अनुदारता अपनाने और नाराजी का खतरा लेने का भी साहस किया है। आराधना में इन तथ्यों का समावेश भी नितान्त आवश्यक है।


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