किस जगत से मुक्ति चाहूँ!

June 1984

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(माया वर्मा)

क्या उसी से? जिस जगत में प्यार का मधुपर्क चाखा। पी अमित श्रद्धा, कि जिसका मूल्य भी जाता न आँका॥

परिजनों के प्यार की सरि में नहाए डूबकर हम। वह सुखद अनुभूति? घावों पर लगा जब स्नेह मरहम॥

क्रीड़ माता की सुखद तज, क्यों अकेला बन कराहूँ ? किस जगत से मुक्ति चाहूँ!

क्या उसी से? जहाँ पर मधु स्वाद पर हित का लिया है। रिक्त गागर भर किसी की, तृप्ति का अमृत पिया है॥

पुण्य अर्जन का यही तप धाम, अपने शास्त्र कहते। देह पाने के लिये यह देवता तक नित तरसते॥

यह मिली मुझ को, न क्यों फिर भाग्य मैं अपना सराहूँ ? किस जगत से मुक्ति चाहूँ!

इस धरा पर ब्रह्मा ने भी तृप्ति के मधु क्षण बिताये। माँ यशोदा का मधुर वात्सल्य पाने कृष्ण आये॥

राधिका के आँसुओं की, स्वर्ग के सुख में न समता। यहाँ वन-वन घूमती है साथ में साकार ममता॥

शेष होंगे पुण्य जो बन मनुज इस भू पर बसा हूँ। इस जगत से मुक्ति चाहूँ ? किस जगत से मुक्ति चाहूँ!

*समाप्त*


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