अन्तरंग में ब्राह्मण वृत्ति जगते ही बहिरंग में साधु प्रवृत्ति का उभरना स्वाभाविक है। ब्राह्मण अर्थात् लिप्सा से जूझ सकने योग्य मनोबल का धनी। प्रलोभनों और दबावों का सामना करने में समर्थ। औसत भारतीय स्तर के निर्वाह में काम चलाने से सन्तुष्ट। इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के लिए आरम्भिक जीवन में ही मार्गदर्शक का समर्थ प्रशिक्षण मिला। वही ब्रह्म जन्म था। माता-पिता तो एक माँस पिण्ड को जन्म इससे पहले ही दे चुके थे। ऐसे नर पशुओं का कलेवर न जाने कितनी बार पहनना और छोड़ना पड़ा होगा। तृष्णाओं की पूर्ति के लिए न जाने कितनी बार पाप के पोटले कमाने, लादने, ढोने और भुगतने पड़े होंगे। पर सन्तोष और गर्व इसी जन्म पर है जिसे ब्रह्म जन्म कहा जा सकता है। एक शरीर नर पशु का, दूसरा नर नारायण का प्राप्त करने का सुयोग इसी बार मिला है।
ब्राह्मण के पास सामर्थ्य का भण्डार बच रहता है क्योंकि शरीर यात्रा का गुजारा तो बहुत थोड़े में निपट जाता है। हाथी, ऊँट, भैंसें आदि के पेट बड़े होते हैं, उन्हें उसे भरने के लिए पूरा समय लगे तो बात समझ में आती है। पर मनुष्य के सामने वैसी कठिनाई नहीं है। बीस उँगली वाले दो हाथ- कमाने के, हजार तरकीबें ढूंढ़ निकालने वाला मस्तिष्क- सर्वत्र उपलब्ध विपुल साधन- परिवार सहकार का अभ्यास इतनी सुविधाओं के रहते किसी को भी गुजारे में न कमी पड़नी चाहिए न असुविधा। फिर पेट की लम्बाई चौड़ाई भी तो मात्र छह इंच की है। इतना तो मोर कबूतर भी कमा लेते हैं। मनुष्य के सामने निर्वाह की कोई समस्या नहीं। यह कुछ ही घण्टे परिश्रम में पूरी हो जाती है। फिर सारा समय खाली ही खाली बचता है। उनके अन्तराल में सन्त जाग पड़ता है, वह एक ही बात सोचता है कि समय, श्रम, मनोयोग की जो प्रखरता, प्रतिभा, हस्तगत हुई है, उसका उपयोग कहाँ किया जाय? कैसे किया जाये?
इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने में बहुत देर नहीं लगती। देव मानवों का पुरातन इतिहास इसके लिए प्रमाण उदाहरणों की एक पूरी शृंखला लाकर खड़ी कर देता है। उनमें से, जो भी प्रिय लगे, अनुकूल पड़े, अपने लिए चुना- अपनाया जा सकता है। केवल दैन्य ही हैं जिनकी इच्छाएँ आवश्यकताएँ पूरी नहीं होतीं। कामनाएँ, वासनाएँ, तृष्णायें, कभी किसी की पूरी नहीं हुईं। साधनों के विपुल भण्डार जमा करने और उन्हें अतिशय मात्रा में भोगने की योजनाएँ तो अनेकों ने बनाईं पर हिरण्याक्ष से लेकर सिकन्दर तक कोई भी उन्हें पूरी न कर सका।
आत्मा और परमात्मा का मध्यवर्ती एक मिलन विराम है, जिसे देव मानव कहते हैं। इसके और भी कई नाम हैं- महापुरुष- सन्त, सुधारक, शहीद आदि। पुरातन काल में इन्हें ऋषि कहते थे। ऋषि अर्थात् वे- जिनका अपना निर्वाह न्यूनतम में चलता हो और बची हुई सामर्थ्य सम्पदा को ऐसे कामों में नियोजित किये रहते हों, जो समय की आवश्यकता पूरी करे। वातावरण में सत्प्रवृत्तियों का अनुपात बढ़ाये। जो श्रेष्ठता की दिशा में बढ़ रहे हैं, उन्हें मनोबल अनुकूल न मिले। जो विनाश के लिए आतुर हैं उनके कुचक्रों को सफलता न मिले। संक्षेप में यही हैं वे कार्य निर्धारण जिनके लिए ऋषियों के प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रयास अनवरत गति से चलते रहते हैं। निर्वाह से बची हुई क्षमता को वे इन्हीं कार्यों में लगाते रहते हैं। फलतः जब कभी लेखा-जोखा लिया जाता है तब प्रतीत होता है कि वे कितना कार्य कर चुके, कितनी लम्बी मंजिल पार कर ली। यह एक-एक कदम कदम चलते रहने का परिणाम है। एक-एक बूँद जमा करते रहने की ही परिणति है।
अपनी समझ में वह भक्ति नहीं आई जिसमें मात्र भावोन्माद ही हो, आचरण की दृष्टि से सब कुछ क्षम्य हो। न उसका कोई सिद्धान्त जँचा, न उस कथन के औचित्य को विवेक ने स्वीकारा। अतएव जब-जब भक्ति उमगंती रही, ऋषियों का मार्ग ही अनुकरण के योग्य जँचा और जो समय हाथ में था, उसे पूरी तरह ऋषि परम्परा में खपा देने का प्रयत्न चलता रहा। पीछे मुड़कर देखते हैं कि अनवरत प्रयत्न करते रहने वाले कण-कण करके मन जोड़ लेते हैं। चिड़िया तिनका-तिनका बीनकर अच्छा-खासा घोंसला बना लेती है। अपना भी कुछ ऐसा ही सुयोग सौभाग्य है, कि ऋषि परम्परा का अनुकरण करने के लिए कुछ कदम बढ़ाये तो उनकी परिणति ऐसी हुई जिसे समझदार व्यक्ति शानदार कहते हैं।
महर्षि व्यास, चरक, पातंजली, याज्ञवल्क्य, विश्वामित्र, बुद्ध, नारद, परशुराम आदि ऋषियों ने अपने-अपने समय में एकाकी प्रयत्न किये थे। इस प्रकार वे सभी अपने-अपने ढंग से भगवान के हाथ मजबूत करने और उनकी इच्छा पूरी करने में लगे रहे। इसे एक आश्चर्य अथवा सुयोग ही कहना चाहिये कि उपरोक्त सभी ऋषियों की कार्य पद्धति का- दिशोधारा का एक ही स्थान पर समन्वय समावेश बन पड़ा।
जो काम एक ऋषि के लिए कठिनाई से ही पूरा हो सका, उन सबके समन्वय का भार एक व्यक्ति वहन करे, यह किसी प्रकार सम्भव प्रतीत नहीं होता। मानवी बुद्धि इसकी शक्यता स्वीकार नहीं करती पर सच्चे आत्मबल द्वारा उत्पन्न होने वाली सच्ची सिद्धि को क्या कहा जाय जो नकद धर्म की तरह है और हाथों-हाथ अपनी परिणति प्रत्यक्ष उत्पन्न करती है।
विचार ही क्रिया-कृत्यों के जन्मदाता हैं। यदि आज अशुभ, अवाँछनीय वातावरण है तो उसका कारण दुश्चिंतन है। कुकर्म उन्हीं की उत्पत्ति है। दुर्गति को ही दुर्गति की जन्मदात्री माना गया है। अस्तु कुसमय में विचार संशोधन की प्रक्रिया ही हाथ में लेनी पड़ती है। वही लोक सेवा का सर्वोपरि एवं सर्वप्रथम उपाय उपचार है। हमें उसी क्षेत्र को प्राथमिकता देने की प्रेरणा हुई। तद्नुसार विचार-क्रान्ति के प्रथम चरण के रूप में प्रज्ञा अभियान का आलोक जन-जन तक पहुँचाने से अपना कार्य आरम्भ किया। ऋषियों की कार्य पद्धति में यह व्यास परम्परा है। उनने अठारह पुराणों का लेखन किया था। उतना तो अपने लिए कैसे सम्भव होता पर आर्ष साहित्य को सर्वसाधारण के लिए उपलब्ध कराने का वह कार्य सम्पन्न किया जो एक व्यक्ति के लिए असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य कहा जायेगा।
इसके अतिरिक्त प्रज्ञा साहित्य के लिखने में बहुत कुछ प्रयत्न हुए हैं। उसे प्रारम्भ से ही वरीयता दी है। औसत चार घण्टे नित्य लिखा है। अन्तिम लेखन प्रज्ञा पुराण का चल रहा है। लेखन कार्य को अभी इतनी जल्दी विराम देने का कोई मन नहीं। क्योंकि समय के परिवर्तन और लोक चिन्तन के परिशोधन की आवश्यकता को देखते हुए जो बन पड़ा है, वह बहुत कम है। सूक्ष्मीकरण के उपरान्त भी इसे जारी रखा जायेगा। कोई भी कार्य आवेश में आने पर करना सम्भव है। भूतावेश के नाम पर कई व्यक्ति अनगढ़ काम करते हैं। देवावेश में भी उच्चस्तरीय घटना क्रम घटित होते रहे हैं। हमने देवावेश में जीवन लिया है अन्यथा मात्र अपना बल होता तो कहीं न कहीं शिथिलता अवश्य आती। अब ऋषि आवेश की बारी है। विचार सृजन और लेखन कार्य में हम इस शरीर से या अन्य परखे हुए किसी और शरीर के माध्यम से यह प्रक्रिया जारी रखेंगे। सन् 2000 तक हमारी लेखनी रुकेगी नहीं। प्रज्ञा परिजन अखण्ड-ज्योति के माध्यम से उसे नियमित रूप से पढ़ते रहेंगे। यह व्यास परम्परा के अंतर्गत गतिशील हमारी जीवनचर्या रही है व आगे और भी प्रखर बनेगी।
आज हिंसा प्रतिहिंसा के दौर का कहीं अन्त नहीं दिखाई देता। अनाचार की जड़ें काटनी हों तो कुविचारों का निराकरण करना होता है। सम्भवतः परशुराम ने विचार क्रान्ति अभियान को ठण्डे और गरम दोनों ही उपायों से काबू में लाने का प्रयत्न किया होगा। उनने द्रोणाचार्य की आगे वेद पीछे धनुष वाली नीति अपनाई होगी।
इस परशुराम परम्परा को प्रज्ञा अभियान की सुधार संघर्ष पद्धति में समुचित स्थान दिया गया है। नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति में विनम्र और कठोर दोनों ही अध्यायों का समावेश है। सभी स्तर की अवाँछनीयताओं के विरुद्ध असहयोग, विरोध एवं संघर्ष करने के लिए कहा गया है। अपने समाज में फैली हुई अगणित कुरीतियों के विरुद्ध लोहा लिया गया है। दहेज, मृतक भोज, भिक्षा, व्यवसाय, छुआछूत, पर्दा प्रथा, बाल-विवाह, नशा, अस्वच्छता, अशिक्षा आदि के विरुद्ध जो बन पड़ा है उठा नहीं रखा गया है।
नारद परम्परा में गायन-वादन के माध्यम से जन-मानस में भक्ति भावना एवं धर्मधारणा के विस्तार का प्रयास सम्पन्न हुआ। यह कार्य चैतन्य, सूर, कबीर, तुलसी, मीरा, नामदेव, दादू, ज्ञानेश्वर आदि के प्रयासों से जुड़ी एक कड़ी ही है। शान्ति-कुँज में लोक-मानस को तरंगित करने के लिए संगीत को प्रमुखता दी गई है। लोक-शिक्षण और लोकरंजन का समन्वित कार्यक्रम पूरा करने के लिए केन्द्र की शाखाएं- सुगम संगीत विद्यालयों के रूप में चल रही हैं। अब उसमें वीडियो फिल्म का एक साहस भरा सोद्देश्य कदम और सम्मिलित किया गया है। इसे प्रकारांतर से नारद परम्परा ही कह सकते हैं।
मनुष्य अपने आप में एक विद्युत भण्डार है। उसमें ऐसे कलपुर्जे फिट हैं जो भौतिक विज्ञानियों द्वारा अद्यावधि आविष्कृत यन्त्रों की तुलना में कहीं अधिक सही और समर्थ हैं। इस निरर्थक दीखने वाले शरीर और साधारण से मस्तिष्क को किन्हीं विशेष विधियों द्वारा इस योग्य भी बनाया जा सकता हे कि दिव्य शक्तियों का भण्डार दृष्टिगोचर एवं सक्रिय हो सके। यह कार्य साधन विज्ञान द्वारा सम्पन्न होता है। साधनाओं में मन्त्र शक्ति का स्थान सर्वोपरि है। नाद ब्रह्म और शब्द ब्रह्म की साधना से मनुष्य दृश्य और अदृश्य जगत के साथ सम्बन्ध स्थापित कर सकता है और प्रकृति क्षेत्र में जो चल रहा है जो चलने वाला है। उसका पूर्वाभास भी प्राप्त कर सकता है।
गायत्री मन्त्र शक्ति का केन्द्र बिन्दु है। कुछ समय पूर्व तक गायत्री को पण्डित पुरोहितों का- भूत भगाने का- मन्त्र समझा जाता था। अब इसका परिशोधन महर्षि विश्वामित्र की परम्परा में किया गया है और यह प्रत्यक्ष किया गया है कि गायत्री के चौबीस अक्षरों में वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता की क्षमताएँ विद्यमान हैं। वह आद्य शक्ति, युग शक्ति और महाशक्ति के रूप में अपनी महती भूमिका निभा सकती है। इस विज्ञान की नये सिरे से खोज की गई और विश्वामित्र ऋषि की परम्परा की एक अस्त-व्यस्त कड़ी को जोड़ने का नये सिरे से नया किन्तु सफल प्रयत्न किया गया। विश्वामित्र मन्त्र विद्या में पारंगत थे। उन्होंने गायत्री की सिद्धि प्राप्त की एवं शब्द शक्ति की संसार की सर्वोत्तम- सर्वोपयोगी शक्ति सिद्धि करने में अपना जीवन खपा दिया। विज्ञान सम्मत ढंग से जितना बन पड़ा, उसी परम्परा का निर्वाह हमने किया है।
बुद्ध परम्परा में चैत्यों, विहारों, संघारामों की स्थापना को प्रमुखता दी गई। परिव्राजकों को भाषाओं का ज्ञान कराने के लिए नालन्दा और संस्कृतियों का प्रशिक्षण देने के लिए तक्षशिला विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। इन आरण्यकों के माध्यम से कभी हजारों लाखों परिव्राजक प्रशिक्षित हुए थे और उनने सारे संसार का- सारे एशिया का बौद्धिक एवं सामाजिक परिवर्तन किया था, बुद्धिवाद की स्थापना की थी, अन्ध-विश्वासों और कुप्रचलनों को मिटाया था।
यही परम्परा आद्य शंकराचार्य ने छोटे रूप में चार मठ स्थापित करके नये रूप में प्रचलित की थी। चार तीर्थों को सम्प्रदायों और भाषाओं के नाम पर बिखरे हुए देश में एकात्मता उत्पन्न करने का सफल प्रयत्न किया था।
इस तीर्थ परम्परा से प्रज्ञा संस्थानों के निर्माण कार्य द्वारा नये सिरे से हाथ में लिया गया। 2400 निजी इमारतों वाले शक्तिपीठ और 7500 बिना इमारतों वाले प्रज्ञा संस्थान विनिर्मित किये गये। उनके माध्यम से जन-जागरण में संलग्न युग शिल्पी कार्यकर्ताओं की एक बहुत बड़ी सेना घर-घर अलख जगाने और युग चेतना का आलोक वितरण करने में संलग्न है।
हरिद्वार मथुरा के केन्द्र बहुमुखी प्रवृत्तियों को व्यापक बनाने में संलग्न हैं। अब शान्ति-कुँज में भाषा एवं धर्म विद्यालय की एक नई शृंखला इसी प्रयोजन के लिए जुड़ी है।
परिभ्रमण द्वारा जन-जागरण का तीर्थ परम्परा को ऐसी प्रचार टोलियों द्वारा गतिशील किया गया है जो साइकिलों, मोटर साइकिलों तथा जीप टोलियों द्वारा गाँव-गाँव पहुँचती और युग चेतना से जन-जन को अवगत अनुप्राणित करती हैं।
यह सब बुद्ध परम्परा ही है जिसमें आद्य शंकराचार्य की दिशोधारा भी सम्मिलित है। इसी का अनुगमन अपनी कार्य पद्धति में भी है। उन लोगों का बड़े किन्तु कम केन्द्रों द्वारा जो काम हुआ था, उससे अपनी कार्य पद्धति भी छोटी नहीं हैं। वह अधिक केन्द्रों में विरल होकर फैली हुई है। विदेशों में 74 केन्द्र काम कर रहे हैं।
कभी चरक ने वनौषधियों की खोज की थी। घास पात का साधारणतया कोई महत्व नहीं पर उनने उनमें रोग निवारण और आरोग्य वर्धन की क्षमताएँ देखीं। एक-एक करके खोजीं। समूचा आयुर्वेद शास्त्र रच दिया जिससे समस्त संसार ने लाभ उठाया। किन्तु समय का कुचक्र जो आया कि आज पंसारियों की दुकान पर कुछ की जगह कुछ वर्षों पुरानी सड़ी-गली वनौषधियाँ ही मिलती हैं। जो हैं वे सभी कीमती हैं। बनाने वाले कम मात्रा में डालते हैं। एलोपैथ इस पद्धति को इसलिए स्वीकार नहीं करते कि जड़ी-बूटी में क्या रसायन है और उनका किस रोग पर, किस प्रकार, क्यों व क्या प्रभाव पड़ता है, इसका कोई वैज्ञानिक उत्तर उपलब्ध नहीं है न उनकी वीर्य कालावधि के सम्बन्ध में कोई स्पष्टीकरण ही है। “एक्सपायरी डेट” नाम का कोई प्रचलन नहीं। इस सारी कमी की पूर्ति का निश्चय हुआ और जड़ी-बूटी उद्यान लगाने से उनका साँगोपाँग विश्लेषण करने पहचानने तक का काम हाथ में लिया गया। प्रसन्नता की बात है कि उसकी परिणति ऐसी सामने आई है कि उपभोक्ता आश्चर्यचकित रहने लगे हैं। कीमती इन्जेक्शनों को अपनी स्वच्छ-ताजी जड़ी-बूटियों पर निछावर करने लगे हैं। जड़ी-बूटी उद्यान देश भर में लगाने और उनका पुरातन उपयोग पुनः चल पड़ने का एक नया वातावरण बना है।
इस संदर्भ में तुलसी का बिरवा आंगन में स्थापित करने की परम्परा का पुनर्जीवन भी एक है। तुलसी को जड़ी-बूटियों में मूर्धन्य माना गया है। उनमें सभी के तार तत्व हैं। अनुपान भेद से ही किसी भी रोग में उसका उपयोग हो सकता है।
तुलसी की सात्विकता घर के वातावरण में धार्मिकता बढ़ाती है। इसलिए उसकी मान्यता देवता तुल्य है। आँगन में खुला देव मन्दिर बनाने की दृष्टि से तुलसी का बिरवा आँगन में रोपने की पुरातन प्रथा फिर जागृत की गई है। प्रातः सायं आरती, भजन, कीर्तन होने से- दीपक अगरबत्ती जलाने से- सस्ते देवालय की स्थापना का पुण्य प्रयोजन सहज ही पूरा हो जाता है। धुन चढ़ी तो देश भर के लाखों आँगनों में तुलसी के बिरवे रोपने का आन्दोलन चलाया और उसे सफल बनाया।
पुरातन काल में महर्षि पातंजली ने योग साधना के विज्ञान का आविष्कार एवं अभिवर्धन किया था। आसन प्राणायाम द्वारा शारीरिक रोग निवारण की आरोग्य अभिवर्धन की विधियाँ खोज निकाली गई थीं। ध्यान, धारणा, बेध, मुद्रा द्वारा मनोविकारों के शमन का उपाय खोजा गया था। ध्यानयोग, नादयोग, बिन्दुयोग द्वारा स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीरों को समर्थ बनाने के विज्ञान हस्तगत किया था। कभी इस देश के बाल, वृद्ध, नर-नारी, गृहस्थ सभी योगाभ्यास में अभ्यस्त थे और उस विज्ञान का समुचित लाभ उठाते थे। सभी व्यक्तित्व के धनी थे।
अन्धकार युग ने इस क्षेत्र पर भी पर्दा डाल दिया। योगा के नाम पर न जाने क्या अगड़म-बगड़म चल पड़ा उस जंजाल को हटाकर गहराई में उतरने का प्रयत्न किया गया। पुरातन को नवीनतम रूप में प्रस्तुत किया गया। हर व्यक्ति का समग्र शारीरिक, मानसिक पर्यवेक्षण करके तद्नुसार साधना बताने का उपक्रम अब मात्र शान्ति-कुँज में ही दृष्टिगोचर होता है। कल्प साधना सत्रों की परम्परा ऐसी है जिसका लाभ अगणित लोग उठा चुके हैं। सभी ने अनुभव किया है कि विज्ञान सम्मत योग साधना का उपक्रम और उसका समुचित लाभ प्राप्त करने का सुनियोजित कार्यक्रम जैसा यहाँ चल रहा है यदि वैसा ही अन्यत्र भी रहा होता तो योग विज्ञान की महत्ता प्रदर्शित करने वाले इस देश का स्थान कहीं से कहीं रहा होता।
महर्षि याज्ञवल्क्य ने यज्ञ विज्ञान का सांगोपांग रूप दिया था। महत्वपूर्ण पदार्थों की कारण शक्ति को दिव्य अग्नि के सहारे सूक्ष्मीकृत करके इसे असाधारण शक्ति के रूप में परिणित किया जा सकता है। ऐसी शक्ति के रूप में जो मनुष्य के सूक्ष्म काय-कणों में प्रवेश करके उनका काया-कल्प प्रस्तुत कर सके। अन्तरिक्ष में प्राण ऊर्जा का ऐसा उद्भव कर सके जो पर्जन्य बरसाये, समृद्धि तथा प्रगति का वातावरण बनाये एवं पर्यावरण सन्तुलन स्थापित करे।
पुरातन काल में यज्ञ को भारतीय संस्कृति का पिता माना जाता था। प्रत्येक शुभ कार्य उसी के साथ सम्पन्न होता था। पर अब तो वह एक कर्मकाण्ड मात्र रह गया है। उससे पण्डित पुरोहितों का धन्धा भर चलता है। आवश्यक समझा गया कि इस विद्या को पुनर्जीवन दिया जाय। आदि से अंत तक उसका साँगोपाँग आधार खड़ा किया जाय। तद्नुसार याज्ञवल्क्य परम्परा का पुनर्जीवन प्रस्तुत हो सका। इस संदर्भ में आधुनिकतम उपकरणों की सहायता से यह प्रस्तुत प्रतिपादित किया गया कि यज्ञ एक ऐसा विज्ञान है जिसकी सहायता से प्रदूषण, वातावरण, उत्पादन, परिशोधन आदि की कितनी ही महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं का नये सिरे से उत्कर्ष किया जा सकता है। इसे ऋषि परम्परा का अनुसरण, अन्वेषण अथवा अभिनय जीवन दान कहा जा सकता है।
ऋषि प्रणीत पुरातन विज्ञानों में एक है- “ज्योतिर्विज्ञान”। अन्तर्ग्रही प्रभावों से पृथ्वी के प्राणी और पदार्थ किस प्रकार प्रभावित होते हैं। उसमें से कितना अंश कब, किसके लिए, कितना लाभदायक, कितना हानिकारक होता है, उससे लाभान्वित होने तथा बचने का क्या तरीका है, यह एक समग्र विज्ञान है। भास्कराचार्य, आर्यभट्ट आदि ऋषियों ने इस विधा में प्रवीणता प्राप्त की थी। पीछे यह सब पण्डिताऊ गोरख धन्धे में चला गया। न गणित का ठिकाना रहा न विज्ञान का। आवश्यक यह भी समझा गया कि ज्योतिर्विज्ञान का सामयिक परिशोधन किया जाय। लगन के साथ जो कार्य पकड़ा गया उसे पूरा भी किया गया।
ऋषि परम्परा की टूटी कड़ियों में से कुछ को जोड़ने का उपरोक्त पंक्तियों में वह उल्लेख है जो पिछले दिनों अध्यात्म और विज्ञान की- ब्रह्मवर्चस् शोध साधना द्वारा सम्पन्न किया जाता रहा है। ऐसे प्रसंग एक नहीं अनेकों हैं, जिन पर पिछले साठ वर्षों से प्रयत्न चलता रहा है और यह सिद्ध किया जाता रहा है कि लगनशीलता, तत्परता यदि उच्चस्तरीय प्रयोजनों में संलग्न हो तो उसके परिणाम कितने महत्वपूर्ण हो सकते हैं।
सबसे बड़ा और प्रमुख काम अपने जीवन का एक ही है कि प्रस्तुत वातावरण को बदलने के लिए दृश्य और अदृश्य प्रयत्न किये जायें। इन दिनों आस्था संकट सघन है। लोग नीति और मर्यादा को तोड़ने पर बुरी तरह उतारू हैं। फलतः अनाचारों की अभिवृद्धि से अनेकानेक संकटों का माहौल बन गया है। न व्यक्ति सूखी है, न समाज में स्थिरता है। समस्याएँ, विपत्तियाँ, विभीषिकाएँ निरन्तर बढ़ती जा रही हैं। सुधार के प्रयत्न कहीं भी सफल नहीं हो रहे। स्थिर समाधान के लिए जनमानस का परिष्कार और सत्प्रवृत्ति संवर्धन यह दो ही उपाय हैं। यह प्रत्यक्ष, रचनात्मक, संगठनात्मक, सुधारात्मक उपयोग द्वारा भी चलने चाहिए और अदृश्य आध्यात्मिक उपचारों द्वारा भी। विगत जीवन में यही किया गया है। समूची सामर्थ्य को इसी में होमा गया है। परिणाम आश्चर्यजनक हुए हैं जो होने वाला है उसे अगले दिनों अप्रत्याशित कहा जाएगा।
एक शब्द में यह ब्राह्मण मनोभूमि द्वारा अपनाई गई सन्त परम्परा अपनाने में की गई तत्परता है। इस प्रकार के प्रयासों में निरत व्यक्ति अपना भी कल्याण करते हैं दूसरे अनेकानेकों का भी।